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१०६ / अध्यात्म प्रवचन की स्पष्ट विचारणा पहिले हो जानी चाहिए । ऐसा न हो कि साधना प्रारम्भ कर दी गई और साध्य का पता ही न हो । जहाँ जाना है अथवा जहाँ पहुँचना है, वहाँ का स्पष्ट चित्र साधना-पथ पर कदम बढ़ाने से पहले हो जाना चाहिए-साधक के मानस-पटल पर अंकित, खचित और लिखित ।।
दर्शन-शास्त्र में साध्य और साधन का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है । यदि मनुष्य के समक्ष कोई साध्य या लक्ष्य नहीं है, तो उसकी साधना का कुछ भी प्रतिफल न होगा। मेरे जीवन की दौड़ धूप किस मार्ग पर हो रही है, मैं उस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कितना और कैसा प्रयत्न कर रहा हूँ, तथा उस पथ पर आगे बढ़कर मुझे क्या कुछ मिल सकता है, इतना स्पष्ट विचार यदि साधक के मन में नहीं है, तो उसकी साधना का फल उसे कुछ मिलेगा नहीं। जीवन में गति एवं प्रगति का महत्त्व अवश्य है, किन्तु उससे पूर्व यह जान लेना भी परमावश्यक है, कि हमारी गति किस दिशा की ओर हो रही है तथा हमारी गति का आधार क्या है ? अध्यात्म-साधक के लिए गति के आधार का अर्थ है-पथ का निश्चय करना और अध्यात्म-साधना की यात्रा में जिन उपकरणों की आवश्यकता है, उनका अवलम्बन लेना । प्रारम्भिक स्थिति में जब तक कि साधक की साधना सिद्धत्व रूप में परिपक्व नहीं होती है, उसे अवलम्बन एवं साधन की आवश्यकता रहती ही है। कुछ साधक इस प्रकार के हैं, जो साधन को तो पकड़ लेते हैं, किन्तु साध्य को नहीं पकड़ पाते। दूसरे प्रकार के साधक वे हैं, जो साध्य को तो पकड़ लेते हैं, किन्तु साधन के सम्बन्ध में वे कुछ भी ध्यान नहीं देते। उक्त दोनों प्रकार के साधकों के लिए सिद्धि का भव्य द्वार बहुत दूर रहता है। जैन दर्शन का कथन है कि साध्य और साधन में साधक को सन्तुलन रखना चाहिए। परन्तु यह स्पष्ट है कि साधक के जीवन में साध्य के निश्चय का बहुत अधिक महत्त्व रहता है। साध्य-निश्चय की प्रधानता रहनी भी चाहिये, क्योंकि हमारी साधना का मुख्य आधार साध्य एवं लक्ष्य ही है ।
कल्पना कीजिए, यदि कोई व्यक्ति अपने किसी मित्र के लिए आठदस पेज का एक लम्बा पत्र लिखता है। पत्र बड़े सुन्दर कागज पर लिखा गया, सुन्दर अक्षरों में लिखा गया और चमकदार स्याही से लिखा गया, फिर उसे एक बहुत ही सुन्दर लिफाफे के अन्दर बन्द कर दिया गया, इतना सब कुछ करने पर भी यदि उस लिफाफे पर, जिस
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