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५८ | अध्यात्म-प्रवचन सकता । ज्ञेय का अर्थ है -जानने योग्य पदार्थ । इस अनन्त विश्व में चैतन्य और जड़ यह दो तत्त्व ही हैं जिन्हें ज्ञेय कहा जा सकता है। हेय और उपादेय भी प्रथमतः ज्ञेय होते हैं। अपने को समझो और अपने से भिन्न पर को भी समझो। पर को समझो और पर से भिन्न स्व को भी समझो। इस प्रकार स्व और पर के परिबोध से उत्पन्न होने वाला विवेक ही सच्चा ज्ञान है । जब साधक यह समझ लेता है, कि मैं आत्मा हूँ और पुद्गल मेरे से भिन्न है। पुद्गल से उत्पन्न होने वाली विभिन्न परिणतियाँ भी मेरी अपनी नहीं हैं। आत्म-सत्ता की इस दिव्य आस्था में से और आत्म-सत्ता के इस दिव्य परिबोध में से ही साधक के साधना-पथ को आलोकित करने वाला हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न होता है। क्या हेय है और क्या उपादेय है ? यह साधक की शक्ति और स्थिति पर निर्भर है, कि वह किस समय क्या छोड़े और क्या ग्रहण करे ? परन्तु यह सुनिश्चित है कि ज्ञेय को जानने की, हेय को छोड़ने की और उपादेय को ग्रहण करने को विशुद्ध भावना ही हमारी अध्यात्म-साधना का मूल आधार है। __भगवान महावीर पावापुरी में विराजित थे। इन्द्रभूति गौतम, जो उस युग का प्रकाण्ड पण्डित और प्रखर विचारक माना जाता था, अपने ज्ञान की गरिमा से भगवान को अभिभूत करने के लिए आया। उसके पास प्रचण्ड पाण्डित्य था, इसमें जरा भी सन्देह नहीं किया जा सकता, पर साथ ही उस ज्ञानामृत में अहंकार का विष भी मिला हआ था। जब ज्ञान में, जो कि अपने आपमें एक विशुद्ध तत्त्व है, किसी प्रकार का विकार मिल जाता है, उस स्थिति में वह ज्ञान-चेतना विशुद्ध नहीं रह पाती, दृष्टि विशुद्ध नही रह पाती, वह मिथ्या हो जाती है। जिस समय इन्द्रभूति भगवान के समक्ष आकर खड़ा हुआ और भगवान की दिव्य वाणी से उसका अहंकार दूर हुआ, उस समय इन्द्रभूति को जीवन का वह तत्त्व मिल गया, जिसकी उपलब्धि उसे अभी तक नहीं हो पाई थी। भगवान ने इन्द्रभूति को त्रिपदी का ज्ञान दिया। यह त्रिपदी क्या है ? हेय, ज्ञेय और उपादेय। इस त्रिपदी के ज्ञान से इन्द्रभूति का मिथ्यात्व दूर हो गया, उसकी आत्मा में सम्यक्त्व का दिव्य प्रकाश जगमगाने लगा। वह ज्ञानी बन गया। इसका अर्थ यह नहीं है, कि पहले उसे ज्ञान नहीं था । अलंकार की भाषा में कहा जाए तो उसका जीवन सिर को चोटी से लेकर पैर के अंगूठे तक
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