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६० | अध्यात्म-प्रवचन
बन्धन और मुक्ति दोनों सापेक्ष शब्द हैं । बन्धन है, इसीलिए मुक्ति की उपयोगिता है । परन्तु साधक के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता है कि बन्धन से मुक्ति कैसे मिले ? इन स्वर्ग और नरक आदि के बन्धनों को कैसे तोड़ा जाए ? बन्धन है, यह सत्य है । इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता । परन्तु जी बन्धन आया है उसे दूर करने की समस्या ही मुख्य समस्या है । यह निश्चय है कि जो आया है, वह दूर भी किया जा सकता है । जो कर्म बँधा हैं, उसे क्षय भी किया जा सकता है । किन्तु बद्ध कर्म को क्षय करने की समस्या उन्हीं तत्त्व चिन्तकों के समक्ष प्रस्तुत होती है, जो स्वर्ग और नरक से आगे बढ़कर अपवर्ग, मोक्ष, मुक्ति एवं आत्मा के निर्वाण में विश्वास रखते हैं । जिन लोगों ने अपवर्ग मोक्ष की सत्ता को स्वीकार नहीं किया, उन विचारकों के समक्ष बन्धन मुक्त होने का सवाल ही कभी पैदा नहीं होता । उन्होंने आत्मा के जन्म एवं मरण का एक ऐसा चक्र स्वीकार कर लिया है, जिसे कभी तोड़ा नहीं जा सकता, जिसे कभी मिटाया नहीं जा सकता । मैं आपके समक्ष उस अध्यात्मवादी दर्शन की चर्चा कर रहा हैं, जो आत्मा की परम्परागत बद्ध दशा को भी स्वीकार करता है और उतनी ही तीव्रता के साथ आत्मा की मुक्त दशा को भी स्वीकार करता है । केवल स्वीकार ही नहीं करता, आत्मा के बन्धन को काटने के लिए प्रयत्न करने में भी विश्वास रखता है ।
आत्मा के बन्धन कैसे दूर हों ? उक्त समस्या के समाधान के लिए अध्यात्मवादी दशन ने दो मार्ग बतलाए हैं- भोग और निर्जरा । भोग और निर्जरा के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय बन्धन से मुक्त होने का नहीं है । इस विषय की लम्बी व्याख्या करने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है, कि भोग क्या है और निर्जरा क्या है ? अध्यात्मवादी साधक कर्म से विमुक्त होने के लिए भोग और निर्जरा के दो उपायों में से किस उपाय को ग्रहण करे और अपनी साधना में किस प्रकार उसे लागू करे ?
अध्यात्मवादी दर्शन में भोग का अर्थ, वह स्थिति- विशेष है, जिसमें बद्ध आत्मा अपने पूर्व संचित कर्मों का सुख एवं दुःख आदि के रूप में फल भोग करता है । यह निश्चित है किसी भी पूर्व संचित का फलभोग शुभ एवं अशुभ रूप में ही हो सकता है । अपने पुण्य-पाप रूप कृत कर्मों के फल का वेदन करना ही भोग है ।
निर्जरा का अर्थ है, पूर्वबद्ध कर्मों की वह स्थिति विशेष, जिसमें
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