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विवेक दृष्टि | ६१
और क्यों है ? क्या आपने कभी जीवन के इस सत्य को समझने का प्रयत्न किया है ? यह सब कुछ विवेक दृष्टि का खेल है, यह सब कुछ विशुद्ध बुद्धि की महिमा है और यह सब कुछ सम्यक् ज्ञान की गरिमा है ।
कल्पना कीजिए, एक यात्री किसी भयंकर सघन वन में से यात्रा कर रहा है । आगे चलकर वह मार्ग भूल जाता है और इधर-उधर भटकने लगता है । संयोगवश उसे एक मार्गज्ञ व्यक्ति मिल गया, उसने बहुत अच्छी तरह समझाकर गन्तव्य पथ की सही दिशा बतला दी । फिर भी यदि वह भटकने वाला विचारमूढ़ यात्री उस मार्ग को पकड़ न सके और उस पर आगे न बढ़ सके, तथा आगे बढ़कर भी अपने लक्ष्य पर न पहुँच सके, तो मार्ग बताने वाले का इसमें क्या दोष है ? वीतराग एवं सद्गुरु की अमृतवाणी ने हमें जीवन की सच्ची राह बताई, परन्तु अपने अज्ञान और अविवेक के कारण यदि हम उस पर न चल सकें तो इसमें न मार्ग का दोष है और न सही मार्ग बताने वाले का हो कोई दोष है । दोष है केवल व्यक्ति के अपने अज्ञान का और अपने अविवेक का । जैन दर्शन कहता है कि सच्चा साधक विवेकशील होता है और उसके लिए दिशा-दर्शन का संकेत ही पर्याप्त होता है । साधक उस पशु के तुल्य नहीं है, जिसे मार्ग पर लाने के लिए अथवा सही मार्ग पर चलाने के लिए बार-बार ताड़ना करनी पड़े । साधक की आत्मा उज्ज्वल और पवित्र होती है, अतः उसके • लिए शास्त्र और गुरु का संकेत मात्र ही पर्याप्त है । मार्ग पर कब, कैसे और किधर से चलना, इसका निर्णय साधक की बुद्धि, साधक का विवेक और साधक का ज्ञान यथा प्रसंग स्वयं कर लेता है ।
जैन-दर्शन के अनुसार साधक दो प्रकार के होते हैं - परीक्षा प्रधान और आज्ञा - प्रधान । इसका अर्थ यह हुआ कि जीवन विकास के लिए तर्क और श्रद्धा दोनों की आवश्यकता है। तर्क जीवन को प्रखर बनाता है और श्रद्धा जीवन को सरस बनाती है। तर्क में श्रद्धा का समन्वय और श्रद्धा में तर्क का समन्वय जैन दर्शन को अभीष्ट रहा है। तर्क करना, इसलिए आवश्यक है, कि साधना के नाम पर किसी प्रकार का अन्धविश्वास हमारे जीवन में प्रवेश न कर जाए । श्रद्धा, इसलिए आवश्यक है कि जीवन का कोई सुदृढ़ आधार एवं केन्द्र अवश्य होना चाहिए । तर्कशील व्यक्ति तर्क-वितर्क की ऊँची उड़ान में इतना ऊँचा न उड़ जाए, कि जिस धरती पर वह आवास करता है,
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