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६४ | अध्यात्म-प्रवचन
चक्रवती के साथ गज पर बैठकर पुत्र से मिलने के लिए गई । मार्ग में चलते हुए मन आन्दोलित था और उसमें अनेक प्रकार के संकल्प और विकल्प के बुलबुले उठ रहे थे । माता मरुदेवी ने सोचा, क्या इतने वर्षों से ऋषभ के मन में यह भावना नहीं जगी, कि मैं स्वयं चलकर माता से मिलूं । कभी वह यह सोचती कि आज मेरे जीवन का कितना मंगलमय दिवस है, कि में वर्षों बाद अपने पुत्र ऋषभ से मिलूंंगी । आगे बढ़ने पर उसने देखा कि गगन - मण्डल से देवताओं के विमान नीचे धरती पर उतर रहे हैं तथा देव और देवी प्रमोद भाव में मग्न होकर देव दुन्दुभि बजा रहे हैं । विनीता नगरी के हजारों नर-नारी, बाल, वृद्ध और तरुण सभी प्रसन्न चित्त से उसी दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं, जिधर मेरा ऋषभ ठहरा हुआ है। पूछने पर भरत ने इस प्रसंग पर कहा - "माताजी, आपका पुत्र साधारण व्यक्ति नहीं है, वह त्रिलोकपूजित है । अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन का दिव्य आलोक उन्हें प्राप्त हो चुका है । अपने जीवन की अध्यात्म साधना के चरमफलस्वरूप वीतराग भाव को उन्होंने अधिगत कर लिया है । आपके पुत्र के केवल महोत्सव को मनाने के लिए ही आज यहाँ पर स्वर्ग के देव तथा धरती के मनुष्य परस्पर मिलकर भगवान ऋषभ की महिमा एवं गरिमा के प्रशस्ति गीतों के गान की मधुर स्वर-लहरी में संलग्न हैं ।" मरुदेवी माता ने इस पर सोचा कि "जब देव और मनुष्य उसकी पूजा करते हैं, तब भला वह मुझे क्यों याद करने लगा ? इधर मैं हूँ कि ममता की लहरों में डूबी जा रही हूँ ।" वीतराग, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, मोक्ष और धर्म - यह सब मरुदेवी माता नहीं जानती थी । उसे यह भी पता नहीं था, कि देव क्या है, गुरु क्या है, धर्म क्या है, और शास्त्र क्या है ? जब उक्त बातों का उसे पता ही नहीं था, तब वह किसकी आज्ञा को स्वीकार करती और किसकी आज्ञा को मानती ? आज्ञा में धर्म है, इस सिद्धान्त का उसके लिए कोई उपयोग न था । तीर्थ स्थापित होने के बाद ही आज्ञा में धर्म है, इस सिद्धान्त का जन्म होता है । अभी तक तीर्थ की स्थापना नहीं हो पाई थी, फिर भी मरुदेवी माता को गज पर बैठे-बैठे हो केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य प्रकाश मिल गया । क्यों मिला और कैसे मिला, इसके उत्तर में यही कहा गया है, कि जब उसकी आत्मपरिणति ममता से समता में बदल गई, जब उसका उपयोग मोह से विवेक में बदल गया और जब
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