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६२ | अध्यात्म-प्रवचन
उसका उससे सम्बन्ध-विच्छेद ही हो जाए, इसलिए श्रद्धा की आवश्यकता है। श्रद्धाशील व्यक्ति श्रद्धा एवं भक्ति के प्रवाह में हर किसी व्यक्ति की बात को, अपनी तर्क-बुद्धि का प्रयोग किए बिना स्वीकार कर इधर-उधर लुढ़क न जाए, इसलिए तर्क की आवश्यकता है । जैन दर्शन का कथन है, कि जो कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए जाएँ उनकी पहले परीक्षा करो । परीक्षा करने पर यदि वे आपके जीवन के लिए उपयोगी प्रतीत होते हों, तो उन्हें स्वीकार करो। किसी भी ग्रंथ, किसी भी महापुरुष और किसी भी गुरु के कथन को इस आधार पर कभी भी स्वीकार मत करो कि वे हमारी परम्परा के हैं, हमारे पूर्वज उन्हें मानते रहे हैं, पूजते रहे हैं और उनके आदेशों का आँख बन्द कर पालन करते रहे हैं । पूर्वजों ने जो कुछ किया है वह सब कुछ हमें भी करना ही चाहिए, भले ही आज के जीवन और जगत में उसकी कोई उपयोगिता न रही हो । यह एक प्रकार का रूढ़िवाद है, यह एक प्रकार की अन्ध परम्परा है और यह एक प्रकार की बुजुर्वा मनोवृत्ति है । यह माना कि पुरातनवाद में का सब कुछ त्याज्य नहीं होता, उसमें बहुत कुछ ग्राह्य भी होता है । परीक्षा - प्रधान साधक इस सत्य एवं तथ्य पर गम्भीरता के साथ विचार करता है । जहाँ पर जितना ग्राह्य होता है, वहाँ पर वह उतना ग्रहण करने के लिए सदा तैयार रहता है । परीक्षा - प्रधान साधक उस उपदेश और उस आदेश को कभी मानने के लिए तैयार नहीं होता, जिसका उपयोग आज के जीवन और जगत में निरर्थक हो चुका है । विचार करने के लिए जब मनुष्य के पास बुद्धि है, तर्क शक्ति है तथा सोचने और समझने का तरीका उसे आता है, तब वह क्यों अन्ध श्रद्धा और रूढ़िवाद के चंगुल में फँसेगा । इसके विपरीत आज्ञा-प्रधान साधक वह है, जो अपनी बुद्धि का उपयोग एवं प्रयोग न करके जो कुछ और जैसा कुछ उसकी परम्परा के शास्त्र, गुरु और महापुरुष ने कहा है, उसे ज्यों का त्यों ग्रहण कर लेता है । यह एक प्रकार की विचार- जड़ता है, भले ही इस विचार - जड़ता से उसकी कितनी ही बड़ी हानि क्यों न होती हो, आज्ञा-प्रधान साधक उस सबको चुपके-चुपके सहन कर लेता है । अपनी बुद्धि के प्रकाश एवं आलोक का उसके जीवन में कोई उपयोग नहीं होता । आज्ञा - प्रधान साधक अपनी परम्परा के धर्म-ग्रंथ और गुरु के कथन को आँख मूँद कर स्वीकार करता चलता है। शास्त्र क्या कहता है और क्यों कहता है ? इस प्रश्न पर विचार करने के
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