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४० | अध्यात्म-प्रवचन
eft से जब मोक्ष को आत्मा का शुद्ध स्वरूप मान लिया गया है, तब वह शुद्ध स्वरूप अपने स्वरूपी से अलग एवं पृथक् कैसे हो सकता है, और भिन्न किया भी कैसे जा सकता है ? आप एक बात ध्यान में रक्खें, कि जब कोई अनुभवी सन्त अथवा शास्त्र सिद्ध-लोक, सिद्धशिला और सिद्ध-धाम का वर्णन अथवा कथन करता है, तब वह यह बताता है, कि व्यवहार दृष्टि से यह सब कुछ आत्म रूप द्रव्य का ही स्थान - विशेष है । मोक्ष का स्थान- विशेष नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो उसका निज स्वरूप ही है और जो स्वरूप होता है, वह कभी अपने स्वरूपी से भिन्न नहीं हो सकता ।
अस्तु जहाँ आत्मा है बहीं उसका मोक्ष है और जहाँ आत्मा है वही उसका मार्ग भी है। जैन दर्शन में मोक्ष के मार्ग की धारणा एव विचारणा आत्मा से बाहर कहीं अन्यत्र नहीं की गई है । यहाँ पर मार्ग का अर्थ है - साधन, उपाय, हेतु एवं कारण । निश्चय दृष्टि का सिद्धान्त यह है कि कारण और कार्य को एक स्थान पर रहना चाहिए । यदि कारण कहीं रहे और कार्य उससे दूर कहीं अन्यत्र रहे, तब वह कार्य-कारण भाव कैसे होगा ? दूरस्थ कारण कार्य हों, तो फिर वह कारण अमुक एक कार्य का ही कारण क्यों हो, दूसरे कार्य का कारण क्यों नहीं ? जब कि कारण से कार्य का दूरत्व एवं भिन्नत्व उभयत्र समान ही है । अतः निश्चय की भाषा में जहाँ मोक्ष है वहीं उसका मार्ग भी रहेगा, वहीं उसका साधन अर्थात् कारण भी रहेगा । मोक्ष रहता है आत्मा में, अतः उसका मार्ग भी आत्मा में ही रहता है । मोक्ष मार्ग क्या है ? सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तीनों आत्मा के निज स्वरूप ही हैं, फिर आत्मा से अलग कैसे रह सकते हैं । अतः मोक्ष और मोक्ष का मार्ग दोनों सदा आत्मा में ही रहते हैं, आत्मा से कहीं बाहर नहीं रहते ।
कारण कार्य की एक स्थानीयता के सम्बन्ध में यहाँ पर मुझे एक अनुभवी सन्त के जीवन का संस्मरण याद आ रहा है । यह संस्मरण एक वह संस्मरण है, जो साधक की मोह-मुग्ध आत्मा को झकझोर कर प्रबुद्ध कर देता है ।
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एक बार एक सन्त घूमता फिरता और रमता हुआ हरिद्वार जा पहुँचा । वहाँ इधर-उधर घूमते हुए उसने बहुत कुछ देखा और सुना चिन्तनशील सन्त का यह स्वभाव होता है, कि वह जो कुछ देखता है अथवा जो कुछ सुनता है, उस पर विचार और चिन्तन भी करता
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