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८० | अध्यात्म-प्रवचन
दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र भी मोक्ष का अंग माना जाएगा। क्योंकि दर्शन का दर्शनत्व, ज्ञान का ज्ञानत्व और चारित्र का चारित्रत्व वहाँ पर भी रहता ही है। परन्तु अध्यात्म-दर्शन में मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र को मोक्ष का अंग न मानकर, संसार का ही अंग माना गया है। इसके विपरीत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को ही मोक्ष के अंगत्वेन मान्यता दी है । दर्शन- ज्ञान और चारित्र आत्मा के निज गुण होने पर भी मिथ्यात्व दशा में वे आत्मलक्षी न होकर परलक्षी बने रहते हैं । उक्त गुणों का आत्मलक्षी होना ही सम्यक्त्व है और परलक्षी होना ही मिथ्यात्व है। मोक्ष की साधना में दर्शन का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना परमावश्यक है। मोक्ष की साधना में ज्ञान का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना भी आवश्यक है । मोक्ष की साधना में चारित्र का रहना ही आवश्यक नहीं है, बल्कि उसका आत्मलक्षी होना भी आवश्यक है। आत्मा में दर्शन तो रहा, परन्तु वह स्व की ओर न रहकर पर की ओर रहा और आत्मलक्षी के बदले परलक्षी रहा । परन्तु यही दृष्टि जब स्वलक्षी हो जाती है, तब उसे सम्यक् दर्शन कहते हैं। आत्मा में ज्ञान तो अनन्त काल से रहा, परन्तु उसने स्व को नहीं जामा, इसीलिए वह मिथ्या रहा । और जब ज्ञान स्व को समझ लेता है तब वह सम्यक् बन जाता है । आत्मा में चारित्र तो रहा, किन्तु वह स्व में रमण नहीं कर सका, पर में रमण करता रहा, इसीलिए सम्यक् नहीं हो सका और जब तक सम्यक नहीं हो सका, तब तक वह मोक्ष का अंग भी नहीं बन सका । अध्यात्म-शास्त्र कहता है, कि आत्म-लक्षी परिणति के अभाव में दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिथ्या बने रहे, वे सम्यक नहीं बन सके। __दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व सम्यक् शब्द लगाने से सारी स्थिति ही बदल जाती है। इसका अभिप्राय यही है, कि दर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्ष के अंग नहीं, बल्कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्ष के अंग हैं। सम्यक् शब्द का अर्थ व्याकरण-शास्त्र के अनुसार प्रशस्त, संगत और विशुद्ध होता है । सम्यक् शब्द इस अभिप्राय को प्रतिपादित करता है, कि जब तक उक्त गुण प्रशस्त एवं विशुद्ध नहीं होंगे, तब तक वे मोक्ष के अंग नहीं बन सकते।
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