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७४ | अध्यात्म-प्रवचन
की आवश्यकता है और न गुरु के डंडे की ही आवश्यकता है। प्रेरणा पाकर बलात् साधना के मार्ग पर बढ़ने वाले साधक कभी-कभी गड़बड़ा जाते हैं, परन्तु अपनी स्वतः प्रेरणा से साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने वाले साधक, अपने जीवन-पथ पर कभी लड़खड़ाते नहीं हैं । यदि कभी लड़खड़ाते भी हैं, तो जल्दी ही सँभलकर पुनः पथारूढ़ हो जाते हैं ।
किसी भी जीवन को हीन एवं पतित मत समझो । न जाने कब और किस समय उसके अन्दर से महत्ता और पवित्रता का स्रोत फूट पड़े । कभी-कभी जीवन में यह देखा जाता है, कि जो लड़के या लड़कियाँ कायर और बुजदिल जैसे लगते हैं, वे समय पर बड़े ही वीर और योद्धा बन जाते हैं । जो कंजूस व्यक्ति अपने लोभ और लालच के कारण समाज की आलोचना का सदा पात्र बना रहता है, उसके प्रसुप्त मानस में से कभी उदारता का उदात्त भाव फूट पड़ता है। वह लोभी न रहकर दान-वीर बन जाता है । यह भी देखा जाता है, कि जो व्यक्ति भोजनासक्त रहता है, एवं भोजन भट्ट होता है, जिसने कभी अपने जीवन में एक उपवास भी नहीं किया, उसके अन्दर से कभी वह प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है, जिसके बल पर वह एक उपवास तो क्या, अठाई जैसा बड़ा तप भी बड़ी आसानी के साथ कर लेता है । यहाँ पर आप देखेंगे, उसके मन पर न तो शास्त्र का हथौड़ा ही मारा गया और न गुरु के वचन रूप डंडों को चोट ही पड़ी। बिना किसी बाहरी प्रेरणा के उसने स्वयं अपनी इच्छा से वह कार्य कर दिखाया, जिसे लोग उसके जीवन में असम्भव समझते थे है, कि बाहर की प्रेरणा से कोई कब तक चलेगा ? बाहर के कागजी प्रस्ताव किसी भी नियम और सिद्धान्त को जन-जीवन पर लागू नहीं कर सकते, जब तक जन-मानस उसे अन्दर से स्वीकार न कर ले । व्यक्ति जब कभी अपने अन्तर्मानस में किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेता है, तब उसे बाहर के किसी कागजी प्रस्ताव की आवश्यकता भी नहीं रहती । जो प्रस्ताव इन्सान के दिल पर लिखा जाता है, इन्सान के जीवन का निर्माण उसी से होता है । कागज के प्रस्तावों से कभी जीवन का निर्माण नहीं हो सकता । जब कभी साधक के शान्त एवं प्रसन्न मानस में जागृति की लहर उठती है, तब उसकी अन्तरात्मा में दिव्य प्रकाश जगमगाने लगता है । राजा प्रदेशी की क्रूरता का वर्णन आप सुन चुके हैं। कितना भयंकर, कितना निर्दय और कितना निर्मम
बात असल में यह
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