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८८ | अध्यात्म-प्रवचन
पोषा, वह बन्धन खुलते ही आपसे दूर हो गया। इसका अर्थ यही है कि पक्षी को भी बन्धन पसन्द नहीं है। बन्धन की स्थिति में भौतिक सुख साधन कितने भी क्यों न मिलें, परन्तु मन में एक भावना बनी रहती है, कि मैं बन्धनबद्ध हूँ। यह बन्धन-बद्धता ही संसार का सबसे बड़ा क्लेश एवं दुःख है। जब आप किसी पक्षी को पकड़ कर पहली बार पिंजरे में डालते हैं, तब आपने देखा होगा कि पिंजरे के अन्दर मेवा और मिष्टान्न होते हुए भी वह पक्षी उस पिंजरे के अन्दर छटपटाता रहता है, पख फड़फड़ाता रहता है और इधर-उधर चोंच मारता रहता है। आप इसका क्या अर्थ समझते हैं ? इसका अर्थ इतना ही है कि भौतिक भोग की उपलब्धि होने पर भी वह अपने को पराधीन मानता है । अपने आपको बन्धन-बद्ध मानता है । बन्धनमुक्त स्थिति में स्वतन्त्र रहकर भूख-प्यास सहन करना वह अच्छा समझता है, पर बन्धन की दशा में स्वर्ण-पिंजरे में रहकर भी वह अपने आपको विपन्न और दुःखी समझता है । जब पशु-पक्षी की अल्प चैतन्य आत्मा भी बन्धन को स्वीकार नहीं कर सकती, तब अधिक विकसित चेतनाशील मन-मस्तिष्क वाले मानव आत्मा को बन्धन कैसे रुचिकर हो सकता है ? काम, क्रोध और राग-द्वष आदि विकार और विकल्प, ज्ञानी और अज्ञानी दोनों के मन में रह सकते हैं, भले ही विचार करने का दृष्टिकोण विभिन्न हो, पर दोनों ही यह विचार करते हैं, कि बन्धन कैसा ही क्यों न हो, वह कभी हितकर एवं सूखकर नहीं हो सकता । किसी आत्मा का कितना भी पतन क्यों न हो गया हो, वह कितना भी पापाचार में क्यों न फंस गया हो, किन्तु बन्धन से मुक्त होने की एक सहज अभिलाषा वहाँ पर भी व्यक्त होती है। संसार में जितना भी दुःख एवं क्लेश है, वह सब बन्धन का ही है। अध्यात्मशास्त्र यह कहता है, कि केवल नरक में जाना ही बन्धन नहीं है, स्वर्ग में जाना भी एक प्रकार का बन्धन ही है। किसी अपराधी के पैरों में लोहे की बेड़ी डाल दी जाए, अथवा किसी के पैरों में सोने की बेड़ी डाल दी जाए-दोनों में विवेकदृष्टि से अन्तर भी क्या है ? बन्धन दोनों जगह है दोनों अवस्थाओं में ही आत्मा की स्वतन्त्रता नहीं रह पाती । सोने की बेड़ी वाला यदि यह अहंकार करता है, कि मैं लोहे की बेड़ी वाले से अधिक सुखी हैं, क्योंकि मेरे पैरों में सोने की बेड़ी पड़ी हुई है, तो यह सोचना और समझना उसकी कोरी मूढ़ता हो है। इसी प्रकार नरक में जाना यह भी बन्धन है और स्वर्ग में
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