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१०२ / अध्यात्म-प्रवचन
तुझे किसी और ने बाँधा नहीं है, तू स्वयं ही बैंधा है, तो एक दिन तू स्वयं ही मुक्त भी हो सकता है । यह विश्वास ही मुक्ति का सबसे बड़ा कारण है । यदि कोई आत्मा मोह-जन्य अहंकार करता है, तो यह एक पाप है । इससे नवीन कर्म का बन्ध होता है । किन्तु यदि कोई आत्मा आत्म-हीनता की भावना रखता है एवं आत्म दैन्य की परिकल्पना करता है, तो यह भी एक पाप है । इससे भी नवीन कर्म का बन्ध होता है। अपने आपको हीन एवं दीन समझना संसार का सबसे भयंकर पाप है । युगों के युग व्यतीत हो जाने पर भी आत्मा आत्म-हीनता के पाप से छुटकारा प्राप्त नहीं कर सका है। अतः अध्यात्म साधना के पथ पर अपना कदम बढ़ा कर कभी भी अपने आपको हीन एवं दीन मत समझो। अपने को अनन्त चित् ज्योतिर्मय आत्मा समझो । अपने को आत्मा ही नहीं, अपितु शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार परमात्मा समझो। श्रद्धा के अनुसार ही जीवन का निर्माण होता है । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धि भवत्ति तादृशी।' __ इस सम्बन्ध में मुझे एक रूपक स्मृत हो आया है। एक राजा की राज सभा में एक विद्वान आया। राज-सभा में पहले भी विद्वानों एवं पण्डितों की कमी नहीं थी। एक से एक बढ़ कर विद्वान उस सभा के अन्दर थे । किन्तु नवागन्तुक पण्डित ने राज-सभा में आकर यह प्रश्न पूछा कि "आत्मा कभी मुक्त हो सकता है कि नहीं ? यदि नहीं हो सकता, तो क्यों और यदि हो सकता है, तो कैसे ?
राजा की सभा के सभी पण्डित चकरा गए। कुछ देर मौन रहने के बाद राज' सभा के प्रधान पण्डित ने कहा-कि "आत्मा कभी मुक्त नहीं हो सकता।"
इस बात को सुनकर नवागन्तुक विद्वान न कहा कि-"यह आत्म हीनता की भावना हो आपको मुक्त नहीं होने देती है । आपने यह कैसे समझ लिया और विश्वास कर लिया कि मैं मुक्त नहीं हो सकता । यदि आपके मन में गुलामी का यह विश्वास है, कि मैं कभी मुक्त नहीं हो सकता तो फिर जीवन में जप, तप आदि पवित्र क्रियाओं के करने का अर्थ ही क्या रहेगा ?" ___ आत्मा और उसकी मुक्ति के सम्बन्ध में यह तर्क और वितर्क बहुत दिनों तक चलता रहा, परन्तु किसो की समझ में नहीं आया कि कर्मबद्ध आत्मा कर्म मुक्त कैसे हो सकता है ?"
एक दिन अध्यात्मवादी उस नवागन्तुक पण्डित ने अपनी एक
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