Book Title: Maro Swadhyaya
Author(s): Divyaratnavijay
Publisher: Shraman Seva Parivar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain મારો સ્વાધ્યાય * સંપાદક * પૂજ્ય મુનિ શ્રી દિવ્યરત્ન વિજયજી મહારાજ national FoGING Personal Use WWW.TWEE Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મારો સ્વાદયાય • સંશોધક પરમપૂજ્ય આચાર્ય મુનિચંદ્રસૂરીશ્વરજી મ.સા. પરમપૂજ્ય આચાર્ય જયસુંદરસૂરીશ્વરજી મ.સા. • આશીર્વાદ • પૂ.પં. જયતિલક વિ. મ.સા. • સંપાદક : પરમપૂજ્ય અધ્યાત્મયોગી આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મહારાજાના પટ્ટધર શિષ્ય પરમપૂજ્ય આચાર્યદેવ શ્રીમદ્ વિજય કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મહારાજાના શિષ્યરત્ન પૂજ્ય મુનિશ્રી દિવ્યરત્ન વિજય • પ્રકાશક • શ્રી શ્રમણ સેવા પરિવાર c/o ૩૦૬, બી-વીંગ,કૃપાપ્રસાદ બીલ્ડીંગ, દાઉદ બાગ લેન, અંધેરી-વેસ્ટ, મુંબઈ. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रिताधार :- विविधस्तोत्र संग्रह,मुद्रा विज्ञान, विधि- प्रपामार्ग आदि ग्रंथ। मुद्रा :- पूज्य पं. इन्द्रजित् विजयजी महाराज। संशोधित + प्रक्षिप्त :-द्वितीयावृत्ति - नकल 1000, सहयोग :- विविध पू. साधु-साध्वीजी महाराज । प्राप्तिस्थान :- पं. नानालालभाई घेलाभाई, श्री दादर आराधना भवन, अस के बोलेरोड, दादर (वेस्ट), मुंबई मूल्य : रु. ५०/ -: मुद्रक : वर्धमान पुस्तक प्रकाशन शाहीबाग, अहमदाबाद - 380004 मों : 9227527244 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આર્થિક સહયોગ પૂજ્ય મુનિરાજશ્રી દિવ્યરત્ન વિજયજી મ.સા. તથા પૂ. મુનિરાજશ્રી હર્ષબોધિ વિજયજી મ.સા. ના સં. ર૦પ૯ના ભવ્ય ચાતુર્માસની સ્મૃતિમાં શ્રી કૃષ્ણનગર જૈન શ્વે. મૂ. પૂ. સંઘ, કૃષ્ણનગર, સૈજપુર બોઘા, અમદાવાદ તથા પૂજ્યપાદ આચાર્યદેવશ્રી વરબોધિસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્યરત્ન પૂજ્ય મુનિરાજશ્રી હર્ષબોધિવિજય મ.સા.ની પ્રેરણાથી श्री सुविधिनाथ जैन श्वे. मू. पू. संघ સારૂં. ટી. રોડ સાતારા વિ. પુut (મહારાષ્ટ્ર) ઉપરોક્ત બન્ને શ્રી સંઘોએ જ્ઞાનખાતામાંથી પુસ્તક પ્રકાશનનો લાભ લીધો છે. માટે ગૃહસ્થોએ ધ્યાન રાખવું. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पृष्ठ कृति कर्ता १ श्री नमस्कार महामंत्र शाश्वत २ श्री वज्रपंजर स्तोत्र अज्ञात पूर्वधरस्थविर ३ श्री जिनपंजर स्तोत्र कमलप्रभसूरि ६ श्री उवसग्गहरं स्तोत्र अज्ञात जैनश्रमण १० श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ स्तोत्र अज्ञात जैनाचार्य १३ श्री मंत्राधिराज पार्श्वनाथ स्तोत्र अन्य अज्ञात जैन १७ श्री जीरावला पार्श्वनाथ स्तोत्र मेरुतुंगसूरि महामंत्रगर्भित श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ स्तोत्र अज्ञात जैनश्रमण २० श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्तुति २१ श्री शक्रस्तव सिद्धसेनदिवाकर २७ प्रथम पावपडिग्घाय चिरंतनाचार्य गुणबीजाहाणसुत्त ३० मुनिनाम् अप्रमादयन्त्रम्- सिद्धर्षिगणि [उपमिति] ३१ श्री शत्रुञ्जय लघुकल्प अज्ञात जैनश्रमण Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ३४ श्री वर्धमान विद्या स्तव ३५ श्री धर्मचक्र विद्या ३५ श्री परमेष्ठी मंत्र ३६ श्री वर्धमान विद्या श्री महावीरस्तव आचार्य अभयेदवसूरि ३९ गणि-पंन्यास पद धारक वर्धमान विद्या ४० बृहद् वर्धमान विद्या ४२ श्री नकार विद्या स्तवन ४४ श्री ह्रींकार विद्या स्तवन ४६ श्री नमस्कारमंत्राधिराजस्तोत्र ४७ श्री लब्धिपदगर्भितमहर्षिस्तोत्र ४८ लब्धिपद फल प्रकाशक कल्प ५१ श्री सिद्धचक्रस्तोत्र ५३ श्री गौतमाष्टक ५५ सिरि गोयम थवो आचार्य मुनिसुंदरसूरि ५६ श्री गौतमस्वामी छन्द विजयसेनसूरि ५८ श्री अनुभूतसिद्धसारस्वतस्तोत्र आचार्य बप्पभट्टसूरि श्री सरस्वती नाम स्तोत्र अज्ञात ६३ श्री सूरिमन्त्र स्तोत्र आचार्य मुनिसुंदरसूरि ६४ श्री सरस्वती - अष्टक आचार्य मुनिसुंदरसूरि ६५ श्री त्रिभुवनस्वामिनी देवी स्तोत्र आचार्य मुनिसुंदरसूरि . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य मुनिसुंदरसूरि आचार्य मुनिसुंदरसूरि आचार्य मुनिसुंदरसूरि आचार्य मुनिसुंदरसूरि श्रीधराचार्य ६६ श्री श्रीदेवी स्तोत्र ६७ श्री यक्षराजगणिपिटक स्तोत्र ६८ श्री पञ्चमपीठाधिष्ठायक स्तोत्र ६९ श्री चक्रेश्वरीदेवी स्तोत्र ७० श्री चक्रेश्वरी स्तोत्र ७२ श्री पद्मावती स्तोत्र ७५ . श्री पद्मावती स्तोत्र ७६ श्री चन्द्रप्रभ विद्यास्तव ७७ श्री ज्वालामालिनीदेवीमालामंत्र __ श्री ज्वालामालिनी स्तोत्र ८६ श्री शांतिधारापाठ श्री शान्तिघोषणा श्री ऋषिमण्डल स्तोत्र १०० श्री गुरुस्तुति १०१ श्री गुरुपादुका स्तोत्र १०२ भैरव क्षेत्रपाल स्तोत्र १०४ श्री क्षेत्रपाल अर्चना १०५ अथाष्टक १०८ जयमाला ११० कल्पसूत्रांश १११ श्री शान्तिनाथ स्तोत्र अन्य अज्ञात अज्ञात आचार्य भद्रबाहुसूरि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री उपदेश श्लोक ૨૨૩ શ્રી વર્ધમાવિદ્યા જાપ વિધિ અમરહંસગણિ ૨૨૩ વાસક્ષેપ મંત્રવાની વિધિ ૨૨૪ નવકારવાળી મંત્રવાની વિધિ ૨૨૬ બીજાક્ષરોનો સંક્ષિપ્ત અર્થ १२७ श्रीपञ्चषष्टि स्तोत्र १२८ पञ्चषष्टि यन्त्र स्थापना ૨૨૮ ધજા ઉપર લખવાનો યંત્ર ૨૮ દંડ-પાટલી ઉપર લખવાનો યંત્ર ૨૨૨ ૧૭૦ યંત્ર ૨૨૨ ઘંટ ઉપર લખવાનો યંત્ર ૨૨૨ સિદ્ધ ભગવંત પૂ. આ. કલાપૂર્ણસૂરિ શરૂ૦ નવગ્રહ જાપ ૨૩૨ શ્રી નવગ્રહ શાંતિ જાપ મંત્ર ૨રૂર ચાતુર્માસ પ્રવેશ વગેરે પ્રસંગ પર નગરપ્રવેશની વિધિ શરૂ૪ મકાન પ્રવેશ વિધિ રરૂપ રક્ષા પોટલી મંત્રવાની વિધિ શરૂલ જાજમ પાથરવાની વિધિ રૂટ દેરાસરની વર્ષગાંઠે ધજા ચડાવવાનો વિધિ ૨૩૨ સંસારસૂત્ર (જિનાગમાન્તર્ગત ગાથાઓ) १४० कर्मसूत्र Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ राग - परिहारसूत्र १४३ धर्मसूत्र १४५ संयमसूत्र १४७ अप्रमादसूत्र १४८ आत्म-मोक्षसूत्र १४९ रत्नत्रयसूत्र १५१ श्रमणधर्मसूत्र १५२ समिति - गुप्तिसूत्र १५३ तपसूत्र १५७ ध्यानसूत्र १५९ अनुप्रेक्षासूत्र १६० संलेखनासूत्र १६२ निर्वाणसूत्र ૧૬૩ મંત્ર પરંપરા ૧૬૪ મંત્રના ત્રણ લિંગ ૧૬૫ મંત્ર શાસ્ત્રોની નિધિ ૧૬૬ જાપના ૩ પ્રકાર ૧૬૬ મંત્ર-અનુષ્ઠાન આરંભ વખતના લગ્ન ફળ ૧૬૭ મંત્ર-વિઘા અનુષ્ઠાન આરંભ નક્ષત્રફળ આસન પ્રમાણે ફળ : ૧૬૮ ૧૬૮ વિદ્યા - મંત્ર - ગ્રહણ કર્યા પછી સિદ્ધિ ૧૬૯ મંત્ર ફળ ક્યારે ૧૬૯ મંત્રના સંપ્રદાય અભિપ્રેત મંત્ર પ્રકારાદિ 8 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नवकार महामंत्र नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोए सव्व-साहूणं एसो पंच-नमुक्कारो सव्व-पाव-प्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वज्रपंजर स्तोत्र ॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ परमेष्ठिनमस्कारं, सारं नवपदात्मकं । आत्मरक्षाकरं वज्रपञ्जराभं स्मराम्यहम् अनमो अरिहंताणं, शिरस्कं शिरसि स्थितम् । नमो सव्वसिद्धाणं, मुखे मुखपटं वरम् मनमो आयरियाणं, अङ्गरक्षाऽतिशायिनी । अनमो उवज्झायाणं, आयुधं हस्तयोदृढम् मनमो लोए सव्वसाहूणं, मोचके पादयोः शुभे । एसो पंचनमुक्कारो, शिला वज्रमयी तले सव्वपावप्पणासणो, वप्रो वज्रमयो बहिः । मंगलाणं च सव्वेसिं खादिराङ्गारखातिका स्वाहान्तं च पदं ज्ञेयं, पढमं हवइ मंगलं । वप्रोपरि वज्रमयं, पिधानं देहरक्षणे महाप्रभावा रक्षेयं, क्षुद्रोपद्रवनाशिनी । परमेष्ठिपदोद्भूता, कथिता पूर्वसूरिभिः यश्चैवं कुरुते रक्षा, परमेष्ठिपदैः सदा । तस्य न स्याद् भयं व्याधिराधिश्चाऽपि कदाचन ॥७॥ ॥८॥ . २. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनपंजर स्तोत्र ॐ ह्रीं श्रीं अहँ अर्हद्भ्यो नमो नमः । ॐ ह्रीं श्रीं अहँ सिद्धेभ्यो नमो नमः । ह्रीं श्रीं अहँ आचार्येभ्यो नमो नमः । ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह उपाध्यायेभ्यो नमो नमः । ह्रीं श्रीं अहँ श्रीगौतमस्वामिप्रमुखसर्वसाधुभ्यो नमो नमः ॥१॥ एष पंचनमस्कार: सर्वपापक्षयंकरः । मंगलानां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥२॥ ह्रीं श्रीं जये विजये, अहँ परमात्मने नमः । कमलप्रभसूरीन्द्रो, भाषते जिनपंजरम् ॥३॥ एकभुक्तोपवासेन, त्रिकालं यः पठेदिदम् । मनोऽभिलषितं सर्वं फलं स लभते ध्रुवम् ॥४॥ भूशय्या ब्रह्मचर्येण, क्रोधलोभविवर्जितः । देवताग्रे पवित्रात्मा, षण्मासैर्लभते फलम् अर्हन्तं स्थापयेन्मूर्ध्नि, सिद्धं चक्षुर्ललाटके । आचार्य श्रोत्रयोर्मध्ये, उपाध्यायं तु घ्राणके ॥६॥ साधुवृन्दं मुखस्याग्रे, मनःशुद्धि विधाय च । सूर्यचन्द्रनिरोधेन, सुधी: सर्वार्थसिद्धये ॥७॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८॥ ॥९ ॥ ॥१०॥ ॥११॥ दक्षिणे मदनद्वेषी, वामपार्वे स्थितो जिनः । अंगसंधिषु सर्वज्ञः, परमेष्ठी शिवंकरः पूर्वाशां च जिनो रक्षेदाग्नेयीं विजितेन्द्रियः । दक्षिणाशां परब्रह्म, नैऋतिं च त्रिकालवित् पश्चिमाशां जगन्नाथो, वायवीं परमेश्वरः । उत्तरां तीर्थकृत्सर्वामीशानी च निरंजन: पातालं भगवानहन्नाकाशं पुरुषोत्तमः । रोहिणीप्रमुखादेव्यो, रक्षन्तु सकलं कुलम् ऋषभो मस्तकं रक्षेदजितोऽपि विलोचने । सम्भवः कर्णयुगलं, नासिकां चाभिनंदन: ओष्ठौ श्रीसुमती रक्षेद् दन्तान्याप्रभो विभुः । जिह्वां सुपार्श्वदेवोऽयं, तालुश्चन्द्रप्रभाभिधः कण्ठं श्रीसुविधी रक्षेद्, हृदयं श्रीसुशीतलः । श्रेयांसो बाहुयुगलं, वासुपूज्यः करद्वयम् अंगुलीविमलो रक्षेदनन्तोऽसौ नखानपि । श्रीधर्मोप्युदरास्थिनि, श्रीशान्ति भिमण्डलम् श्रीकुंथुर्गुह्यकं रक्षेदरो लोमकटितटम् । मल्लिरुरुपृष्ठवंशं, जंघे च मुनिसुव्रतः . ४. ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादांगुलिनमि रक्षेच्छ्रीनेमिश्चरणद्वयम् । श्रीपार्श्वनाथः सर्वांगं, वर्धमानश्चिदात्मकम् ॥१७॥ पृथिवी-जल-तेजस्क-वाय्वाकाशमयं जगत् । रक्षेदशेषपापेभ्यो, वीतरागो निरंजन: ॥१८॥ राजद्वारे श्मशाने च, संग्रामे शत्रुसंकटे । व्याघ्र-चौराग्नि-सर्पादि, भूतः-प्रेत-भयाऽऽश्रिते ॥१९॥ अकाले मरणे प्राप्ते, दारिद्यापत्समाश्रिते । अपुत्रत्वे महादुःखे, मूर्खत्वे रोगपीडिते ॥२०॥ डाकिनी-शाकिनीग्रस्ते, महाग्रहगणादिते । नद्युतारेऽध्ववैषम्ये, व्यसने चापदि स्मरेत् ॥२१॥ प्रातरेव समुत्थाय, यः स्मरेज्जिनपंजरम् । तस्य किञ्चिद् भयं नास्ति, लभते सुखसम्पदः ॥२२॥ जिनपंजरनामेदं, यः स्मरेदनुवासरम् । कमलप्रभराजेन्द्रश्रियं स लभते नरः ॥२३॥ प्रातः समुत्थाय पठेत्कृतज्ञो, यः स्तोत्रमेतज्जिनपञ्जराख्यम् । आसादयेत्स कमलप्रभाख्याम्, लक्ष्मी मनोवाञ्छितपूरणाय ॥२४॥ श्रीरुद्रपल्लीयवरेण्यगच्छे, देवप्रभाचार्यपदाब्जहंसः । वादीन्द्रचूडामणिरेष जैनो, जीयाद् गुरुश्रीकमलप्रभाख्यः ॥२५॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री उवसग्गहरं स्तोत्र ॥ उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहरविसनिन्नासं, मंगलकल्लाण- आवासं विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ । तस्स गहरोगमारी, दुजरा जंति उवसामं चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्ज पणामो वि बहुफलो हो । नरतिरिएस वि जीवा, पावंति न दुक्खदोगच्चं अमरतरुकामधेणु, चिंतामणि- काम-कुंभमाइया । सिरिपासनाह सेवा गहाण सव्वेवि दासत्तं - ह्रीं श्रीं ऐं तुहदंसणेण सामिय, पणासेइ रोगसोगदुः क्खदोहग्गं । कप्पतरुमिव जायइ, तुह दंसणेण सव्वफलहेऊ स्वाहा ह्रीं नमिउण विग्घनासाय, मायाबीएण धरणनागिंदं । सिरिकामराजकलियं, पास जिणिदं नम॑सामि ॐ ह्रीं श्रीं सिरिपास विसहर, विज्जामंतेण झाणं झाएज्जा । धरण- पउमावई देवी, ह्रीं क्ष्ल्यूँ स्वाहा ॥१॥ . ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ 11411 ॥६॥ 11911 ६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥८ ॥ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ जयउ धरणिंद-पउमावई य नागिणी विज्जा । विमलझाणसहिओ, ॐ ह्रीं क्ष्ल्व्यूँ स्वाहा म थुणामि पासनाहं, ह्रीं पणमामि परमभत्तिए । अट्ठक्खरधरणेदो-पउमावई पयडिया कित्ती जस्स पयकमलमज्झे, सया वसेइ पउमावई य धरणिंदो । तस्स नामेण सयलं, विसहरविसं नासेइ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॐ नटुट्ठ-मयट्ठाणे, पणट्ठकम्मट्ठ नट्ठसंसारे । परमट्ठनिट्टिअटे, अट्ठगुणाधिसरं वन्दे ह्रीं स्वाहा गरुडो वनितापुत्रो, नागलक्ष्मी महाबलः । तेण मुच्चंति मुसा, तेण मुच्चंति पन्नगाः स तुह नाम सुद्धमंतं, सम्मं जो जवेइ सुद्धभावेण । सो अयरामरं ठाणं, पावइ न य दोग्गइं दुक्खं वा ४ पण्डु-भगंदर दाहं, कासं सासं च सूलमाइणि । पासपहुपभावेण, नासंति सयलरोगाइं ह्रीं स्वाहा विसहर-दावानलं-साइणि-वेयाल-मारि-आयंका । सिरिनीलकंठपासस्स, समरणमित्तेण नासंति •७. ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्नासं गोपीडां कूरग्गह, तुह दंसणं भयं काये । आवि न हुँतिए तहवि, तिसंज्झं जं गुणिज्जासु पीडं जंतं भगंदरं खासं, सासं शूल तह निव्वाहं । सिरिसामलपासमहंत, नाम पऊरपऊलेण ॐ श्रीं पासधरणसंजुत्तं, विसहरविज्जं जवेइ सुद्धमणेणं, पावइ इच्छियं सुहं ह्रीं श्रीं क्ष्ल्यूँ स्वाहा रोग जल-जलण विसहर, चोरारिमइंदगयरणभयाई । पासजिणनामसंकित्तणेणं, पसमंति सव्वाइं ह्रीं स्वाहा जयउ धरणिंदनमंसिय, पउमावईपमुहनिसेवियपाया । ॐ क्लीं ह्रीं महासिद्धिं करेइ पास जगनाहो 1 ह्रीं श्रीं तं नमह पासनाहं, ॐ श्रीं धरणिदनमंसियं दुहविणासं, नुं ह्रीं श्रीं जस्स पभावेण सया, ॐ ह्रीं श्रीं नासंति उवद्दवा बहवे श्रीं पड़ समरंताण मणे, ह्रीं श्रीं न होइ वाही न तं महादुक्खं । ह्रीं श्रीं नामं पि हि मन्तसमं, श्रीं पयडं नत्थीत्थ संदेहो ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२४॥ ॐ ह्रीं श्रीं जल जलण-भये, तह सप्प-सिंह, ह्रीं श्रीं चोरारि संभवे खिप्पं । ॐ ह्रीं श्रीं जो समरेइ पासपहुं, ॐ श्रीं क्लीं पुहवि कायावि किं तस्स में श्रीं क्लीं ह्रीं इहलोगट्ठी परलोगट्ठी, ह्रीं श्रीं जो समरेड पासनाहं । म हाँ ह्रीं हूँ ह्रः गाँ नी D ग्रः तं तह सिज्झई खिप्पं इह नाह समरह भगवंत, ह्रीं श्रीं क्लीं ग्राँ गी । गूं ग्रः क्लीं क्लीं श्री कलिकुण्डस्वामिने नमः इअ संथुओ महायस, भत्तिब्भरनिब्भरेण हियएण, ता देव दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥२५॥ ॥२६॥ ॥२७॥ ભગવાન મહાવીર સ્વામી આહાર-પાણીની માત્રાને જાણવા છતાં. રસોમાં આસક્ત ન હતા. કોઈ ચોક્કસ દ્રવ્યની પ્રતિજ્ઞા પણ કરતા ન હતા. આંખમાં રજકણ પડે તો પણ તેનું પાર્જન ન કરતા. તેમજ કાષ્ટ વગેરેથી શરીરની ખંજવાળ પણ દૂર કરતા ન इता. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || श्री चिंतामणिपार्श्वनाथ स्तोत्र || ॥ किं कर्पूरमयं सुधारसमयं किं चन्द्ररोचिर्मयम् । किं लावण्यमयं महामणिमयं कारुण्यकेलिमयम् । विश्वानंदमयं महोदयमयं शोभामयं चिन्मयम् । शुक्लध्यानमयं वपुर्जिनपतेर्भूयाद्भवालम्बनम् पातालं कलयन् धरां धवलयन्, नाकाशमापूरयन्, दिक्चक्रं क्रमयन् सुरासुरनरश्रेणि च विस्मापयन् । ब्रह्माण्डं सुखयन् जलानि जलधेः, फेणच्छलालोलयन् । श्रीचिंतामणिपार्श्वसंभवयशो, हंसश्चिरं राजते , पुण्यानां विपणिस्तमोदिनमणिः, कामेभकुम्भशृणिः, मोक्षेनिस्सरणिः सुरेन्द्रकरणी, ज्योति: प्रभासारणिः । दाने देवमणिर्नतोत्तमजनश्रेणिः कृपासारिणी, विश्वानंदसुधाघृणिर्भवभिदे, श्रीपार्श्वचिन्तामणिः श्रीचिंतामणिपार्श्वविश्वजनतासंजीवनस्त्वं मया, दृष्टस्तात ! ततः श्रियः समभवन् नाशक्रमाचक्रिणम् मुक्तिः क्रीडति हस्तयोर्बहुविधं सिद्धं मनोवाञ्छितम्, दुर्दैवं दुरितं च दुर्गतिभयं, कष्टं प्रणष्टं मम ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ 11811 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य प्रौढतमप्रतापतपनः, प्रोद्दामधामा जगज्जंघालः कलिकालकेलिदलनो, मोहान्धविध्वंसकः । नित्योद्योतपदं समस्तकमलाकेलिगृहं राजते, स श्रीपार्श्वजिनो जने 'हितकृतो चिंतामणिः पातु मां विश्वव्यापितमो हिनस्ति तरणिर्बालोऽपि कल्पांकुशो, दारिद्रयाणि गजावलि हरिशिशुः काष्टानि वह्नेः कणः । पीयूषस्य लवोऽपि रोगनिवहं यद्वत् तथा ते विभो, मूर्ति: स्फूर्तिमती सती त्रिजगति कष्टानि हर्तुं क्षमः श्री चिंतामणिमंत्रमोंकृतियुतं, ह्रीँकारसाराश्रितम्, श्रीमहैं नमिऊणपासकलितं त्रैलोक्यवश्यावहम्, द्वेधाभूतविषापहं विषहरं श्रेयः प्रभावाश्रयम्, सोल्लासं वसहांकितं जिनफुलिंगानंदनं देहिनाम् श्रीं कारवरं नमोऽक्षरपरं, ध्यायन्ति ये योगिनो, हृत्पद्मे विनिवेश्य पार्श्वमधिपं, चिंतामणीसंज्ञकम् । भाले वामभुजे च नाभिकरयोर्भूयो भुजे दक्षिणे, पश्चादष्टदलेषु ते शिवपदं द्वित्रैर्भवैर्यान्त्यहो ( र्भान्त्यहो ) १. कृतहित, हितकरः इति । ११ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नो रोगा नैव शोका न कलहकलना नारिमारिप्रचाराः, नैवाधिर्नासमाधिर्न च दरदरिते, दुष्टदारिद्र्यता नो । नो शाकिन्यो ग्रहा नो हरिकरिगणा, व्यालवैतालजाला, जायन्ते पार्श्वचिन्तामणिनतिवशतः, प्राणिनां भक्तिभाजाम् , गीर्वाणद्रुमधेनुकुंभमणयस्तस्यां गणे रंगिणो, देवा दानवमानवा सविनयं तस्मै हितध्यायिनः । लक्ष्मीस्तस्य वशावशैव गुणीनां ब्रह्माण्डसंस्थायिनी, श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथमनिशं संस्तौति यो ध्यायते " इति जिनपतिपार्श्वः पार्श्वपाश्र्वाख्ययक्षः, प्रदलितदुरितौघः प्रीणितप्राणिसार्थः । त्रिभुवनजनवाञ्छा दानचिंतामणीकः, शिवपदतरुबीजं बोधिबीजं ददातु मायने असण्णपाणस्स, णाणुगिद्धे रसे अपडिण्णो । अच्छि वि णो पमज्जिज्जा, णो विय कंडूयए मुणी गायं ॥ 118 11 ॥१०॥ ॥११॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥ श्री मंत्राधिराज पार्श्वनाथ स्तोत्र ॥ श्री पार्श्वः पातु वो नित्यं, जिनः परमशङ्करः । नाथः परमशक्तिश्च, शरण्यः सर्वकामदः सर्वविजहर: स्वामी, सर्वसिद्धिप्रदायकः । सर्वसत्त्वहितो योगी, श्रीकरः परमार्थदः देवदेवः स्वयंसिद्धश्चिदानन्दमयः शिवः । परमात्मा परब्रह्म, परमः परमेश्वरः जगन्नाथः सुरज्येष्ठो, भूतेशः पुरुषोत्तमः । सुरेन्द्रो नित्यधर्मश्च, श्रीनिवासः शुभार्णवः सर्वज्ञः सर्वदेवेशः, सर्वदः सर्वगोत्तमः । सर्वात्मा सर्वदर्शी च, सर्वव्यापी जगद्गुरुः तत्त्वमूर्तिः परादित्यः परब्रह्मप्रकाशकः । परमेन्दुः परप्राणः, परमामृतसिद्धिदः अजः सनातन: शम्भुरीश्वरश्च सदाशिवः । विश्वेश्वरः प्रमोदात्मा, क्षेत्राधीशः शुभप्रदः साकारश्च निराकारः, सकलो निष्कलोऽव्ययः । निर्ममो निर्विकारश्च, निर्विकल्पो निरामयः ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७ ॥ ॥८ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरश्चाजरोऽनन्त, एकोऽनेक: शिवात्मकः । अलक्ष्यश्चाऽप्रमेयश्च ध्यानलक्ष्यो निरञ्जनः ब्रह्मद्वयप्रकाशात्मा, परमाक्षरः काराकृतिरव्यक्तो, व्यक्तरूपस्त्रयीमयः । निर्भयः दिव्यतेजोमयः शान्तः, परामृतमयोऽच्युतः । आद्योऽनाद्यः परेशान, परमेष्ठी परः पुमान् " शुद्धस्फटिकसङ्काशः, स्वयम्भूः परमाच्युतः । व्योमाकारस्वरूपश्च लोकालोकावभासकः 1 ज्ञानात्मा परमानन्दः, प्राणारूढो मनःस्थितिः । मनः साध्यो मनोध्येयो, मनोदृश्यः परापरः सर्वतीर्थमयो नित्यः सर्वदेवमयः प्रभुः । भगवान् सर्वतत्त्वेशः, शिवश्रीसौख्यदायकः " इति श्रीपार्श्वनाथस्य, सर्वज्ञस्य जगद्गुरोः । दिव्यमष्टोत्तरं नाम, शतमत्र प्रकीर्तितम् पवित्रं परमं ध्येयं, परमानन्ददायकम् । भुक्तिमुक्तिप्रदं नित्यं पठतां मङ्गलप्रदम् श्रीमत्परमकल्याणसिद्धिदः श्रेयसेऽस्तु वः । पार्श्वनाथजिनः श्रीमान् भगवान् परमः शिवः ॥९॥ 112011 ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ 112911 १४ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८॥ ॥२०॥ ॥२१॥ धरणेन्द्रफणच्छत्रालङ्कृतो वः श्रियं प्रभुः । दद्यात् पद्मावतीदेव्या, समधिष्ठितशासनः ध्यायेत् कमलमध्यस्थं, श्रीपार्श्वजगदीश्वरम् । ॐ ह्रीं श्रीं अहँ समायुक्तं, केवलज्ञानभास्करम् ॥१९॥ पद्मावत्याऽन्वितं वामे, धरणेन्द्रेण दक्षिणे । परितोऽष्टदलस्थेन, मन्त्रराजेन संयुतम् अष्टपत्रस्थितैः पञ्चनमस्कारैस्तथा त्रिभिः । ज्ञानाद्यैर्वेष्टितं नाथं, धर्मार्थकाममोक्षदम् सत्षोडशदलारूढं, विद्यादेवीभिरन्वितम् । चतुर्विंशतिपत्रस्थं, जिनमातृसमावृतम् मायावेष्ट्यत्रयाग्रस्थं, क्रौंकारसहितं प्रभुम् । नवग्रहावृतं देवं, दिक्पालैर्दशभिर्वृतम् चतुष्कोणेषु मन्त्राद्यैश्चतुर्बीजान्वितैजिनैः । चतुरष्टदशद्वीति द्विधाङ्कसंज्ञकैर्युतम् दिक्षु क्षकारयुक्तेन, विदिक्षु लाङ्कितेन च । चतुरस्त्रेण वज्राङ्कक्षितितत्त्वे प्रतिष्ठितम् श्रीपार्श्वनाथमित्येवं, यः समाराधयेज्जिनम् । तं सर्वपापनिर्मुक्तं, भजते श्रीः शुभप्रदा ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ॥२६॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेश: पूजितो भक्त्या, संस्तुतः प्रस्तुतोऽथवा । ध्यातस्त्वं यैः क्षणं वापि सिद्धिस्तेषां महोदया श्रीपार्श्वमन्त्रराजान्ते, चिन्तामणिगुणास्पदम् । शान्तिपुष्टिकरं नित्यं क्षुद्रोपद्रवनाशनम् ऋद्धिसिद्धिमहाबुद्धिधृतिश्रीकान्तिकीर्तिदम् । मृत्युञ्जयं शिवात्मानं, जपनान्नन्दितो जनः सर्वकल्याणपूर्णः स्याज्जरामृत्युविवर्जितः । अणिमादिमहासिद्धि, लक्षजापेन चाप्नुयात् प्राणायाममनोमन्त्रयोगादमृतमात्मनि । त्वामात्मानं शिवं ध्यात्वा, स्वामिन् ! सिध्यन्ति जन्तवः हर्षदः कामदश्चेति, रिपुघ्नः सर्वसौख्यदः । पातु वः परमानन्दलक्षण: संस्मृतो जिन: तत्त्वरूपमिदं स्तोत्रं, सर्वमङ्गलसिद्धिदम् । त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं नित्यं प्राप्नोति स श्रियम् , भगवतो हि गृहस्थभावेऽपि रसेषु गृद्धिर्नासीत् किं पुनः प्रव्रजितस्य ? तथा रसेष्वेव ग्रहणं प्रति अप्रतिज्ञः । १६ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जीरावला पार्श्वनाथ स्तोत्र || ॥ ॐ नमो देवदेवाय नित्यं भगवतेऽर्हते । श्रीमते पार्श्वनाथाय सर्वकल्याणकारिणे , रूपाय धरणेन्द्र पद्मावत्यचितांघ्रये । शुद्धातिशयकोटिभिः सहिताय महात्मने 1 अट्टे मट्टे पुरोदृष्टे, विघट्टे वर्णपंक्तिवत् । दुष्टान् प्रेत-पिशाचादीन्, प्रणाशयति तेऽभिधा स्तंभय स्तंभय स्वाहा, शतकोटि नमस्कृतः । अधमत् कर्मणां दुरादापतन्तीं विडम्बनां आपतन्तीर्विडम्बना: नाभिदेशोद्भवन्नाले, ब्रह्मरन्ध्रप्रतिष्ठिते । ध्यातमष्टदले पद्मे तत्त्वमेतत् फलप्रदं , तत्त्वमत्र चतुवर्णी, चतुर्वर्णविमिश्रिता । पंचवर्ण - क्रम - ध्याता, सर्वकार्यकरी भवेत् क्षि-प- स्वाहेतिवर्णैः, कृतपंचांगरक्षणः । योऽभिध्यायेदिदं तत्त्वं वश्यास्तस्याखिलश्रियः पुरुषं बाधते बाढं, तावत्क्लेशपरंपरा । यावन्न मंत्रराजोऽयं, हृदि जागर्ति मूर्तिमान् 112 11 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ १७ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याधि-बंध-वध-व्याला - ऽनलाऽम्भसम्भवः भयः । क्षयं प्रयाति श्रीपार्श्वनामस्मरणमात्रत: यथा नादमयो योगी, तथा चेत्तन्मयो भवेत् । तथा न दुष्करं किञ्चित्, कथ्यतेऽनुभवादीदम् इति श्रीजीरिकापल्ली - स्वामि पार्श्वजिनः स्तुतः । श्रीमेरुतुंगसूरेस्तात् सर्वसिद्धिप्रदायकः 'श्री' जीरावल्ली प्रभुपार्श्व, पार्श्वयक्षेण सेवितम् । अर्चितं धरणेन्द्रेण, पद्मावत्या प्रपूजितं सर्वमंत्रमयं सर्वकार्यसिद्धिकरं परम् । ध्यायामि हृदयांभोजे, भूतप्रेतप्रणाशकम् श्रीमेरुतुंगसूरीन्द्रः, श्रीमत्पार्श्वप्रभोः पुरः । ध्यानस्थितं हृदि ध्यायन्, सर्वसिद्धिं लभेत् ध्रुवम् પ્રભુ મહાવીર ! આપ એક તરફ અતુલ બલી છો તો બીજી તરફ શરીર પ્રત્યે સર્વથા અનાસક્ત છો. કેવું આશ્ચર્ય ? 118 11 ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ १८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामंत्रगर्भित श्रीकलिकुंडपार्श्वनाथस्तोत्र श्रीमद् देवेन्द्रवृन्दाऽमलमुकुटमणिज्योतिषां चक्रवालैालीढं पादपीठं शठकमठकृतोपद्रवाऽबाधितस्य । लोकालोकावभासिस्फुरदुरुविमलज्ञानसद्दीप्रदीपः, प्रध्वस्तध्वान्तजाल: स वितरतु सुखं पार्श्वनाथोऽत्र नित्यम् ॥१॥ हाँ ही हूँ हौँ विभास्वन्मरकतमणिभा कांतमूर्ते हि बं मो हँ सँ तँ बीजमन्त्रैः कृतसकलजगत्क्षेमरक्षोरुवक्षाः । क्षा क्षी हूं क्षौं समस्तक्षितितलमहित ! ज्योतिरुद्योतिताशः, ह्रौं कारे रेफयुक्तं र र र र र र रां देव ! सं सं संयुक्तं ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्राँ समेतं वियदमलकलाक्रौञ्चकोद्भासि हुँ हूँ ॥२॥ धुं धुं धुं धुम्रवर्णैरखिलमिहजगन्मे विधेयानुकृष्णं, वौषड्मन्त्रं पठन्तस्त्रिजगदधिपते ! पार्श्व मां रक्ष नित्यम् आँ कौँ ह्रीं सर्ववश्यं कुरु कुरु सरसं कार्मणं तिष्ठ तिष्ठ, क्षं क्षं हं रक्ष रक्ष प्रबल-बल-महाभैरवारातिभीतेः । द्रां द्रीं द् द्रावयन्ति द्रव हन हन तं फट् वषट् बन्ध बन्ध, स्वाहा मंत्रं पठन्तस्त्रिजगदधिपते ! पार्श्व मां रक्ष नित्यम् हँ हँ झाँ झाँ क्ष हंसः कुवलयकलितैरंचितांग ! प्रमत्ते झाँ झाँ हं यक्ष हंसं हर हर हर हूँ पक्षि वः सत्क्षिकोपं वं झं हं सः सहसः वस सर सरसं सः सुधाबीजमंत्रैस्त्रायस्व स्थावरादेः प्रबलविषमुखहारिभिः पार्श्वनाथ ! ॥५॥ ॥३॥ ॥४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ क्ष्मी यूँ मै मरेतैरहपति-वितनुर्मंत्रबीजैश्च नित्यं हाहाकारोग्रनादैवलदनलशिखाकल्पदीर्घोर्ध्वकेशः । पिंगार्लोलजिवैर्विषमविषधरालंकृतैस्तीक्ष्णदण्डैभूतैः प्रेतैः पिशाचैर्धनदकृतमहोपद्रवाद् रक्ष रक्ष । ॥६॥ झी झौं झः शाकिनीनां सपदहरसदं भिन्धि शुद्धेद्धबुद्धेग्लौ मैं / दिव्य-जिह्वा गति-मति-कुपितः स्तंभनं संविधेहि। फट्फट् सर्वाधिरोगग्रहमरणभयोच्चाटनं चैव पार्श्व ! । त्रायस्वाशेषदोषादमरनरवरैमौर्तिपादारविन्दः इत्थं मंत्राक्षरोत्थं वचनमनुपमं पार्श्वनाथस्य नित्यं विद्वेषोच्चाटनं स्तंभन( वन१) जयवशं पापरोगापनोदैः । प्रोत्सर्पज्जंगमादिस्थविरविषमुखध्वसनं स्थायु दीर्घमारोग्यैश्वर्ययुक्ता भवति पठति यः स्तौति तस्येष्टसिद्धिः ॥८॥ ॥७॥ ॥ श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्तुति ॥ कल्याणकेलिकमला कमलायमानम् प्रोद्दामधाममहिमा महिमानिधानम् । जात्यश्मगर्भमणिमेचककान्तिदेहं श्रीस्तंभनाधिपति पार्श्वजिनं स्तुवेऽहम् ॥ .२०. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिविरचित शक्रस्तव ॥ ॐ नमोऽर्हते भगवते परमात्मने परमज्योतिषे परमपरमेष्ठिने, परमवेधसे , परमयोगिने परमेश्वराय तमसः परस्तात् सदोदितादित्यवर्णाय, समूलोन्मूलितानादिसकलक्लेशाय ॥१॥ _ नमोऽर्हते भूर्भुवःस्वस्त्रयीनाथमौलिमन्दारमालार्चितक्रमाय, सकलपुरुषार्थयोनिनिरवद्यविद्याप्रवर्त्तनैकवीराय, नमः स्वस्तिस्वधास्वाहावषडथै कान्तशान्तमूर्तये, भवद्भाविभूतभावावभासिने, कालपाशनाशिने, सत्त्वरजस्तमोगुणातीताय, अनन्तगुणाय, वाङ्मनोऽगोचरचरित्राय, पवित्राय, करणकारणाय तरणतारणाय, सात्त्विकदैवताय, तात्त्विकजीविताय, निर्ग्रन्थपरमब्रह्महृदयाय योगीन्द्रप्राणनाथाय, त्रिभुवनभव्यकुलनित्योत्सवाय, विज्ञानानन्दपरब्रह्मैकात्म्यसात्म्यसमाधये, हरिहरहिरण्यगर्भादिदेवतापरिकलितसम्यग्स्वरूपाय, सम्यश्रद्धेयाय, सम्यग्ध्येयाय, सम्यग्शरण्याय, सुसमाहित सम्यक्स्पृहणीयाय ॥२॥ _ नमोऽर्हते भगवते आदिकराय, तीर्थकराय स्वयंसम्बुद्धाय, पुरुषोत्तमाय, पुरुषसिंहाय, पुरुषवरपुण्डरीकाय, पुरुषवरगन्धहस्तिने, लोकोत्तमाय, लोकनाथाय, लोकहिताय, लोकप्रदीपाय, लोकप्रद्योतकारिणे, अभयदाय दृष्टिदाय, मुक्तिदाय, मार्गदाय, बोधिदाय, जीवदाय, शरणदाय, धर्मदाय, धर्मदेशकाय, धर्मनायकाय, धर्मसारथये, धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिने, व्यावृत्तच्छद्मने, अप्रतिहत .२१. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञानदर्शनसद्मने ॥३॥ नमोऽर्हते जिनाय जापकाय, तीर्णाय तारकाय, बुद्धाय बोधकाय, मुक्ताय मोचकाय, त्रिकालविदे, पारङ्गताय, कर्माष्टकनिषूदनाय, अधीश्वराय, सम्भवे, जगत्प्रभवे, स्वयम्भुवे जिनेश्वराय, स्याद्वादवादिने, सार्वाय, सर्वज्ञाय, सर्वदर्शिने, सर्वतीर्थोपनिषदे, सर्वपाखण्डमोचिने, सर्वयज्ञफलात्मने, सर्वज्ञकलात्मने, सर्वयोगरहस्याय, केवलिने, देवाधिदेवाय, वीतरागाय ॥४॥ ॐ नमोऽर्हते परमात्मने, परमाप्ताय, परमकारुणिकाय, सुगताय, तथागताय, महाहंसाय, हंसराजाय महासत्त्वाय महाशिवाय, महाबोधाय, महामैत्राय, सुनिश्चिताय, विगतद्वन्द्वाय, गुणाब्धये, लोकनाथाय, जितमारबलाय ॥५॥ 1 1 ॐ नमोऽर्हते सनातनाय उत्तमश्लोकाय, मुकुन्दाय, गोविन्दाय, विष्णवे, जिष्णवे, अनन्ताय, अच्युताय श्रीपतये, विश्वरूपाय, हृषीकेशाय, जगन्नाथाय, भूर्भुवः स्वः समुत्ताराय, मानंजराय, कालंजराय, ध्रुवाय अजाय, अजेयाय, अजराय, अचलाय, अव्ययाय, विभवे, अचिन्त्याय, असंख्येयाय, आदिसंख्याय, आदिकेशवाय, आदिशिवाय महाब्रह्मणे परमशिवाय, एकानेकानन्तस्वरूपिणे, भावाभावविवर्जिताय, अस्तिनास्तिद्वयातीताय, पुण्यपापविरहिताय, सुखदुःख विविक्ताय, व्यक्ताव्यक्तस्वरूपाय अनादि-मध्यनिधानाय, नमोस्तु मुक्तीश्वराय मुक्तिस्वरूपा ॥६॥ 1 , , २२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽर्हते निरातङ्काय, नि:सङ्गाय, निःशङ्काय, निर्मलाय, निर्भयाय, निर्द्वन्द्वाय, निस्तरङ्गाय, निरूर्मये, निरामयाय, निष्कलङ्काय, परमदैवताय, सदाशिवाय, महादेवाय, शङ्कराय, महेश्वराय, महाव्रतिने, महायोगिने, महात्मने, पञ्चमुखाय, मृत्युञ्जयाय, अष्टमूर्तये, भूतनाथाय, जगदानन्दाय, जगत्पितामहाय, जगद्देवाधिदेवाय, जगदीश्वराय, जगदादिकन्दाय, जगद्भास्वते, जगत्कर्मसाक्षिणे, जगच्चक्षुषे, त्रयीतनवे, अमृतकराय, शीतकराय, ज्योतिश्चक्रचक्रिणे, महाज्योति?तिताय, महातमः (प:) पारे सुप्रतिष्ठिताय, स्वयंकर्ने, स्वयंहर्ने, स्वयंपालकाय, आत्मेश्वराय, नमो विश्वात्मने ॥७॥ में नमोऽर्हते, सर्वदेवमयाय, सर्वध्यानमयाय सर्वज्ञानमयाय, सर्वतेजोमयाय, सर्वमंत्रमयाय सर्वरहस्यमयाय, सर्वभावाभावजीवाजीवेश्वराय, अरहस्यरहस्याय, अस्पृहस्पृहणीयाय, अचिन्त्यचिन्तनीयाय, अकामकामधेनवे, असङ्कल्पितकल्पद्रुमाय, अचिन्त्यचिन्तामणये, चतुर्दशरज्ज्वात्मकजीवलोकचूडामणये, चतुरशीतिलक्षजीवयोनिप्राणिनाथाय, पुरुषार्थनाथाय, परमार्थनाथाय, अनाथनाथाय, जीवनाथाय, देवदानवमानवसिद्धसेनाधिनाथाय ॥८॥ ॐ नमोऽर्हते निरञ्जनाय, अनन्तकल्याणनिकेतनकीर्तनाय, सुगृहीतनामधेयाय ( महिमामयाय) धीरोदात्तधीरोद्धत धीरशान्तधीरललितपुरुषोत्तमपुण्यश्लोकशतसहस्त्रलक्षकोटिवन्दित, पादारविन्दाय सर्वगताय ॥९॥ ॐ नमोऽर्हते सर्वसमर्थाय, सर्वप्रदाय, सर्वहिताय, सर्वाधि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , नाथाय, कस्मैश्चन क्षेत्राय पात्राय, तीर्थाय पावनाय पवित्राय, अनुत्तराय, उत्तराय, योगाचार्याय, संप्रक्षालनाय, प्रवराय, आग्रेयाय, वाचस्पतये, माङ्गल्याय, सर्वात्मनीनाय, सर्वार्थाय अमृताय, सदोदिताय, ब्रह्मचारिणे, तायिने, दक्षिणीयाय, निर्विकाराय, वज्रर्षभनाराचमूर्त्तये, तत्त्वदर्शिने, पारदर्शिने, परमदर्शिने, निरुपमज्ञानबलवीर्यतेजः शक्त्यैश्वर्यमयाय, आदिपुरुषाय, आदिपरमेष्ठिने, आदिमहेशाय, महाज्योतिः - स(स्त)त्त्वाय महार्चिदानेश्वराय महामोहसंहारिणे, महासत्त्वाय, महाज्ञामहेन्द्राय, महालयाय, महाशान्ताय, महायोगीन्द्राय, अयोगिने, महामहीयसे, महाहंसाय, हंसराजाय महासिद्धाय, शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्ति महानन्दं, महोदयं, सर्वदुः खक्षयं कैवल्यं, अमृतं निर्वाणमक्षरं परमब्रह्मनिश्रेयसमपुनर्भवं, सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तवते, चराचरमवते, नमोऽस्तु श्रीमहावीराय, त्रिजगत् स्वामिने श्रीवर्धमानाय ॥ १० ॥ } 1 नमोऽर्हते, केवलिने, परमयोगिने भक्तिमार्गयोगिने, विशालशासनाय, सर्वलब्धिसम्पन्नाय निर्विकल्पाय, कल्पनातीताय, कलाकलाप - कलिताय, विस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निनिर्दग्धकर्मबीजाय, प्राप्तानन्तचतुष्टयाय, सौम्याय, शान्ताय, मङ्गलवरदाय, अष्टादशदोषरहिताय, संसृतविश्वसमीहिताय स्वाहा ॥ ११॥ श्रीं अर्हं नमः नो १०८ वार जाप करवो , लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव, त्वं शाश्वतं मङ्गलमप्यधीश । त्वामेकमर्हन् ! शरणं प्रपद्ये, सिद्धर्षिसद्धर्ममयत्वमेव ॥ १ ॥ २४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वं मे माता पिता नेता, देवो धर्मो गुरुः परः । प्राणोः स्वर्गोऽपवर्गश्च, सत्त्वं तत्त्वं गतिर्मतिः ॥२॥ जिनो दाता जिनो भोक्ता, जिनः सर्वमिदं जगत् । जिनो जयति सर्वत्र, यो जिनः सोऽहमेव च ॥३॥ यत्किञ्चित् कुर्महे देव ! सदा सुकृतदुष्कृतम् । तन्मे निजपदस्थस्य हुं, क्षः क्षपय त्वं जिन ! ॥४॥ गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं, गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिः श्रयति मां येन, त्वत्प्रसादात्त्वयि स्थितम् ॥५॥ इति श्री वर्धमानजिननाममंत्रस्तोत्रं प्रतिष्ठायां शान्तिकविधौ पठितं महासुखाय स्यात् ॥ इतीमं पूर्वोक्तमिन्द्रस्तवं एकादशमंत्रराजोपनिषद्गर्भ अष्टमहासिद्धिप्रदं सर्वपापनिवारणं, सर्वपुण्यकारणं सर्वदोषहरं, सर्वगुणाकरं, महाप्रभावं, अनेकसम्यग्दृष्टिभद्रकदेवताशतसहस्त्रशुश्रूषितं, भवांतरकृतासंख्यपुण्यप्राप्यं सम्यग् जपतां, पठतां, श्रुण्वतां, गुणयतां, समनुप्रेक्षमाणानां भव्य जीवानां चराचरेऽपि विश्वे सद्वस्तु तन्नास्ति यत् करतल प्रणयि न भवतीति । किञ्च.... २. इतीमं पूर्वोक्तमिन्द्रस्तवमेकादश मन्त्रराजोपनिषद्गर्भ... इत्यादि यावत् सम्यग्समनुप्रेक्षमाणानां भव्यजीवानां भवनपतिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकवासिनो देवा सदा प्रसीदन्ति । व्याधयो विलीयन्ते । ३. इतीमं० भव्यजीवानां पृथिव्यप्तेजोवायुगगनानि भवन्त्यनुकूलानि । .२५ . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. इतीमं० भव्यजीवानां सर्वसंपदां मूलं जायते जिनानुरागः। ५. इतीमं० भव्यजीवानां साधवः सौमनस्येनानुग्रहपरा जायन्ते । ६. इतीमं० भव्यजीवानां खलाः क्षीयन्ते । ७. इतीमं० भव्यजीवानां जलस्थलगगनचराः क्रूरजन्तवोपि मैत्रीमया जायन्ते । ८. इतीमं० भव्यजीवानां अधमवस्तुन्यप्युत्तमवस्तुभावं प्रतिपद्यन्ते । ९. इतीमं० भव्यजीवानां धर्मार्थकामगुणा अभिरामा जायन्ते । १०. इतीमं० भव्यजीवानां ऐहिक्यः सर्वा अपि शुद्धगोत्रकलत्र पुत्रमित्रधनधान्यजीवितयौवनरुपारोग्ययशःपुरःसराः सर्वजनानां संपदः परभागजीवितशालिन्यः सदुदर्काः सुसंमुखीभवन्ति ॥ किं बहुना ? ११. इतीमं० भव्यजीवानां आमुष्मिक्यः सर्वमहिमास्वर्गापवर्गश्रियोऽपि क्रमेण यथेच्छ ष्टं) स्वयं स्वयंवरणोत्सवसमुत्सुका भवन्तीति सिद्धः (द्धिः) श्रेयः समुदयः ( समुदायः) यथेन्द्रेण प्रसन्नेन समादिष्टोऽर्हतां स्तवः तथायं सिद्धसेनेन लिलिखे (प्रपेदे) संपदा पदम् ॥ प्रभाह शुंछ ? → मात्मानुं विस्म२९॥ → नि मंग → विषय-उषायाधीनता - असंयम → होषो प्रति पक्षपात. • २६. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरंतनाचार्यकृत श्रीपञ्चसूत्रे ॥ प्रथमं पावपडिग्घाय गुणबीजाहाणसुत्तं ॥ णमो वीयरागाणं, सव्वण्णूणं देविंदपूइआणं जहट्ठिअवत्थुवाईणं, तेलुक्कगुरूणं, अरुहंताणं भगवंताणं, जे एवमाइक्खंति - इह खलु अणाई जीवे, अणाई जीवस्स भवे, अणाईकम्मसंजोगनिव्वत्तिए, दुक्खरुवे, दुक्खफले, दुक्खाणुबंधे एअस्स णं वोच्छित्ती सुद्धधम्माओ, सुद्धधम्मसंपत्ती पावकम्मविगमाओ, पावकम्मविगमो तहाभव्वत्ताइभावाओ । तस्स पुण विवागसाहणाणि चउसरणगमणं दुक्कडगरिहा सुकडासेवणं अओ कायव्वमिणं होडकामेणं सया सुप्पणिहाणं भुज्जो भुज्जो संकिलेसे तिकालमसंकिलेसे । जावज्जीवं मे भगवंतो परमतिलोगनाहा अणुत्तरपुन्नसंभारा खीणरागदोसमोहा अचितचिंतामणी भवजलहिपोया एगंतसरण्णा अरहंता सरणं । तहा पहीणजरामरणा अवेअकम्पकलंका पणदुवाबाहा केवलनाणदंसणा सिद्धिपुरनिवासी निरुवमसुहसंगया सव्वहा कयकिच्चा सिद्धा सरणं । तहा पसंतगंभीरासया सावज्जजोगविरया पंचविहायारजाणगा, परोवयारनिरया पउमाइनिदंसणा, झाणज्झयणसंगया, विसुज्झमाणभावा साहू सरणं । तहा सुरासुरमणुअपूइओ मोहतिमिरंसुमाली रागद्दोसविसपरममंतो, हेऊ सयलकल्लाणाणं, कम्मवणविहावसु साहगो सिद्धभावस्स, २७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलिपन्नत्तो धम्मो जावज्जीवं मे भगवं सरणं । सरणमुवगओ य एएसिं गरिहामि दुक्कडं, जं णं अरहंतेसु वा, सिद्धेसु वा, आयरिएसु वा, उवज्झाएसु वा, साहुसु वा, साहुणीसु वा, अन्नेसु वा धम्मट्ठाणेसु माणणिज्जेसु पूअणिज्जेसु, तहा माईसु वा, पिईसु वा, बंधुसु वा, मित्तेसु वा उवयारिसु वा, ओहेण वा जीवेसु, मग्गट्ठिएसु वा अमग्गट्ठिएसु वा, मग्गसाहणेसु वा, अमग्गसाहणेसु वा, जंकिंचि वितहमायरियं, अणायरिअव्वं अणिच्छिअव्वं , पावं पावाणुबंधि, सुहुमं वा, बायरं वा, मणेण वा, वायेण वा, कायेण वा, कयं वा, कारियं वा, अणुमोइयं वा, रागेण वा दोसेण वा, मोहेण वा, एत्थ वा जम्मे जम्मंतरेसु वा, गरहिअमेअं दुक्कडमेअं उज्झियव्वमेअं विआणि मए कल्लाणमित्तगुरुभगवंतवयणाओ, एवमेअं ति रोईअं सद्धाए, अरिहंतसिद्धसमक्खं गरिहामि अहमिणं 'दुक्कडमेअं उज्झियव्वमेअं' एत्थ मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं, मिच्छा मि दुक्कडं। होउ मे एसा सम्मं गरहा, होउ मे अकरणनियमो बहुमयं ममेअंति। इच्छामो अणुसट्ठि अरहंताणं भगवताणं गुरुणं कल्लाणमित्ताणं ति । होउ मे एएहिं संजोगो, होउ मे एसा सुपत्थणा, होउ मे इत्थ बहुमाणो होउ मे इओ मोक्खबीअं । पत्तेसु एएसु अहं सेवारिहे सिआ, आणारिहे सिया पडिवत्तिजुत्ते सिआ, निरईआरपारगे सिआ। संविग्गो जहासत्तीए सेवेमि सुकडं, अणुमोएमि सव्वेसिं अरहताणं अणुवाणं, सव्वेसिं सिद्धाणं सिद्धभावं, सव्वेसि आयरियाणं आयारं, सव्वेसिं उवज्झायाणं सुत्तप्पयाणं, सव्वेसिं साहूणं साहुकिरियं, .२८. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वेसिं सावगाणं मोक्खसाहणजोगे एवं सव्वेसिं देवाणं, सव्वेसिं जीवाणं होउकामाणं, कल्लाणाऽऽसयाणं, मग्गसाहाजोगे । होउ मे एसा अणुमोयणा सम्मं विहिपुव्विआ सम्मं सुद्धासया, सम्मं पडिवत्तिरूवा, सम्मं निरइयारा, परमगुणजुत्तअरहंतादिसामत्थओ अर्चितसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो वीअरागा सव्वण्णु परमकल्लाणा, परमकल्लाणहेऊ सत्ताणं । मूढे अम्हि पावे अणा मोहवासिए, अणभिन्ने भावओ हिआहिआणं अभिन्ने सिआ, अहिअनिवित्ते सिआ, हिअपवित्ते सिआ । आराहगे सिआ, उचिअपडिवत्तिए सव्वसत्ताणं सहिअं ति इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्कडं, इच्छामि सुक्कडं । एवमेअं सम्मं पढमाणस्स सुणमाणस्स, अणुप्पेहमाणस्स, सिढीली - भवंति परिहायंति, खिज्जंति असुहकम्माणुबंधा निरणुबंधे वा असुहकम्मे भग्गसामत्थे, सुहपरिणामेणं कडगबद्धे विअ विसे अप्पफले सिआ, सुहावणिज्जे सिआ, अपुणभावे सिआ । तहा आसगलिजंति, परिपोसिज्जंति, निम्मविज्जंति सुहकम्माणुबंधा, साणुबंधं च सुहकम्मं पगिट्ठे पगिट्टभावज्जियं नियमफलयं । सुपउत्ते विअ महागए सुहफले सिया सुहपवत्तगे सिआ परमसुहसाहगे सिआ । अओ अपडिबंधमेअं असुहभावनिरोहेणं सुहभावबीअंति, सुप्पणिहाणं सम्मं पढिअव्वं सम्मं सोअव्वं सम्मं अणुप्पेहिअव्वं ति । नमो नमियनमिआणं परमगुरुवीअरागाणं, नमो सेसनमुक्कारारिहाणं जयउ सव्वण्णुसासणं परमसंबोहिए सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा, सुहिणो भवंतु जीवा । २९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिनाम् अप्रमादयन्त्रम्-[ उपमिति] यावज्जीवमेते नाचरन्ति तनीयसीमपि परपीडां, न भाषन्ते सूक्ष्ममप्यलीकवचनं, न गृह्णन्ति दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं, धारयन्ति नवगुप्तिसनाथं ब्रह्मचर्य, वर्जयन्ति निःशेषतया परिग्रहं, न विदधते धर्मोपकरणशरीरयोरपि ममत्वबुद्धि, नासेवन्ते रजन्यां चतुर्भेदमप्याहारजातं, आददते प्रवचनोपवर्णितं समस्तोपधिविशुद्धं संयमयात्रामात्रसिद्धये निरवद्यमाहारादिकं , वर्तन्ते समितिगुप्तिपरिपूरितेनाचरणेन, पराक्रमन्ते विविधाभिग्रहकरणेन, परिहरन्ति अकल्याणमित्रयोगं, दर्शयन्ति सतामात्मभावं, न लयन्ति निजामुचितस्थिति, नापेक्षन्ते लोकमार्ग, मानयन्ति गुरुसंहति, चेष्टन्ते तत्तन्त्रतया, आकर्णयन्ति भगवदागमं भावयति महायत्नेन, अवलम्बते द्रव्यापदादिषु धैर्य, पर्यालोचन्त्यागामिनमपायं, यतन्ते प्रतिक्षणमसपत्नयोगेषु, लक्षयन्ति चित्तविश्रोतसिकां, प्रतिविदधते चानागतमेव तस्याः प्रतिविधानं, निर्मलयन्ति सततमसङ्गताभ्यासरततया मानसं, अभ्यस्यन्ति योगमार्ग, स्थापयन्ति चेतसि परमात्मानं, निबध्नन्ति तत्र धारणां, परित्यजन्ति बहिर्विक्षेपं, कुर्वन्ति तत्प्रत्यैक-तानमन्तःकरणं, यतन्ते योगसिद्धौ आपूरयन्ति शुक्लध्यानं, पश्यन्ति देहेन्द्रियादिविविक्तमात्मानं, लभन्ते परमसमाधिं, शरीरिणोऽपि सन्तो मुक्तिसुखभाजनम् इति। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री शत्रुञ्जय लघुकल्प ॥ अइमुत्तय केवलिणा कहिअं सेत्तुंजतित्थमाहप्पं । नारयरिसिस्स पुरओ, तं निसुणह भावओ भविआ सेतुंजे पुंडरीओ सिद्धो, मुणिकोडिपंच संजुत्तो । चित्तस्स पुण्णिमाए, सो भण्णइ तेण पुंडरीओ नमि - विनमिरायाणो, सिद्धा कोडिहिं दोहिं साहूणं । तह दविडवारिखिल्ला, निव्वुआ दस य कोडीओ पज्जुन्न-संबपमुहा, अद्भुट्ठाओ कुमारकोडीओ । तह पंडवा वि पंच य, सिद्धिं गया नारयरिसी य थावच्चासुय सेलगाय, मुणिणो वि तह राममुणी । भरहो दसरहपुत्तो, सिद्धा वंदामि सेतुंजे अन्ने वि खवियमोहा, उस भाइ-विसाल-वंससंभूआ । जे सिद्धा सेत्तुंजे, तं नमह मुणी असंखिज्जा पन्नासजोयणाई, आसी सेतुंज - वित्थरो मूले । दस जोयण सिहरतले, उच्चत्तं जोयणा अट्ठ जं लहइ अन्न तित्थे, उग्गेण तवेण बंभचेरेण । तं लहई पयत्तेणं, सेत्तुंजगिरिम्मि निवसंतो 118 11 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ३१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं कोडिए पुण्णं, कामिय आहारभोइया जे उ । तं लहइ तत्थ पुण्णं, एगोववासेण सेतुंजे जं किंचि नाम तित्थं, सग्गे पायालि माणुसे लोए । तं सव्वमेव दिट्ठ, पुंडरिए वंदिए संते पडिलाभंते संघं, दिट्ठमदिट्ठे य साहू सेतुंजे । कोडिगुणं च अदिट्ठे, दिट्ठे अ अनंतयं होइ केवलनाणुप्पत्ती, निव्वाणं आसी जत्थ साहूणं । पुंडरिओ वंदित्ता, सव्वे ते वंदिया तत्थ अट्ठावय सम्मेए, पावा चंपाइ उज्जंत नगे य । वंदित्ता पुण्णफलं, सयगुणं तं पि पुंडरीए पुआकरणे पुण्णं, एगगुणं सयगुणं च पडिमाए । जिणभवणेण सहस्संऽणंतगुणं पालणे होइ पडिमं चेइहरं वा, सित्तुंजगिरिस्स मत्थए कुणइ । भुत्तूण भरहवासं, वसइ सग्गे निरुवसग्गे नवकार - पोरिसीए, पुरिमड्ढे -गासणं च आयामं । पुंडरीयं च सरंतो, फलकंखी कुणड़ अभत्तट्टं छट्ठ-ट्ठम-दसम-दुवालसाणं मास -ऽद्धमासखमणाणं । तिगरण सुद्धो लहइ, सित्तुंजं संभरतो अ ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठेणं भत्तेणं अपाणेणं तु सत्त जत्ताइं । जो कुणइ सेत्तुंजे, तइय भवे लहइ सो मुक्खं अज्जवि दीसइ लोए, भत्तं चड़ऊण पुंडरीय नगे । सग्गे सुहेण वच्चइ, सीलविहूणो वि होणं छत्तं झयं पडागं, चामर - भिंगार - थालदाणेणं । विज्जाहरो अ हवइ, तह चक्की होइ रहदाणा दस वीस तीस चत्ता, लक्ख पन्नास पुप्फदामदाणेण । लहइ चउत्थ छट्ठट्ठम- दसम दुवालस फलाइं धुवे पक्खुववासो, मासक्खमणं कपूरधुवम्मि । कित्तिय मासक्खमणं, साहू पडिलाभिए लहड़ न वि तं सुवन्नभूमि - भूसणदाणेण अन्न तित्थेसु । जं पावइ पुण्णफलं, पूआ न्हवणेण सित्तुंजे कंतार- चोर - सावय-समुद्द - दारिद्द - रोग - रिउ - रुद्दा | मुच्चंति अविग्घेणं, जे सेत्तुंजं धरन्ति मणे सारावली - पयन्नग - गाहाओ, सुअहरेण भणिआओ । जो पढइ गुणइ निसुणइ, सो लहइ सित्तुंजजत्तफलं ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ३३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || वर्धमान विद्या स्तव ॥ विलसंतजोईबीए, परमिट्टिणं सरेमि पंचहं । सुह- तुट्ठि - पुट्ठि - संतिग, - आरुग्ग एए पए पयउ केवलसिरितिलयाणं, अट्टमहापाडिहेरकलियाणं । तिहुयण-पणयाणं, नमो अरिहंताणं सयाकालं सिद्धिगईमुवगयाणं, अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं । सासयरूवाणं नमो सिद्धाणमणंतसोक्खाणं जिणपहपयट्ठियाणं पंचविहायार-सार- चरियाणं । पवयण - वसहाण णमो आयरियाणं सुहनिहीणं सययं नमो उवज्झायाणं, अणवरय-सुय-पयाणेणं । अणुग्गहिय-मुणिगणाणं, अहीण- वरनाण-जलहीणं निच्चं पि नमो लोए सव्वसाहूणमणहवित्तीणं । मुत्तिवहुसंगमुस्सुयमणसाण वि निरभिसंगाणं तह ओहि - परमोहि- सव्वोहि- अणंतओहिजिणाणं च । सज्जोइ पयाण नमो जिणाण सव्वेसिमेएसिं तस्य नमो भगवओ, महइ महा सिद्धिणो कुणइ विज्जा । वीरे य सेणवीरे जयंति, अपराजिए सव्वे 118 11 ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ 11411 ॥६॥ 11611 ॥८॥ ३४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणेसो पंचनमुक्कारो, निवसड़ मणे महामंतो । ताण न पिसाय - साइणि भूयाइ - भयाइं पहवंति सुमरिय मित्तो वि इमो, तिलोयरक्खाविवक्खमणमहणो । रण - रायग-पासाइसु, विजयपडायं पयच्छेड़ - गुणिओ य सव्वपावप्पणासणो, तहय मंगलाणं च । सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं सुमइसूरिहिं इय वद्धमाणविज्जा चक्केसरपहुपसायसंपत्ता | पंच परमिट्ठणो मह लहु हवंतु सुलहा पड़भवंमि ( पंचपरमिद्विणो महसु सुलहा हवंतु पड़भवंमि ) श्री धर्मचक्र विद्या 11811 118011 ॥११॥ ॥१२॥ नमो भगवओ महई महावीरवद्धमाण- सामिस्स जस्स वरधम्मचक्कं जलंतं गच्छेई आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जुए वा, रणे वा, रायगणे वा, वारणे बंधणे मोहणे थंभणे सव्वसत्ताणं अपराजिओ भवामि स्वाहा । परमेष्ठी मंत्र नमो जिणाणं सरणाणं मंगलाणं लोगुत्तमाणं ह्राँ ह्रीँ हूँ हैं हो ह्रः असिआउसा त्रैलोक्यललामभूताय क्षुद्रोपद्रवशमनाय अर्हते नमः स्वाहा । ३५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमान विद्या ( १ ) ह्रीँ अर्ह हूँ हूँ: ह्रीँ नमो वर्धमानस्वामिने स्वाहा वीरे वीरे महावीरे, जयवीरे सेणवीरे, वद्धमाणवीरे, जए विजए जयन्ते अपराजिते, सव्वट्टसिद्धे निव्वुए महाणसे, महाबले स्वाहा । (२) ह्रीं नमो अरिहंताणं, ह्रीं नमो सिद्धाणं ह्रीं नमो आयरियाणं, ह्रीं नमो उवज्झायाणं, ह्रीँ नमो लोए सव्वसाहूणं ह्रीं नमो भगवओ अरिहंतस्स ( अरहओ भगवओ) महई महावीरवद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवइ महइ महाविज्जा । वीरे वीरे महावीरे, जयवीरे, सेणवीरे, वद्धमाणवीरे जए विजए जयंते अपराजिए अणिहए ह्रीं ठः ठः ठः स्वाहा । महावीरस्तव जड़ज्जा समणे भयवं महावीरे जिणुत्तमे । लोगणा सयंबुद्धे लोगंतिअविबोहिए वच्छं दिण्णदाणोह - सपूरिअजणासए । नाणत्तयसमाउत्ते, पुत्ते सिद्धत्थरायणो चिच्चा रज्जं च रटुं च पुरं अंतेउरं तहा । णिक्खमित्ता अगाराओ पव्वइए अणगारियं ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ३६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसहाणं णो भीए भेरवाणं खमाखमे । पंचहा समिए गुत्ते बंभयारी अकिंचणे निम्ममे निरहंकारे अकोहे मायवज्जिए । अमाए लोभविमुक्ते पसंते छिन्नबंधणे पुक्खरं व अलेवे य संखो इव निरंजणे । जीवे व्व अपडिग्घाए गयणं व निरासए वाउ इव अपडिबद्धे कुम्मे व गुत्तइंदिए । विप्पमुक्के विहंग व्व खग्गिसिंग व्व एगए भारंडे व्व अप्पमत्ते अ वसहे व्व जायथामए । कुंजरो व्व सोंडीरे सीहो व्व दुद्धरिस्सए सागरो इव गंभीरे चंदो व्व सोमलेस्सए । सूर व्व दित्तले हेमु व्व जायरूवए सव्वंसहे धरित्ति व्व सायरंबु व्व सच्छए । सुहुअहुआस व्व जलमाणे य तेजसा वासीचंदणकप्पे य समाणे लिड्डु-कंचणे । समे पूयावमाणेसु समे मुक्खे भवे तहा नाणेणं दंसणेणं च चरित्तेणमणुत्तरे । आलएणं विहारेण मद्दवेणज्जवेण य लाघवेणं च खंतीए गुत्तो मुत्ती अणुत्तरे । संवरेणं तवेणं च संजमेणं अणुत्तरे ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ 11211 ॥९॥ ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ३७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ॥१८॥ अणेगगुणसमाइण्णे धम्मसुक्काण झायए । घाइक्खएणं संजाए अणंतवरकेवली वीयरागे निग्गंथे सव्वण्णू सव्वदंसणे । देविंददाणविंदेहिं निवत्तिअमहामहे सव्वभासाणुगयाए भासाए सव्वसंसए । जुगवं सव्वजीवाणं छिन्नियं भिन्नगोचरे हिए सुहे य निस्सेयकारए सव्वपाणिणं । महव्वयाणि पंचेव पन्नवित्ता सभायणे संसारसायरंबुड्डजन्तु-संताण-तारए । जाणु व्व देसियं तित्थं संपत्ते पंचमं गयं से सिवे अयले निच्चे अरुवे अजरामरे । कम्मपवंचविमुक्के जए वीरे जए जिणे से जिणे वद्धमाणे य महावीरे महायसे । असंखदुक्खखिन्नाणं अम्हाणं देउ निव्वुइं इय परमपमोया संथुओ वीरणाहो, परमपसमदाणा देउ तुल्लत्तणं मे । असमदुह-सुहेसु सग्ग-सिद्धिभवेसु, कणयकचवरेसु सत्तुमित्तेसु वा वि पयडियवसइपहाणं सीसेणं जिणेसराणं सुगुरुणं । वीरजिणत्थयमेयं पढह कयं अभयसूरीहिं ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ .३८ . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि-पंन्यास पद धारक मुनिवरेषु प्रवर्तमान वर्धमान विद्या ॐ नमो अरहओ भगवओ महावीर वद्धमाणसामिस्स ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं नमो अणंतोहि जिणाणं नमो ह्रीँ श्री अणिहये स्वाहा सिद्धाणं नमो ओहिजिणाणं, ॐ ही ॐ ही नमो नमोलोए सव्वसाहणं / नमो अरिहंताणं आयरियाणं सिज्झउ मे भयवं महाविज्जा जये विजये जयन्ते अपराजिए ॐ नमो सव्वोहि जिणाणं _ नमो उवज्झायाणं ॐ हीं नमो परमोहि जिणाणं मवीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाण वीरे Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्वीर [ वर्धमान] विद्या म नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्वसाहूणं । हौँ नमो जिणाणं । हीं नमो ओहिजिणाणं ह्रीं नमो परमोहि जिणाणं । ही नमो सव्वोहि जिणाणं । ही नमो अणंतोहि जिणाणं । नमो कुट्ठबुद्धीणं । नमो बीयबुद्धीणं । नमो पयाणुसारीणं । ४ नमो संभिन्नसोइणं । नमो उज्जुमईणं । ॐ नमो विउलमईणं । ४ नमो चउद्दसपुव्वीणं । ॐ नमो दसपुव्वीणं । ४ नमो अटुंगमहानिमित्तकुसलाणं । ॐ नमो विउव्विणइविपत्ताणं । नमो विज्जाहरसमणाणं । नमो पन्नासमणाणं । ४ नमो चारणसमणाणं । ॐ नमो आगासगामीणं ।। नमो भगवओ अरिहंतस्स महइ महावीरवद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवई महाविज्जा । वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जये विजये जयन्ते अपराजिए सव्वट्ठसिद्धे अणिहए महाणसे महाबले महाबले २ सर्वज्ञानं नहीं यः सः क्षः स्वाहा । " हाँ ह्रीँ हूँ ह्रौ हुः जाँ जौं प्रौँ स्वाहा ।। ह्रीं श्रीं श्री ही धृति कीर्ति बुद्धिलक्ष्मी स्वाहा । ॐ मुक्तिसौख्य प्रदां ध्यायेत् विद्यां पञ्चदशाक्षरी । सर्वज्ञानं स्मरेन्मन्त्रं सर्वज्ञान प्रकाशनं ॥१॥ विद्या यथा → नमो अरिहंतसिद्ध सयोगिकेवलि स्वाहा । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञमन्त्रो यथा → श्री ही अहँ नमः वक्तुं न कश्चिदस्य प्रभावं सर्वतः क्षमः । समं भगवतां साम्यं सर्वज्ञानं बिभर्ति य ॥२॥ पञ्चवर्णं स्मरेन्मन्त्रं ध्यायेत् सर्वाभयप्रदं ॥ ॐ नमो सिद्धाणं इति मालोचितं यथा → , नमो अर्हत परमेष्ठिने परमयोगिने विस्फुरद्गुरुशुक्लध्यानाग्निना निर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौख्याय वरदाय मङ्गलाय स्वाहा । जापः १०००८, अष्टादश दोषरहिताय स्वाहा ॥ जाप १००८ प्रथममक्षतैर्जापः पश्चात्पुष्पैर्जापः ॥ विद्या हाँ अहँ नमो अरहंताणं । ह्रीं नमो सिद्धाणं न हुँनमो आयरियाणं । हूँ नमो हौ उवज्झायाणं हः नमो लोए सव्वसाहूणं । नमो भगवओ अरिहंतस्स महइ महावीर वद्धमाणसामिस्स सिज्झउ मे भगवइ महइ महाविज्जा। वीरे वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे महानंदणे सिसारवण्ण घोससारे सिद्धे सिद्धबीए अणिहए नायघोषे परमे परमसुहगे परमयपत्ते जये विजये जयन्ते अपराजिए सव्वुत्तमे स्वाहा। त्रिभुवन स्वामिनी विद्या। जोग्गे मग्गे तच्चे भूए सव्वे भविस्से अन्ते पक्खे जिन पक्खे स्वाहा।। कामधेनुमिवाचिन्त्यफलसंपादन क्षमां । अनवद्या जपेत् विद्यां गणभृत् वदनोद्गतां ॥ मंत्रा प्रणवपूर्वोऽयं फलमिहिषामिच्छूभिः । प्रणव हीनस्तु निर्वाणपदकांक्षिभिः गणभृद्भिः ।। .४१ . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॐकार विद्या स्तवन प्रणवस्त्वं ! परब्रह्मन् ! लोकनाथ ! जिनेश्वर ! । कामदस्त्वं मोक्षदस्त्वं, नकाराय नमो नमः पीतवर्णः श्वेतवर्णो, रक्तवर्णो हरिद्वरः । कृष्णवर्णो मतो देवः, नकाराय नमो नमः नमस्त्रिभुवनेशाय, रजोऽपोहाय भावतः । पञ्चदेवाय शुद्धाय, नकाराय नमो नमः मायादये नमोऽन्ताय, प्रणवान्तमयाय च । बीजराजाय हे देव ! नकाराय नमो नमः घनान्धकारनाशाय, चरते गगनेऽपि च । तालुरन्ध्रसमायाते, सप्रान्ताय नमोनमः गर्जन्तं मुखरन्ध्रेण, ललाटान्तरसंस्थितम् । पिधानं कर्णरन्ध्रेण, प्रणवं तं वयं नमः श्वेते शान्तिकपुष्ट्याख्याऽनवद्यादिकराय च । पीते लक्ष्मीकरायापि, काराय नमो नमः रक्ते वश्यकरायापि, कृष्णे शत्रुक्षयकृते । धूम्रवर्णे स्तम्भनाय, नकाराय नमो नमः ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ .४२. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॥९॥ ॥१०॥ ब्रह्मा विष्णु शिवो देवो, गणेशो वासवस्तथा । सूर्यश्चन्द्रस्त्वमेवातः, ॐकाराय नमो नमः न जपो न तपो दानं, न व्रतं संयमो न च । सर्वेषां मूलहेतुस्त्वं, तुकाराय नमो नमः इति स्तोत्रं जपन् वाऽपि, पठन् विद्यामिमां परा । स्वर्ग मोक्षं पदं धत्ते, विद्येयं फलदायिनी करोति मानवं विज्ञमज्ञं, मानविवर्जितम् । समानं स्यात् पंचसुगुरोविद्यैका सुखदा परा ॥११॥ ॥१२॥ उच्चालइय निहणंसु अदुवा आसणाउ खलइंसु । वोसठ्ठकायपणयाऽऽसी दुक्खसहेभगवं अपडिन्ने ॥ =પ્રભુને ઊંચે ઉપાડીને નીચે ફેંક્યા કે આસનોથી પાડી દીધા. તો પણ પ્રભુ તો કાયાને વોસિરાવીને પરિષદો સહન કરતા હતા. દુઃખ દૂર કરવાની ઇચ્છા રહિત પ્રભુ દુઃખ સહન કરતા હતા. .४३. w ww.jainelibrary.org Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्रीँकार विद्या स्तवन सवर्ण- पार्श्व-लय- मध्यसिद्धमधीश्वरं भास्वररूपभासम् । खण्डेन्दु-बिन्दु-स्फुटनाद - शोभं, त्वां शक्तिबीजं प्रमनाः प्रणौमि ॥१॥ ह्रीँकारमेकाक्षरमादिरूपं, मायाक्षरं कामदमादिमन्त्रम् । त्रैलोक्यवर्णं परमेष्ठिबीजं, विज्ञाः स्तुवन्तीशभवन्तमित्थम् 1 शिष्यः सुशिक्षां सुगुरोरवाप्य शुर्चीवशी धीरमनाश्च मौनी । तदात्मबीजस्य तनोतु जापमुपांशु, नित्यं विधिना विधिज्ञः ॥३॥ त्वां चिन्तयन् श्वेतकरानुकारं, ज्योत्स्नामयीं पश्यति यस्त्रिलोकीं । श्रयन्ति तं तत्क्षणतोऽनवद्यविद्या कलाशान्तिकपौष्टिकानि ॥४॥ ? त्वामेव बालारुणमण्डलाभं स्मृत्वा जगत् त्वत्करजालदीप्रम् । विलोकते यः किल तस्य विश्वं विश्वं भवेत् वश्यमवश्यमेव > ॥२॥ यस्तप्तचामीकरचारुदीप्रं, पिङ्गः प्रभं त्वां कलयेत् समन्तात् । सदा मुदा तस्य गृहे सहेलिं, करोति केलिं कमला चलाऽपि यः श्यामलं कज्जलमेचकाभं, त्वां वीक्षते वा तुषधूमधूम्रम् । त्रिपक्षः पक्षखलुतस्य वाताहताऽभ्रवद् यात्यचिरेण नाशम् आधारकन्दोद्गततन्तुसूक्ष्म - लक्ष्योद्भवं ब्रह्मसरोजवासम् । यो ध्यायति त्वां स्त्रवदिन्दुबिम्बामृतं स च स्यात् कविसार्वभौमः ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ४४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्दर्शनी स्वस्वमतापलेपैः, स्वे दैवते तन्मयबीजमेव । ध्यात्वा तदाराधनवैभवेन भवेदजेयः परवादिवृन्दैः ॥९॥ 118011 किं मन्त्रतन्त्रैर्विविधागमोक्तैः दुःसाध्य-संशीतिफलात्मलाभैः । सुसेव्यः सद्यः फलचिन्तितार्थाधिकप्रदश्वेदसि चेत्त्वमेकः चौरारि - मारि-ग्रह- रोग- लूता भूतादि दोषानल - बन्धनोत्था: । भियः प्रभावात् तव दूरमेव, नश्यन्ति पारीन्द्ररवादिवेभाः प्राप्नोत्यपुत्रः सुतमर्थहीन, श्रीदायते पत्तिरपीशतीह । दुःखी सुखी चाथ भवेन्न किं किं तद्रुपचिंतामणिचिन्तनेन पुष्पादि - जापामृत - होम - पूजा, क्रियाधिकारः सकलोऽस्तु दूरे । यः केवलं ध्यायति बीजमेव सौभाग्यलक्ष्मीर्वृणुते, स्वयं तम् ॥१३॥ तत्त्वोऽपि लोकाः सुकृतार्थकाम, मोक्षान् पुमर्थांश्चतुरां लभन्ते । यास्यन्ति याता अथ यान्ति ये ते, श्रेयः पदं त्वन्महिमालवः सः ॥ १४॥ विधाय यः प्राक्प्रणवं नमोऽन्ते मध्येकबीजं ननु जज्जपीति । तस्यैकवर्णां वितनोत्यवध्या कामार्जुनी कामितमेव विद्या ॥१५॥ मालमिमां स्तुतिमयी, सुगुणां त्रिलोकी, बीजस्य यः स्वहृदये निधयेत् क्रमात् सः ! अष्टसिद्धि रभसा लुठतीह तस्य, नित्यं महोत्सवपदं लभते क्रमात् सः ॥११॥ ॥१२॥ ॥१६॥ ४५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमस्कारमंत्राधिराजस्तोत्रम् ॥ यः सर्वदुःखदलने किल कल्पवृक्षश्चिंतामणी शुभमनोरथपूरणे सः । कन्दर्पदर्पदलनेकविधौ दवाग्निर्लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥१॥ सर्वागमश्रुतसमुद्रसुधेन्दुसार: चारित्रचंदनवनं सदनं सुखानां । कल्याणकुन्दनखनिर्दमनं दराणं, लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥२॥ संसारसागरनिमज्जदपूर्वनौका सिद्धौषधिविविधरोगविनाशने च । निःशेषलब्धिबलबोधतरोश्च बीजं लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥३॥ सूर्यसहस्त्रकिरणैर्हरति तमांसि सिंहो यथा गजगणांश्च नखैनिहन्ति, संसारवर्तिदुरितानि तथैव मंत्रो लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥४॥ पद्माकरे रुचिररश्मिभिरौषधीशं शीघ्रं प्रबोधयति निद्रितकैरवाणि । अन्तः सुषुप्तगुणपद्मदलानि चैवं लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥५॥ भूमंडलेषु शुभवस्तु न विद्यते तत् ध्यानेन यस्य ननु यन्नहि साधनीयम्। दुःखं न तद् भवति यस्य विनाशनं नो लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः॥६॥ श्रीपालदेवधरणेन्द्रसुदर्शनाद्या पल्लिपतिश्च शिवकंबलशंबलाद्याः । ध्यात्वा हि यं पद्मगुः परमं पवित्रं लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः॥७॥ भक्त्या दधाति हदि यो ननु मंत्रराजं दिव्यां गतिं व्रजति नूतनमुक्तिमोदं चूर्णीकरोति भवसञ्चितकर्मशैलं लोकत्रये विजयते परमेष्ठिमंत्रः ॥८॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४ ॥ ॥ श्री लब्धिपदगर्भितमहर्षिस्तोत्र ॥ जिनास्तथा सावधयश्चतुर्धा, सत्केवलज्ञानधनास्त्रिधा च । द्विधा मनःपर्यवशुद्धबोधा, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय सुकोष्ठसद्बीजपदानुसारि-धियो द्विधा पूर्वधराधिपाश्च । एकादशाङ्गाष्टनिमित्तविज्ञा, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय संस्पर्शनं संश्रवणं समन्ता-दास्वादन-घ्राण-विलोकनानि । संभिन्नसंस्त्रोततया विदन्ते, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय आमर्शविप्रण्मलखेलजल्ल-सर्वौषधिदृष्टिवचोविषाश्च । आशीविषा घोरपराक्रमाश्च, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय प्रश्नप्रधानाः श्रमणा मनोवाग्वपुर्बला वैक्रियलब्धिमन्तः । श्रीचारणव्योमविहारिणश्च, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय घृतामृतक्षीरमधूनि धर्मोपदेशवाणीभिरभित्रवन्तः । अक्षीणसंवासमहानसाश्च, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय सुशीततेजोमयतप्तलेश्या, दीपं तथोग्रं च तपश्चरन्तः । विद्याप्रसिद्धा अणिमादिसिद्धा, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय अन्येपि ये केचन लब्धिमन्तस्ते सिद्धचक्रे गुरुमण्डलस्थाः । ह्रीं तथा ऽहँ नम इत्युपेता, महर्षयः सन्तु सतां शिवाय इत्यादिलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने स्वाहा । गणसंपत्समृद्धाय श्रीसुधर्मस्वामिने स्वाहा । ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८ ॥ .४७. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिपदफलप्रकाशक कल्प म नमो अरहंताणं नमो जिणाणं ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौँ ह्नः अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय स्वाहा । ह्रौं अहँ असि आ उ सा हाँ हाँ स्वाहा । एतत् सर्वं प्रयोजनीयम्, विसूचिकाशान्तिर्भवन्ति १ । 'ॐ नमो अरहंताणं नमो जिणाणं हाँ पुष्प १०८ जपेत्, ज्वरनाशनम् २॥ ‘णमो परमोहिजिणाणं हाँ' शिरोरोगनाशनम् ३ । 'णमो सव्वोहिजिणाणं हाँ' अक्षिरोगनाशनम् ४। 'णमो अणंतोहिजिणाणं' कर्णरोगं नाशयति ५ । 'णमो कुट्ठबुद्धीणं' शूल-गुल्म-उदररोगं नाशयति ६ । 'णमो बीजबुद्धीणं' श्वास-हिक्कादि नाशयति ७ । 'णमो पदाणुसारीणं' परैः सह विरोधं कलहं नाशयति ८। 'णमो संभिन्नसोयाणं' कासं नाशयति ९। 'णमो पत्तेयबुद्धाणं' प्रतिवादिविद्याच्छेदनम् १०। 'णमो सयंबुद्धाणं' कवित्वं पाण्डित्यं भवति ११। 'णमो बोहिबुद्धाणं' अन्यतरगृहीते श्रुते एकसंघो भवति ५२ दिनं यावज्जपेत् १२ । । 'णमो उज्जुमईणं' शान्तिकं भवति, दिन २४ यावज्जपेत् १३। 'णमो विउलमईणं' बहुश्रुतत्वम्, लवणाम्लवर्ज भोजनम् १४। .४८. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‘णमो दसपुव्वीणं' सर्वाङ्गवेदी भवति १५ । 'णमो चउदसपुव्वीणं' जाप: १०८ स्वसमय-परसमयवेदी भवति १६।। 'णमो अटुंगनिमित्तकुसलाणं' जीवित-मरणादिकं जानाति १७ । ‘णमो विउव्वणरिद्धिपत्ताणं' काम्यवस्तूनि प्राप्नोति, दिन २८ जापः १८। ‘णमो विज्जाहराणं' उद्देशप्रदेशमानं खे गच्छति १९॥ 'णमो चारणाणं' चिन्तामुष्टिपदार्थस्वरूपं जानाति २० । 'णमो पण्हसमणाणं' आयुरवसानं जानाति २१॥ 'णमो आगासगामीणं' अन्तरिक्षे योजनमात्रं गमयति २२ । 'णमो आसीविषा(सा)णं' विद्वषणं पाश्र्वाष्टकमन्त्रक्रमेण २३। 'णमो दिट्ठीविसाणं' स्थावर जङ्गम-कृत्रिमविषं नाशयति २४। 'णमो उग्गतवाणं' वाचास्तम्भनम् २५। 'णमो दित्ततवाणं' रविवाराद् दिनत्रयं मध्याह्ने जापः, सेनास्तम्भ २६। 'णमो तत्ततवाणं' जलं परिजष्य पिबेत्, अग्निस्तम्भः २७। 'णमो महातवाणं' जलस्तम्भनम् २८ । 'णमो घोरतवाणं' विष-सर्प-मुखरोगादिनाश: २९। 'णमो घोरगुणाणं' लूतागर्भपिटकादि नाशयति ३०। 'णमो घोरगुणपरक्कमाणं' दुष्टमृगादीनां भयं नाशयति ३१। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णमो घोरगुणबंभचारीणं' ब्रह्मराक्षसादि नाशयति ३२॥ ‘णमो आमोसहिपत्ताणं' जन्मान्तरवैरेण पराभवं न करोति ३३। 'णमो खेलोसहिपत्ताणं' सर्वानपमृत्यूनपहरति ।३४।। 'णमो खेलोसहिपत्ताणं' अपस्मारमवलेपं चित्तविप्लवं नाचयति ३५। 'णमो विप्पोसहिपत्ताणं' गजमारी शाम्यति ३६। 'णमो सव्वोसहिपत्ताणं' मनुष्यमरकं नाशयति ३७॥ 'णमो मणबलीणं' अश्वमारी शाम्यति ३८। "णमो वचोबलीणं' अजमारी शाम्यति ३९॥ 'णमो कायबलीणं' गोमारी शाम्यति ४०। ‘णमो अमयसवीणं' समस्तमुपसर्ग शमयति ४१। 'णमो सप्पिसवीणं' एकाहिक-द्वयाहिक-त्र्याहिक-चातुर्थिक-पाक्षिकमासिक-सांवत्सरिक-वातादिसमस्तज्वरं नाशयति ४२। 'णमो खीरसवीणं' गोक्षीरं परिजप्य पिबेत्, दिन २४, क्षयं कासं गण्डमालादिकं च नाशयति ४३।। 'णमो अक्खीणमहाणसाणं' आकर्षणं ४४। 'णमो लोए सव्वसिद्धायदाणं' राजपुरुषादिवश्यं ४५। णमो भगवदो महदि महावीरवड्डमाणबुद्धिरिसीणं' चेत:समाधिमवस्थायां प्राप्नोति ४६ ।। ॥ इति लब्धिपदफलप्रकाशकः कल्पः ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥ सिद्धचक्रस्तोत्र ॥ ऊर्ध्वाधोरयुतं सबिन्दुसकलं ब्रह्मस्वरावेष्टितं, वर्गापूरितमष्टपत्रममलं सत्सन्धितत्त्वार्पितम् ॥ अन्तः पत्रतटेष्वनाहतपदं ह्रींकारसंवेष्टितं, देवं ध्यायति यः पुमान् स भवति वैरीभकण्ठीरवः यद्वर्गाष्टकपूरितं वरदलं सानाहतं नीरजं यहींकारकलापबिन्दुकलितं मध्ये त्रिरेखाञ्चितम् ॥ यत्सर्वार्थकरं परं गुणवतां कालत्रये वर्तिनां तत्क्लेशौघविनाशनं भवतु नः श्रीसिद्धचक्रेश्वरम् शब्दब्रह्मैकलीनं प्रबलबलयुतं सर्वतत्त्वप्रभावं, सानन्दं सर्वभद्रं गणधरवलयं दुःखपाशप्रणाशनम् ॥ यन्नैमित्तं वरिष्ठविपदि हदि धृतं सज्जनानां च नित्यं तद् दत्तं यस्य बाहौ रिपुकुलमथनं सिद्धचक्रं नमामि यच्छुद्धं व्योमबीजं ह्यध-उपरि रा( या )न्त-सिद्धाक्षरेण, यत्सन्धौ तत्त्वयुक्तं स्वपरमपदैर्वैष्टितं मध्यबीजम् । यत्सीमन्तं निरतं विगतकलिमलं मायया वेष्टिताङ्गं जीयात् तत् सिद्धचक्रं विमलवरगुणं देवनागेन्द्रवन्द्यम् यद् वश्यादिककारकं बहुविधं कामार्थिनां कामदम् यल्लक्षाधिकजापसिद्धविमलं सत्संपदां दायकम् । ॥३॥ ॥४॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६॥ यत् कुष्ठादिकदुष्टदोषदलनं दुःखाभिभूतात्मनाम् यत् तत्त्वैकफलप्रदं विजयतां श्रीसिद्धचक्रं भुवि ऊर्ध्वाधोरेफयुक्तं गगनमुपहतं बिन्दुनाऽनाहतेन ह्रींकारेण प्रकृष्टं स्वरसुगुरुपदैर्वेष्टितं बाह्यदेशे । पद्मं वर्गाष्टकाङ्कं दलमुखविवरेऽनाहताढ्यं तदित्थं ? ह्रींकारेण त्रिवेष्टं कलशवलयितं सिद्धिदं सिद्धचक्रम् व्योमोर्ध्वाधोरयुक्तं शिरसि च विलसन् नादबिन्द्वर्धचन्द्रम् स्वाहान्तौंकारपूर्वैर्गुरुभिरभिवृत-सस्वरं चाष्टवर्गम् । अन्तस्थानाहतश्रीगणधरवलयालङ्कृतं ध्यानसाध्यं वन्दे श्रीसिद्धचक्रं सुरगणमहितं मायया त्रि:परीतम् यत् सर्वाङ्गिहितं मनुष्यमहितं सौख्यालयं धर्मिणाम् यद् दोषैः परिवर्जितम् सुगदितं ध्यानाधिरूढाङ्कितम् । यत् कर्मक्षयकारकं सुधवलं मन्त्राधिपाधिष्ठितम् तन्नः पातु वरं भवाब्धिशमनं श्रीसिद्धचक्रं सदा ॥७॥ ॥८॥ अलोलुए नाम उक्कोसेसु आहारादिसु अलुद्धो भवइ अहवा जो अप्पणो वि देहे अपडिबढ़ो सो अलोलुओ (अलोलुय) भण्णइ । दश. चूर्णि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री गौतमाष्टकम् ॥ श्रीइन्द्रभूतिं वसुभूतिपुत्रं, पृथ्वीभवं गौतमगोत्ररत्नम् । स्तुवन्ति देवासुरमानवेन्द्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥ १ ॥ श्रीवर्धमानात् त्रिपदीमवाप्य, मुहूर्तमात्रेण कृतानि येन । अङ्गानि पूर्वाणि चतुर्दशाऽपि स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे श्रीवीरनाथेन पुरा प्रणीतम्, मन्त्रं महानन्दसुखाय यस्य । ध्यायन्त्यमी सूरिवराः समग्राः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥३॥ यस्याभिधानं मुनयोऽपि सर्वे, गृह्णन्ति भिक्षाभ्रमणस्य काले । मिष्टान्नपानाम्बरपूर्णकामाः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे अष्टापदाद्रौ गगने स्वशक्त्या, ययौ जिनानां पदवन्दनाय । निशम्य तीर्थातिशयं सुरेभ्यः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे त्रिपञ्चसङ्ख्याशततापसानां तपःकृशानामपुनर्भवाय । अक्षीणलब्ध्या परमान्नदाता, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे , सदक्षिणं भोजनमेव देयं, साधर्मिकं सङ्घ-सपर्ययेति । कैवल्यवस्त्रं प्रददौ मुनीनां स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे 1 ॥२॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ५३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवं गते भर्तरि वीरनाथे, युगप्रधानत्वमिहैव मत्वा । पट्टाभिषेको विदधे सुरेन्द्रैः, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे त्रैलोक्यबीजं परमेष्ठिबीजं, सद्ज्ञानबीजं जिनराजबीजं । यन्नाम चोक्तं विदधाति सिद्धि, स गौतमो यच्छतु वाञ्छितं मे ॥९॥ श्रीगौतमस्याष्टकमादरेण, प्रबोधकाले मुनिपुङ्गवा ये । पठन्ति ते सूरिपदं सदैवानन्दं लभन्ते सुतरां क्रमेण પ્રભુ! આપનું સંયમ જીવન પામ્યા પછી કોઈ ફળ મને મળવાનું હોય તો મને આપના જેવી અપ્રમત્ત દશા આપજો. આપના જેવી જાગૃતિ, નિષ્કષાયભાવ આપજો. આપના જેવી વિશુદ્ધિ અને નિર્મળતા આપજો આપના જેવું સંકલ્પબળ, સમાધિ અને સમતા આપજો આપના જેવો સર્વજીવ પ્રત્યેનો આદર + કરૂણાભાવ આપજો. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥ सिरि गोयम थवो ॥ जय सिरिविलासभवणं, वीरजिणिंदस्स पढम सीसवरं । सयलगुणलद्धिजलहि, सिरि गोयमगणहरं वंदे 7 सह नमो भगवओ, जगगुरुणो गोयमस्स सिद्धस्स । बुद्धस्स, पारगस्स य, अक्खीणमहाणसस्स सया अवतर अवतर भगवन्, मम हृदये भास्करीश्रियं बिभृहि । ॐ ह्रीँ श्री ज्ञानादि, वितरतु तुभ्यं नमः स्वाहा वसई तुह नाममंतो, जस्स मणे सयलचिंतियं दितो । चिंतामणि-सुरपायव-कामघडाइहिं पि किं तस्स सिरि गोयम गणनायग, तिहुअणजणसरण, दुरियदुहहरण । भवतारण रिउवारण, होसु अणाहस्स मह नाहो मेरुसिरे सिंहासण, कणयमहाकमलसहस्सपत्तट्ठियं । सूरिंगणभगणविसयं, ससिप्पहं गोयमं वंदे सव्वसुहलद्धिदाया, सुमरिअमित्तो वि गोयमं भयवं । पइट्ठियगणहरमंतो, दिज्ज मह वंछियं सयलं इअ सिरि-गोयम-संथुअ-मुणिसुंदरसूरि थुइपयं मएवि तुम्हं । देहि मह सिद्धि सिवफलयं, भुवणकप्पतरुवरस्स ॥४ ॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गोतमस्वामी छन्द पेलो गणधर वीरनो रे, शासननो शणगार, गौतम गोत्र तणो धणी रे, गुणगणी रयणभंडार, जयंकर जीवो गौतम स्वाम. तो नवनिधि होय जस नाम, ए ए तो पुरे वाञ्छित ठाम, ए तो गुणमणि केरो धाम जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥१॥ ज्येष्ठा नक्षत्रे जनमिया रे, गोबर गाम मोझार, वसुभूतिसुत पृथ्वी तणो रे, मानव मोहनगार. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥२॥ समवसरण इन्द्रे रच्युं रे, बेठां श्री वर्धमान, बेठी ते बारे परषदा रे, सुणे रे श्री जिनवाण. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ||३|| वीर कन्हे संजम लह्युं रे, पंचसयां परिवार, छठ छठ तपने पारणे रे, करतां उग्र विहार. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥४॥ अष्टापद लब्धिए चड्या रे, वांद्या जिन चोवीश, ५६ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जग चिंतामणी तिहां कर्तुं रे, स्तविया श्री जगदीश. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥५ ॥ पनरसें तापस पारणे रे, खीर खांडघृत भरपुर, अमिय जास अंगूठडे रे, उग्यो ते केवलसूर. जयंकर जीवो गौतम स्वाम || ६ || दिवाळी दिने उपन्युं रे, प्रभाते केवल नाण, अक्षय लब्धि तणा धणी रे, नामे ते सफळ विहाण. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥७॥ पचास वरस घरवासमां रे, छद्मस्थाए त्रीश, बार वरस लगे केवळी रे, बाणुं रे आयु जगीश. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥८॥ गौतम गणधर वंदिया रे, श्री विजयसेनसूरीश, ए गुरुचरण पसाउल रे, धीर नामे निशदिश. जयंकर जीवो गौतम स्वाम ॥ ९ ॥ ५७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतसिद्धसारस्वतस्तोत्र कलमरालविहंगमवाहना, सितदुकूलविभूषणलेपना । प्रणतभूमिरुहामृतसारिणी, प्रवरदेहविभाभरधारिणी अमृतपूर्णकमण्डलुहारिणी, त्रिदशदानवमानवसेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनाम्बुजम् जिनपतिप्रथिताखिलवाङ्मयी, गणधराऽऽननमण्डपनर्तकी । गुरुमुखाम्बुजखेलनहंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता अमृतदीधितिबिम्बसमाननां, त्रिजगतीजननिर्मितमाननाम् नवरसामृतवीचिसरस्वतीम्, प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीम् विततकेतकपत्रविलोचने ! विहितसंसृतिदुष्कृतमोचने ! | धवलपक्षविहङ्गमलाञ्छिते, जय सरस्वति ! पूरितवाञ्छिते भवदनुग्रहलेशतरङ्गितास्तदुचितं प्रवदंति विपश्चितः । नृपसभासु यतः कमलाबला, कुचकलाललनानि वितन्वते गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात्, कलितकोमलवाक्यसुधोर्मयः । चकितबालकुरङ्गविलोचना, जनमनांसि हरन्तितरां नराः करसरोरुहखेलनचञ्चला, तव विभाति वरा जपमालिका । श्रुतपयोनिधिमध्यविकस्वरो-ज्ज्वलतरङ्गकलाग्रहसाग्रहा द्विरद- केसरिमारि - भुजङ्गमाऽसहनतस्करराजरुजां भयम् । तव गुणावलिगानतरङ्गिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते 118 11 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ በረበ ॥९॥ ५८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्रीं क्लीं ब्लीं ततः श्रीं तदनु, ह् स् क् लू ह्रीं अथ ऐं नमोऽन्ते । लक्षं साक्षाज्जपेद्यः करसमविधिना सत्तपा ब्रह्मचारी निर्यान्तीं चन्द्रबिम्बात् कलयति मनसा त्वां जगच्चन्द्रिकाभां सोऽत्यर्थं वह्निकुण्डे विहितघृतहुतिः स्याद् दशांशेन विद्वान् ॥१०॥ रे रे लक्षणकाव्यनाटक- कथा चम्पूसमालोकने क्वायासं वितनोषि बालिश ! मुधा किं नम्रवक्त्राम्बुजः । भक्त्याऽऽराधय मन्त्रराजमहसाऽनेनानिशं भारतीं येन त्वं कवितावितानसविताऽद्वैतप्रबुद्धायसे चञ्चवच्चन्द्रमुखी प्रसिद्धमहिमा स्वाच्छंद्यराज्यप्रदा, नायासेन सुरासुरेश्वरगणैरभ्यर्चिता भक्तितः । देवी संस्तुतवैभवा मलयजा लेपाङ्गरङ्गति सा मां पातु सरस्वती भगवती त्रैलोक्यसंजीवनी स्तवनमेतदनेकगुणान्वितं पठति यो भविकः प्रमनाः प्रगे स सहसा मधुरैर्वचनामृतैर्नृपगणानपि रंजयति स्फुटम् । , मंत्र संसारसारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारिमंत्रं, संसारोच्छेदमंत्रं विषमविषहरं कर्मनिर्मूलमंत्रं । मंत्रं सिद्धिप्रदानं शिवसुखजननं केवलज्ञानमंत्रं, मंत्रं श्रीजैनमंत्रं जप जप जपितं जन्म निर्वाणमंत्रं ॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सरस्वती नाम स्तोत्र चन्द्रार्क-कोटि घटितोज्वल-दिव्य मूर्ते ! श्री चन्द्रिका - कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे ! कामार्थ- दायि- कलहंस-समाधि-रूढे ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि देवा - सुरेन्द्र- नत मौलि मणि- प्ररोचि, श्री मंजरी - निविड-रंजित पादपद्ये ! नीलालके ! प्रमदहस्ति - समानयाने ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि केयूर हार - मणि कुण्डल - मुद्रिकाद्यैः, सर्वाङ्ग भूषण - नरेन्द्र-मुनीन्द्र- वंद्ये ! नानासुरनवर निर्मल मौलियुक्ते ! - वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि मंजीर कोत्कनक कंकण किंकणीनां, कांच्याश्च झंकृत रवेण विराजमाने ! सद्धर्म - वारिनिधि संतति वर्द्धमाने ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि 11811 ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ६० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंकेलि पल्लव - विनिंदित पाणियुग्मे ! पद्मासने दिवस - पद्मसमान - वक्त्रे ! जैनेन्द्र- वक्त्र- भवदिव्य- समस्त - भाषे ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि अर्द्धेन्दु-मण्डित जटा - ललित-स्वरूप ! शास्त्र - प्रकाशिनि - समस्त - कलाधिनाथे ! चिन्मुद्रिका - जपसराभय-पुस्तकांके ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि डिंडीरपिंड - हिमशंखसिताभ्रहारे ! पूर्णेन्दु - बिम्बरुचि - शोभित - दिव्यगात्रे ! चांचल्यमान - मृगशाव ललाट-नेत्रे ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि पूज्ये पवित्र करणोन्नत कामरूपे ! नित्यं फणीन्द्र - गरुड़ाधिप- किन्नरेन्द्रैः, विद्याधरेन्द्र- सुरयक्ष- समस्त - वृन्दैः ! वागीश्वर ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि सरस्वत्या प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवा: तस्मान्निश्चल - भावेन, पूजनीया सरस्वती ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ 1 ॥९॥ ६१ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसर्वज्ञ-मुखोत्पन्ना, भारती बहुभाषिणी अज्ञानतिमिरं हन्ति, विद्या-बहुविकासिनी सरस्वती मया दृष्टा, दिव्या कमललोचना । हंसस्कंध - समारूढ़ा, वीणा पुस्तक- धारिणी प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती । तृतीयं शारदादेवी, चतुर्थं हंसगामिनी पंचमं विदुषां माता, षष्ठं वागीश्वरी तथा । कुमारी सप्तमं प्रोक्तं, अष्टं ब्रह्मचारिणी नवमं च जगन्माता, दशमं ब्राह्मिनी तथा । एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं वरदा भवेत् वाणी त्रयोदशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशं । पंचदशं श्रुतदेवी, षोडशं गौर्निगद्यते 118011 ६२ ॥ ११ ॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ एतानि श्रुतनामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत् । तस्य संतुष्यति माता, शारदा वरदा भवेत् ॥१६॥ सरस्वती ! नमस्तुभ्यं, वरदे ! कामरूपिणि ! विद्यारंभं करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥१७॥ ॥ इति श्री सरस्वती नाम स्तोत्रम् ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूरिमन्त्रस्तोत्र जयश्रियं श्रीजिनशासनस्य कलिद्विषोत्थापितविघ्नहर्ता । परां यएवातनुतेऽधुनापि श्री सूरिमन्त्रं प्रयतः स्तुवे तम् ॥१॥ त्वं तीर्थकृत् त्वं परमं च तीर्थं त्वं गौतमस्त्वं गणभृत् सुधर्मा । त्वं विश्वनेता त्वमसीहितानां निधिः सुखानामिह मन्त्रराज ! ॥२॥ किं कामधेनुः सुरपादपो वा किं कामकुम्भः सुमनोमणिर्वा । यदि प्रसन्नः सकलेष्टदायी श्रीसूरिमन्त्रोऽपि जगत्पतिस्त्वम् ॥३॥ त्वयि स्थिते चेतसि के नु विघ्नाः के दुर्जना: के प्रतिपक्षभूपाः । के वैरिणः के दुरुपद्रवाश्च स्वामिन् ! समग्रं हि सुखाकृदेव ॥४॥ न लब्ध्यः काश्चन ते प्रभावात् त्वयि प्रभौ भक्तिभृतां दुरापाः । सदा सुखानन्दितचेतसो यत् खेलन्ति ते श्रीमहिमप्रभाभिः ॥५॥ प्रवर्तते तीर्थमिदं जिनस्य जयद् यदा दुःप्रसहं कुदृष्टेः । यदागमो यद्विजयी च धर्मस्तदत्र हेतुर्भगव॑स्त्वमेव श्री वर्धमानस्य निदेशतस्त्वं प्रतिष्ठितो गौतमगच्छनेत्रा । सिद्धीः समग्राः शिवसम्पदश्च सर्वोग्रपुण्यौघफलानि दत्से । ॥७॥ इति महामुनिसुन्दरसंस्तवास्पद गणेश्वरमन्त्रपते मया । महिमवारिनिधे स्तुत भक्तितो वितर मेऽर्थितसर्वसुखश्रियः ॥८॥ ॥ इति श्री सूरिमन्त्रस्तोत्र सम्पूर्णम् ॥ ॥६॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती - अष्टक आराद्धा श्रद्धया सम्यग्ज्ञानादिविजयश्रियम् । ददती जगतां मातर्जय भारत देवते चतुर्वरदवीणाक्षसूत्रपुस्तकभृद्भुजे । मरालवाहने शक्रक्रियमाणा श्रमस्तवे आ श्रीसूरिमन्त्रस्य विद्यापीठे पदे स्थिते । श्रीमद्गौतमपादाब्जपरिचर्यामरालिके श्रीजिनेन्द्रमुखाम्भोजविलासवसते सदा । जिनागमसुधाम्भोधिमध्यासिनि विधुद्युते कविहृत्कमलाक्रीडप्रबोधतरणिप्रभे । प्रसीद भगवत्याशु देहि भारति मेऽर्थितम् ऐं नमः प्रमुखैर्मन्त्रैराराध्ये विश्वदेवते । मरुन्मणिलताजैत्रप्रभावसुभगे जय आराध्या दर्शनैः सर्वैः, सकलाभीष्टदायिनी । रातु बोधिं विशुद्धं, मे, वाग्देवि जिनभक्तिभृत् स्तूयमाने महानेकमुनिसुंदरसंस्तवैः । स्तुते मयापि मे देहि प्रार्थितं श्रीसरस्वति इति श्रीसूरिमन्त्रप्रथमपीठाधिष्ठायिका श्रीभारतीस्तोत्र । ६४ 118 11 ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ 11211 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री त्रिभुवनस्वामिनी देवी स्तोत्र जय श्रीगणभृन्मन्त्रविद्यास्थानप्रतिष्ठिते । देवि त्रिभुवन स्वामिन्यनन्तमहिमद्युते जिनराजपदाम्भोजविलासवरलानिभे । गौतमस्वामिपद्भक्ते सक्ते भक्तालिपालने महापराक्रमोल्लास सहस्त्रभुजराजिते । मानुषोत्तरशैलेन्द्रनिवासिनि जयोत्तमे महादेवि सूरिवृन्दवन्द्यमानक्रमाम्बुजे । सुरासुरनराधीशप्रशस्यगुणवैभवे शाकिनी - डाकिनी - भूत-प्रेतादिग्रहनाशिनि । सर्वद्वेषिगणोच्चाटन्यमेयबलशालिनि नृतिर्यक्देवताद्युत्थक्षुद्रोपद्रववारिणि । संस्मृतेरपि सर्वेष्टसुख कल्याणकारिणि सर्वसूरिगुणस्तुत्ये द्वि( धा ) वैरिजयश्रियम् । देहि मे शुद्धबोधि च समाधानं च सर्वतः स्तूयमाने महानेकमुनिसुन्दरसंस्तवैः । स्तुते मयापि मेऽभीष्टं देहि त्रिभुवनेश्वरि इति श्री सूरिमन्त्रस्य विद्याभिधानद्वितीयपीठाधिष्ठात्र्याः श्रीत्रिभुवनस्वामिनीदेवी स्तुतिः ॥ 112 11 ९. ॥२॥ ॥३॥ 11811 11411 ॥६॥ ॥७॥ በረ ६५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥४॥ श्री श्रीदेवी स्तोत्र सुरराजैः चतुःषष्ठ्या, स्तूयमानगुणप्रभे। जय श्रीदेवि विश्वैकमातराश्रितवत्सले ॥१॥ हिमवच्छिखरे पाहदपद्मनिवासिनि । गौतमक्रमसेवैकरसिके विश्वमोहिनि ॥२॥ सूरिमन्त्रतृतीयोपविद्यापदनिवेशिते । सूरिराजहृदम्भोजविलासिनि चतुर्भुजे ॥३॥ श्रीचन्द्रप्रभभक्त्याऽतिपूते पद्माननेक्षणे । पद्महस्ते महारत्ननिधिराजिविराजिते गजयानेऽप्सरः श्रेणिगीतनाट्यादिरञ्जिते । सदाशिरोधृतछत्रचलच्चामरभासिते श्रीजैनशासनानन्तमहिमाम्बुधिचन्द्रिके। नानामन्त्रैः समाराध्ये सुरासुरनरर्षिभिः विजया-जया-जयन्ती-नन्दा-भद्राद्युपासिते । स्मृतिस्तवनपूजाभिः सर्वविघ्नभयापहे ॥७॥ विश्वकल्पलते लक्ष्मि सर्वालङ्कृत्यलङ्कृते । शुद्धबोधिसमाधानसर्वसिद्धी: प्रयच्छ मे ॥८॥ स्तूयमाने महानेकमुनिसुन्दरसंस्तवैः । स्तुते मयापि सर्वेष्टसिद्धि श्रीदेवि देहि मे ॥९॥ इति श्रीसूरिमन्त्रतृतीयपीठाधिष्ठात्र्या:श्रीलक्ष्मीमहादेव्याः स्तुतिः॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री यक्षराजगणिपिटक स्तोत्र श्रीमन्त्रपीठनाम्नि प्रतिष्ठितं सूरिमन्त्रतुर्यपदे । गणिपिटकयक्षराजं सर्वारिजयश्रिये नौमि अनपञ्चप्रज्ञप्तिश्रीमद्यक्षाधिपोऽतिजिनभक्तः । श्रीगौतमपदसेवानिरतस्तद्भक्तविघ्नहरः शर-चाप-खड्ग-खेटकामुख्यास्त्रैः विश्वरक्षणप्रभुभिः । वरदाभयैश्च हस्तैर्विंशत्या भ्राजमानाङ्गः ॥३॥ षोडशयक्षसहस्त्रप्रभुर्जगज्जैत्रविक्रम रिपुहा । सर्वाश्रितेष्टदानं (ने) प्रगल्भमहिमाम्बुधिर्जयातात् (त्रिभिर्विशेषकम् ) जिनशासनविद्वेषिव्रातकृताशेषविघ्नतिमिररविः । सुविहितगुरुगुणसङ्घाऽनवरतरक्षाभियुक्ततमः गणधरमन्त्राराधकसूरिवरप्रार्थितार्थकल्पद्रुः । ॥१॥ 11211 11811 ॥५॥ सर्वक्षुद्रोपद्रवहरणोद्युक्तः सकलसङ्के स्मृतिपूजास्तवनाद्यैः संनिहितोऽस्यवहितश्च यक्षेश । श्रीगणिपिटक ! सुरोत्तम । विघ्नहृतेर्देहि मे तुष्टिं स्तूयमानमहानेकमुनिसुन्दरसंस्तवैः । इति मे स्तुवतो भूयात् यक्षेश सकलेष्टकृत् ॥८॥ इति श्रीसूरिमन्त्रचतुर्थपीठाधिष्ठायक श्रीगणिपिटकयक्षाधिराजस्तुतिः ॥ ॥६॥ ॥७॥ ६७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पञ्चमपीठाधिष्ठायक स्तोत्र ॥४ ॥ पञ्चमे गणभृद्विद्यापीठे श्रीमन्त्रनायके । प्रतिष्ठितान् सुरेन्द्रादीन् स्तुवे द्वेषिजयश्रिये ॥१॥ सौधर्मेन्द्रादयः कल्पाधिपा मे द्वादशवाञ्छितम् । ददतां चमरेन्द्राद्या भवनेशाश्च विंशतिः ॥२॥ दधुः कालमहाकालप्रमुखा व्यन्तरेश्वराः । श्रेयः संनिहिताद्याश्च मम षोडश षोडश ॥३॥ ज्योतिश्चक्राधिपाश्चंद्रसूर्याः सर्वग्रहान्विताः । रोहिण्याद्यास्तथा विद्यादेव्यः षोडश पान्तु माम् गोमुखप्रमुखा यक्षाः पान्तु शासनरक्षकाः । चक्रेश्वर्यादिदेव्यश्च मां चतुर्विंशतिः सदा सुराः संनिहिताः सर्वे सुर्यश्चेद्धप्रभावभाः । रेवतीरोहिणीनागार्जुनार्यखपुटादयः । ॥६॥ यशोभद्रादयश्चापि सूरयो महिमार्णवाः । सिद्धश्रीसूरिमन्त्रा मे रान्तु विघ्नहृतोऽर्थितं ॥७॥ इति स्तुतगुणाः श्रीमन्मन्त्रराजप्रतिष्ठिताः । देवता ददतामिष्टं मुनिसुन्दरसूरये ॥८॥ ॥ इति श्रीगणधरमन्त्रपञ्चमपीठश्रीमन्त्रराजाधिष्ठायकस्तुतिः ॥ • ६८. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चक्रेश्वरीदेवी स्तोत्र जय श्रीमद्युगादीशपदपद्ममधुव्रते । सुरेन्द्रादिसुरश्रेणिश्लाघ्यसद्गुणविक्रमे जय श्रीदेवदेवेन्द्रप्रशस्यगुणविक्रमे । श्रीयुगादिजगन्नाथक्रमाम्भोजमधुव्रते चक्रवित्रासिताशेषरिपुचक्रपराक्रमे । चक्रेश्वरी सूरिवृन्दवन्द्यमानक्रमाम्बुजे तीर्थप्रवृत्तिहेतुश्री सूरिमन्त्रस्य पञ्चमे । मन्त्रराजाभिधे स्थाने सुप्रतिष्ठे महाबले वरदेष्वरिपाशांकितापसव्यचतुर्भुजे । सत्त्वाह्लादिनी हे चक्रांकुशसव्यचतुः शये सुपर्णवाहने श्रीमद्गौतमोपास्तिलालसे । स्वर्णवर्णे सदोद्भासिसारालङ्कारराजिते सूरिभिः सततं ध्येये तेषामिष्टप्रसाधिके । सर्वविघ्नावलीघातनिघ्ने रक्षापरे सदा चतुर्विधस्य संघस्य सर्वोपद्रवनाशिनि । समाधानं सुबोधिं च सदा देहीष्टदे मम स्तूयमानमहानेकमुनिसुन्दरसंस्तवैः । स्तुते मयाप्यभीष्टाप्ति चक्रेश्वरी विधेहि मे ॥ इति चक्रेश्वरी देवी स्तोत्रम् ॥ 118 11 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ ॥९॥ ६९ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चक्रेश्वरी स्तोत्र श्री चक्रे चक्र भीमे ललित वर भुजे लीलया लालयन्ती, चक्रं विद्युत्प्रकाशं ज्वलित शत शिश्वे खे खगेन्द्राधिरूढ़े। तत्त्वैरुद्भूत भासा सकल गुण निधे मन्त्र रूप स्वकान्ते कोट्यादित्य प्रकाशे त्रिभुवन विदिते त्राहि मां देवि चक्रे ॥१॥ क्लीं क्लीनें क्लिँ प्रक्रीले किलि-किलित खे दुंदुभिध्वाननादे, आँ हुँ हुँ ह्रीं सु चक्रे क्रमसि जगदिदं चक्र विक्रान्त कीर्तिः । क्षाँ आँ भासयंति त्रिभुवन मखिलं सप्त तेजः प्रकाशे क्षा क्षीं छू विस्फुरन्ति प्रबल बल युते त्राहि मां देवि चक्रे ॥२॥ यूँ झीँ दूँ पूँ प्रसिद्धे सुजन जन पदानां सदा कामधेनुः, यूँ क्ष्मी श्री कीर्ति बुद्धि प्रथयति वरदे त्वं महा मन्त्र मूर्ते । त्रैलोक्यं क्षोभयंति कुरु कुरु हरहं नीर नाद प्रघोषे क्ली क्लिँ ह्रीं द्रावयन्ती द्रुत कनक निभे त्राहि मां देवि चक्रे ॥३॥ ॐ हूं द्राँ ह्रीं सुबीजैः प्रवर गुण धरै र्मोहिनी शोषणी त्वं, शैले-शैले नटन्ती विजय जयकरी रौद्र मूर्ते त्रि नेत्रे । वज्र क्रोधे सुभीमे रहसि करतले भ्रामयन्ति सुचक्रं रूँ रूँ राँ हः कराले भगवति वरदे त्राहि मां देवि चक्रे ॥४॥ ॐ ह्रीँ हुँ हुँ सुहर्षे ह ह ह ह हिम कुन्देन्दु संकाश बीजैः, हाँ ही हूँ क्षः सुवर्णैः कुवलय नयने द्विद्रुमां द्रावयन्ती । .७० . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ हाँ ह: क्ष स्त्रिलोकी ममृत जलधरा वारुणैः प्लावयन्ती झाँ झाँ हूँ सः सुबीजै: प्रबल बल भया त्राहि मां देवि चक्रे ॥५॥ आँ कों ह्रीं क्षुयुताँगे प्रलय दिन करास्तस्य कोटि प्रकाशे, अष्टौ चक्राणि धृत्वा विमलः निज भुजैः पद्ममेकं फलं च । द्वाभ्यां चक्र करालं निशित चल शिखं तार्क्ष्य रूढ़ा प्रचण्डा हाँ हाँ हाँ क्षोभकारी र र र र रमणे त्राहि मां देवि चक्रे ॥६॥ खूं धुँ हुँ धुँ विचित्रे त्रिनयन नयने नाद बिन्दूग्र नेत्रे, चूँ चूँ चूँ वज्र धारा ल ल ल ल ललिते नील केशालि केशे । चूँ चूँ चूँ चक्र धारा चल चल चलिते नूपुरै लेलि लीले । श्रीं ह्रीं ह्रीं सुकीर्तिः सुरवर नमिते त्राहि मां देवि चक्रे ॥७॥ ॐ ह्रीं फट्कार मन्त्रे हृदय मुपगते संधि वश्याधिकारे, हाँ ह्रीं क्लीं क्लिं सुघोषे प्रलय घन घटा टोप शब्द प्रनादे । वाँ फाँ क्रोध मूर्ते धगधगत शिखे ज्वालिनि ज्वाल माले रौद्रे हुँ कार रूपे प्रकटित दर्शने त्राहि मां देवि चक्रे ॥८॥ ७१ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मावती स्तोत्र ॥१॥ ॥२॥ ॐ नमोऽनेकांतदुर्वारमतसवंशमानवे । जिनाय सकलाभिष्टदायिने, कामधेनवे स्वस्ति श्री जिनराजमार्गकमले प्रद्योतसूर्यप्रभे । स्वस्ति श्री फणिनायिके !, सुरनराराध्ये जगन्मंगले । स्वस्ति श्री कनकाद्रिसन्निभमहासिंहासनालंकृते । विद्यानामधिदेवते !, प्रतिदिनं मां रक्ष पद्माम्बिके जय जय जगदम्बे ! मत्तकुंभे ! नितम्बे ! हर हर दुरितं मे स्वस्ति मानाभिरामे । नय नय जिनमार्गे, दुष्टघोरोपसर्गे, भव भव शरणं मे, रक्ष मां देवि पद्मे ॐ ह्रीं बीजं प्रणवोपेतं, नमः स्वाहांतसंयुतम् । . देदीप्यमानं हृत्पद्ये, ध्यायेऽभीष्टफलप्रदम् तद् बीजं देवताकारं, पंचानां कवचान्वितम् । गुरूपदेशतो ध्यायेत् पापदारिद्रभंजनम् ॐ नमस्तेऽस्तु महादेवी कल्याणी भुवनेश्वरी । चण्डी कात्यायनी गौरी, जिनधर्मपरायणी पञ्चब्रह्मपदाराध्या, पञ्चमन्त्रोपदेशिनी । पञ्चव्रतगुणोपेता, पञ्चकल्याणदर्शनी .७२ . ॥३॥ ॥४॥ ॥६॥ ॥७॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम श्री स्तोतला नित्या, त्रिपुरा काम्यसाधिनी । मदोन्मालिनी विद्या महालक्ष्मी सरस्वती सारस्वतगणाधीशा सर्वशास्त्रोपदेशिनी । सर्वेश्वरी महादुर्गा त्रिनेत्री फणिशेखरी जटाबालेंदुमुगुटा कुर्कटोरगवाहिनी । चतुर्मुखी महायशा, धनदेवी गुह्येश्वरी नागराजमहापत्नी, नागिनी नागदेवता । नमः सिद्धान्तसम्पन्ना द्वादशांगपरायणी चतुर्दश महाविद्या, अवधिज्ञानलोचना । वासंती वनदेवी च वनमाला महेश्वरी महाघोरा महारौद्रा, वीतभीताऽभयंकरी । कंकाली कालरात्री च गंगा गांधर्वनायिकी सम्यग्दर्शनसम्पन्ना, सम्यग्ज्ञानपरायणी । सम्यग् चारित्र सम्पन्ना, नराणां उपकारिणी अगण्यपुण्यसम्पन्ना गणवी गणनायिकी । पातालवासिनी पद्मा, पद्मास्या पद्मलोचना प्रज्ञप्ति रोहिणी जम्भा, स्तम्भिनी मोहिनी जया । योगिनी योगविज्ञानी, मृत्युदारिद्र्यभंजिनी क्षमासम्पन्नधरणी, सर्वपापनिवारणी । 1 ज्वालामुखी महाज्वालामालिनी वज्रशृंखला ॥ ८ ॥ ॥९॥ 1180.11 ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ॥१७॥ ७३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ नागपाशघरा धौर्या श्रेणीताम्रफलान्विता । हस्ता प्रशस्ता विद्याऽऽर्या, हस्तिनी हस्तवाष्टगी वसंतलक्ष्मी गीर्वाणी, शर्वाणी पद्मविष्टरा । बालार्कवर्णशंकाशा, श्रृंगाररसनायिकी अनेकांतात्मतत्त्वज्ञा, चिन्तितार्थफलप्रदा । चिन्तामणिः कृपापूर्णा, पापारम्भविमोचिनी कल्पवल्लीसमाकारा, कामधेनु शुम्भकरी । सधर्मवत्सला सर्वा, सद्धर्मोत्सववर्धिनी सर्वपापोपशमनी, सर्वरोगनिवारिणी । गम्भीरा मोहिनी सिद्धा, शेफालितरुवासिनी अष्टोत्तरशतं स्तोत्ररत्ननामांकमालिकां । त्रिसंध्यं पठयेत् नित्यं, पापदारिद्यनाशनम् दिनाष्टकं त्रिसन्ध्यं यो ध्यानपूजाजपान्वितम् । नामांकमालिकास्तोत्रं, पठते स वाञ्छितं लभेत् दिव्यं स्तोत्रमिदं महासुखकरं चारोग्यसंपत्करं । भूत-प्रेत-पिशाच-दुष्टहरणं पापौघसंहारकम् । अन्येनार्पितवाञ्छितस्य निलयं सर्वापमृत्युंजयं । देव्या प्रीतिकरं कवित्वजनकं स्तोत्रं जगन्मङ्गलम् ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ .७४. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मावती स्तोत्र ॐ जयन्तीभमातङ्गी सर्वदुष्टक्षयंकरी । पद्मासने पद्मदेवी च महापद्मे नमोनमः ॥१॥ देवी त्वं ध्यायिता इन्द्रे पूजिता शिवसंकरे । कृष्णेन संस्तुता देवी - महापद्मे नमोनमः ॥२॥ सावित्रि पतिमाराध्य वासुकै सेविता भृशम् । तेषां संतुक्षते देवी महापद्मे नमोनमः ॥३॥ पद्माम्बरधरा देवी पद्मद्रहनिवासिनी ! पद्मायुधधरा नित्यं महापद्मे नमोनमः ॥४॥ यस्यां प्रसन्नतां पद्मे तस्यां दारिद्र्यनाशने । जय त्वं सुखदाता च महापद्मे नमोनमः ॥५॥ देवि ! दारिद्र्यदग्धाहं तन्मेसं संकरीभव | चिंतिता वरदाता च महापद्मे नमोनमः ॥६॥ पद्मावती यस्या गृहे पूजिता जगदीश्वरी । हृदये यस्य वर्तन्ते तस्य सौख्यं निरंतरम् ॥७॥ इदं स्तोत्रं पवित्रं च श्रीधराचार्यभाषितं । एकाग्रमनसा साध्यं तस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥८॥ रणे राजकुले चैव दुर्गमे शत्रुसंकटे । महावने महाभीमे विघ्नो यांति दिसो दिसा ॥९॥ अपुत्रो लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनं । विद्यार्थी लभते विद्यां सुखार्थी लभते सुखं ॥१०॥ ७५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ विद्यास्तवः ॐ चन्द्रप्रभ । प्रभाधीश । चन्द्रशेखरचन्द्रभूः । (१) चन्द्रलक्ष्माङ्क । चन्द्राङ्ग । चन्द्रबीज । नमोस्तुते ॥१॥ ॐ हीं श्रीं अर्ह श्री चन्द्रप्रभ ! ह्रीं श्रीं कुरु कुरु स्वाहा । इष्यसिद्धि-महासिद्धितुष्टिपुष्टिकरो भव ॥२॥ द्वादशसहस्रजप्तो वांछितार्थ फलप्रदः । महित्वा त्रिसंध्यं जापो, सर्वाधिव्याधिनाशनः ॥३॥ सुरासुरेन्द्रमहितः, श्री पांडवनृपस्तुतः । श्री चन्द्रप्रभतीर्थेशः, श्रियं चन्द्रोज्जवलां कुरु श्री चन्द्रप्रभविद्येयं, स्मृता सद्यं फला मता । सर्वाधिव्याधिविध्वंसकारिणी मे वरप्रदा ॥५॥ श्री चन्द्रप्रभ विद्याॐ ही श्री अहँ चन्द्रप्रभ ह्रीं श्रीं कुरु कुरु स्वाहा । (सर्वकार्यमां साधक ज्वाला मालिनी मन्त्र) ॐ ज्वालामालिनी क्षां क्षी झू क्षौं क्षं क्षः हाः दुष्ट क्षमल्व्यू ग्रहान् स्तंभय स्तंभय ठं ठं हां आं क्रौं क्षी ज्वालामालिन्याज्ञापयति हुँ फट् घे घे। ॥४ ॥ .७६. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्वालामालिनी देवी माला मन्त्रः ॐ नमो भगवते चन्द्रप्रभ जिनेंद्राय शशाङ्क शंख, गोक्षीर, हार निहार, विमल, धवल गात्राय घाति कर्म निर्मूलनोच्छेदन कराय जाति जरा मरण शोक विनाशन कराय, संसार कांतारोन्मूलन कराय अचिंत्य बल पराक्रमाय, अप्रतिहत शासनाय, अप्रतिहत चक्राय, त्रैलोक्य वशं कराय, सर्व सत्व हितंकराय, भव्य लोक वशं कराय, सुरासुरोरगेंद्र मणि गण खचित मुकुट कोटी घटित पाद पीठाय, त्रैलोक्य महिताय, अष्टादश दोष रहिताय, धर्म चक्राधीश्वराय, सर्व विद्या परमेश्वराय कुविद्या अघ्नाय, चतुः स्त्रिंशदतिशय सहिताय, द्वादश गण परिवेष्टिताय शुक्लध्यान पवित्राय, अनंत ज्ञानाय, अनन्त दर्शनाय, अनन्त वीर्याय, अनन्त सुखाय, सर्वज्ञाय सिद्धाय, बुद्धाय, शिवाय, सत्यज्ञानाय, सत्य ब्रह्मणे, स्वयंभुवे, परमात्मने अच्युताय, दिव्यमूर्तये, प्रभामंडलमंडिताय, कण्ठ ताल्वोष्ठ पुटव्यापार रहित तत्तदभिष्टं वस्तु कथकं निःशेष भाषा प्रतिपालकाय, देवेन्द्र धरणेन्द्र, चक्रवर्त्यादि शतेन्द्र वंदित पादारविंदाय, पंचकल्याण अष्टमहाप्रातिहार्यादि विभवालंकृताय, वज्रर्षभनाराचसंहनन चरम दिव्य देहाय, देवाधिदेवाय, परमेश्वराय, तत्पाद पंकजाश्रयाय, निवेशिनि देवी शासन देवते त्रिभुवन जन संक्षोभिणी, त्रैलोक्यसंहार कारिणी, स्थावर-जंगम - कृत्रिम विषय विषसंहार कारिणि, सर्वाभिचार कर्मापहारिणि, पर विद्या छेदिनी, पर मंत्रणाशिनी, अष्टमहानाग कुल उच्चाटिनी, काल दंष्ट्रमृद्कोत्था ७७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिनि, सर्व रोगापनोदिनी, ब्रह्माविष्णु-रुद्र-इंद्र चंद्र-आदित्यादि ग्रहनक्षत्र तारा लोकोत्पाद भय पीडा प्रमर्दिनी, त्रैलोक्य, महिते, भव्य लोकहितंकरी, विश्वलोक वंशकरि, महाभैरवी, भैवरूपधारिणी, भीमे भीमरूप धारिणी, रौद्रे महारौद्र रूप धारिणी, सिद्धे सिद्धरूपधारिणी, प्रसिद्ध सिद्ध विद्याधर, यक्ष, राक्षस, गरुड़, गंधर्व, किन्नर, किंपुरुष दैत्योरगेंद्र अमर पूजिते ज्वालामाला कराले तत्त दिगन्तराले, महामहिषवाहिनि, त्रिशूल चक्र, झष, पाश शर, शरासन, फलवरद प्रदान विराजमान, षोडषार्द्ध भुजे खेटक कृपाणहस्ते, त्रैलोक्याकृत्रिमचैत्यालय निवासिनि, सर्व सत्वानुकम्पिनि, रत्नत्रय महानिधि, सौख्य, सौगत, चार्वाक, मीमांसक दिगंबरादि पूजिते विजयवर प्रदायिनि, भव्यजन संरक्षिणि, दुष्टजन प्रमर्दिनि, कमल श्री गृहित गर्वावलिप्त ब्रह्म राक्षस ग्रह अपहारिणि, शिवकोटी महाराज प्रतिष्ठित भीम लिंगोत्पाटन पटु प्रतापिनि, समस्तग्राहकर्षिणि, ग्रहानुच्छोदिनि, ग्रह कलामुखि नगर निवासिनि, पर्वतवासिनि, स्वयंभूरमणवासिनि, वज्र वेदिकाधिष्ठित व्यंतरावासवासिनि, मणिमय सूक्ष्म घंटनाद किंचिद्रणित नूपुरयुक्त पादारविंदे, वज्र, वैडूर्य, मुक्ताफल हरिन्मणि मयूख मालमण्डिल हेम किंकिणी झणत्कार विराजित कणकऋजुसूत्र भूषित नितम्बिनि, वारद नीरद निर्मलायमान सूक्ष्म दुकुल परीत दिव्य तनुमध्ये संध्यापरागारूण मेघ समान कौसुम्भ वस्त्र धारिणि वालार्करुक सन्निभायमान तपनीय वस्त्राच्छादिते, इन्द्रचंद्रकादि मौक्तिकहार विराजित स्तन मण्डले, तारा समूह परितोत्तमांगे, यमराज .७८. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुलायमान महिषासुर मर्दन, दक्षभूत, महामहिष वाहिनि, ताराधर तारे नीहार पटीत पयः पूर कर्पूर शुभ्रायमान विवल धवल गात्रे, भय काल रुद्र रौद्रावलोकित, भालेनेत्रानल विस्फुलिंग समूह सन्निभ ज्वालावेष्टित दिव्य देहिनि, कुलशैल निर्भेदिनी, कृत सहस्त्र धारायुक्त महाप्रभा मण्डल मण्डित, कृपाणि भ्राज दोर्दण्डे देवि, ज्वालामालिनि अत्र एहि २, पिण्ड रूपे एहि २, नव तत्त्व देहिनि, महामहित मेखला कलित प्रतापे ऐहि २, संसार प्रमर्दिनि ऐहि २, महामहिषवाहने एहि २, कटक कटिसूत्र कुण्डलाभरण भूषिते एहि २, घनस्तनिं किंकिणि नुपूरनादे एहि २, महामहित मेखला सूत्रे एहि २, गरुड गंधर्व देवासुर समिति पूजित पादपंकजे एहि २ भव्यजन संरक्षिणि एहि २, महादुष्ट पर्दिनि एहि २, मम ग्रहाकर्षिणी एहि २, ग्रहानुबंधिनी एहि २, ग्रहानुच्छेदिनि एहि २, ग्रहकाल मुखि एहि २, ग्रहोच्चाटनि एहि २, ग्रहमारिणि एहि २, मोहिनि एहि २, स्तंभिनि एहि २, समुद्रधारिणी एहि २, धनु २ कम्प २, कम्पावय २, मंडल मध्ये प्रवेशय २, स्तम्भय २, ॐ -हाँ -हीँ -हूँ - हाँ -हः आह्वानन, जलं गृहाण २, गंधं गृहाण २, अक्षतं गृहाण २, पुष्पं गृहाण २, चरुं गृहाण २, धूपं गृहाण २, दीपं गृहाण २, फलं गृहाण २, अर्घ्यं गृहाण २, ॐ हम्ल्व्यू महादेवि ज्वालामालिनि -हाँ क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रौं-हाँ-ही-हूँ-हौं -हः देव ग्रहान् आकर्षय २, ब्रह्मा विष्णु रुद्रेन्द्रादित्य ग्रहान् आकर्षय २, नाग ग्रहान् आकर्षय २, यक्ष ग्रहान् आकर्षय २, गंधर्व ग्रहान् आकर्षय २, ब्रह्मराक्षस ग्रहान् आकर्षय २, भूत् ग्रहान् आकर्षय २, व्यंतर ग्रहान् आकर्षय २, सर्व दुष्ट ग्रहान् आकर्षय २, .७९. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतकोटी देवतान् आकर्षय २ सहस्त्रकोटी पिशाच देवतान् आकर्षय २, कालराक्षस ग्रहान् आकर्षय २, प्रेतासिनि ग्रहान् आकर्षय २, वैतालो ग्रहान् आकर्षय २, क्षेत्रवासी ग्रहान् आकर्षय २, हन्तुकाम ग्रहान् आकर्षय २, अपस्मार ग्रहान् आकर्षय २, क्षेत्रपाल ग्रहान् आकर्षय २, भैरव ग्रहान् आकर्षय २, ग्रामादि देवतान् आकर्षय २, गृहादि देवतान् आकर्षय २, कुलादि देवतान् आकर्षय २, चंडिकादि देवतान् आकर्षय २, शाकिनि ग्रहान् आकर्षय २, डाकिनि ग्रहान् आकर्षय २, सर्वयोगिनी ग्रहान् आकर्षय २, रणभूत ग्रहान् आकर्षय २, रज्जूनि ग्रहान् आकर्षय २, जल ग्रहान् आकर्षय २, अग्नि ग्रहान् आकर्षय २, मूक ग्रहान् आकर्षय २, मूर्ख ग्रहान् आकर्षय २, छल ग्रहान् आकर्षय २, चोरचिंता ग्रहान् आकर्षय २, भूत ग्रहान् आकर्षय २, शक्ति ग्रहान् आकर्षय २, मातंग ग्रहान् आकर्षय २, चांडाली ग्रहान् आकर्षय २, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, भव, भवान्तर, स्नेह वैर, बंध सर्व दृष्ट ग्रहान् आकर्षय २, कम्प २, मृत्योरक्षय २, ज्वरं भक्षय २, अनलविषं हर २, कुमारी रक्ष २, योगिनि भक्षय २, शाकिनि मर्दय २, डाकिनी मर्दय २, पूतनी कम्पय २, राक्षसी छेदय २, कोलिका मुद्रा दर्शय २, सर्व कार्यकारिणी, सर्व ज्वर मर्दिनी, सर्वशिक्षा जनप्रतिपादिनी एहि २, भगवती ज्वालामालिनी एकाह्निकं, द्वयाह्निकं, त्र्याह्निकं, चातुर्थिकं, वात्तिकं श्लेष्मिकं पैत्तिकं २, सन्निपातिकं (वेला), ज्वरादिकं पात्रे प्रवेशय २, ज्वलिज्वलि ज्वालय २, मुंच २, मुंचावय २, शिरं मुच २, मुखं मुंच २, ललाटं मुंच २, कंठं मुंच २, बाहुं मुंच २, हृदयं मुंच २, .८० . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कटिं मुंच २, जानुं मुंच २, पादं मुंच २, आच्छेदय २, क्रों भेदय २, -हीं मर्दय २, क्षी बोधय बोधय हर्च्यूं घूर्मय २, र र र र र रां रां सं घं पातय २, पर मंत्रान् स्फोटय २, ॐ -हाँ -ही -हूँ-हौँ -ह: घे घे फट् स्वाहा, अस्मिन् दलमध्ये प्रवेशय २, पात्रं गृहाण २, आवेशय २, ग्रासय २, पूरय २, खण्ड २, कंप २, कंपावय २, ग्राह्य २, शीर्ष चालय २, भालं चालय २, नेत्रं चालय २, वदनं चालय २, कण्ठं चालय २, बाहूं चालय २, हस्तं चालय २, हृदयं चालय २, ग्रात्रं चालय २, सर्वांगं चालय २, लोलय २, कंप २, कम्पावय २, शीघ्रं अवतर २, गृहाण २, चालय २, आवेशय २, ॐ क्षम्ल्व्यूँ ज्वालामालिनी - हाँ क्ली, ब्लू, द्राँ, द्रौँ, क्षाँ क्षी, यूँ क्षौँ क्षः ह्रः सर्व दुष्ट ग्रहान् स्तंभय २, पूर्वं बंधय २, दक्षिणं बंधय २, पश्चिमं बंधय २, उत्तरं बंधय २, ठः ठः हूँ फट् २, घे घे रम्ल्ब्यूँ ज्वालामालिनी -हीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं ज्वल २ र ७, रां २, प्रज्वल २, घग २, धूं २, धूमांधकारिणी ज्वल २, ज्वलित शिखे, प्रलय धग धगित वदन, देव ग्रहान् दह २, नाग ग्रहान् दह २, यक्ष ग्रहान् दह २, गंधर्व ग्रहान् दह २, ब्रह्म राक्षस ग्रहान् दह २, सर्व भूत ग्रहान् दह २, व्यंतर ग्रहान् दह २, सर्व दुष्ट ग्रहान् दह २, शतकोटी देवतान् दह २, सहस्र कोटी ग्रहान् दह २, सहस्त्रकोटी पिशाच राजान् दह २, घे घे स्फोटय २, मारय २, दहनाक्षि पलय धग २, धग धगितमुखि, ॐ ज्वालामालिनी -हाँ -हीं -हूँ -हौँ -हः सर्व दुष्ट ग्रह हृदयं हूं दह दह, पच २, छिन्धि २, भिन्धि २, हः २, हे हे, हूं फट् २, घे २, ॐ भम्ल्व्यूँ ज्वालामालिनी -हीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रौँ भ्राँ भी भ्रौँ भ्रः हाः .८१. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > सर्व दुष्ट ग्रहान् ताडय २, हूँ फट् २, घे २, ॐ मम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी -हीँ क्लीँ ब्लूँ द्राँ ह्रीं म्राँ ग्रीँ यूँ माँ म्रः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् वज्रमय सूच्या अक्षिणी स्फोटय २, अदर्शय २ हूँ फट् २ घे २, ॐ यम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी - ह्रीं क्लीं ब्लूं द्राँ द्रीँ हाँ आँ क्रों क्षीं ग्राँ ग्रीँ यूँ ग्रौं ग्रः हाः सर्वदुष्ट ग्रहान् प्रेषय २, घे २, हूँ जः जः जः, ॐ घम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी - ह्रीं क्लीं ब्लूं द्राँ द्रीं घ्रॉं घ्रीं यूँ घ्रौं घ्रः हाः वँ वँ खँ खँ खङ्गै रावण सद्विद्या घातय २, सच्चन्द्रहास शस्त्रेण छेदय २, भेदय २, जठरं भेदय २, झं झे खं २, हं हं हूं फट् २, घे २, झम्ल्व्यूँ ज्वालामालिनी - हीँ क्लीँ ब्लू झाँझीँ झैँ झैँ झ्रः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् वज्र पाशेन बंधय २ मुष्टि बंधे बंध २, हूँ फट् २, घे घे, खम्ल्व्यूँ ज्वालामालिनी -हीँ क्लीँ ब्लू द्राँ द्रीँ खाँ खीं खँ खोँ खः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् अंगभंग कुरु कुरु, ग्रीवां भंजय २, हूँ फट् २, घे घे, ॐ छम्ल्यूँ ज्वालामालिनी - हीँ क्लीँ ब्लू द्राँ द्रीँ छाँ छ्रीँ छँ छौं छ्रः हाः सर्व दुष्ट ग्रहान् शस्त्राणि छेदय २, हूं फट् घे घे ॐ ठम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी ह्रीँ क्लीँ ब्लू ट्राँ द्रीं ठाँ ठीँ ठँ ठाँ ठूः हा सर्व दुष्ट ग्रहान् विद्युत् पाषाण अस्त्रेण ताडय २, भूम्यां पातय २, फट् २, घे २, ॐ बम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी - हीँ क्लीँ ब्लू द्राँ द्रीं ब्राँ ब्रीं ब्रू ब्राँ ब्रः हाः सर्व ग्रहान् समुद्रे मज्जय २, हूँ फट् २, घे २, ॐ डम्ल्क्यूँ ज्वालामालिनी - हीँ क्लीँ ब्लूं द्राँ द्रीं ड्रॉ ड्रीं ड्रू ड्रौं ड्रः हाः सर्वडाकिनी मर्दय २, हूं फट् २, घे घे, झौं झः सर्व शाकिनी मर्दय २ हूँ फट् घे घे सर्व योगिनी तर्जय २ कुरु २ सर्व शत्रून् ग्रासय ग्रासय, खं ६, खादय २, संतं वं मं हां झं सर्व ग्रहान् उत्थापय २, नट २, नृत्य २, स्वाहा, ८२ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य य सर्व दैत्यान् ग्रस २, विध्वंसय २, दह २, पच २, पाचय २, धर २, धम २, घुरु २, पुरु २, फुरु २, सर्वोपद्रव महाभयं स्तंभय २, झं २, हं ह, दर २, पर २, खर २, खड्ग शस्त्रेण सद्विद्यया घातय घातय, पातय २, चंद्रहास शस्त्रेण छेदय छेदय, भेदय २, झं २, हं २, खं २, घं २, दं २, फट् २, घे २, हां २, आं क्रौं क्ष्वीं क्षीँ - हीं क्लीं ब्लूं द्राँ क्रौं क्षीं ४ ज्वालामालिन्या ज्ञापयति स्वाहा । ज्वालामालिनीमन्त्र स्तोत्र ॐ नमो भगवते श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय शशाङ्कशङ्खगोक्षीरहारधवलगात्राय घातिकर्मनिर्मूलोच्छेदनकराय जातिजरामरणविनाशनाय त्रैलोक्यवशङ्कराय सर्वसत्वहितङ्कराय सुरासुरेन्द्रमुकुटकोटिघृष्टपादपीठाय संसारकान्तारोन्मूलनाय अचिन्त्यबलपराक्रमाय अप्रतिहतचक्राय त्रैलोक्यनाथाय देवाधिदेवाय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय कुविद्यानिधनाय, तत्पादपङ्कजाश्रमनिषेविणि ! देवि ! शासनदेवते ! त्रिभुवनसक्षोमिणि । त्रैलोक्याशिवापहारकारिणि ! स्थावरजङ्गमविषमविषसंहारकारिणि ! सर्वाभिचारकर्माभ्यवहारिणि ! परविद्याच्छेदिनि ! परमन्त्रप्रणाशिनि ! अष्टमहानागकुलोच्चाटनि ! कालदुष्टमृतकोत्थापिनि ! सर्वविघ्नविनाशिनि ! सर्वरोगप्रमोचनि ! ब्रह्मविष्णुरुद्रेन्द्रचन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रोत्पातमरणभयपीडासंमर्दिनि ! त्रैलोक्यमहिते ! ८३ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यलोकहितङ्करि ! विश्वलोकवशङ्करि ! अत्र महाभैरवरूपधारिणि ! महाभीमे ! भीमरूपधारिणि ! महारौद्रि ! रौद्ररूपधारिणि ! प्रसिद्धसिद्धविद्याधरयक्षराक्षसगरुडगन्धर्वकिन्नरकिंपुरुषदैत्योरगरुन्द्रेन्द्रपूजिते ! ज्वालामालाकरालितदिगन्तराले ! महामहिषवाहने ! खेटककृपाणत्रिशूलहस्ते ! शक्तिचक्रपाशशरासनविशिखपविराजमाने ! षोडशार्द्धभुजे ! एहि एहि झल्व्यूं ज्वालामालिनि ! ह्रीं क्लीं ब्लूं फट् द्राँ द्रीं हाँ हीं हूँ हूँ हः ही देवान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टग्रहान् आकर्षय आकर्षय, नागग्रहान् आकर्षय आकर्षय, यक्षग्रहान् आकर्षय आकर्षय, राक्षसग्रहान् आकर्षय आकर्षय, गान्धर्वग्रहान् आकर्षय आकर्षय, गान्धार्यग्रहान् आकर्षय आकर्षय, ब्रह्मग्रहान् आकर्षय आकर्षय, भूतग्रहान् आकर्षय आकर्षय, सर्वदुष्टान् आकर्षय आकर्षय, चोरचिन्ताग्रहान् आकर्षय आकर्षय, कटकट कम्पावय कम्पावय, शीर्षं चालय चालय, बाहुं चालय चालय, गात्रं चालय चालय, पार्ट्स चालाय चालय, सर्वांङ्गं चालय चालय, लोलय लोलय, धूनय धूनय, कम्पय कम्पय, शीघ्रमवतारं गृह गृण्ह, प्राहय ग्राह्य, अचेलय अचेलय आवेशय आवेशय हम्ल्व्यूं ज्वालामालिनि ! ह्रीं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं ज्वल ज्वल र र र र र र रां प्रज्वल, प्रज्वल प्रज्वल प्रज्वल, धगधगधूप्रान्धकारिणि ! ज्वल ज्वल, ज्वलितशिखे ! देवग्रहान् दह दह, गन्धर्वग्रहान् दह दह, यक्षग्रहान् दह दह, भूतग्रहान् दह दह, ब्रह्मराक्षसग्रहान् दह दह, व्यन्तरग्रहान् दह दह, नागग्रहान् दह दह, सर्वदुष्टग्रहान् दह दह, शतकोटिदैवतान् दह दह, सहस्त्रकोटिपिशाचराजान् दह दह, घे घे .८४. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फोटय स्फोटय, मारय मारय, दहनाक्षि ! प्रलय प्रलय, धगधगितमुखे ! ज्वालामालिनि ! हाँ ही हूं ह्रौँ हुः सर्वग्रहहृदयं दह दह, पच पच छिन्द छिन्द, भिन्धि भिन्धि हः हः हाः हाः हे: हेः हुं फट् फट् घे घे क्ष्ल्व्यूँ क्षा क्षीं हूं क्षौं क्षुः स्तम्भय स्तम्भय, हा पूर्वं बन्धय बन्धय, दक्षिणं बन्धय बन्धय, पश्चिमं बन्धय बन्धय, उत्तरं बन्धय बन्धय, भल्ब्यूँ भाँ भी यूं भ्रौं भ्रः ताडय ताडय, म्ल्व्यूं माँ माँ पूँ नौं म्र: नेत्रे यः स्फोटय स्फोटय, दर्शय दर्शय, हाल्व्यूँ प्राँ प्री पूँ प्रौँ प्रः प्रेषय प्रेषय, धल्व्यूँ घाँ घी धूं धूं ध्रौँ घ्रः जठरं भेदय भेदय, हम्ल्व्यूँ झां झी झू झों झः मुष्टिबन्धेन बन्धय बन्धय, खल्व्यूं खाँ खी खू खौँ खः ग्रीवां भञ्जय भञ्जय, छ्म्ल्यूं छाँ छी छू छौं छु: अन्तराणि छेदय छेदय, ठम्ल्यूं ठां ठी , छौं ट्रः महाविद्यापाषाणास्त्रैः हन हन, क्ल्ब्यूँ वाँ वीं वौँ व्रः समुद्रे ! जृम्भय जृम्भय झौं झः घौँ डौँ घ्रः सर्वडाकिनीः मर्दय मदेय, सर्वयोगिनी: तर्जय तर्जय, सर्वशत्रून् ग्रस ग्रस, खं खं खं खं खं खं खादय खादय, सर्वदैत्यान् विध्वंसय विध्वंसय सर्वमृत्यून् नाशय, नाशय, सर्वोपद्रवं महाभयं स्तम्भय स्तम्भय, दह २ पच २ मथ २ ययः २ धम २ धरू २ खरू २ खगरावणसुविद्या घातय २ पातय २ सच्चन्द्रहासशस्त्रेण छेदय २ भेदय २ झरू २ छरू २ हरू २ फट २ घेः हाँ हाँ आँक्रॉ क्ष्वी ह्रीं क्लीं ब्लू द्रां द्रीं क्रों क्षौं क्षौं क्षौं क्षीं ज्वालामालिनी आज्ञापयति स्वाहा ॥ .८५. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वकार्यसिद्धिदायक श्री शान्तिधारा पाठः ॥ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं वं वं मंमं गृहं संसं तंतं पंपं डंडं वीं वीं क्ष्वीं क्ष्वाँ द्राँ द्राँ द्रीं ह्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ह्रीँ क्रौं मम पापं खण्डय खंडय हन हन दह दह पच पच पाचय पाचय सिद्धिं कुरु कुरु ॥ नमोऽर्ह डँम्वीँ क्ष्वीं हं सं डं वं व्हः पः हः क्षां क्षीं क्षू क्ष क्ष क्ष क्षः ॥ १ ॥ हँ हाँ हिँ ह्रीँ हुँ हूँ हैं हैं ह्रीं ह्रीँ हँ ह्रः असिआउसाय नमः मम पूजकस्य ऋद्धि वृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ॥ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते डः डः डः मम श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु कान्तिरस्तु कल्याणमस्तु मम कार्यसिद्ध्यर्थं सर्वविघ्ननिवारणार्थं श्रीमद भगवते सर्वोत्कृष्टत्रैलोक्यनाथार्चितपादपद्म- अर्हत्-परमेष्ठि-जिनेन्द्र-देवाधिदेवाय नमो नमः । मम श्री शान्तिदेवपादपद्मप्रसादात् सद्धर्म - श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिर्वृद्धिरस्तु स्वस्तिरस्तु धनधान्यसमृद्धिरस्तु श्रीशांतिनाथ मां प्रति प्रसीदतु, श्री वीतरागदेवो मां प्रति प्रसीदतु, श्रीजिनेन्द्रः परममांगल्य- नामधेयो ममेहामुत्र च सिद्धिं तनोतु ॥ ॥ नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीचिन्तामणिपार्श्वनाथाय, तीर्थंकराय रत्नत्रयरूपाय अनंतचतुष्टयसहिताय धरणेन्द्रफणमौलिमण्डिताय समवसरणलक्ष्मीशोभिताय, इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवर्त्यादिपूजि ८६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपादपद्माय केवलज्ञानलक्ष्मीशोभिताय जिनराजमहादेवाष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणयुक्ताय परमगुरुपरमात्मने सिद्धाय बुद्धाय त्रैलोक्यपरमेश्वराय देवाय सर्वसत्त्वहितकराय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय त्रैलोक्यमोहनाय धरणेन्द्र पद्मावतीसहिताय अतुलबलवीर्यपराक्रमाय अनेकदैत्यदानवकोटिमुकुटधृष्टपादपीठाय ब्रह्माविष्णु-रुद्र-नारद-खेचरपूजिताय सर्वभव्यजनानन्दकराय सर्वजीवविघ्ननिवारणसमर्थाय श्रीपार्श्वनाथदेवाधिदेवाय नमोऽस्तु ते श्रीजिनराजपूजनप्रसादाद् मम सेवकस्य सर्वदोषरोगशोकभयपीडाविनाशनं कुरु कुरु सर्व शान्ति तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा । ॥ नमो श्रीशान्तिदेवाय सर्वारिष्टशान्तिकराय हाँ ह्रीं हूँ हैं ह्रः असिआउसा मम सर्वविघ्नशान्तिं कुरु कुरु श्रीसंघस्य (अमुकस्य) मम तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा । ॥श्रीपार्श्वनाथपूजनप्रसादाद् मम अशुभान् पापान् छिन्धि छिन्धि, मम अशुभकर्मोपार्जितदुःखान् छिन्धि छिन्धि, मम परदुष्टजनकृतमंत्रतंत्र-दृष्टि-पुष्टि-छलच्छिद्रादिदोषान् छिन्धि छिन्धि, मम अग्नि-चोर-जलसर्पव्याधि छिन्धि छिन्धि, मारीकृतोपद्रवान् छिन्धि छिन्धि, डाकिनीशाकिनी-भूत-भैरवादिकृतोपद्रवान् छिन्धि छिन्धि, सर्वभैरव-देवदानव-वीरनरनार-सिंहयोगिनीकृतविघ्नान् छिन्धि छिन्धि, भुवनवासिव्यन्तरज्योतिषीदेवदेवीकृतदोषान् छिन्धि छिन्धि, अग्निकुमारकृतविघ्नान् छिन्धि छिन्धि, उदधिकुमारसनत्कुमारकृतविघ्नान् छिन्धि छिन्धि, दीपकुमारभयान् छिन्धि छिन्धि, भिन्धि भिन्धि, वातकुमार .८७. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघकुमारक तविघ्नान् छिन्धि छिन्धि, भिन्धि भिन्धि, इन्द्रादिदशदिक्पालदेवकृतविघ्नान् छिन्धि छिन्धि, जय-विजयअपराजित-माणिभद्र-पूर्णभद्रादिक्षेत्रपालकृतविघ्नान् छिन्धि छिन्धि राक्षस-वैताल-दैत्य-दानवयक्षादिकृतदोषान् छिन्धि छिन्धि, नवग्रहकृतग्रामनगरपीडां छिन्धि छिन्धि, सर्व-अष्टकुलनागजनितविषभयान् सर्वग्रामनगरदेशरोगान् छिन्धि छिन्धि सर्वस्थावर-जंगमवृश्चिक-दृष्टिविषजातिस-पादिकृतविषदोषान् छिन्धि छिन्धि, सर्वसिंहाष्टापदव्याघ्र-व्याल-वनचरजीवभयान् छिन्धि छिन्धि परशत्रुकृतमारणोच्चाटनविद्वेषणमोहनवशीकरणादिदोषान् छिन्धि ॥२॥ सर्वगो-वृषभादि-तिर्यग्मारी छिन्धि छिन्धि, सर्व-वृक्ष-फल-पुष्प-लता-मारी छिन्धि छिन्धि ॥ नमो भगवति । चक्रेश्वरि ज्वालामालिनी पद्मावतीदेवी अस्मिन् जिनेन्द्रभुवने आगच्छ आगच्छ, एहि एहि तिष्ठ तिष्ठ बलिं गृहाण गृहाण मम धनधान्यसमृद्धि कुरु कुरु, सर्वभव्यजीवानन्दं कुरु कुरु, सर्वदेश-ग्राम-पुर-मध्य-क्षुद्रोपद्रव-सर्व-दोष-मृत्यु-पीडा विनाशनं कुरु कुरु सर्वपरचक्रभयनिवारणं कुरु कुरु सर्वदेशग्रामपुरमध्यक्षुद्रोपद्रवसर्वदोषमृत्युपीडाविनाशनं कुरु कुरु, सर्वदेशग्रामपुरमध्यसुभिक्षं कुरु कुरु, सर्व विजशांतिं कुरु २ स्वाहा ॥ ॥, आँ क्रौं ह्रीं श्रीं वृषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकरमहादेवाः प्रीयन्तां प्रीयन्तां मम पापानि शाम्यन्तु, घोरोपसर्गाः सर्वविघ्नाः शाम्यन्तु । आँ क्रौं ह्रीं श्रीं रोहिण्यादिमहादेव्यः अत्र .८८ . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगच्छन्तु आगच्छन्तु सर्वदेवताः प्रीयन्तां प्रीयन्तां । ( आँ क्रौं ह्रीं श्री वर्धमानस्वामी-गौतमस्वामी-धर्मचक्रतीर्थाधिष्ठायिका: देवदेव्यः, श्रीपार्श्वपुरंतीर्थाधिष्ठायिका दिव्यपद्मावतीदेवी वर्धमानविद्याधिष्ठायीन्यः जयाविजयाजयंताऽपराजितादेव्यः सूरिमंत्राधिष्ठायिकाः भगवती सरस्वतीदेवी-त्रिभुवनुस्वामिनीदेवी-श्रीदेवीयक्षराजगणीपिटक-चतुषष्ठिसुरेन्द्रा-षोडशविद्यादेव्य-चतुर्विशतियक्षा: चतुर्विंशतियक्षिण्यः प्रियन्तां प्रियन्तां, मम अज्ञान निवारण-सारस्वतरोगापहारिणीविषापहारिणीबंधमोक्षणी श्रीलक्ष्मीसंपादनी परमंत्रविद्याछेदिनी दोषनाशिनी अशिवोपशमनी विद्यासिद्धिं कुर्वन्तु, मम बाहु-बलीविद्यासौभाग्या-विद्या-जयविजयादिस्वप्नविद्यासिद्धिं कुरुत कुरुत विजया-जयाजयंती-नंदा-भद्रादेव्यः सान्निध्यं कुर्वन्तु कुर्वन्तु जैनशासनप्रत्यनीकनिवारणं कुर्वन्तु कुर्वन्तु मम सर्वकार्यसिद्धिं कुर्वन्तु कुर्वन्तु स्वाहा.) आँ क्रौं ह्रीं श्री चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी पद्मावती महादेवी प्रीयन्तां प्रीयन्तां । आँक्रौं ह्रीं श्री माणिभद्रादियक्षकुमारदेवाः प्रीयन्ताम् प्रीयन्ताम् । सर्वजिनशासनरक्षकदेवाः प्रीयन्तां प्रीयन्तां । श्रीआदित्य-सोम-मङ्गलबुध-बृहस्पति शुक्र-शनि-राहु-केतवः सर्वे नवग्रहाः प्रीयन्तां प्रसीदंतु देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवान् जिनेन्द्रः । यत्सुखं त्रिषु लोकेषु, व्याधिव्यसनवर्जितम् । अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु च मे सदा ॥१॥ यदर्थं क्रियते कर्म, सुप्रीतिनित्यमुत्तमम् । शान्तिकं पौष्टिकं चैव, सर्वकार्येषु सिद्धिदम् ॥२॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४ ॥ ॥ शान्तिघोषणा ॥ रोगशोकादिभिर्दोषैरजिताय जितारये । नमः श्रीशांतये तस्मै, विहितानन्तशान्तये श्रीशान्तिजिनभक्ताय, भव्याय सुखसम्पदम् । श्रीशान्तिदेवता देयाद्, अशान्तिमपनीयताम् अम्बा निहितडिम्भा मे, सिद्धबुद्धसमन्विता । सिते सिंहे स्थिता गौरी, वितनोतु समीहितम् धराधिपतिपत्नी या, देवी पद्मावती सदा । क्षुद्रोपद्रवतः सा मां, पातु फुल्लत् फणावली चंचच्चक्रधरा चारु, प्रवालदलदीधितिः । चिरं चक्रेश्वरी देवी, नन्दतादवताच्च माम् खड्गखेटककोदण्ड-बाणपाणिस्तडिद्युतिः ।। तुङ्गगमनाऽच्छुप्ता, कल्याणानि करोतु मे मथुरायां सपार्श्व-श्रीसुपार्श्वस्तूपरक्षिका । श्रीकुबेरा नरारुढा, सुतांकाऽवतु वो भयात् ब्रह्मशान्तिः स मां पायाद्, अपायाद् वीरसेवकः । श्रीमत्सत्यपुरे सत्या, येन कीर्तिः कृता निजा श्रीशक्रप्रमुखा यक्षा, जिनशासनसंस्थिताः । देवा देव्यस्तदन्येऽपि, संघं रक्षन्त्वपायतः श्रीमद्विमानमारुढा, यक्षमातंगसंगता । सा मां सिद्धायिका पातु, चक्रचापेषु धारिणी ॥५॥ ॥६॥ ॥७॥ ॥८ ॥ ॥९॥ ॥१०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषिमण्डल स्तोत्र ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ आद्यन्ताक्षरसंलक्ष्य, मक्षरं व्याप्यं यत् स्थितम् । अग्निज्वालासमं नाद-बिन्दु-रेखा समन्वितम् अग्निज्वालासमाक्रान्तं, मनोमलविशोधकम् । देदीप्यमानं हृत्पद्म, तत् पदं नौमि निर्मलम् अर्हमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद् बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे १४ नमोऽर्हद्भ्य ईशेभ्यः, २ में सिद्धेभ्यो नमो नमः । ३ ४ नमः सर्वसूरिभ्यः, ४ उपाध्यायेभ्यः ४ नमः ५ ४ नमः सर्वसाधुभ्यः, ६ ज्ञानेभ्यो नमो नमः । ७ नमस्तत्त्वदृष्टिभ्यः ८ चारित्रेभ्यस्तु नमः श्रेयसेऽस्तु, श्रियेस्त्वेतत्, अर्हदाद्यष्टकं शुभम् । स्थानेष्वष्टसु विन्यस्तं, पृथग् बीजसमन्वितम् आद्यं पदं शिखां रक्षेत्, परं रक्षेत् तु मस्तकम् । तृतीयं रक्षेत् नेत्रे द्वे, तुर्यं रक्षेत्तु नासिकाम् पंचमं तु मुखं रक्षेत्, षष्ठं रक्षेत्तु घण्टिकाम् । सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं, पादान्तमष्टमं पुनः ॥६॥ ॥७॥ ॥८॥ • ९१ . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वं प्रणवतः सान्तः, सरेफो द्वयब्धिपंचषान् । सप्ताष्टदशसूर्यकान् श्रितो बिन्दुस्वरान् पृथक् पूज्यनामाक्षरा आद्या:, पंचैते ज्ञान दर्शने । चारित्रेभ्यो नमो मध्ये, ह्रीँ सान्तः समलंकृतः ह्रौं ह्रः हूँ हूँ असिआउसा सम्यग्ज्ञान दर्शन - चारित्रेभ्यो ह्रीं नमः । जंबूवृक्षधरो द्वीप: क्षीरोदधिसमावृतः अर्हदाद्यष्टकैरष्टकाष्ठाधिष्ठैरलंकृतः ---- , तन्मध्ये संगतो मेरुः कूटलक्षैरलंकृतः । उच्चैरुच्चैस्तरस्तारः, तारामण्डलमण्डितः तस्योपरि सकारान्तं, बीजमध्यास्य सर्वगम् । नमामि बिंबमार्हन्त्यं, ललाटस्थं निरंजनम् अक्षयं निर्मलं शान्तं, बहुलं जाड्यतोज्झितम् । निरीहं निरहंकारं, सारं सारतरं घनम् अनुद्धतं शुभं स्फीतं, सात्त्विकं राजसं मतम् । तामसं चिरसंबद्धं, तैजसं शर्वरीसमम् साकारं च निराकारं, सरसं विरसं परम् । परापरं परातीतं, परंपरपरापरम् 11811 ॥१०॥ ॥११॥ ॥१२॥ ॥१३॥ ॥१४॥ ॥१५॥ ॥१६॥ ९२ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलं निष्कलं तुष्टं, निर्वृत्तं भ्रान्तिवर्जितम् । निरंजनं निराकारं, निर्लेपं वीतसंश्रयम् ईश्वरं ब्रह्म संबुद्धं, सिद्धं बुद्धं मतं गुरुम् । ज्योतिरूपं महादेवं, लोकालोकप्रकाशकम् अर्हदाख्यस्तुवर्णांतः सरेफो बिन्दुमण्डितः । तुर्यस्वरसमायुक्तो, बहुधा नादमालितः , एकवर्णं द्विवर्णं च त्रिवर्णं तुर्यवर्णकम् । पंचवर्णं महावर्णं, सपरं च परापरम् अस्मिन् बीजे स्थिताः सर्वे, ऋषभाद्या जिनोत्तमाः । वर्णैर्निजैर्निजैर्युक्ताः, ध्यातव्यास्तत्र संगता : नादश्चंद्रसमाकारो, बिन्दुर्नीलसमप्रभः । कलारुणसमासांतः, स्वर्णाभः सर्वतोमुखः शिरः संलीनईकारो, विनीलो वर्णतः स्मृतः । वर्णानुसारसंलीनं, तीर्थकृन्मंडलं स्तुमः चन्द्रप्रभ - पुष्पदन्तौ नादस्थितिसमाश्रितौ । 'बिन्दु' मध्यगतौ नेमि - सुव्रतौ जिनसत्तमौ पद्मप्रभ - वासुपूज्यौ, 'कला' पदमधिष्ठीतौ । शिर - 'ई' स्थितिसंलीनौ, पार्श्व-मल्लीजिनोत्तमौ ॥१७॥ ॥१८॥ ॥१९॥ ॥२०॥ ॥२१॥ ॥२२॥ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ९३ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभं चाजितं वन्दे, संभवं चाभिनन्दनम् । सुमतिं सुपार्श्व च, वन्दे श्रीशीतलं जिनम् श्रेयांसं विमलं वंदे, चानंतं धर्मनाथकम् । शांतिं कुंथुमरार्हन्तं नमिं वीरं नमाम्यहम् ? एतांश्च षोडश जिनान् गाङ्गेयद्युतिसन्निभान् । त्रिकालं नौमि सद्भक्त्या हराक्षरमधिष्ठितान् शेषाः तीर्थकृतः सर्वे, 'ह-र' स्थाने नियोजिताः । माया बीजाक्षरं प्राप्ताः, चतुर्विंशतिरर्हताम् गतराग-द्वेष- मोहाः, सर्वपापविवर्जिताः । सर्वदा सर्वकालेषु, ते भवन्तु जिनोत्तमाः देवदेवस्य यच्चक्रं तस्य चक्रस्य या विभा । तयाच्छादित सर्वांगं, मा मां हिंसन्तु पन्नगाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु पक्षिणः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु शूकरा: देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु सिंहका : देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु शृङ्गिणः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु गोनसाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु दंष्ट्रिणः , ॥२६॥ ॥२७॥ ॥२८॥ ॥२९॥ ॥३०॥ ॥३१॥ ॥३२॥ ॥३३॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥३६॥ ॥३७॥ ९४ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥४०॥ ॥४१॥ ॥४२॥ ॥४३॥ ॥४४॥ ॥४५॥ देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु वृश्चिकाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु चित्रका देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु हस्तिनः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु रेपला: देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु दानवाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु खेचराः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु देवताः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु राक्षसाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु मुद्गलाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु कुग्रहाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु व्यंतराः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु तस्करा: देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु ग्रामिणः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु भूमिपाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु दुर्जना: देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु पाप्मनः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु व्याधयः ॥४६॥ ॥४७॥ ॥४८॥ ॥४९॥ ॥५०॥ ॥५१॥ ॥५२॥ ॥५३॥ ॥५४॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥५५॥ ॥५६॥ ॥५७॥ ॥५८॥ ॥५९॥ ॥६०॥ ॥६१॥ ॥६२॥ देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु हिंसकाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु शत्रवः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु वह्नयः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु जृम्भिकाः देवदेवस्य० मा मां हिंसन्तु तोयदा: देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु डाकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु याकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु राकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु लाकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु काकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु शाकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु हाकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु जाकिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु नागिणी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु जूंभिणी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु व्यंतरी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु मानवी ॥६३॥ ॥६४॥ ॥६५॥ ॥६६॥ ॥६७॥ ॥६८॥ ॥६९॥ ॥७०॥ ॥७१॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥७२॥ ॥७३॥ ॥७४॥ ॥७५॥ ॥७६॥ ॥७७॥ देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु किन्नरी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु दैवं हि देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु योगिनी देवदेवस्य० मा मां हिनस्तु भाकिनी देवदेवस्य यच्चक्रं, तस्य चक्रस्य या विभा । तयाच्छादित सर्वांगं, सा मां पातु सदैव हि श्रीगौतमस्य या मुद्रा तस्या या भुवि लब्धयः । ताभिरभ्यधिकं ज्योतिरर्हन् सर्व निधीश्वरः पातालवासिनो देवा, देवा भूपीठवासीनः । स्वर्वासिनोपि ये देवा, सर्वे रक्षन्तु मामित: येऽवधिलब्धयो ये तु, परमावधिलब्धयः । ते सर्वे मुनयो दिव्या मां संरक्षन्तु सर्वदाः भवनेन्द्र-व्यंतरेन्द्र-ज्योतिषकेन्द्र-कल्पेन्द्रेभ्यो नमो नमः । श्रुतावधि-देशावधि-सर्वावधि-परमावधि-बुद्धिऋद्धिप्राप्त-सर्वौषद्धिप्राप्त-अनंतबलद्धि - प्राप्ततत्वद्धिप्राप्त-रसद्धिप्राप्त-वैक्रियद्धिप्राप्तक्षेत्रद्धिप्राप्त-अक्षीणमहानसद्धिप्राप्तेभ्यो नमः ॥७८॥ ॥७९॥ ॥८०॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्जना भूतवेतालाः पिशाचा मृद्गलास्तथा । ते सर्वेऽप्युशाम्यन्तु, देवदेवप्रभावतः ह्रीः श्रीश्च धृतिर्लक्ष्मी:, गौरी चण्डी सरस्वती । जयाम्बा विजया क्लिन्ना, ऽजिता नित्या मदद्रवा कामांगा कामबाणा च, सानंदा नन्दमालिनी । माया मयाविनी रौद्री कला काली कलिप्रिया , एताः सर्वाः महादेव्यो, वर्तन्ते या जगत्त्रये । मह्यं सर्वाः प्रयच्छंतु, कान्तिं कीर्ति धृतिं मतिं दिव्यो गोप्यः सुदुष्प्राप्य, श्रीऋषिमण्डलस्तव: । भाषितस्तीर्थनाथेन, जगत्त्राणकृतेऽनघः रणे राजकुले वनौ, जले दुर्गे गजे हरौ । श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतो रक्षति मानवं राज्यभ्रष्टा निजं राज्यं, पदभ्रष्टा निजं पदं । लक्ष्मीभ्रष्टा निजां लक्ष्मी, प्राप्नुवन्ति न संशयः भार्यार्थी लभते भार्यां, सुतार्थी लभते सुतं । वित्तार्थी लभते वित्तं नरः स्मरणमात्रतः , स्वर्णे रौप्ये पटे कांस्ये, लिखित्वा यस्तु पूजयेत् । तस्यैवाष्टमहासिद्धिर्गृहे वसति शाश्वती ॥८१॥ ॥ ८२ ॥ ॥८३॥ ॥८४॥ ॥८५॥ ॥८६॥ ॥८७॥ ॥८८॥ ॥ ८९ ॥ ९८ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९॥ ॥९१॥ ॥९२॥ ॥९३॥ भूर्जपत्रे लिखित्वेदं, गलके मूलि वा भूजे । धारितं सर्वदा दिव्यं, सर्वभीतिविनाशकम् भूतैः प्रेतैग्रहर्यक्षैः पिशाचैर्मुद्गलैर्मलैः । वात-पित्त-कफोद्रेकै-र्मुच्यते नात्र संशयः ॐ भूर्भुवः स्वः त्रयीपीठ-वर्तिनः शाश्वता जिनाः । तैः स्तुतैर्वंदितै द्रष्टै-र्यत् फलं तत् फलं स्मृतौ एतद् गोप्यं महास्तोत्रं, न देयं यस्य कस्यचित् । मिथ्यात्ववासिने दत्ते, बालहत्या पदे पदे आचाम्लादि तपः कृत्वा, पूजयित्वा जिनावलिम् । अष्टसाहस्त्रिको जापः कार्यस्तत् सिद्धिहेतवे शतमष्टोत्तरं प्रातः, ये पठन्ति दिने दिने । तेषां न व्याधयो देहे, प्रभवन्ति च संपदः अष्टमासावधिं यावत्, प्रातः उत्थाय यः पठेत् । स्तोत्रमेतन्महातेजो, जिनबिंबं स पश्यति दृष्टे सत्यार्हतो बिम्बे भवे सप्तमके ध्रुवम् । पदं प्राप्नोति शुद्धात्मा, परमानंदनंदितः विश्ववंद्यो भवेद् ध्याता, कल्याणानि च साऽश्नुते । गत्वा स्थानं परं सोऽपि, भूयस्तु न निवर्तते ॥९४॥ ॥९५॥ ॥९६॥ ॥९७॥ ॥९८॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥९९॥ ॥१००॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं, स्तुतीनामुत्तमं पदम् । पठनात् स्मरणात् जापात्, लभते पदमव्ययम् ऋषिमण्डलनामैतत्, पुण्यपापप्रणाशकम् । दिव्यतेजो महास्तोत्रं, स्मरणात्पठनाच्छुभम् विजौघाः प्रलयं यान्ति, आपदो नैव कर्हिचित् । ऋद्धयः समृद्ध्यः सर्वाः स्तोत्रस्यास्य प्रभावतः श्रीवर्द्धमानशिष्येण, गणभृद्गौतमर्षिणा । ऋषिमण्डलनामैतद् भाषितं स्तोत्रमुत्तमम् ॥१०१॥ ॥१०२॥ गुरुस्तुति धन्यं दृष्टियुगं दिनं च सफलं प्रागादियं दुषमा चित्ते पोल्लसितः प्रबोधदिवसः ध्वस्तं तमोमण्डलम् । प्राप्तः कल्पतरुहे सुरगवी चिंतामणि स्वे करे यद् दृष्टं गुरुराजवक्त्रकमलं संपूर्णचंद्रोपमम् ॥ . १०० . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुरुपादुका स्तोत्र अनन्तसंसारसमुद्रतार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्याम् । वैराग्यसाम्राज्यदपूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥१॥ कवित्ववाराशिनिशाकराभ्यां दौर्भाग्यदावाम्बुदमालिकाभ्याम् । दूरीकृता नम्र विपततिभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥२॥ नता ययोः श्रीपतितां समीयुः कदाचिदप्याशु दरिद्रवर्याः । मुकाश्च वाचस्पतितां हि ताभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥३॥ नालीक-नीकाश-पदाहृताभ्यां नानाविमोहादि-निवारिकाभ्याम् नमज्जनार्भीष्टतति-प्रदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥४॥ नृपालिमौलिव्रजरत्नकांति सरिद्विराजज्झषकन्यकाभ्याम् । नृपत्वदाभ्यां नतलोकपङ्कतेः नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥५॥ पापान्धकारार्कपरम्पराभ्यां तापत्रयाहीन्द्रखगेश्वराभ्याम् जाड्याब्धि संशोषणवाडवाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥६॥ शमादिषट्कप्रदवैभवाभ्यां समाधिदानव्रतदीक्षिताभ्याम् रमाधवाधिस्थिरभक्तिदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥७॥ स्वार्चापराणामखिलेष्टदाभ्यां स्वाहा सहायाक्ष धुरन्धराभ्यां स्वान्ताच्छ भावप्रद पूजनाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥८॥ कामादि सर्प व्रज गारुडाभ्यां विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्याम् । बोध प्रदाम्यां द्रुतमोक्षदाभ्यां नमो नमः श्रीगुरुपादुकाभ्याम् ॥९॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भैरव क्षेत्रपाल स्तोत्र यँ यँ यँ यक्षराजं दश दिशि धगितं भूमि कंपायमानं, सँ सँ सँ संहारमूर्ति शिरमुकुट जटा शेखरं चंद्रबिम्बं । = = दँ दर्घिकायं विकृत नखमुखं मूर्ध रोमं करालं | | | पापनाशं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥१॥ र र र रक्तवर्णे करकृतजटिलं तीक्ष्ण दंष्ट्रा करालं, घ घ घ घोष घोषं घव घव घटितं घूर्घरा राजघोषं । कँ ऊँ ऊँ कालरूपं दिगिदिगि दिगितं ज्वालितं उग्रतेजं तँ तँ तँ दिव्यदेहं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥२॥ लँ लँ सँ लंब लंबं ल ल ल ल ललितं दीर्घजिह्वाकरालं, धूं धूं धूं धूम्रवर्णे स्फुट विकृतमुखं भासुरं भीमरूपे । रूँ रूँ रूँ रुंडमालं रुदित मय मयं ताम्र नेत्रं विशालं नँ न न नग्नरूपं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥३॥ व व व वायुवेगं प्रलय परिवृतं ब्रह्मरूपं स्वरूपे, खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवननिलयं कालरूपं प्रशस्तं । चँ चँ चँ चंचलत्वं चलचल चलितं चालितं भूतवृन्दं मैं मैं मैं मायरूपं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥४॥ शैं झै शंखहस्तं शशिकर धवलं यक्षसंपूर्ण तेजं, मैं मैं मैं मायमायं कुलवकुल कुलं मंत्रमूर्ति सुतत्त्वं । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घे घे घे भूतनाथ किलि किलितवचो गृह्ण गृह्णालुलंतं अँ अँ अँ अंतरिक्षं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥५॥ ख ख ख खड्गभेदं विषममृतकरं कालकालांधकारं, क्षी क्षीं क्षीं क्षिप्रवेगं दह दह दहनं नेत्र संदीप्यमानं । हूँ हूँ हूँ हूंकारनादं हरिहर हसितं एहि एहि प्रचण्ड मैं मैं मैं सिद्धनाथं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥६॥ सँ सँ सँ सिद्धयोगं सकलगुणमयं देवदेवं प्रसन्नं, यँ य य यज्ञनाथं हरिहरवदनं चन्द्रसूर्याग्नि नेत्रं । अँ अँ अँ यक्षनाथं वसुवरुण सुरासिद्ध गंधर्वनागं रूँ रूँ रूँ रुद्ररूपं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥७॥ हँ हँ हँ हंसघाषं हसित कुहकुहाराव रौद्राट्टहासं, यँ यँ यँ यक्षसतं शिरकनक महाबद्ध खड्गांगपाशं । र र रंगरंगं प्रहसितवदनं पिंगकस्म स्मशानं सँ सँ सँ सिद्धनाथं प्रणमतु सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥८॥ इत्येवं भावयुक्तः पठति च नियतं भैरवस्याष्टकं यो, निर्विघ्नं दुःखनाशं त्वसुरभयहरं शाकिनी डाकिनीनां । त्रासोनो व्याघ्रसर्पधृति वहति सदा राजशत्रोस्तथाऽज्ञात् सर्वे नश्यन्ति दूरा ग्रहगण विषमाश्चितिताऽभीष्टसिद्धिः ॥९॥ . १०३ . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षेत्रपाल अर्चना क्षेत्रपालाय यज्ञेऽस्मिन्, अत्र क्षेत्राधिरक्षणे । बलिं ददामि यस्याग्रे, वेद्यां विघ्न विनाशिने ॥१॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालाः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं । सद्येनाति सुगंधेन, स्वच्छेन बहुलेन च । स्नपनं क्षेत्रपालस्य, तैलेन प्रकरोम्यहं ॥२॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः तैलम् समर्पयामि स्वाहा ॥ सिंदूरैरारुणाकारैः, पीत वर्णो सुसंभवैः । चर्चनं क्षेत्रपालस्य, सिंदूरैः प्रकरोम्यहं ॥३॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः सिंदूरं समर्पयामि स्वाहा ॥ सद्यपूतैः महास्निग्धैः, सुमांगल्यैः सपिंडकैः ।। क्षेत्रपाल मुखे दद्यात्, गुरुं विघ्न विनाशकैः ॥४॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो गुईं समर्पयामि स्वाहा ॥ • १०४ . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिल पिंडस्तु पिंडेन, माषस्य बकुलादिभिः । ददामि क्षेत्रपालाय, विश्वविघ्नविनाशिने ॥५॥ . ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः तिलं समर्पयामि स्वाहा ॥ भो क्षेत्रपाल ! जिनपः प्रतिमांकभाल ! दंष्ट्रांकराल ! जिनशासन रक्षपाल ! तैलादि जन्मगुड़ चन्दन पुष्प धूपैः । भोगं प्रतीच्छ जगदीश्वर यज्ञ काले ॥६॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः अर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ अथाष्टक क्षीर हरि गौर नरिपुर वारि धारया, मंद बूंद चन्दनादि सौरभेन सारया । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥१॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः जलं समर्पयामि स्वाहा ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्क तर्क वर्जनैरनर्घ चन्द्रनन्दनैः, कुंकुमादि मिश्रितैः रणद मिष्ट पदाश्रितैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥२॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः चन्दनं समर्पयामि स्वाहा ॥ औषधीश सिंधुफेन हारभास मुज्ज्वलैः, अक्षतैः सुलक्षणैः जाति खंड वर्जितैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥३॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः अक्षतं समर्पयामि स्वाहा ॥ पारिजात वारिजात कुन्द हेम केतकी, मालती सुचंपकादि सार पुष्प मालया ॥ भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥४॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यः पुष्पं समर्पयामि स्वाहा ॥ व्यंजनेन पायसादिभिः समं लसद्रसैः, मोदकोदनादि स्वर्ण भाजनं सुसंस्थितैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥५॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो नैवेद्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ रत्न धेनु सर्पिषादि दीपकैः शिखोज्ज्वलैः, वटि धार तोय कोप कंपरूप वर्जितैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥६॥ ॐ आँ क्रोँ ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो दीपं समर्पयामि स्वाहा ॥ शिल्पिता सिता गुरु प्रधूप केल मिश्रितैः, वाद्यमान वर्धमान माननी मनोहरैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥७॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो धूपं समर्पयामि स्वाहा ॥ श्री फलैश्च कर्करी सुदाडिमादिभिः फलैः, स्वादमिष्ट सौरभादि जंजरादि मोदनैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥८ ॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो फलं समर्पयामि स्वाहा ॥ १०७ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनासिताऽगुरू द्रवाक्षतैः प्रसूनकैः, चारु चरु प्रदीपकैः धूपकैः फलोत्करैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो अर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ लक्ष्मी धान्यकरं जगत् सुखकरं सुदीर्घ कायावरं । रात्रौजागरवाहनं सुखकरं वरवार पाणिधरं । निर्विजं भय नाशनं भयहरं भूतादि रक्षाकरं । वन्दे श्री जिन सेवकं हरिहरं श्री क्षेत्रपालं परं ॥ जयमाला सुरासुर खेचित पूजित पाद, गुणावर सुन्दर कृत शुभनाद । मनोहर पन्नग कण्ठ विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥१॥ सुडाकिन शाकिन नाशन वीर, सुकाकिन राकिन भ्रंशन धीर । अनुपम मस्तक शोभित भाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥२॥ सुलाकिन हाकिन पन्नग त्रास, कुभूपति तस्कर दुर्भिक्ष नाश । निशाकर शेखर मंडितमाल, सदा शुभ हो जयक्षेत्र सुपाल ॥३॥ समुद्गल साद्वल लूकर वृन्द, सुराक्षस भोजन दुर्लभकन्द । सदामल कोमल अङ्ग विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥४॥ .१०८ . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुचित्रक कुंजर सागरपार, सुदुर्जन सेचन शत्रु संहार । सुकम्पित किन्नर भूत रसाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥५॥ सुऋद्धि समृद्धि सुदायक सूर, सुपुत्र सुमित्र कलत्र कपूर । सुरंजित वासुर कांति विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥६॥ सुकन्दुर कुण्डल हार सुवाद्य, सुशेखर सुस्वर किंकिनि नाद । भयंकर भीषण भासुर काल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥७॥ सुकामिन खेलत दिव्य शरीर, सुवाहन हासन मोदन धीर । सुभाषत राजत विश्व विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥८॥ सुथापित निर्मल जैन सुवाक्य, न कंपित दुर्भिक्ष दुस्तर साक्य । प्रकाशित जैन सुधर्म रसाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥९॥ सुभाषित क्षेत्र सुभव्य सुवंश, महोदय जैन सरोवर हंस । महाशुभ सागर केलि विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥१०॥ मालिनी असम सुख सुसारं तीक्ष्ण दँष्ट्रा करालं । रचकर करज ढीलं दीर्घ जिह्वा करालं ॥ सुघट विक्रत चक्रं शान्ति दास प्रशस्तं । भजतु नमतु जैनं भैरव क्षेत्रपालं ॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो, अर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ कल्पसूत्रांश ॥ तए णं समणे भगवं महावीरे अणगारे जाए, इरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए, आयाण- भंड- मत्त - निक्खेवणा-समिए, उच्चार- पासवण - खेल - जल्ल-सिंघाण पारिट्ठावणिया-समिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुतिदिए, गुत्तबंभयारी, अकोहे, अमाणे, अमाए, अलोभे, संते, पसंते उवसंते, परिनिव्वुडे, अणासवे, अममे, अकिंचणे, छिन्नगंथे, निरुवलेवे, कंसपाइ इव मुक्कतोए, संखे इव निरंजणे, जीवे इव अप्पsिहयगई, गगणमिव निरालंबणे, वाऊव्व अपडिबद्धे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, पुक्खरपत्तं व निरुवलेवे, कुम्मो इव गुत्तिदिए, खग्गिविसाणं इव एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, भारंडपक्खी इव अप्पमत्ते, कुंजरो इव सोंडीरे, वसभो इव जायथामे, सीहो इव दुद्धरिसे, मंदरो इव अप्पकंपे, सागरो इव गंभीरे, चंदो इव सोमलेस्से, सूरो इव दित्ततेए, जच्चकणगंव्व जायरूवे, वसुंधरा इव सव्वफासविसहे, सुहुय - हुयासणे इव तेयसा जलंते, णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधो भवइ । से य पडिबंधे चउव्विहे पण्णते, तं जहा दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ सचित्ताचित्तमीसिएस दव्वेसु । खित्तओ - गामे वा, नगरे वा, अरण्णे वा खित्ते वा, खले वा, घरे वा, अंगणे वा, नहे वा । कालओ - समए वा, आवलियाए वा, आणपाणुए वा, थोवे " वा, ११० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खणे वा, लवे वा, मुहुत्ते वा, अहोरत्ते वा, पक्खे वा, मासे वा, उऊवा, अयणे वा, संवच्छरे वा, अण्णयरे वा दीहकालसंजोए वा । भावओ-कोहे वा, माणे वा, मायाए वा, लोभे वा, भए वा, हासे वा, पिज्जे वा, दोसे वा, कलहे वा, अब्भक्खाणे वा पेसुन्ने वा, परपरिवार वा, अरइरई वा, मायामोसे वा, जाव मिच्छादंसणसल्ले वा, तस्स णं भगवंतस्स नो एवं भवइ ॥११८॥ श्री शान्तिनाथ स्तोत्र विश्वातिशायिमहिमा, ज्वलत्तेजोविराजितम् । शान्ति शान्तिकरं स्तौमि दुरितव्रातशान्तये षोडशविद्यादेव्योऽपि चतुषष्टिसुरेश्वराः । ब्रह्मादयश्च सर्वेऽपि यं सेवन्ते कृतादरा: , " ह्रीं श्रीं जये विजये,अजये परैरपि । तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं कुरु कुरु शान्ति महाजये न क्वापि व्याधयो देहे, न ज्वरा न भगंदराः । कासश्वासादयो नैव, बाधन्ते शान्तिसेवनात् यक्षभूतपिशाचाद्या, व्यंतरा दुष्टमुद्गलाः । सर्वे शाम्यन्तु मे नाथ ! शान्तिनाथसुसेवया 11811 ॥२॥ ॥३॥ 11811 ॥५॥ १११ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपदेश श्लोक परोपकारः सततं विधेयं, स्वशक्तितो ह्युत्तमनीतिरेषा । न स्वोपकाराच्च स भिद्यते, तत्, तं कुर्वतैतद् द्वितयं कृतं स्यात् ॥ (उपदेशरत्नाकर) पंचनमुक्कारो खलु विहिदाणं सत्तिओ अहिंसा च । इंदियकसायविजओ एसो धम्मो सुहपओगो । ( उपदेशपद) अहिंसा ध्यानयोगश्च, रागादीनां विनिग्रहः । साधर्मिकानुरागश्च सारमेतज्जिनागमे ॥ जं चरणं पढमगुणो जतीण मूलं तु तस्स वि अहिंसा । तप्यालणे च्चिय तओ जइयव्वं अप्पमत्तेण। नाणं पगासगं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिको तिण्हं पि समायोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥ जत्थ य विसयविराओ, कसायचाओ गुणेषु अनुराओ । किरियासु अपमाओ, सो धम्मो सिवसुहोवाओ ॥ जह जह रागदोष विलिजन्ती तह तह पयहिअव्वं । . ११२ . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અમરહંસગણિવિરચિત શ્રી વર્ધમાનવિદ્યા જાપવિધિ (૧) આ વિધિ નમસ્કાર સ્વાધ્યાયાદિ ગ્રંથના આધારે તૈયાર કરી છે. (૨) ઇર્યા ૦ કરી પદ્માસને બેસવું પછી...શ્રી तीर्थंकरगणधरप्रसादात् मम एष योगः फलतु । । એમ બોલવું (૩) હાથ જોડી નમસ્કારમહામંત્ર અને ઉવસ્સગ્ગહરં ત્રણવાર બોલવું (વાસક્ષેપ હાથમાં લઈ) (૪) દેવીદેવીઓના સહાયક મંત્ર ॐ नमो अरिहंताणं भगवंताणं भगवईए सुअदेवयाए संतीदेवीए चउण्हं लोगपालाणं नवहं गहाणं दसण्हं दिग्पालाणं षोडशविद्यादेव्ये स्तंभनं कुरु कुरु ऐं अरिहंतदेवाय नमः स्वाहा । (વાસક્ષેપહાથમાં લઈને ત્રણવાર મંત્ર બોલીને ત્રણવાર વાસક્ષેપ કરવો) (૫) પાંચે અંગ ઉપર હાથ ફેરવી પવિત્ર બનાવવા. (૬) ભૂમિશુદ્ધિ મંત્ર → ૐ મૂરતિભૂતધાત્રી સર્વભૂતહિતે ભૂમિશુદ્ધિ બુરું कुरु स्वाहा । ११३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ મંત્ર બોલી ત્રણવાર પટ પધરાવવાની જગ્યાએ (દક્ષિણાવર્તથી) અને પોતાની ચારે બાજુ વાસક્ષેપ કરવો. (મંત્ર એકવાર બોલવો) (૭) ધેનુમુદ્રાથી 3 અમૃતે મૃતોદ્ધવે અમૃતવાહિની અમૃતવર્ષ ૩મૃતં સ્ત્રાવ ત્રાવય સ્વી ! એમ ત્રણવાર બોલી અમૃતકુંડ કલ્પવા. (૮) પંચાક્ષરમંત્રસ્થાપના –+ “ઢ ફૂટ ઢ'' એમ ત્રણવાર જમણા હાથની અંગુષ્ઠ, તર્જની, મધ્યમા, અનામિકા અને કનિષ્ઠા આંગળીઓને સ્પર્શ કરતા અનુક્રમે બોલવું. તથા હૃદયમાં પંચપરમેષ્ઠી ચિંતવવા (૯) પંચાંગસ્નાનમંત્ર - “મત્તે વિમત્રે સર્વતીર્થનને પ વ વૉ ૩: શર્મિવામિ દ્વારા છે (આ મંત્ર બોલતા ખોબામાં સમગ્રતીર્થોનું પાણી છે, એવો વિચાર કરી લલાટથી માંડી પગના તળીયા સુધી સ્નાન કરું છું એવો વિચાર કરવો) (૧૦) વસ્ત્રશુદ્ધિમંત્ર – “ હૈં ર્તી સ્વ પાઁ પ વસ્ત્રશુદ્ધિ કુરુ કુરુ સ્વાહા'' | (આ મંત્ર બોલતાં બોલતાં વસ્ત્રો ઉપર હાથ ફેરવી વસ્ત્રશુદ્ધિ કરવી) ૧૨૪ ૦. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૧૧) કલ્મષદહનમંત્ર “ વિદ્યુતપૂર્તિ મહાવિદો મમ સર્વ hષ વદ વદ સ્વાફા'' | (આ મંત્ર ત્રણવાર બોલતાં ત્રણવાર ભુજાઓ પર સ્પર્શ કરીને પાપનું દહન કરવું) (૧૨) હૃદયશુદ્ધિમંત્ર – “ક વિમત્રીય વિમચિત્તો સ્વ સ્વ વા'' ! (આ મંત્ર ત્રણવાર બોલતાં ડાબા હાથે ત્રણવાર હૃદયસ્પર્શ કરવો) (૧૩) રક્ષામંત્ર –– મસ્તકે - ડાબાહાથના સાંધે ડાબીકમર -> ડાબાપગે – જમણાપગે વી જમણી કમર -> જમણા હાથના સાંધે. આ મંત્રોચ્ચાર વખતે જમણા હાથે તે તે સ્થાને સ્પર્શ કરવો. આમ ઉલટ કરવું આવી રીતે સુલટ-ઉલટ ત્રણ વખત કરતા છેલ્લે આવે) 0 9 ) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્રપ્રભાવ કુસ્વપ્ર, કુનિમિત્ત, અગ્નિ, વીજળી, શત્રુ આદિથી રક્ષણ થાય તત્વ Iકારી . . (૧૪) સકલીકરણ = પંચભૂતતત્ત્વશુદ્ધિ મંત્ર મંત્ર | સિ | ઘ | 8 | સ્વી | ટ્રા ! સ્પર્શસ્થાન | જાનુ, | નાભિ, હૃદય, | મુખ, | શિખા વર્ણકલ્પના – | પીત | શ્વેત | રક્ત | હરિત નીલ તત્ત્વ પૃથ્વી જલ | અગ્નિ વાયુ | આકાશ. (ઉપરવત્ ત્રણવાર ઉલટ-સુલટ કરી તે-તે સ્થાને અક્ષરો કલ્પવા) (૧૫) રક્ષાકવચ = આયુધમંત્રઃ • 9 નો રિહંતાપ હૃદયં રક્ષ રક્ષા ॐ नमो सिद्धाणं ललाटं रक्ष रक्ष । ॐ नमो आयरियाणं शिर्षं रक्ष रक्ष । તે..તે સ્થાને જમણા હાથથી સ્પર્શ કરવો ॐ नमो उवज्झायाणं कवचं भव भव હાથ-પગનો સ્પર્શ કરવો ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं आयुधं भव भव તર્જની - અને મધ્યમાં લાંબી કરવી. (આ મંત્ર માત્ર એક વાર બોલવો) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હૃદયમાં કંઠમાં તાળવામાં ભૂમધે, બ્રહ્મરંધ્રમાં (૧૬) પંચમંત્રાક્ષર = અંગન્યાસ બે અંગૂઠામાં “નનો રિહંતા'' બોલીને ન્યાસ કરવો. બે તર્જનીમાં “નમો સિદ્ધ '' બોલીને ન્યાસ કરવો બે મધ્યમામાં “નમો મારિયા'' બોલીને ન્યાસ કરવો બે અનામિકામાં “નમો સર્જાયા '' બોલીને ન્યાસ કરવો. બે કનિષ્ઠામાં “નમો નો સવ્વસાહૂU'' બોલીને ન્યાસ કરવો. પછી नमो अरि० नमो सिद्धाणं नमो आय० नमो उव० नमो लोए० (ક્રમશઃ ડાબા હાથે ન્યાસ કરવો પંચપરમેષ્ઠીની ધારણા કરવી) આ મંત્ર માત્ર એકવાર ગણવો. (૧૭) “ હું નમઃ” આ મંત્ર બોલી જમણા હાથે પટબંધન ઉપર વાસક્ષેપ કરવો. પછી તેને (મંત્રોચ્ચાર વખતે વાસક્ષેપ હાથમાં રાખવો નમસ્કાર કરવો) પછી...પટબંધન ખોલવું અને પટને નમસ્કાર કરી બે હાથે પટને ઉપાડી મોરપીંછીથી પૂંજી પટને યોગ્ય સ્થાને સ્થાપન કરવો. મધ્યબિંદુથી સમગ્ર પટના આવર્તાની વાસક્ષેપ પૂજા કરવી. (વર્ધમાન વિદ્યાથી) (૧૮) પટ તરફ બંને હાથ ચત્તા રાખી નવકારથી સ્થાપના કરવી. (૧૯) ૧ આહ્વાન પૂજામંત્ર – “ હીં નમોડસ્તુ માવન Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धमानस्वामिन् ! अत्र एहि एहि संवौषट् । " આહ્વાનીમુદ્રા → પટ તરફ ચત્તા હાથ રાખી અનામિકાને બંને અંગુઠા જોડવા ૨ સ્થાપનાપૂજામંત્ર→ ‘ૐ હ્રીઁ નમોસ્તુ મળવન્ ! વર્ધમાનસ્વામિન્ ! અન્ન તિષ્ઠ તિક્ષ્ણ ૩: 3:'' | સ્થાપનીમુદ્રા → પટ તરફ ચત્તા હાથ રાખી અનામિકાને બંને અંગુઠા જોડવા. ૩. સંનિધાનપૂજામંત્ર→ ‘ૐ હ્રીઁ નમોસ્તુ ભાવન્ ! વર્ધમાનસ્વામિન્ ! मम संनिहितो भव भव वषट् । સંનિધાની મુદ્રા → બંને હાથની મુઠ્ઠીઓ સામસામે રાખી અંગુઠા ઊંચા કરવા. * ૪. સંનિરોધના પૂજામંત્ર→ ‘ૐ હ્રીઁ નમોસ્તુ મળવન્ ! વર્ધમાનस्वामिन् ! पूजान्तं यावदत्रैव स्थातव्यम्" । સંનિરોધિની મુદ્રા →→ બે હાથની મુઠ્ઠી સામસામે રાખી અંગુઠો મુટ્ટીનો અંદર રાખવો. ૫. અવગુંઠન પૂજામંત્ર→ ‘ૐ હ્રીઁ નોસ્તુ ભાવન્ ! વર્ધમાનસ્વામિન્ ! રેષાં અવીક્ષિતાનાં અદશ્યો ભવ'' | ११८ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અવગુંઠની મુદ્રા – બે મુટ્ટી સામસામે રાખી બે તર્જની સીધી લાંબી કરવી. આ પાંચે મુદ્રાએ વર્ધમાન વિદ્યાના અધિષ્ઠાયકને આશ્રયીને પણ કરવી, પરંતુ..મંત્રમાં વન્ ! વર્ધમાન સ્વામિન્ ! ને બદલે.. વર્ધમાનવિદ્યાધિષ્ઠાયેરૂત્યાદ્રિ બોલવું. (૨૦) છોટિકા– જમણા હાથથી ચપટી તે તે દિશામાં મંત્રોચ્ચાર પૂર્વક વગાડવી. ૧. બેઠા હોય તે દિશામાં સામે બે ચપટી મ, મા ! ૨. જમણા હાથે રૂ, , ૩. પાછળ ૩, ૪ / ૪. ડાબા હાથે , જે ૫. મસ્તક ઉપર મો, ગ . ૬. નીચે.., . . (માત્ર એક વખત) (૨૧) સંજીવનીકરણમંત્ર– “ હ પોસ્તુ મવિન્ ! વર્ધમાન સ્વામિન્ ! સત્ર સમૃતફર સંગીવ ભવતુ સંગીવી મિત્રતુ (આ મંત્ર બેનમુદ્રાથી એકવાર બોલવો) (૨૨) “ હ નમોડસ્તુ અવિન્ ! વર્ધમાનવામિન્ ! અંધાવી ગૃહUT Tહાન નમઃ' (આ મંત્ર અંજલીમુદ્રાથી એકવાર બોલવો) પૂર્વવતું ૦ ૨૨ ૦ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અધિષ્ઠાયકને આશ્રયીને આ બે મંત્ર બોલવા. (૨૩) વર્ધમાનવિઘામૂલમંત્ર એક વખત બોલી પટ ઉપર વાસક્ષેપ કરવો. (૨૪) માનસોપચાર” ૐ'' પૃથ્યાત્મ અત્યં સમર્પયામિ, રં” માત્મ પુષ્પ સમર્પયામિ, “ચં'' વાધ્યાત્મ ધૂપં સમર્પયામિ ! “'' વરાત્મ વીપ સમર્પયામિ, “'' સર્વોપચારીત્મ દ્રવ્ય સમર્પયામિ, આમ કલ્પીને જમણા હાથે પટ ઉપર વાસક્ષેપ કરવો. (૨૫) ખમા. દઈ ઇચ્છા. સંદિ. ભગ. સાધિષ્ઠાયક સમગ્ર વર્ધમાનવિદ્યા આરાધનાર્થ કાઉ. કરું? ઈચ્છ, સાધિ. વર્ધમાનવિજ્જાએ કરેમિ કાઉ. વંદણવત્તિ. અન્નત્થ...ચાર લોગ. (સાગર. ગં. સુધી) પારી પ્રગટ લોગ. (૨૬) ૧. સૌભાગ્યમુદ્રા, ૨. પરમેષ્ઠિમુદ્રા ૩. પ્રવચનમુદ્રા ૪. સુરભિમુદ્રા ૫. અંજલિમુદ્રા આ દરેક મુદ્રાએ વર્ધમાનવિદ્યા ગણવી. પ્રવચન-મુદ્રામાં ડાબો હાથ છાતીએ લગાડવો. (૨૭) પ્રાણાયામ –– ૧. જમણી નાસિકા દબાવી ડાબીથી શ્વાસ કાઢવો શ્વાસ કાઢતા પૂર્વે “ત્મિ રવાયું વિસર્નયામિ'' બોલવું ૨. ડાબી નાસિકા દબાવી જમણીથી શ્વાસ કાઢવો. શ્વાસ કાઢતા પૂર્વે ૧૨૦ ૦ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “તેષાત્મ #Wવાયું વિસર્નયમિ' બોલવું. ૩. સમતાભાવ લાવવા જમણી નાસિકા દબાવી ડાબીથી શ્વાસ લેતી વખતે “સર્વાત્મૐ ગુજ્જવાયું થારામ' બોલવું તથા..પાંચ મુદ્રા (ઉપર કહેલી) વર્ધમાનવિદ્યાને બતાવવી પછી શ્વાસ છોડવો. (૨૮) વર્ધમાન વિદ્યાનો જાપ શરૂ કરતા પૂર્વે. ૧. અંજલીમુદ્રાથી સંકલ્પ કરવો — વિક્રમ સં.. વર્ષે..માસે તિથૌ.. વાસરે... आचार्यश्री...शिष्य स्वनाम...मम दुरितक्षपणार्थं सर्वेषां शिव-शान्ति-तुष्टि-पुष्टि-कल्याणार्थं वर्धमानविद्याध्यानं जपं करोमि । जापे मम एकाग्रचित्तता भवतु । ૨. “રૂ વિન્ને પjના િસિ મે સિ ' આમ બોલવું તેથી બધો જાપ સફળ થાય છે. (૨૯) વર્ધમાનવિદ્યા મંત્રનો ૧૦૮ વાર જાપ કરવો (નારે મેકધૂપ-મોષવાનન-વંતવિવૃત્તિયા:) પછી.. પટને આંગળીથી સ્પર્શ કરવો. પછી અસ્રમુદ્રા વડે આસન હલાવવું અસ્ત્રમુદ્રા > બંને હાથની તર્જની મધ્યમાં સીધી સામે કરી અંગુઠો બાકીની આંગળીથી અંદર દબાવવો. (૩૦) અંજલી જોડી. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ आह्वाहनं नैव जानामि, न जानामि विसर्जनम् । पूजाविधिं न जानामि, क्षमस्व परमेश्वर ! ॥१॥ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं, मन्त्रहीनं च यत्कृतम् । तत्सर्वं कृपया देव ! क्षमस्व परमेश्वर ! ॥२॥ (૩૧) ઉત્થાપન - આ બે શ્લોક બોલી નવકારથી બે ચત્તા હાથ વડે ઉત્થાપન કરવું. પછી કનિષ્ઠા આંગળીથી ક્રમસર ચારે આંગળી વાળવી. (૩૨) વિસર્જનમંત્ર – “ હ નોડતુ માવત્ ! વર્ધમાન સ્વામિન પુનરી!મનાથ વસ્થાને નચ્છ છે' ! એમ બોલતા વિસર્જનમુદ્રાથી વિસર્જન કરવું (ત્રણવાર) પૂર્વવતુ...અધિષ્ઠાયકને આશ્રયીને પણ આ મંત્ર બોલવો. (૩૩) વર્ધમાનવિદ્યાસ્તવ બોલવું આ પુસ્તક પેજ નંબર ૩૪) પ્રભુવીર ! વસ્ત્ર પર લાગતો ડાઘ અમે દૂર કરી દઈશું. શરીર પર ચોંટતી ધૂળ તો અમારાથી દૂર થઈ જશે પણ કર્મનાશના ક્ષેત્રે લગભગ મૂચ્છિતદશામાં જીવતા અમારા જાલિમ પ્રમાદને આપે જ દૂર કરવો પડશે. કારણકે અમો શરીર નિદ્રાની સાથે મોહનિદ્રાના પણ એટલા જ ભોગ બન્યા છીએ ! ૦ ૬૨૨ ૦ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વાસક્ષેપ મંત્રવાની વિધિ અનામિકા આંગળીથી વાસક્ષેપના થાળમાં વચ્ચે દક્ષિણાવર્તના આકારે ત્રણ આંટા કરીને ઉપર સ્વસ્તિક અને તેની મધ્યમાં ને આલેખવો. પછી.... ૧. પૂર્વથી પશ્ચિમ ર. ઉત્તરથી દક્ષિણ ૩. ઈશાનથી નૈઋત્ય ૪. અગ્નિથી વાયવ્ય, આ ક્રમે ચાર રેખાઓ કરી આઠ આરાવાળું ચક્ર આલેખવું. પછી... મધ્યમાં મૂળબીજ આલેખવો ના છેડેથી દક્ષિણાવર્ત આકારે સાડા ત્રણ આંટા આપવા. અને છેડે જો આલેખવો ત્યારબાદ હૈ ની સામે. * પૂર્વ દિશામાં રેં નમો અરિહંતાપ ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * અગ્નિમાં હીં નમો સિદ્ધાપ ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * દક્ષિણમાં શ્રીં નમો મારિયા ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * નૈઋત્યમાં ઠ્ઠ નમો ઉવાયા ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * પશ્ચિમમાં છે દ નો તો સવ્વસાહૂNT ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન ૦ ૨૨૩ • Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * વાયવ્યમાં દ નો સંસાર ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * ઉત્તરમાં શ્રીં નમો નાસ્તિ ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. * ઈશાનમાં ૬ ઠ્ઠ નમો વારિત્તસ ની સ્થાપના. મનથી મંત્રાક્ષર ચિંતવન. પછી...