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सम्यक् दर्शन : सत्य-दृष्टि ! १४३ और क्यों हुआ ? संगम देव, देव होकर भी, अपरिमित भौतिक शक्ति का स्वामी होकर भी अध्यात्म साधक वर्धमान को साधना-पथ से विचलित क्यों नहीं कर सका? यह प्रश्न जब कभी मेरे मन और मस्तिष्क में उठ खड़े होते हैं, तब मैं समाधान पाने का प्रयत्न करता है, कि आखिर ऐसी कौन सी बात थी, जिससे कि एक देव, एक मानव से पराजित हो गया, पराजित ही नहीं हुआ, बल्कि, वह अपने कृत्यों से स्वयं लज्जित भी हुआ। मैं इसे अध्यात्म भाषा में अशुभ पर शुभ की विजय कहता हूँ। भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय कहता है । परन्तु मूल प्रश्न यह है कि किसी भी देव-शक्ति पर मानवशक्ति की विजय का अर्थ यह है, कि निश्चय ही भगवान में कोई ऐसा विशिष्ट गुण था, जो अपने आप में साधारण न होकर असाधारण था। वह गुण अन्य कुछ नहीं, वह गुण है समता का एवं समत्व योग का। समता एवं समत्व योग जीवन की एक ऐसी कला है, जिसके प्राप्त हो जाने पर, जीवन-विकास के समस्त भव्य द्वार खुल जाते हैं। वर्धमान के जीवन में इस समता-गुण का चरम विकास एवं चरम परिपाक हो चुका था। जिसके जीवन के कण-कण में समता गुण परिव्याप्त हो जाए, उसे एक देव तो क्या, हजार-हजार देव भो आकर स्वीकृत पथ से विचलित नहीं कर सकते। समता के महासागर में निमज्जन करने वाले साधकों के जीवन में किसी भी प्रकार का ताप, सताप और परिताप नहीं आ सकता। समताधारी साधक अपने ताप से द्रवित नहीं होता, किन्तु दूसरे के ताप से वह द्रवित हो जाता है। संगम का ताप, संताप और परिताप वर्धमान को उनकी अध्यात्मसाधना से विचलित नहीं कर सका। वे अपने परिताप से द्रवित नहीं हुए, अपितु संगम के अपने ही कर्मोदय-जन्य भावी दु-खों को विचारणा से द्रवित हो गए। उस क्षमा के अमर देवता के रोम-रोम से संगम के लिए क्षमा के स्वर मुखरित हो गए। विषमता हार गई और समता जीत गई। सम्यक दर्शन की अमर ज्योति के समक्ष भौतिक बल का अन्धकार कब तक और कैसे ठहर सकता है? इस घटना पर यदि आप गम्भीरता के साथ विचार करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि हर साधक वर्धमान है, यदि उसके हृदय में समता का अमृत भरा है तो।
और इस संसार का हर इन्सान संगम देव है, यदि उसके जीवन में विषमता और मिथ्यात्व का अंधकार है तो।।
जो आत्मा मिथ्या दृष्टि होता है, जिसे अपने आध्यात्मिक स्वरूप
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