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साधना का लक्ष्य | ९७ नहीं होता, तो मैं इस साधना के पथ पर आता ही क्यों ? अविश्वास के अन्धकार से घिरे मार्ग पर चलना मुझे पसन्द नहीं है।"
हमारे अन्दर सब कुछ होने पर भी, हम दरिद्रता का अनुभव क्यों करें? यदि हम अपनी साधना में दरिद्र एवं कंगाल बन कर आगे बढ़ रहे हैं, तो वास्तव में हम कुछ प्राप्त नहीं कर सकेंगे। यह भी क्या मजाक है, कि साधना की राह पर आगे भी बढ़ते रहें और उस पर विश्वास भी न करें। यह तो यात्रा नहीं, एक प्रकार से भटकना ही है । भटकना साधक का काम नहीं होता । साधक अपनी साधना के पथ पर दृढ़ता के साथ आगे बढ़ता है, फिर मोक्ष क्यों नहीं मिलेगा, फिर केवल ज्ञान क्यों नहीं मिलेगा, और फिर स्वस्वरूप की उपलब्धि क्यों नहीं होगी ? सिद्धान्त यह है कि जिस चीज का संकल्प मन में जागृत हो जाता है, वह चीज कभी न कभी अवश्य ही प्राप्त हो जाती है। मनुष्य के संकल्प में अपार शक्ति है, अपार पराक्रम है और अपार बल है । जिस किसी भी वस्तु को आप प्राप्त करना चाहते हैं, पहले उसका शुद्ध संकल्प कीजिए, फिर उसे प्राप्त करने का अध्यवसाय कीजिए और निरन्तर प्रबल प्रयत्न कीजिए, फिर देखिए कि अभीष्ट वस्तु कैसे प्राप्त नहीं होती है ? हमारी साधना की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है, जिसके मधुर फल को हम प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए संकल्प नहीं करते, उसके लिए अध्यवसाय नहीं करते और उसके लिए प्रयत्न नहीं करते । फिर वस्तू मिले तो कैसे मिले ? साधक सामायिक करता है, पोषध करता है एवं प्रतिक्रमण करता है, परन्तु सब अधूरे मन से करता है। साधना में हृदय के रस को नहीं उँडेलता । किसी भी साधना में जब तक हृदय के रस को नहीं उँडेला जाएगा, तब तक कुछ भी होने जाना वाला नहीं है। जीवन में सफ लता प्राप्त करने के लिए ही मंत्र को आवश्यकता है-उठो, जागो और बढ़ो । जो उठ खड़ा हुआ है, जाग उठा है और जो आगे बढ़ रहा है, सिद्धि उसी का वरण करती है। ___मैं आपसे अविपाक निर्जरा की बात कह रहा था। अविपाक निर्जरा ही मोक्ष एवं मुक्ति का अचूक साधन है। जब तक अविपाक निर्जरा करने की क्षमता और योग्यता प्राप्त नहीं होती है, तब तक मोक्ष दूर ही है । मोक्ष को साधना के लिए आप अन्य कुछ करें या न करें, किन्तु अविपाक निर्जरा की साधना, उसके लिए परमावश्यक है। अविपाक निर्जरा क्या हैं, यह मैं आपको बतला चुका है। सविपाक
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