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८६ | अध्यात्म-प्रवचन
की कोई ताकत तुम्हारा उत्थान नहीं कर सकती, तुम्हें विकास के मार्ग पर नहीं ले जा सकती ।
मैं आपसे स्पष्ट कहता हूँ कि यदि विश्व का कोई भी विचारक आपसे यह कहता है, तुम दीन हो और अनन्त भविष्य में भी दीन ही रहोगे, तुम हीन हो और अनन्त भविष्य में भी हीन ही रहोगे, तुम पतित हो और अनन्त भविष्य में भी तुम पतित ही रहोगे, तो आप उसकी इन बातों को मानने से स्पष्ट इन्कार कर दें । जो दर्शन आपके उत्थान ओर विकास के लिए, आपको यथोचित आशा और विश्वास नहीं दिला सकता, आपके उत्थान के लिए आपको उत्तेजित एवं प्रेरित नहीं कर सकता, आपको भव बन्धन से मुक्त होने के लिए कोई मुखर सन्देश नहीं दे सकता, तो निश्चय ही उसकी कमजोर बात को स्वीकार करने से आपको कोई लाभ नहीं हो सकेगा, उसके प्राणहीन विचारों को ग्रहण करने से आपका अभीष्ट उत्थान नहीं हो सकेगा ।
मैं आपसे आत्मा के लक्ष्य एवं ध्येय की बात कह रहा था । मानव जीवन के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि इस अनन्त संसार में आत्मा का ध्येय और लक्ष्य क्या है ? क्या आत्मा सदा संसार को सुख दुःख की अँधेरी गलियों में भटकने वाला ही रहेगा ? क्या यह आत्मा काम, क्रोध, मोह आदि विकारों से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा ? क्या आत्मा इस अनन्त संसार-सागर में डूबता उतराता ही रहेगा, कभी सदा के लिए पार नहीं हो सकेगा ? जिधर हम देखते हैं उधर संसार में दुःख एवं क्लेश ही दृष्टि गोचर होते हैं । क्या संसार में कहीं सुख, शान्ति एवं आनन्द भी है ? इस प्रकार अनेक प्रश्न अध्यात्म - साधकों के मानस में उठा करते हैं । कुछ विचारक ऐसे रहे हैं जिनका यह विश्वास था कि आत्मा अपने अशुभ कर्म से नरक में जाता है और अपने शुभ कर्म से स्वर्ग में जाता है, कभी स्वर्ग लोक में और कभी नरक लोक में, कभी मर्त्य लोक में और कभी पशु-पक्षी की योनि में और कभी कीट पतंगों की योनि में यह आत्मा अपने पुण्य और पाप की हानि वृद्धि के कारण जन्म-मरण करता रहता है । इस प्रकार संसार में आत्मा के परिभ्रमण के स्थान कुछ तत्व चिन्तकों ने माने अवश्य हैं, परन्तु उन्होंने कभी भी अपवर्ग, मोक्ष एवं मुक्ति की परिभावना नहीं की । पाप और पुण्य से परे सर्वथा शुद्ध आत्म स्वरूप के आदर्श का विचार नहीं कर सके। जैन दर्शन का आदर्श उक्त विचारकों
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