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धर्म-साधना का आधार | १६१
ठंडा रहता है और आग गरम । जल का धर्म शीतलता है और अग्नि का धर्म उष्णता । इसी प्रकार मनुष्य का धर्म मनुष्यता है । यह मनुष्यता क्या है ? यह भी एक विचित्र समस्या है | मनुष्य के मनुष्यत्व की सीमा क्या है ? उसका अंकन करना सरल नहीं है । फिर भी धर्म की कुछ सोमा, कुछ परिभाषा साधारण जन के लिए आवश्यक - क-सी है । स्वार्थ और परार्थ में से यदि किसी एक का चुनाव करना हो, तो परार्थ का चुनाव कीजिए, क्योंकि परार्थ ही स्वार्थ से निर्मल है । किन्तु जैन दर्शन इससे भी ऊँची एक बात कहता है और वह है परमार्थ की । अपने सुख तक सीमित रहना स्वार्थ है, अपने साथी के सुख का ध्यान रखना परार्थ है और जगत के प्रत्येक प्राणी के कल्याण का ध्यान रखना परमार्थ है । क्योंकि सबके कल्याण में मेरा भी कल्याण है और मेरे साथी का भी कल्याण है ।
इसलिए मैं कहता हूँ कि जब तक मनुष्य अपने स्वभाव में स्थिर नहीं होगा, तब तक उसका जीवन कल्याणमय एवं स्वस्थ नहीं वन सकता और जब तक जीवन स्वस्थ न हो, तब तक धर्म की आराधना नहीं की जा सकती । मानव आत्मा का स्वभावस्थ होना, स्वस्थ होना ही धर्म है। याद रखिए शरीर ही मनुष्य नहीं है, वह कुछ और भी है । आप जो कुछ देखते हैं उससे सूक्ष्म और भिन्न भी एक जीवन है, जिसे आत्मा कहा जाता है । आत्मा जड़ नहीं चेतन है । शरीर बनता है और बिगड़ता है, किन्तु आत्मा न कभी बनता है और न कभी बिगड़ता है । इस संसार में एक नहीं, अनेक पंथ हैं, अनेक सम्प्रदाय हैं, सबकी अलग-अलग बाड़ाबन्दी है । सब एक स्वर से एक ही बात कहते हैं, कि हमारे पंथ में आओ, हमारे पंथ की सीमाओं में आने पर ही तुम्हें मुक्ति मिल सकती है । दावा सब पंथों का यही है प्रश्न है कि कौन झूठा है और कौन सच्चा है ? मेरे विचार में वह पंथ असत्य है, जो केवल तन की बात कहता है और तन से आगे बढ़कर मन की बात कहता है, परन्तु जो उससे भी आगे बढ़कर आत्मा की बात कहता है, वही सच्चा है। याद रखिए, धर्म कहीं बाहर नहीं है, वह तो हृदय-गुहा में रहता है । भीतर झांको तो वहाँ से प्रकाश की एक उज्ज्वल किरण प्राप्त होगी और यह किरण चेतन चेतन के भीतर है । आत्मा की आवाज सबके भीतर है । उसे सुनते चलो, और आगे बढ़ते चलो । अन्दर की आवाज को सुनने से ही बाहरी उलझन का
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