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अध्यात्मवाद का आधार | ११७
को छोड़कर विदेश आया था, वह पूर्ण हो गया । वह अपने घर आया, जहाँ उसने विश्रान्ति और शान्ति का अनुभव किया । एक दिन वह विचार करने लगा कि मैंने बहुत सा धन कमाया है, अब उसका उपभोग भी करना चाहिए । उसका उपभोग कैसे किया जाए ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उसके मन और मस्तिष्क में विविध प्रकार के विकल्प उठने लगे | उसने विचार किया, मुझे एक भव्य प्रासाद बन - वाना चाहिए। क्योंकि मुझे अब जीवन पर्यन्त यहीं पर रहना है । सुन्दर वस्त्र और रम्य आभरण भी मेरे पास होने चाहिए। मेरा - खान-पान और रहन-सहन भी सुन्दर रुचिकर और मधुर होना चाहिए । धन और भोग विलास के व्यामोह में वह अपने आपको अजर अमर समझने लगा. मृत्यु को भूल गया । उसे यह पता नहीं रहा कि उसका आयुष्य कब पूर्ण हो जाएगा, और वह यहाँ से न जाने कब कहाँ चला जायगा ? यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि जो संसार में आया है, वह एक दिन संसार से विदा भी अवश्य होगा । खेद है कि फिर भी वह मोह विमुग्ध आत्मा अपने परभव और परलोक का ज्ञान नही कर पाता । अध्यात्म-शास्त्र कहता है, यदि तुमने अपने इस वर्तमान जीवन में, इस वर्तमान भव के अभाव का निर्णय नहीं किया, तो यह जीवन किस काम का ? विपुल द्रव्य भी प्राप्त कर लिया और कदाचित् स्वर्गोपम सुख भी प्राप्त कर लिया, तो भी किस काम का ? जब तक अवतार का, जन्म का और भव का अन्त नहीं किया जाता है, तब तक भौतिक दृष्टि से सब कुछ प्राप्त करके भी इस आत्मा ने कुछ भी प्राप्त नहीं किया । यह मत समझो कि इस संसार में हम अजर-अमर होकर आये हैं, बल्कि यह समझो कि हम एक दिन आए हैं और एक दिन अवश्य ही यहाँ से विदा होंगे ।
अपने को सम्पन्न और सुखी बनाने का आत्मा ने अनन्त बार पुरुषार्थ और प्रयत्न किया होगा, परन्तु यह निश्चय रूप से कहा जा सकता है, कि यदि आत्मा एक बार भी यथार्थ पुरुषार्थ कर लेता, तो फिर उसे अन्य पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता । और वह 'यथार्थ पुरुषार्थ है - भव के अन्त का जन्म एवं मरण की परम्परा के अन्त का । विचार कीजीए - दूध या दही को बिलोकर उसमें से मक्खन निकाला, उसे तपाया और जब एक बार घी बना लिया, तब फिर उस घी का मक्खन नहीं बन सकता । इसी भाँति एक बार आत्मा के समग्र विकार और आवरण का विनाश किया, कि फिर संसार में आना नहीं होता ।
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