________________
अध्यात्म साधना | ७६ और हिंसा, सत्य और असत्य दोनों ही चारित्र हैं । एक सम्यक् है और दूसरा असम्यक् । क्रिया का सीधा होना, सम्यक् चारित्र है और क्रिया का उल्टा होना मिथ्या चारित्र है । शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ में निवृत्ति को चारित्र कहते हैं । चारित्र, आचार एवं क्रिया भले ही वह सम्यक् हो या मिथ्या, जब कभी होगी जीव में ही होगी, अजीव में नहीं । इसी आधार पर चारित्र को आत्मा का गुण माना गया है । मिथ्या चारित्र का अर्थ है - पर में रमण और सम्यक् चारित्र का अर्थ है - स्व में रमण । जिस आत्मा में सम्यक् चारित्र होता है, उस आत्मा की गति = प्रवृत्ति मोक्षाभिमुखी होती है और जिस आत्मा में मिथ्या चारित्र होता है, उस आत्मा की गति = प्रवृत्ति संसाराभिमुखी रहती है । चारित्र की साधना का एकमात्र लक्ष्य है, आत्मा के स्वस्वरूप की उपलब्धि । इस स्वस्वरूप की उपलब्धि वीतराग भाव से ही हो सकता है। वीतराग भाव का अर्थ है - वह संयम, जिसमें साधक इतनी ऊँचाई पर पहुँच जाता है, कि उसके जीवन में किसी के प्रति भी राग एवं द्वेष नहीं रहता । इसके विपरीत सराग संयम का अर्थ है - वह संयम जिसमें राग और द्वेष अल्प मात्रा में बना रहता है । परन्तु जितने अंश में राग है, वह चारित्र नहीं है । सराग संयम में जितना वीतराग भाव है, उतना ही चारित्र है । सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान के साथ सम्यक् चारित्र की परिपूर्णता को ही जैन दर्शन में मोक्ष एवं मुक्ति कहा गया है। दर्शन की पूर्णता चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सप्तम गुण स्थान तक अवश्य हो जाती है। ज्ञान की पूर्णता त्रयोदश गुण स्थान में हो जाती है । किन्तु चारित्र की परिपूर्णता तेरहवें गुण स्थान के अन्त में चौदहवें गुणस्थान में होती है । इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और चारित्र की परिपूर्णता को ही मोक्ष कहा गया है । आत्म-गुणों के पूर्ण विकास का नाम ही जब मोक्ष है, तब वह मोक्ष कहीं बाहर में न रहकर साधक के अन्दर में ही रहता है ।
I
मैं
मैं आपके समक्ष दर्शन, ज्ञान और चारित्र की चर्चा कर रहा था । यह लाने का प्रयत्न कर रहा था, कि उक्त तीनों के पूर्व सम्यक् पद लगाने का क्या महत्व है ? दर्शन, ज्ञान और चारित्र से पूर्व जब सम्यक् शब्द जोड़ दिया जाता है, तव उनमें क्या विशेषता आ जाती है ? यदि केवल दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को ही मोक्ष का अंग मान लिया जाए, और उनसे पूर्व सम्यक् शब्द न जोड़ा जाए, तो मिथ्या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org