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११० । अध्यात्म-प्रवचन उसके अर्थहीन जड़ क्रियाकाण्डों पर विश्वास किया। हमने सोचा और समझा कि सम्प्रदाय और पंथ के अर्थ-हीन क्रिया-काण्डों से ही हमें मुक्ति की उपलब्धि हो सकेगी। किन्तु यह हो नहीं सका और भविष्य में भी हो नहीं सकेगा। इससे कुछ और आगे बढ़े तो हमने अपने तन पर विश्वास किया । अपनी इन्द्रियों पर विश्वास किया और अपने मन पर विश्वास किया; इन्हीं को समझने का हमने प्रयत्न किया और इनकी वृत्तियों के अनुसार ही हमने अपना आचरण भी बनाया। हम अपने तन के कारागार में फंसकर उसमें इतने उलझे, कि तन की सत्ता से ऊपर किसी भी दिव्य सत्ता में हमारी आस्था जम नहीं सकी। अहंता और ममता के भयंकर बन्धनों में हम इतने जकड़ गए, कि अपने विशुद्ध अजर, अमर, अविनाशी और अजन्मा आत्म-तत्व पर न हमारी आस्था रही, न हमारी विचारणा रही और न हमारी कृति ही स्वस्वरूपानुकूल बन सकी। जो आस्था, जो निष्ठा और जो श्रद्धा अपने ऊपर होनी चाहिए थी, वह अपने से भिन्न पर के ऊपर बनी रही। यही हमारे पतन का सबसे बड़ा कारण है। जब तक साधक तन, मन और इन्द्रिय के भोगों से ऊपर उठकर अपने विशुद्ध स्वरूप को समझने का प्रयत्न नहीं करेगा, तब तक मोक्ष और मुक्ति की अध्यात्म-साधना सफल नहीं हो सकेगी। सिर के दर्द को दूर करने के लिए, पेट के दर्द को दूर करने की दवा लेने से कोई लाभ नहीं हो सकता । आत्मा के विकार और विकल्पों को दूर करने के लिए बाह्य पुद्गलों का संग्रह उपयोगी नहीं है । उसके लिए आवश्यक है-आत्मविश्वास, आत्म-विचार और आत्म-स्वरूपानुकूल आचरण । विश्वास, विचार और आचार-ये तीनों मिल कर ही मोक्ष के साधन बन सकते हैं। कल्पना कीजिए, कोई व्यक्ति अपने पर तो विश्वास नहीं करता किन्तु दूसरे पर विश्वास करता है, वह अपने को तो नहीं समझता, किन्तु दूसरे को समझने की मगज पच्ची करता रहता है, वह अपने को तो नहीं सुधारता, किन्तु दूसरों को सुधारने के लिए रात और दिन उपदेश देता फिरता है। इस प्रकार के प्रयत्न से क्या होने जाने वाला है ? इसीलिए मैं कहता हूँ, कि अपने पर विश्वास करो, अपने को समझो और अपने आपका सुधार करो । यही है, मुक्ति का साधन और यही है मोक्ष का अंग । आत्म-श्रद्धा, आत्म-ज्ञान और स्वस्वरूप में रमणता, यही मोक्ष का मार्ग है।
भारत के कुछ तत्त्व-चिन्तक मोक्ष और उसके साधनों के सम्बन्ध
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