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अध्यात्मवाद का आधार | १२७
उसने कहा - " जल की विशाल राशि को सागर कहा जाता है ।" कूप के मेंढक ने कहा - " तब क्या आपका सागर मेरे इस कूप से भी विशाल है ?"
समुद्र के मेंढक ने हँस कर कहा - " विशाल, निश्चय ही विशाल और बहुत विशाल ! मेरे प्यारे मित्र ! जिस प्रकार एक चींटी को हाथी से नहीं नापा जा सकता, जैसे एक रज-कण को महागिरि से नहीं तोला जा सकता, उसी प्रकार मेरे विशाल सागर के जल की और तुम्हारे इस क्षुद्र कुप के जल की तुलना नहीं की जा सकती । "
कूप के मेंढक को उसकी यह बात सुनकर क्रोध आ गया और वह क्रोधान्ध होकर बोला - "तुम झूठे हो, तुम्हारी सभी बात झूठ है । इस मेरे कूप से बढ़कर संसार में अन्य कोई विशाल जल - राशि नहीं हो सकती । मैं तेरी झूठी बात पर विश्वास नहीं कर सकता ।"
आप मेंढकों की इन बातों को सुनकर हँसते हैं और हँसी की बात भी है । परन्तु इस रूपक के मर्म को समझने का प्रयत्न कीजिए । आज का पंथवादी व्यक्ति उस कूप मंडूक से कम नासमझ नहीं है । अपने पंथ के क्षुद्र कूप में बन्द होकर उसने जो कुछ देखा सुना है, उसके बाहर के सत्य को मानने के लिए वह कभी तैयार नहीं हो सकता । पंथवादी एवं रूढ़िवादी व्यक्ति अखण्ड सत्य को अपनी दुर्बुद्धि से खण्डित कर डालता है । और जो खण्ड एवं टुकड़ा भाग्य योग से उनके हाथ पड़ गया, उसके अतिरिक्त अन्य खण्डों को वह कभी भी सत्य मानने के लिए तैयार नहीं हो सकता । पंथ के कूप में बन्द लोगों के समक्ष कदाचित साक्षात् भगवान भी आ जाए और दुर्भाग्यवश उस भगवान की वेशभूषा उसकी परिकल्पना से विपरीत हो, तो वह भगवान को मानने से भी इन्कार कर देगा । अपने परिकल्पित पोथी पन्नों के कूप में बन्द रहने वाले ये मेंढक अनन्त सत्य को नहीं समझ सकते, अनन्त सत्य को नहीं जन सकते । उन लोगों की स्थिति वही होती है, कि चले थे, अचल हिमाचल की चोटी पर चढ़ने के लिए, किन्तु अपनी बुद्धि के विपर्यास से पहुँच गये सागर के किनारे । इस संसार में हरि का भजन करने के लिए आने वाले भक्त, दुर्भाग्य से संसार की माया की कपास को ओटने लगे हैं। आए थे बन्धन से मुक्त होने के लिए, किन्तु और भी अधिक प्रगाढ़ बन्धन में बद्ध हो गए । आये थे आत्मा को स्वच्छ और पवित्र बनाने के लिए, किन्तु अपने अन्ध विश्वास के कारण आत्मा को पहले से भी अधिक अस्वच्छ और मलिन बना डाला । आये
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