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७८ | अध्यात्म-प्रवचन
पड़ता है । अनन्त आत्माओं के साझेदारी का यह शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है, कि चर्म चक्षु से उसे देखा नहीं जा सकता । उसे विशिष्ट ज्ञानी ही देख सकते हैं । परन्तु चेतना की इस हीन एवं क्षीण अवस्था में भी उसके पास उसका दर्शन-गुण रहा है, उस समय भी उसके पास प्रतीति, रुचि और विश्वास रहा है । परन्तु वह विश्वास स्वाभिमुख न रहकर पराभिमुख रहा । आत्मा में न रहकर शरीर
में
रहा | जब तक यह विश्वास, यह आस्था और यह श्रद्धा शरीर में रहती है अथवा शरीर से सम्बन्ध भौतिक भोग-साधनों में रहती है, तब तक अध्यात्म-शास्त्र उसे सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् आस्था एवं सम्यक् दर्शन न कह कर मिथ्या दर्शन कहता है ।
ज्ञान भी आत्मा का निज गुण है और वह आज से नहीं, अनन्तअनन्त काल से इस आत्मा में रहा है और इस आत्मा में ही रहेगा । संसार का एक भी प्राणी, ऐसा नहीं है, जिसमें ज्ञान न हो । उपयोग आत्मा में अवश्य रहता है, क्योंकि ज्ञान-रूप उपयोग आत्मा का एक बोधरूप व्यापार है । किन्तु उस ज्ञान रूप उपयोग की धारा आत्मा में न रहकर जब तक शरीर में प्रवाहित होती है, शरीर से सम्बद्ध भौतिक भोग-साधनों में प्रवाहित होती है, तब तक वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं कहलाता । ज्ञान की धारा तो रही, किन्तु वह सम्यक् न होकर मिथ्या रही । यह नहीं कहा जा सकता, कि आत्मा का ज्ञान कभी नष्ट हो गया । यदि ज्ञान नष्ट हो गया होता, तो न नवीन कर्म का बन्ध होता और न पुराने कर्मों का भोग ही होता । ज्ञान की उपस्थिति में ही नवीन कर्मों का बन्ध एवं पुराने कर्मों का भोग एवं क्षय होता है । कर्म और कर्मफल, चेतना के ही परिणाम हैं। इसका अर्थ यही है, कि आत्मा कभी ज्ञान-हीन नहीं हुआ और न कभी ज्ञान-हीन हो ही सकेगा । क्योंकि ज्ञान आत्मा का निज गुण है, ज्ञान आत्मा का निज स्वरूप है, भले ही चेतना की हीन अवस्था में वह ज्ञान सुरूप न होकर कुरूप रहा हो, सम्यक् न होकर मिथ्या रहा हो । परन्तु चैतन्य में ज्ञान की सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता । जहाँ चैतन्य है वहाँ ज्ञान अवश्य रहेगा ।
चारित्र का अर्थ है - आचार एवं क्रिया । आचार एवं क्रिया का अस्तित्व जीव में किसी-न-किसी प्रकार रहता ही है । कभी ऐसा नहीं हो सकता कि चारित्र आत्मा को छोड़कर अन्यत्र रहता हो । अहिंसा
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