________________
विवेक-दृष्टि | ५७ ज्ञानोपयोग आत्मा के अन्दर की परिणति को भी जानता है और बाहर में स्थित घट-पट आदि पदार्थों को भी जानता है । स्व-पर का प्रकाश करना, यह ज्ञान का अपना निज स्वभाव है। ज्ञान का अर्थ केवल इतना ही है, जो कि पदार्थ जैसा है, वैसा उसका परिज्ञान आपको करा दे । वस्तु की जानकारी हो जाना, बंधन नही है। और तो क्या, कोई पदार्थ अच्छा है या बुरा, यह जानना भी बंधन नहीं है । बंधन है, ज्ञात वस्तु के प्रति राग द्वषात्मक विकल्पों का होना । ___ अध्यात्म-शास्त्र में विश्व के अनन्त-अनन्त पदार्थों को तीन विभागों में विभक्त कर दिया गया है-हेय, ज्ञेय और उपादेय । जानने योग्य पदार्थ को ज्ञेय कहते हैं, छोड़ने योग्य पदार्थ को हेय कहते हैं,
और ग्रहण करने योग्य पदार्थ को उपादेय फहते हैं। हिंसा आदि और हिंसा आदि के साधन जिस हेय पदार्थ का त्याग करना है, उसके सम्बन्ध में यह विचार करना चाहिए कि यह त्याज्य क्यों हैं ? अहिंसा आदि और अहिंसा आदि के साधन उपादेय पदार्थ के विषय में भी यह विचार करना चाहिए, कि वह उपादेय क्यों है? मेरे जीवन में उसकी क्या उपयोगिता होगी ? यदि आपने किसी पदार्थ विशेष को छोड़ने से पूर्व उसकी हेयता का सम्यक परिबोध कर लिया है, तो वह त्याग आपका एक सच्चा त्याग होगा। यदि आपने किसी पदार्थ को छोड़ने से पूर्व उसकी हेयता का सम्यक् परिज्ञान नहीं किया है, केवल उसके प्रति घृणात्मक और द्वषात्मक दृष्टिकोण के कारण ही आप उसका परित्याग करते हैं, तो आपका यह त्याग सच्चा त्याग नहीं है। इस प्रकार के त्याग से बन्धन-विमुक्ति नहीं हो सकती, अपितु कर्मबन्धन में और अधिक अभिवृद्धि होती है। जीवन में जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब उपादेय नहीं है, यह भी साधक को समझ लेना चाहिए। पुण्य के प्रकर्ष से जो कुछ भोग और उपभोग की सामग्री प्राप्त हुई है, क्या उसे उपादेय माना जाए ? जैन दर्शन कहता हैनहीं, कदापि नहीं। जीवन-व्यवहार के लिए भोजन, वसन एवं भवन आदि आवश्यक हो सकते हैं, किन्तु उपादेय नहीं। मुख्यत्वेन उपादेय तत्त्व वही है, जिसके ग्रहण करने से आत्मा का विकास हो, जिसके आचरण से आत्मा का कल्याण हो। अहिंसा, सत्य आदि सम्यक् आचार हो वस्तुतः उपादेय हैं । जिस पदार्थ के ग्रहण करने से आत्मसाधना में बाधा उपस्थित होती हो, उसे उपादेय नहीं माना जा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org