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१२४ | अध्यात्म प्रवचन
तत्वभूत पदार्थ पर विश्वास करो, तो उसमें से प्रश्न उठता है कि तत्वभूत किसे कहा जाए ? यदि तत्वभूत का यह अर्थ लिया जाए कि जिसकी जिस पर रुचि है, उसके लिए वही तत्वभूत है, तब तो बड़ी गड़बड़ी होगी । बच्चे को मिठाई पर श्रद्धा रहती है, धन-लोलुप को धन पर श्रद्धा रहती है, कामुक को कामिनी पर श्रद्धा रहती है, चोर को पद-धन पर श्रद्धा रहती है और भोगी को इन्द्रियों के विविध भोगों पर श्रद्धा रहती है । तो क्या इस सबको सम्यग् - दर्शन और श्रद्धा कहा जा सकता है ? निश्चय ही नहीं । तब किस पर विश्वास किया जाए, किस पर श्रद्धा की जाए ? इसके उत्तर में अध्यात्म-शास्त्र कहता हैसब कुछ को छोड़कर केवल एक पर ही विश्वास करो । और वह एक क्या है ? वह एक है आत्मा, चेतन और जीव । अनन्त काल से हमने 'पर' पर ही विश्वास किया है, 'स्व' पर हमारा विश्वास नहीं जम सका। अनन्त काल से हमने देह और देह के भोगों पर ही विश्वास किया हैं । कुछ आगे बढ़े तो अपने परिजन और परिवार पर विश्वास किया है । कुछ और आगे बढ़े तो समाज, राष्ट्र और विश्व पर विश्वास कर लिया । इस प्रकार का विश्वास एक बार नहीं, अनन्त - अनन्त बार किया गया है । विश्व, राष्ट्र, समाज, व्यक्ति और व्यक्ति के शरीर, इन्द्रिय एवं मन पर तो विश्वास किया, परन्तु इन सबके मूल केन्द्र आत्मा पर अभी तक श्रद्धा और विश्वास नहीं किया गया । याद रखिए- - आत्मा की सत्ता से ही इन सबको सत्ता है, आत्मा के अस्तित्व पर ही इन सबका अस्तित्व है । शिवरहित शरीर शव कहलाता है । शव की इन्द्रियाँ होते हुए भी वे अपना काम नहीं कर पातीं। शव को घर में नहीं रखा जाता, श्मशान में ले जाकर जला डाला जाता है । जब शरीर में शिव नहीं रहा, तो उस शव के लिए परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भी क्या उपयोग रहा ? इसीलिए मैं कहता हूँ, कि आत्मा के होने पर ही सब कुछ है । आत्मा के नहीं होने पर सब कुछ भी 'नहीं कुछ' है । अतः सबसे बड़ी श्रद्धा आत्मा की श्रद्धा है, सबसे बड़ा विश्वास आत्मा का विश्वास है । आत्मा की सत्ता का बोध होने पर ही और आत्मा की प्रीति होने पर ही, आस्रव को छोड़ा जाता है तथा संवर एवं निर्जरा की साधना की जाती हैं । यदि आत्मा पर विश्वास नहीं जमा, तो बाहर में संवर और निर्जरा के साधनों से से भी हमारी आत्मा में क्या सुधार होगा ? मेरे विचार में यथार्थ श्रद्धा एवं यथार्थ विश्वास वही है, जिसमें आत्मा की स्वच्छता, पवि
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