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७० | अध्यात्म-प्रवचन
गुरु कहता है-"वत्स ! साधना के क्षेत्र में, जल्दी ही सीमा का अंकन करना भयंकर भूल है । साधना के पथ पर बढ़ते चलो, और तब तक बढते चलो, जब तक कि लक्ष्य-सिद्धि का दिव्य प्रकाश तुम्हें उपलब्ध न हो जाए । देखो, मेरी एक ही बात को याद रक्खो, सूत्र को रटते रहो, उसका गम्भीरता से चिन्तन-मनन करते रहो और तदनुसार निरन्तर साधना करते रहो । हृदय के कण-कण में यह आस्था बैठ जानी चाहिए कि सिद्धि अवश्य मिलेगी, साधना कभी निरर्थक नहीं होती । यदि इस जीवन में सिद्धि नहीं मिली, तो अगले जीवन में मिलेगी, यदि अगले जीवन में भी नहीं मिली, तो उससे अगले जीवन में मिलेगी। कभी न कभी मिलेगी, अवश्य मिलेगी। कारण है, तो कार्य क्यों नहीं । साधक का एक ही कर्तव्य है कि साधना के मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ता रहे । साधना के क्षेत्र में काल का कोई अर्थ नहीं, सीमा का कोई प्रश्न नहीं। केवल एक ही बात का अर्थ है, और वह यह है कि अपनी साधना में कभी सन्देह मत करो, अपनी साधना के फल में कभी संशय मत करो। साधना की रगड़ से अवश्य ही उस दिव्य सिद्धि की उपलब्धि होगी, जिसे पाकर तुम शाश्वत एवं अजरअमर बन जाओगे । शक्ति शास्त्र के जड़ शब्दों एवं अक्षरों में नहीं होती, मनुष्य के अन्तर्मन्थन में होती है, मनुष्य के विचार में होती है और मनुष्य के हृदय की ज्ञान मूलक आस्था में होती है । आस्था और तर्क, श्रद्धा और चिन्तन एक दिन अवश्य शास्त्र की प्रसुप्त शक्ति की अभिव्यक्ति कर देते हैं। जब मन की चिन्तन-क्रिया अन्तर्जगत में निरन्तर चलती है, तब दूरस्थ सिद्धि भी निकटस्थ हो जाती है। विशुद्ध भावना की रगड़ लगने पर यदि एक बार भी ज्योति जल उठती है, तो अनन्त-अनन्त काल के लिए वह जलती ही रहती है। यह बात अलग है कि कुछ दुर्बल साधकों को बार-बार रगड़ लगानी पड़ती है और कुछ समर्थ साधकों को तो एक बार में ही यथावश्यक तीव्र रगड़ लग जाती है। रात्रि के घोर अन्धकार में जब काले बादलों में बिजली चमकती है, तब उसके क्षणिक प्रकाश से सहसा गगन-मण्डल भर जाता है। क्षण भर के लिए अन्धकारमयी सृष्टि प्रकाशमयी हो जाती है । परन्तु वह प्रकाश स्थायी नहीं रहता। इसी प्रकार साधक के जीवन में भी अनेक बार सिद्धि के क्षणिक प्रकाश प्रकट होते हैं, किन्तु वे स्थायी नहीं रहने पाते। हमारी अध्यात्म-साधना का यही
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