________________
१३८ | अध्यात्म-प्रवचन करना ही सम्यक् दर्शन है, वह कहता है कि सूर्य और चन्द्रमा की सत्ता पर विश्वास करना ही सम्यक् दर्शन है, वह कहता है कि सरिता और सरोवरों का जैसा वर्णन किया गया है, उन्हें वैसा मानना ही सम्यक् दर्शन है। माना कि यह सब कुछ प्रकृति के बाह्य रूप की प्रतीति सम्यक् दर्शन का एक व्यावहारिक अंग तो हो सकता है, किन्तु निश्चय दृष्टि में समग्र एवं अखण्ड सम्यक् दर्शन नहीं हो सकता । मेरा अभिप्राय यह है कि सम्यक् दर्शन को मात्र व्यवहार की तुला पर तोलने वाले, सम्यक दर्शन के मूल्य का वास्तविक अकन नहीं कर सकते । सम्यक् दर्शन व्यवहार की वस्तु नहीं, निश्चय की वस्तु है । वस्तु स्थिति यह है कि सम्यक् दर्शन को किसी नदी, समुद्र, देवी, देवता, पर्वत, चाँद, सूर्य आदि की धारणा-विशेष के साथ बाँध देना, जैन-दर्शन की मूल प्रक्रिया से अलग हट जाना है। जैन-दर्शन का कथन है कि सबसे पहले आत्म-स्वरूप का बोध होना चाहिए। सबसे पहले अपने आपको समझने का प्रयत्न होना चाहिए। आत्म-सत्ता का सम्यक विश्वास और आत्म-सत्ता का सम्यक बोध ही वास्तविक एवं मौलिक सम्यक दर्शन है । पर्वत, नदी आदि का परिज्ञान न होने पर भी आत्मशुद्धि होने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती, परन्तु अपने को न समझने से सब कुछ गड़बड़ा जाता है । अपने को न समझने से सब कुछ जानकर भी, सब कुछ शून्य ही शून्य है। आत्मा के जानने पर सब कुछ जाना जा सकता है, और आत्मा को न जानकर एवं न समझकर समग्र भौतिक विश्व का ज्ञान भी व्यर्थ है । सम्यक दर्शन की साधना एक वह साधना है, जिसके द्वारा साधक अपने आपको समझने का सफल प्रयत्न करता है। मेरु पर्वत कैसा है, उसकी कितनी ऊँचाई है और उसकी कितनी गहराई हैइसकी अपेक्षा यह समझने का प्रयत्न करो, कि आत्मा क्या है, उसकी ऊँचाई कितनी है और उसकी गहराई कितनी है ? समुद्र की गहराई का परिज्ञान उस व्यक्ति को नहीं हो सकता, जो छलांग लगाकर उसे पार करने का प्रयत्न करता है । उसको अतल गहराई का परिज्ञान उसी को हो सकता है, जो कदम-कदम आगे रखकर उसमें प्रवेश करता जाता है। किसी भी पर्वत पर, किसी भी नदी पर, किसी भी सागर पर और किसी भी ग्रह एवं नक्षत्र पर विश्वास करने का अर्थ होता है-स्व से भिन्न जड़ वस्तु पर विश्वास करना। जड़ वस्तु पर विश्वास अनन्त-अनन्त काल से रहा है, किन्तु फिर भी सम्यक् दर्शन की उपलब्धि क्यों नहीं हुई ? स्पष्ट ही इसका फलितार्थ यही निक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org