Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Aatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
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श्री आचाराङ्ग सूत्रम्, द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रस्तुत आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वृत्तिकार ने स्वयं आधाकर्मी आहार ग्रहण करने का प्रबल शब्दों में निषेध किया है । इससे इतना तो स्पष्ट है कि ध्रुव मार्ग निर्दोष आहार को स्वीकार करने का रहा है। अपवाद मार्ग साधक की स्थिति पर आधारित है। उसकी स्थापना नहीं की जा सकती। कौन साधक किस परिस्थिति में, किस भावना से, कौन-सा कार्य कर रहा है? यह छद्मस्थ व्यक्तियों के लिए जानना कठिन है। सर्वज्ञ पुरुष ही इसका निर्णय दे सकते हैं। इसलिए साधक को किसी के विषय में पूरा निर्णय किए बिना एकान्त रूप से उसे पाप बन्ध का कारण नहीं कहना चाहिए और संभव है यही कारण वृत्तिकार के सामने रहा हो जिससे उसने अपवाद स्थिति में सदोष आहार को स्वीकार करने योग्य बताया। वृत्तिकार का यह अभिमत विचारणीय है।
आहार ग्रहण करने की विधि का उल्लेख करते हुए सूत्रकार औषध ग्रहण करने के सम्बन्ध में कहते हैं
मूलम्- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ जाव पविढे समाणे से जाओ पण ओसहीओ जाणिज्जा कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छछिन्नाओ अवुच्छिण्णाओ, तरुणियं वा छिवाडिं अणभिक्कंतमभज्जियं पेहाए अफासुयं अणेसणिज्जंति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिगाहिज्जा।
__ से भिक्खू वा • जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा-अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडिं अभिक्कंतं भज्जियं पेहाए फासुयं एसणिज्जंति मन्नमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा । २।
___ छाया- स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा गृहपतिः यावत् प्रविष्टः सन् स याः पुनः औषधी: जानीयात् कृत्स्नाः स्वाश्रयाः अद्विदलकृताः अतिरश्चीनच्छिन्नाः अव्यवच्छिन्नाः तरुणीं वा फलिं (छिवाडिं) अनभिक्रान्ताम्, अभग्नाम् प्रेक्ष्य अप्रासुकामनेषणीयामिति मन्यमानः लाभे सति न प्रतिगृण्हीयात्। स भिक्षुर्वा यावत् प्रविष्टः सन् स याः पुनः औषधी: जानीयात् अकृत्स्नाः अस्वाश्रयाः द्विदलकृताः, तिरश्चीनच्छिन्ना: व्यवच्छिन्नाः तरुणिकां फलिम्, अक्रान्तां भग्नां प्रेक्ष्य प्रासुकामेषणीयामिति मन्यमानः लाभे सति गृहीयात्।
पदार्थ-से-वह। भिक्खू-साधु।वा-अथवा। भिक्खुणी वा-साध्वी। गाहावई-गृहपति के कुल में। जाव-यावत्। पविढे समाणे-प्रविष्ट हुआ। से-वह। जाओ-जो। पुण-फिर। ओसहीओ-औषधि को। जाणिज्जा-जाने। कसिणाओ-सचित्त। सासियाओ-अविनष्ट योनि-जिसका मूल नष्ट नहीं हुआ। अविदलकडाओ-जिसके दो भाग नहीं हुए हैं। अतिरिच्छच्छिन्नाओ-जिसका तिर्यक्-तिरछा छेदन नहीं हुआ
आचाराङ्ग सूत्र-श्रुतस्कन्ध १, अध्य०६:, उद्देशक ४ की वृत्ति।