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अध्यात्मवाद का आधार | ११५ अपने विशुद्ध स्वरूप को समझने के लिए निश्चय दृष्टि की आवश्यकता है। मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ, कि व्यवहार को छोड़ना एक बड़ी भूल हो सकती है, परन्तु मेरा विश्वास है, कि निश्चय को छोड़ना उससे भी कहीं अधिक भयंकर भूल है। अनन्त जन्मों में अनन्त बार हमने व्यवहार को तो पकड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु निश्चय दृष्टि को पकड़ने का और समझने का प्रयत्न अनन्त बार में से एक भी नहीं किया । यही कारण है, कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि हमें नहीं हो सकी । और यह तब तक प्राप्त नहीं हो सकेगी, जब तक कि हम आत्मा के विभाव के द्वार को पार करके उसके स्वभाव के भव्य द्वार में प्रवेश नहीं कर लेंगे।
पाप आत्मा को अच्छा नहीं लगता, क्योंकि उसका परिणाम दुःख एवं क्लेश है । पुण्य आत्मा को अच्छा लगता है, क्योंकि उसका परिणाम सुख एवं समृद्धि है । इस दृष्टि से संसारी आत्मा पाप को छोड़ता है और पुण्य को पकड़ता है। किन्तु विवेकशील ज्ञानी आत्मा विचार करता है, कि जिस प्रकार पाप बन्धन है, उसी प्रकार पुण्य भी एक प्रकार का बन्धन ही है । यह सत्य है कि पूण्य हमारे जीवन-विकास में उपयोगी है, सहायक है। यह सब कुछ होते हुए भी यह निश्चित है। कि वह उपादेय नहीं है, बल्कि अन्ततः हेय ही है । उसे अवश्य छोड़ना है, आज नहीं तो कल । और जिस वस्तु को छोड़ना है, वह अपनी कैसे हो सकती है ? पुण्य और पाप दोनों आस्रव हैं । अन्तर इतना ही है कि एक अशुभ है, दूसरा शुभ है। आस्रव आखिर आस्रव ही है, वह आत्मा का विकार है, वह आत्मा का विभाव है, आत्मा का वह स्वभाव नहीं है। और जो स्वभाव नहीं है, अवश्य ही वह विभाव है।
और जो विभाव है वह एक दिन आया था, एक दिन चला भी जाएगा। इसके विपरीत जो स्वभाव है, वह न कभी आया था और न कभी जाएगा। जो अपना है वह जा नहीं सकता, और जो पराया है वह कभी ठहर नहीं सकता। यही भेद-विज्ञान है, यही विवेक-दृष्टि है और यही निश्चय दृष्टि है।
निश्चय-दष्टि सम्पन्न आत्मा विचार करता है, कि यह शरीर मेरा नहीं है, यह इन्द्रियाँ मेरी नहीं हैं और शरीर एवं इन्द्रियों के भोग भी मेरे नहीं हैं। यह सब जड़ हैं और मैं इनसे भिन्न चेतन हैं । मैं पर से भिन्न हूँ, मेरे स्वस्वरूप में काल और कर्म बाधक नहीं हो सकते। क्योंकि कर्म जड़ है, अतः वह 'स्व' से भिन्न 'पर' है। आत्मा सदा
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