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४२ | अध्यात्म-प्रवचन गया पानी आपके सुदूर देश के खेतों में कैसे पहुँच जाएगा? यहां की गंगा का जल आपके देश के खेतों को हरा-भरा कैसे कर देगा? आपके देश के खेतों के लिए तो आपके देश का जल ही काम आ सकता है । आप यहाँ इतनी दूर बैठे, इस प्रकार गंगा-जल अपने देश के खेतों में कैसे पहुंचा सकते हैं।"
सन्त स्वर में माधुर्य भरते हुए बोले-“जब आपका किया हुआ जलदान इस मृत्युलोक से सूर्यलोक में पहुँच सकता है और वहाँ स्थित अतृप्त सूर्यदेव परितृप्त हो सकता है, अथवा सूर्य के माध्यम से पितृलोक में पितरों को जल मिल सकता है; तब मेरा यह जल-दान मेरे देश के खेतों में क्यों नहीं पहुंच सकता? मेरा देश तो आपके सूर्यलोक एवं पितृलोक से बहुत निकट है । मैं समझता हूँ जब यहाँ का जलदान एक लोक से दूसरे लोक में पहुंच सकता है अथवा पहुँचाया जा सकता है, तब इसी धरती का जल इसी धरती के दूसरे देश में क्यों नहीं पहुँच सकता अथवा क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता ?"
सन्त का तर्क बड़ा ही प्रखर एवं जोरदार था। सब सकपका कर रह गए। किसी से कोई उत्तर नहीं बन सका। सब सन्त के मुख की ओर देखने लगे। सबने देखा कि सन्त के मुख मण्डल पर और उसके सतेज नेत्रों में ज्ञान की आभा चमक रही है।
सबको मौन देखकर सन्त ने गम्भीरता के साथ कहा-"मेरी बात आप लोगों की समझ में आई या नहीं ? मनुष्य जो भी कर्म अपनाए, पहले उसे बुद्धि और विवेक से छान लेना चाहिए ?"
एक वयोवृद्ध पण्डे ने कहा-"महाराज, आपकी बात समझ में तो आती है। परन्तु हमारे पास शास्त्र का आधार है। जब कि आपके पास वह आधार नहीं है। शास्त्र एवं पुराणों में सूर्य को जलदान का विधान किया गया है, इसलिए हम लोग हजारों पीढी से इस कार्य को कर रहे हैं। भला, शास्त्र की बात से कौन इन्कार कर सकता है ? शास्त्रों के प्राचीन विधान से इन्कार कैसे किया जा सकता है।"
सन्त ने गम्भीर होकर कहा-“शास्त्र जो कुछ कहता है, वह जरा थोड़ी देर के लिए अलग रख दीजिए। मैं आपसे केवल यही पूछता हूँ कि इस विषय में आपकी अपनी बुद्धि क्या कहती है और वह क्या निर्णय करती है ? क्या आपकी बुद्धि में यह सब कुछ तक संगत है ? सबसे बड़ा शास्त्र तो आपकी बुद्धि का है । पहले यह देखो और सोचो, कि इस विषय में तुम्हारी बुद्धि का क्या निर्णय है ? शास्त्र के नाम
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