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साधना का लक्ष्य | ८५
यह सत्य है कि हम संसार में हैं और संसार के बन्धनों से बद्ध हैं । भव के विविध भाव हमारे अन्दर उत्पन्न होते हैं और विलीन भी होते हैं । परन्तु यह सब क्यों हैं ? इस तथ्य को समझने के लिए हम अपने व्यस्त जीवन में से क्या कभी कुछ क्षण निकाल सके हैं । यह सत्य है कि ऐसा नहीं किया गया। हम दुःखी हैं, जीवन-यात्रा में कदम-कदम पर एवं क्षण-क्षण में दुःख की अनुभूति हमें होती है । परन्तु यह दुःख कहाँ से आया ? क्यों आया ? यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में कभी विचार नहीं किया गया । क्रोध आने पर हम शान्त नहीं रह सके, अभिमान आने पर हम विनम्र नही रह सके, कुटिलता एवं वक्रता के आने पर हम सरल नहीं बन सके, लोभ के आने पर हम सन्तोष को धारण नहीं कर सके । यह सत्य है कि अनुकूल पदार्थ पर हमने राग किया और प्रतिकूल पदार्थ पर हमने द्वष किया। राग और द्वष के तूफाही झंझावातों से हम अपने अध्यात्म-भाव की रक्षा नहीं कर सके, यह सत्य है । ___ मैं आपसे अध्यात्म-जीवन की बात कह रहा था और यह बता रहा था कि अभिलाषा करने पर भी हमारे जीवन में भौतिकता के विरोध में अध्यात्म भाव क्यों नहीं पनपता? इसका कारण एक ही है-साधक के अपने जीवन की लक्ष्य-हीनता एवं ध्येय-हीनता । भारत के कुछ विचारक और तत्त्वचिन्तक, भारत के ही नहीं, बल्कि समग्र विश्व के तत्त्वचिन्तक इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन चाहे कितना ही अपवित्र क्यों न बन गया हो, किन्तु उसे पवित्र बनाया जा सकता है। जीवन अन्धकार से कितना भी क्यों न घिर गया हो, उसे प्रकाशमान बनाया जा सकता है । साधक अपने लक्ष्य से कितना ही क्यों न भटक गया हो, किन्तु उसे फिर अपने लक्ष्य पर लाया जा सकता है । इसी आशा और विश्वास के आधार पर अध्यात्मशास्त्र टिका हुआ है । संसार-सागर की तूफानी लहरों में फंस कर भी साधक अपने अध्यात्म-भाव के बल पर उस संकट से बच सकता है । परन्तु उसके अन्दर अपने प्रति और अपनी अध्यात्म-शक्ति के प्रति विश्वास जागृत होना चाहिए। जैन-दर्शन इस तथ्य का जय-घोष करता हैं कि तुम क्षुद्र होकर भी विराट बन सकते हो, तुम पतित होकर भी पवित्र बन सकते हो, तुम हीन होकर भी महान बन सकते हो। अपने में विश्वास करना सीखो । यदि अपने में विश्वास नहीं है, तो दुनिया
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