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सम्यग्दर्शन : सत्य-दृष्टि | १३३ अमरता पर विश्वास नहीं है और यदि विश्वास है तो फिर वह अभी तक उसे सुदृढ़ नहीं कर सका है । आत्मा की अमरता पर विश्वास हो जाने पर जब तक उसकी दिव्य उपलब्धि नहीं होती है, तब तक जीवनसंघर्ष मिट नहीं सकेंगे। आत्मा की अमरता का ज्ञान एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। परन्तु आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आत्मा की सत्ता का ज्ञान और उसको अनन्त शक्ति का भान, एक चीज नहीं, अलग-अलग चीजें हैं। आत्मा की अमर सत्ता की प्रतीति होने पर भी, जब तक उसकी अनन्त शक्ति का भान नहीं होता है एवं उसके प्रयोग की विधि का परिज्ञान नहीं है, तो शक्ति के रहते हुए भी वह कुछ कर नहीं सकता। तीर्थंकर, गुरु और शास्त्र और कुछ नहीं करते । वे इतना ही करते हैं कि विस्मृत आत्मा को वे उसकी अनन्त शक्ति का स्मरण करा देते हैं । जिस प्रकार ज्योतिहीन दीपक को एक बार ज्योति का स्पर्श कराने मात्र से वह स्वयं ज्योतित हो जाता है, उसी प्रकार देव, गुरु और शास्त्र इन्द्रियों के भोगों में आसक्त आत्मा का उसके आन्तरिक दिव्य भाव से स्पर्श मात्र कराने का प्रयत्न ही करते हैं । भक्ति की भाषा में इसी को प्रभु की कृपा, गुरु का अनुग्रह और शास्त्र का सहारा कहा जाता है ।
आपने भ्रान्त सिंह-शावक की वह कहानी सुनी होगी, जिसमें कहा गया है कि एक सिंह-शिशु किसी प्रकार भेड़ों में आकर मिल गया और उनके चिर सहवास से अपने आपको भी भेड़ समझने लगा। सौभाग्य से एक दिन जब उसे अपने ही सजातीय सिंह का दर्शन हुआ, और उसकी गर्जना सुनी, तो वह भी उसी प्रकार भयभीत होकर भागा, जिस प्रकार अन्य भेडें भयभीत होकर भागीं।
कहा जाता है, तब वन के राजा सिंह ने भेड़ बने सिंह-शिशू से कहा-“अरे नादान ! तू क्यों डरता है, तू क्यों भयभीत होता है ? तुझमें और मुझमें क्या भेद है ? मैं हूँ सो तू है और तू है सो मैं हूँ, फिर भला भय किस बात का ?"
सिंह-शिशु को सिंह की इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि उसे अपने स्वरूप का ज्ञान एवं अपनी शक्ति का भान ही नहीं था। बहुत विश्वास दिलाने पर भी जब सिंह-शिशु को विश्वास नहीं हुआ, तब कहानीकार का कहना है, कि सिंह ने उस सिंह-शिशु को ले जाकर एक नदी के तट पर खड़ा कर दिया और उसकी निर्मल जल-' धारा में उसे अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए कहा और बोला-"देख,
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