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८२ | अध्यात्म-प्रवचन है, और फिर प्रकाश आता है तो ये दोनों ही बातें गलत हैं। जहाँ प्रकाश है, वहाँ आतप रहता ही है और जहाँ आतप रहता है, वहाँ प्रकाश भी अवश्य रहता ही है। दोनों का अस्तित्व एक समय में एवं युगपत् रहता है । इस दृष्टि से सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान में किसी प्रकार का एकान्त क्रम-भाव या पूर्वापर भाव मानना उचित नहीं है । जिस क्षण दर्शन, सम्यग्-दर्शन में परिणत होता है उसी क्षण, एक क्षण का भी अन्तर नहीं, ज्ञान सम्यग् ज्ञान में परिणत हो जाता है। प्रत्येक अध्यात्म शास्त्र में सम्यग दर्शन का महत्व इस आधार पर माना गया हैं, कि उसके होने पर ही ज्ञान, सम्यग ज्ञान बनता है और उसके होने पर ही चारित्र, सम्यक् चारित्र बनता है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है, कि जैन-दर्शन दृष्टि को महत्व देता है, जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसके लिए सृष्टि भी वैसी ही बन जाती है । जैन-दर्शन यह कहता है, कि सत्य को सत्य के रूप में परख लो, यही सबसे बड़ा साध्य है और साधक जीवन का यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, विशुद्ध दृष्टि के अभाव में जप, तप और स्वाध्याय सब व्यर्थ रहता है। दृष्टि-विहीन आत्मा कितना भी कठोर एवं घोर तप क्यों न करे, किन्तु उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसके विपरीत दृष्टि-सम्पन्न आत्मा का अल्प तप एवं अल्प जप भी महान फल प्रदान करता है । साधक-जीवन में दृष्टि की, विशुद्ध दृष्टि की अपार महिमा है और अपार गरिमा है ।
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