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१३४ | अध्यात्म-प्रवचन तेरा और मेरा एक ही रूप है । तू अपनी अज्ञानता के कारण ही एक साधारण पामर प्राणी बना हुआ है।"
सिंह-शावक ने नदी के जल में जब अपना और सिंह का रूप देखा तो चकित हो गया। उसे अपने मूल स्वरूप का ज्ञान हुआ, तो अपने को भेड़ नहीं, सिंह समझ गया। अब जो सिंह-शावक ने गर्जना की तो वन प्रान्तर गूंज उठा।
तीर्थकर, गणधर और गुरु इस संसार की आसक्ति में आसक्त एवं विश्व के विविध भोगों में मुग्ध आत्मा को भी यही उद्बोधन देते हैं, कि तू अपने स्वरूप को भूल गया है। इसीलिए तू मरणशील न होकर भी अपने आपको मरणशील मानता है। तू दीन-हीन न होकर भी अपने आपको दीन-हीन मान रहा है। देख, बाहर की ओर देखना बन्द कर और जरा अपने अन्दर की ओर देख, अन्दर का पट खुलते ही तुझे दिव्य ज्ञान और अपनी अनन्त शक्ति का भान हो जाएगा। तू किसी प्रकार की चिन्ता मत कर, केवल अपने विवेक के दीपक को प्रज्वलित करने का प्रयत्न कर । यह. विवेक का दीपक क्या है ? सम्यक् दशन एवं सम्यक् श्रद्धान । भेद विज्ञान रूप इस दिव्य भाव को प्राप्त कर तू अजर-अमर परब्रह्म परमात्मा हो सकता है।
भगवान् की वाणी का एक मात्र उद्देश्य यही है, कि आत्मा को अपनी शक्ति की जो विस्मृति हो गई है, उसे दूर कर दिया जाए । सम्यक् दर्शन का उद्देश्य यही है, कि जो असत्य है, जिसकी मूलस्थिति नहीं है, या जिसका कोई वास्तविक स्वरूप ही नहीं है, परन्तु जिसे आत्मा ने अपने अज्ञान के कारण से सब कुछ समझ लिया है, उस भ्रम को दूर करना । जैन-दर्शन कहता है कि सम्यक दर्शन प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है, कि पहले कभी दर्शन नहीं था और अब वह नया उत्पन्न हो गया है । दर्शन को मूलतः उत्पन्न मानने का अर्थ यह होगा, कि एक दिन उसका विनाश भी हो सकता है। सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ किसी नए पदार्थ का जन्म नहीं है, बल्कि सम्यक दर्शन की उत्पत्ति का अर्थ इतना ही है कि वह विकृत से अविकृत हो गया है; वह पराभिमुख से स्वाभिमुख हो गया है, और वह मिथ्या से सम्यक् हो गया है। आत्मा का जो श्रद्धान गुण है, आत्मा का जो दर्शन गुण है, सम्यक और मिथ्या दोनों उसकी पर्याय हैं। मिथ्या दर्शन और सम्यक् दर्शन दोनों में दर्शन शब्द पड़ा हुआ है, जिसका अर्थ है कि दर्शन गुण कभी मिथ्या होता है, तो कभी सम्यक् भी हो
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