આચાર્ય સૂરિમંત્ર ઉપાધ્યાય પાઠકમંત્ર અન્ય વર્ધમાન વિદ્યાના સ્મરણ સાથે સાતમુદ્રાથી વાસક્ષેપ સ્પર્શ કરવો. (ગુરુપંરપરાથી મળેલો વાસક્ષેપ એમાં ભેળવવો.) સાતમુદ્રા–પરમેષ્ઠી, ગરુડ, ધેનુ, સૌભાગ્ય, પદ્મ, મુદ્ગર, અંજલિ. નવકારવાળી મંત્રિત કરવાની વિધિ નીચેની ગાથા ૧૦૮ વાર બોલવા પૂર્વક ૧૦૮ વાર નવકારવાળી ઉપર વાસક્ષેપ કરવો. गाथा - , रत्नैः सुवर्णैर्बीजैर्या, रचिता जपमालिका सर्वगात्रेषु सर्वाणि, वाञ्छितानि प्रयच्छतु-१ નવકારવાળી ગુરુપુષ્યના યોગમાં મંત્રિત કરવી. નવકારવાળીને સપ્ત મુદ્રાઓ બતાવવી. • ૧૨૪૦ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ બીજાક્ષરોનો સંક્ષિપ્ત અર્થ - પ્રણવ ધ્રુવ, વિનય અને - સ્તંભન બીજ તેજસુ બીજ માઁ - અંકુશ અને નિરોધ બીજ છે - વાગુ અને તત્ત્વબીજ સ્ત્ર - વિષાપહાર બીજ મા - પાશ બીજ દ ક વ રજૂ : - એ પાંચ જ્જ - કામ બીજ વાણી બીજ છે. દ્ વિસર્જન અને ચલનબીજ સ્વાદી - હવન અને શાંતિ બીજ ર - આશક્તિ બીજ સ્વધા - પૌષ્ટિક બીજ વષર્ - દહન બીજ નમ: - શોધન બીજ હો - શિવ અને શાસન બીજ શ્રી - લક્ષ્મી બીજ વૌષ - આકર્ષણ અને પૂજા મર્દ - જ્ઞાન બીજ ગ્રહણ બીજ ડું - વિષ્ણુ બીજ વીષદ્ - આકર્ષણ બીજ ક્ષ: પદ્ - શસ્ત્ર બીજા fક્ષ - પૃથ્વી બીજ 3 - તાર-ધ્રુવ-વેદાદિ, નૈગમાદિ, - અમ્ બીજ કૃત્યાદિ વા - વાયુ બીજ ઈ - માયા, લજ્જા, શક્તિ, શિવ $ - આકાશ બીજ પાર્વતી, ભુવનેશ, ગિરિજાનામ ન્ને - દ્રાવણ બીજ અને બીજ છે. ન્ને – આકર્ષણ બીજ Ė- વર્મ-કવચ-ત્રિતત્વ ક્રોધ, છંદ દ - માયા અને રૈલોક્ય બીજ • ૨૨ ૦ બીજ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ યઃ - ઉચ્ચાટન અને વિસર્જન બીજ ૐ - વિદ્વેષણ રાઁ - અમૃત બીજ મૈં - સોમ બીજ તાૉ - નરબીજ સ્વાહા - શાંતિવાચક મંત્ર બીજ સ્વધા - પૌષ્ટિક વાચક બીજ આ બે શાંતિક પૌષ્ટિક વિધાનોમાં બોલવા જરૂરી છે. હઁસ - વિષને દૂર કરનારું બીજ મૈં - ગૂંચ દીર્ઘ વર્ગ, દીર્ઘતનુચ્છેદ છે. બ્લ્યૂ - પિંડ બીજ નમઃ - શિરોમં, અગ્નિવાચ, વનિતા, અગ્નિપ્રિયા, દહનપ્રિયા, પાવક, દ્વિ:ઠ-ઠદ્વયં છે. શ્ર્વઃ - કૂટાક્ષર બીજ સ્વીં સ્વીં હૂંતઃ - વાગ્ભવ બીજ ક્ષિપ ૩ સ્વાહા - શત્રુ બીજ પું હ્રીં શ્રીં - ત્રિબીજ છે. જ્ઞા - નિરોધન બીજ મૈં - તારાબીજ છે ૩ઃ - સ્તંભન બીજ ત્રા - ચંડી બીજ નાઁ - વિમલપિંડ બીજ સ્ત્રીં - સ્ત્રી બીજ રત્ન - સ્તંભન બીજ સ્વીં - ઇન્દુ બીજ घे घे વધ બીજ # - પીઠ બીજ દ્રાઁ મૈં - દ્રાવણ સંશક બીજ મૈં - સૃષ્ટિ બીજ નઃ - મલ બીજ ય: અચલ બીજ हूँ हैं ह्र આ શૂન્યરૂપ બીજ. TM વાગ્ બીજ. માઁ મૈં ાઁ આ ત્રણ પાશાદિ બીજ १२६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ श्रीपञ्चषष्टि स्तोत्रम् आदौ नेमिजिनं नौमि, संभवं सुविधि तथा । धर्मनाथं महादेवं, शान्ति शान्तिकरं सदा अनंत सुव्रतं भक्त्या, नमिनाथं जिनोत्तमम् । अजितं जितकंदर्प, चंद्रं चंद्रसमं प्रभुम् (समप्रभम् ) आदिनाथं तथा देवं, सुपाश्र्वं विमलं जिनम् । मल्लिनाथं गुणोपेतं, धनुषां पंचविंशतिम् अरनाथं महावीरं, सुमतिं च जगद्गुरुम् । श्रीपद्मप्रभनामानं, वासुपूज्यं सुरैर्नतम् ॥४॥ शीतलं शीतलं लोके, श्रेयांसं श्रेयसे सदा । (श्री)कुंथुनाथञ्च वामेयं, श्रीअभिनंदनं विभुम् जिनानां नामभिर्लब्ध( र्बद्ध): पंचषष्टिसमुद्भवः । यंत्रोऽयं राजते यत्र, तत्र सौख्यं निरंतरम् यस्मिन् गृहे महाभक्त्या, यंत्रोऽयं पूज्यते बुधैः । भूतप्रेतपिशाचादि-भयस्तत्र न विद्यते सकलगुणनिधानं यंत्रमेनं विशुद्धं, हृदयकमलकोशे, धीमतां ध्येयरूपम् जयतिलकगुरुः श्रीसूरिराजस्य शिष्यः, वदति सुखनिदानं, मोहलक्ष्मीनिवासम् ॥६॥ ॥७॥ ॥८ ॥ • १२७ . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चषष्टि यन्त्र स्थापना | २२ / ३९ २० २१ २ । २२ । ३ २५ १८ । २४ ६ । २३ । १२ ४ १० १७ ધજા ઉપર લખવાનો યંત્ર પ૬ ૬૧ ૫૮ પ૩ ६४ ५० દંડ-પાટલી ઉપર લખવાનો ૩૪નો યંત્ર - VF ૧ ૩ . + ५ ११ १४ • १२८ . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫ ૨૦ 90 ૫૫ ૫ ૪ ૧૪ ૧૧ ૧૭૦ યંત્ર ૧૫ ૩૦ §Ο ૬૫ ८० ૫૦ ૪૫ ૭૫ ૩૫ ૫ ૧૦ ૪૦ ઘંટ ઉપર લખવાનો યંત્ર ૧૬ (૯ ૩ દ ૧ ૨ ૧૩ ૧૦ ૧૫ ૧ ८ સિદ્ધ ભગવંત સિદ્ધભગવંતો અનાદિ અનંત છે. તેમનું અસ્તિત્વ જીવોને નિગોદમાંથી બહાર કાઢવાથી લઈ સિદ્ધપદ સુધી પહોંચાડવા માટે સતત ક્રિયાશીલ છે અક્રિય પદ હોવા છતાં ક્રિયા માત્રનું પ્રયોજક સિદ્ધપદ છે. એ એક રહસ્ય ભૂત કોયડો છે. કારણ કે સિદ્ધિગતિનો માર્ગ બતાવવા માટે અને સિદ્ધિપદ પામવા માટે જ તીર્થંકરભગવંતો અને ગણધરભગવંતો સતત પ્રયત્નશીલ હોય છે તેથી પરંપરાએ સિદ્ધભગવંતો જ સર્વના પરમોપકારી છે. (પૂજ્યપાદ્ આ. દે. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરિજી મ.સા.) વિ.સં. ૨૦૪૯ વૈ.સુ. ૮ બીકનુર-કામારેડી) १२९ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નવગ્રહ જાપ ગ્રહ મંત્ર તીર્થકર ૨૮ જાપસંખ્યા માલારંગ પદ્મપ્રભ સિદ્ધ સૂર્ય ! 3 હ્રીં રત્ના સૂર્યાય સહસ્ર કિરણાય નમો નમ: | 9 હજાર લાલ ચંદ્ર | ૐ રોહિણીપતયે ચંદ્રાય * હાં દ્રા ચન્દ્રાય નમઃ | | ચંદ્રપ્રભ અરિહંત ૧૧ હજાર સફેદ મંગલ વાસુપૂજય સિદ્ધ ૐ નમો ભૂમિપુત્રાય ભૂભૃકુટિનેત્રાય વક્રવદનાય દ્રઃ સઃ મંગલાય સ્વાહા ! | ૧૦ હજાર લાલ બુધ | ૐ નમો બુધાય શ્રૌં હ્રીં શ્રીં સુ દ: સ્વાહા વિમલનાથ ઉપાધ્યાય | ૯ હજાર લીલો ગ્ર ગ્ર ગ્રૂ હીં બૃહસ્પતયે સુરVાય નમઃ | આદિનાથ આચાર્ય ૧૯ હજાર પીળા ૨૨૦ ૦ શુક્ર | સુવિધિનાથ અરિહંત { ૧૬ હજાર ૐ યઃ અમૃતાય અમૃત વર્ષણાય દૈત્યગુરવે નમ: સ્વાહા / સફેદ મુનિસુવ્રત સાવ શનિ ! 8 શનૈશ્વરાય ઑ ક હું કોડાય નમઃ | ૨૩ હજાર કાળો વાદળી સ્વામી રાહુ | ૐ વાઁ શ્રી વ્રઃ વ્રઃ વ્ર: પિંગલનેત્રાય કૃષ્ણરૂપાય રાહવે નમ: સ્વાહા. નેમિનાથ | સાધુ | ૧૮ હજાર | કાળો ૐ ક્રૉ કે ટઃ ટઃ ટ: છત્રરૂપાય રાહુતનવે કેતવે નમઃ સ્વાહા ! પાર્શ્વનાથ સા. ૧૮ હજાર કાળો Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ગ્રહ | જાપ ] માલા સંખ્યા 1. રંગ ધાતું લાલ હજા૨ Ruby ૧૧ સફેદ ચાંદી હાર લાલ હાર લીલો જા૨ રેવતી પીળો નીલમ • ૨૩૨ • શ્રી નવગ્રહ શાંતિ જાપ મંત્ર વાર | અનુકૂળ કેરટ | અનુકૂળ | અંગુલી નિષિધ આ નક્ષત્રમાં રત્ન પ્રમાણ ગ્રહણ ૨ ગ્રહણ કરવું માણેક 3 સોના અનામિકા હીરા નિલમ | કૃતિકા, ઉત્તરાફાલ્યુની ગોમેદ, ઊત્તરાષાઢા કનિષ્ઠા | ગોમેદ | રોહિણી, હસ્ત, શ્રવણ Pearl પ્રવાલ ૬ ચાંદી અનામિકા ! હીરા નિલમ | મૃગશીર્ષ, ચિત્રા, Coral ગોમેદ | ધનિષ્ઠા પન્ના ૪ સોના કનિષ્ઠા આશ્લેષા, જ્યેષ્ઠા, Emerald પુખરાજ ૬ સોના પુનર્વસુ, વિશાખા, Topaz હીરા પૂર્વાભાદ્રપદ હીરા ૧/૪ પ્લેટીનમ તર્જની માણેક ભરણી, Diamond | ચાંદી પ્રવાલ પૂર્વાફાલ્ગની પુખરાજ પૂર્વાષાઢા શનિ | નિલમ ૪ પંચધાતુ માણેક પુષ્ય, Saphire પ્રવાલ અનુરાધા, સોના પુખરાજ ઉત્તરાભાદ્રપદ શનિ | ગોમેદ ૫ અષ્ટધાતુ મધ્યમાં માણેક આદ્રા, Zircon ચાંદી સ્વાતિ, શતભિષા વૈડુર્યપ ચાંદી અનામિકા | પ્રવાલ | અશ્વની, મઘા, મૂળ Catseye 4 હુજાર સફેદ હજાર મંચમાં વાદળી કાળો હજાર યા કાળો હજાર કાળો હજાર Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ચાતુર્માસ પ્રવેશ વગેરે પ્રસંગ પર નગરપ્રવેશની વિધિ પ્રાથમિક વિધિ-પ્રવેશના એક દિવસ પહેલાં સાંજે થોડી માટી અને ૧૧ કાંકરી લાવવી (વડીલ અને વક્તા અલગ હોય તો હું કાંકરી અધિક લેવી) તેને રાતે અથવા પ્રવેશ દિનના પ્રાતઃકાલે માટી તથા એકેક કાંકરીને નવ વખત શ્રી વર્ધમાનવિદ્યાથી અભિમંત્રિત કરીને પોતાની પાસે રાખવી. સવારે મંગલ કરી, પૂજ્ય ગુરુદેવ તથા આજ્ઞા આશીર્વાદદાતા ગુરુદેવને વંદનાદિ કરવું આવેલ વાસક્ષેપ લેવો અને... સહવર્તીઓને પણ વાસક્ષેપ કરવો. શુકન લઈ મુહૂર્તના સમય પહેલા જ્યાંથી નગર પ્રવેશ કરવાનો હોય, ત્યાં પહોંચી જવું. પ્રવેશ સ્થાન પર કરવાની વિધિ ઇરિયાવહિયં કરવા. બધાએ બેસીને ભાવમંગલ સ્વરૂપ નમસ્કાર મહામંત્ર ઉવસગ્ગહર સ્તોત્ર આદિ સ્તોત્ર તથા મંત્રવિદ્યાનું સ્મરણ કરવું. ત્યારબાદ બની શકે તો બધાએ અથવા વડીલ+વક્તાએ જે દિશા સન્મુખ પ્રવેશ કરવાનો હોય તે દિશાની હદ પર ઊભા રહીને ક્ષેત્રદેવતા (ગામનગર દેવતા)ને આહ્વાનાદિ કરવા પછી... 1 ખિત્તદેવયાએ કરેમિ કાઉ, અન્નત્થ એક નવકારનો કાઉ, કરવો પછી “યસ્યાઃ ક્ષેત્ર” સ્તુતિ કહી નવકાર બોલવો. પછી ક્ષેત્રપાલનો મંત્ર ત્રણવાર બોલીને ત્રણવાર ભૂમિપર વાસક્ષેપ કરી તેમની નગરપ્રવેશ માટે અનુમતિ લેવી. ત્યારબાદ ભૂમિપર સંક્ષિપ્તથી નામ નિર્દેશ સાથે નવગ્રહ, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશદિકપાલનું વાસક્ષેપ કરવા દ્વારા વિધાન કરવું. ત્યારબાદ.. અભિમંત્રિત કરેલી એકેક કાંકરીને ક્રમશઃ લઈને નીચેનો શ્લોક અને શ્રીધર્મચક્ર વિદ્યા બોલીને વારા ફરતી ચાર દિશા (સન્મુખ દિશાથી પ્રારંભ) અને ઉર્ધ્વઅધો દિશામાં તે તે કાંકરીનો પ્રક્ષેપ કરવો. (વડીલ અને वामे.) सोपण्डु भगंदर दाहं कासं सासं च सुलमाइणि । पासपहुपभावेण नासंति सयलरोगाइं ह्रीं स्वाहा ॥१॥ विद्या-ॐ नमो भगवओ महई महावीरवद्धमाणसामिस्स जस्स वरधम्मचक्कं जलंतं गच्छेइ आयासं पायालं लोयाणं भूयाणं जुए वा रणे वा रायगणे वा वारणे बंधणे मोहणे थंभणे सव्वसत्ताणं अपराजिओ भवामि स्वाहा । ___ पछी...वडील समयानुसार भगव३५ न१४२, ऋषभ अजित० ....भवन्तु स्वाहा, श्रीगौतम अष्ट आदि संभावे नमो जिणाणं०...अर्हते नमः स्वाहा । એક વાર અથવા ત્રણવાર સમૂહમાં બોલાવે પછી...જમીન પર સળીથી ચોરસ આકાર કરી તેમાં અભિમંત્રિત માટીને મૂકે. પછી. શુભમુહૂર્ત પ્રાપ્ત થયે નીચેના મંત્રનું મનમાં ત્રણવાર સ્મરણ ४२. ९ चदावइए मन्त्र - नमो अरहंताणं नमो भगवईए चंदावईए महाविज्जाए भत्तहाए गिरे गिरे हुलु हुलु चुलु चुलु मयुरवाहिनिए स्वाहा । આ મંત્રનો જાપ સવારે ૧૦૮ વાર કરી લેવો) ત્યાર બાદ શુકન | સ્વરનો • १३३ . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ નિર્ણય કરી પ્રથમ ચરણ બનાવેલ ચોરસમાં મૂકી શ્રી નવકાર મહામંત્રના સ્મરણ કરતા હર્ષોલ્લાસ સાથે નગરની હદમાં પ્રવેશ કરવો. (પ્રવેશ કરતી વખતે શ્રાવક ગફૂલી વગેરે કરે તો સારું) પ્રવેશ કર્યા પછી... નજીકમાં જે વિશાલ વૃક્ષ આવે તેના થડમાં ચાર કાંકરી મૂકાવવી અને...એક કાંકરી ચાતુર્માસ સુધી વડીલ યા વક્તા પાસે રાખવી. (વિહાર થયે સ્વચ્છ સ્થાન પર મૂકી દેવી.) મકાન પ્રવેશ વિધિ શ્રી સકલ સંઘ સાથે મકાનના દ્વાર પર આવીને (વડીલ સંક્ષિપ્ત નવગ્રહ, દિક્ષાલ પૂજન કરે...ભવનપતિદેવનું (તે સ્થાનના દેવનું) પૂજન કરી ભવણ દેવતાનો કાઉ કરે..“જ્ઞાનાવિગુo” સ્તુતિ, નવકાર... ભવનદેવતાની અનુજ્ઞા માંગે) સંઘ ગફૂલી વગેરે કરે. મંગલગીતો ગાવે. પછી વડીલ મંગલસ્વરૂપ નવકાર બોલે તથા... નમો નિJI[io સમૂહમાં બોલાવે. મુહૂર્ત આવેથી સંઘની અનુમતિ લઈને શુકનસ્વરનો નિર્ણય કરી શ્રીસૂરિમંત્ર (શ્રી)વર્ધમાનવિદ્યાનું ત્રણવાર સ્મરણ કરીને ઉલ્લાસ અને વાજિંત્રોના નાદ સાથે મકાનમાં મંગલ પ્રવેશ કરે. પછી સ્વસ્થાન પર બેસી શ્રી સંઘને માંગલિક સંભળાવે. સ્વયં શ્રીસૂરિમંત્ર, શ્રીવર્ધમાનવિદ્યાનું મનમાં સ્મરણ કરે. અન્ય મહાત્માઓ પણ સ્થાન પર બેસીને સમયાનુસાર મંગલ કરી લે. નોંધ: નગરપ્રવેશ યા ચાતુર્માસ પ્રવેશ દિવસે મંગલરૂપે આયંબીલ કરવું અને શ્રી સંઘમાં કરાવવા જોઈએ. ૧ ૨ ૩૪ ૦ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રક્ષા પોટલી મંત્રિત કરવાની વિધિ मंत्र - जहूँ हूं फुट किरिटि किरिटि घातय घातय, परकृतविघ्नान् स्फेटय स्फेटय, सहस्रखण्डान् कुरु कुरु परमुद्रां छिन्द छिन्द परमंत्रान् fમન્ડ મિન્ટ ઈંક્ષ: વીર આ મંત્રથી વાસક્ષેપ સાત વાર મંત્રીને રક્ષા પોટલી ઉપર નાંખવો તથા શ્રીવર્ધમાન વિદ્યા અથવા શ્રીસૂરિમંત્રથી મંત્રિત કરવી અને મુદ્રાઓ વગેરે બતાવવી જોઈએ. જાજમ પાથરવાની વિધિ જોઈતી વસ્તુઓની યાદી : (૧) આયંબીલ કરેલી ૮ કુંવારી કન્યાઓ (૧૨ વર્ષ સુધીની) (૨) ૫ સોપારી (૩) વાટકીમાં કંકુ, (૪) ગૌતમસ્વામીજીનો ફોટો, (૫) વાસક્ષેપ વાટકામાં બટવામાં રાખવો, (૬) જે પાથરવાની છે તે સ્વચ્છ જાજમ, (૭) તાંબાનો પૈસોસિક્કો, (૮) ચોખા 200 ગ્રામ (૯) શુદ્ધજલ કળશામાં, (૧૦) ગોમૂત્ર વાટકામાં (૧૧) ડાભનું ઘાસ (૧૨) ધરો (૧૩) ફૂલો (૧૪) ચાર-પાંચ પાવલી (૧૫) ધૂપ (૧૬) દીપક. મંત્ર - मनमो गोयमस्स अक्खीणमहाणसस्स भगवन् भास्करी ह्रीं श्रीं वृद्धि वृद्धि आनय आनय मम मनोरथं पूरय पूरय स्वाहा । ह्रीं अर्ह नमो गोयमस्स सिद्धस्स बुद्धस्स अक्खीणमहाणसस्स लद्धिसंपन्नस्स भगवन् भास्कर मम मनोवाञ्छितं कुरु कुरु स्वाहा । • રૂપ છે Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વિધિ - સહુ પ્રથમ એક બે સોપારી કંકુવાળી કરવી, ૧ સોપારી, ૧ તાંબાનો પૈસો અને એક ચપટી ચોખા આદિ ઉપરોક્ત મંત્રથી અથવા શ્રીવર્ધમાન વિદ્યાથી ૧૦૮ વાર મંત્રી લેવા, સોપારી જમણા હાથમાં રાખવી અને મંત્ર જાપ થયા પછી સોપારી ઉપર વાસક્ષેપ કરવો. (પૂજ્ય ગુરુભગવંત હોય તો તેમની પાસે મંત્રિત કરાવવું) * જમણા હાથની મુઠ્ઠીમાં સોપારી, પૈસો, ચોખાને વાસક્ષેપ લેવો, અને ઉત્તર દિશા કે ઈશાન ખૂણા સામે રાખીને વિધિ કરાવનાર શ્રાવકે રહેવું. જાજમ પાથરવાનું મુહૂર્ત આવે ત્યારે હાજર રહેલા દરેક ભાગ્યશાળીઓ પાસે ૧૨ નવકાર ગણાવવા. * જાજમ શુદ્ધ અને ચોકખી લેવી, અને તેના પર શ્રીગૌતમસ્વામીનો મંત્ર ગણી લેવો. * જે કુંવારી કન્યાઓ છે તેમને કપાળમાં તિલક કરવા, શુભ વસ્ત્રો પહેરાવવા, અને જાજમના ૪ છેડા ૪ કન્યાઓના હાથમાં આપવાં. જાજમ પાથરવાની હોય તે જગ્યા શુદ્ધ જલથી અને ગોમૂત્રથી પવિત્ર કરવી. જાજમ જ્યાં પાથરવાની છે તેની વચ્ચે તેમજ ચાર ખૂણે કંકુના સાથીયા કન્યાઓ પાસે કરાવવા, તથા તેના પર ચોખા ચોટાડવા (નાંખવા). * વચ્ચે મંત્રિત સોપારી મૂકાવવી અને ડાભ ધરો ફુલને ૧ રૂપિયો વચ્ચે મૂકાવવો, તથા ચાર ખૂણે ચાર પાવલી સોપારી ડાભ ધરો ફૂલ ૦ ૨૩૬ ૦ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મૂકાવવા અને વચલા ભાગમાં ધૂપ દીપ ચાલુ રખાવવા. ચોખા પૈસા સોપારી વાસક્ષેપ વગેરે જાજમ પાથરતાં પહેલાં ઈશાનખૂણે અથવા ઉત્તરદિશા તરફ જાજમની નીચે ઉછાળવા અને પછી તુરત જ કુંવારી કન્યાઓ દ્વારા જાજમ પથરાવતાં સર્વે જણાં નવકાર ગણતાં ગણતાં જમણો પગ પ્રથમ મુકતાં જાજમ પર જઈને બેસે. * જ્યાં સુધી ઘી બોલવાનું હોય (ઉછામણી કરવાની હોય) ત્યાં સુધી જાજમને ખાલી ન રાખવી, કોઈને કોઈ માણસે વારાફરતી બેસી રહેવું. જાજમ પાથરતાં તેની નીચે બરાબર વચ્ચે સાથીયો કરેલ છે તેના પર કોઈનો પગ ન આવે માટે તે જગ્યાએ ટેબલ કે પાટલો મૂકાવી. તેના પર ધૂપ-દીપ મૂકાવવાં. હ. કન્યાઓ ને શીખ આપવી. પછી....શ્રી નવકાર બોલવો. ઈંનો નિબળાં સ્વાહા સમૂહમાં બોલાવવું, ત્યારબાદ નવ મિત્તિવિતાસ સ્તોત્ર બોલવું (પેજ ૫૦ પર છે) આ સ્તોત્ર સાંભળ્યા પછી શ્રાવકો બોલીની શરૂઆત કરે. આ જાજમની વિધિ રાજસ્થાની ક્ષેત્રોમાં વિશેષ પ્રકારે કરવામાં આવે છે. તે પર્યુષણમાં સુપનનું ઘી બોલતાં પહેલાં અને દેરાસરની પ્રતિષ્ઠા અંજનશલાકા ઉપધાનમાલ, સંઘમાલ વગેરે પ્રસંગોએ ઘી બોલતાં પહેલા કરવામાં આવે છે. ૦ ૨૨૭ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દેરાસરની વર્ષગાંઠે ધજા ચડાવવાનો વિધિ દેરાસરના મૂળનાયક પ્રભુજીની વરસગાંઠના દિવસે સવારે સત્તર ભેદી પૂજા ભણાવવી, એમાં નવમી ધ્વજપૂજા વખતે ધજાનો થાળ ગુરુમહારાજ પાસે પાટલા ઉપર મૂકવો. ગુરુમહારાજ વર્ધમાન વિદ્યા અગર સૂરિમંત્ર દ્વારા મંત્રી વાસક્ષેપ નાંખે તે ધજા ઉપર કેશરનાં છાંટણાં કરવાં ને કેશરના ત્રણ કે પાંચ સાથિયા કરવા અને પછી તે થાળ ભાગ્યવાન હાથમાં રાખી ઊભા રહે, ત્યાર બાદ નવમી પૂજા ભણાવવી. તે પૂજા પૂર્ણ થયે થાળને સૌભાગ્ય વતી સ્ત્રીના માથે મૂકીને ડંકાના નાદ સાથે મંદિરની અથવા પ્રભુની ત્રણ પ્રદક્ષિણા આપવી તેમજ ધૂપ દીપ ધારાવલી પણ કરવી ત્યારબાદ મંદિરના શિખરે ચઢવું. ત્યાં દંડ અને કળશની અષ્ટપ્રકારી પૂજા કરવી. પછી.... પુથાઉં પુથાઉં વગેરેના નાદપૂર્વક ધજા ચડાવવી. પછી નવકારમંત્ર અને મોટી શાન્તિ સાંભળવી. નીચે આવી બાકીની પૂજાઓ ભણાવવી. આ દિવસે બને તો સ્વામિવાત્સલ્ય કરવું. છેવટે સંઘપૂજા અને પ્રભાવના પણ કરવી. નોંધ - જેની નિશ્રા હોય છે અથવા ક્રિયાકારક બતાવે તે પ્રમાણે કરવી. ૧૩૮ ૦ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारचक्रसूत्र अधुवे असासयम्मि, संसारम्मि दुक्ख पउराए । किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाऽहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ? ॥१॥ अध्रुव, अशाश्वत और दुःख - बहुल संसार में ऐसा कोन - सा कर्म है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊँ । सुट्ठवि मग्गिज्जतो, कत्थ वि केलीइ नत्थि जह सारो । इंदिअविसएस तहा, नत्थि सुहं सुट्ट वि गविट्टं ॥२॥ बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता । जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडुयमाणो दुहं मुणइ सुक्खं । मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं बिंति ॥ ३ ॥ खुजली का रोगी जैसे खुलजाने पर दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है । जाणिज्जइ चिन्तिज्जइ, जम्मजरामरणसंभवं दुक्खं । न य विसएस विरज्जई, अहो सुबद्धो कवडगंठी ॥४॥ जीव जन्म, जरा (बुढ़ापा ) और मरण से होने वाले दुःख को जानता है, उसका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता । अहो ! माया की गाँठ कितनी सुदृढ होती है । • १३९ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतवो ॥५॥ जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग और मृत्यु दुःख है । अहो ! संसार दुःख ही है, जिसमें जीव क्लेश पा रहे हैं । कर्मसूत्र जं जं समयं जीवो, आविसइ जेण जेण भावेण । सो तंमि तंमि समए, सुहासुहं बंधए कम्मं ॥१॥ जिस समय जीव जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभअशुभ कर्मों का बन्ध करता है । न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोड़ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाड़ कम्म ॥२॥ जाति, मित्र- वर्ग, पुत्र और बान्धव उसका दुःख नहीं बँटा सकते । वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है । क्योंकि कर्म कर्त्ता का अनुगमन करता है । कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होंति । रुक्खं दुरुहइ, सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो ॥ ३ ॥ जीव कर्म बाँधने में स्वतन्त्र है, परन्तु उस कर्म का उदय होने पर भोगने में उसके अधीन हो जाता है । जैसे कोई पुरुष स्वेच्छा से वृक्ष पर तो चढ़ जाता है, किन्तु प्रमादवश नीचे गिरते समय परवश हो जाता है I १४० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई | आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥४॥ राग-द्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होता है। उसके आस्रवद्वार ( कर्मद्वार) बराबर खुले रहने के कारण मन-वचन काया के द्वारा निरन्तर कर्म करता रहता है । सव्वभूयऽप्यभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ । पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधई ॥ ५ ॥ जो समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है और जिसने कर्मास्रव के सारे द्वार बन्द कर दिये हैं, उस संयमी को पापकर्म का बन्ध नहीं होता । सेणावइम्मि णिहए, जहा सेणा पणस्सई । एवं कम्माणि णस्संति, मोहणिज्जे खयं गए ॥ ६ ॥ जैसे सेनापति के मारे जाने पर सेना नष्ट हो जाती है, वैसे ही एक मोहनीय कर्म के क्षय होने पर समस्त कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं । राग - परिहारसूत्र रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ १ ॥ राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल हैं । जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। १४१ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न वि तं कुणइ अमित्तो, सुड्डु वि य विराहिओ समत्थो वि । जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥२॥ अत्यन्त तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी अनिगृहीत / अनियंत्रित राग और द्वेष पहुँचाते हैं । जड़ तं इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स । तो तवसंजमभंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो ॥३॥ यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर । जेण विरागो जायड़, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं । मुच्चइ हु ससंवेगी, अनंतवो होड़ असंवेगी ॥४॥ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए । विरक्त व्यक्ति संसार - बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है । भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी- पलासं ॥५॥ भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है । जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता । १४२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसूत्र जड़ किंचि पमाएणं, न सुट्ठ भे वट्टियं मए पुवि । तं मे खाम अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ ॥१॥ किंचित् प्रमादवश यदि मेरे द्वारा आपके प्रति उचित व्यवहार नहीं किया गया हो तो मैं निःशल्य और कषाय-रहित होकर आपसे क्षमा-याचना करता हूँ । परसंतावयकारण-वयणं, मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ॥२॥ जो दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके स्व-परहितकारी वचन बोलता है, उसके सत्य धर्म होता है । पत्थं हिदयाणि पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ॥३॥ , अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले ही वह मन को प्रिय न लगे, पर कटुक औषध की भाँति परिणाम में मधुर ही होती है । विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरुव्व लोअस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ ॥४॥ सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है । १४३ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टि कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥५॥ ___ त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहं, तं वयं बूम माहणं ॥६॥ __ जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। तेल्लोकाड-विडहणो, कामग्गी विसयरुक्ख-पज्जलिओ। जोव्वण-तणिल्लचारी, जंण डहइ सो हवइ धण्णो ॥७॥ विषय रूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोक रूपी अटवी को जला देती है। यौवन रूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जलाती, वह धन्य है । जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥८॥ जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती । अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती है। • १४४ . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमसूत्र अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥१॥ आत्मा ही वैतरणी नदी है । आत्मा ही कूटशाल्मली वृक्ष है । आत्मा ही कामदुहा धेनु है और आत्मा ही नन्दनवन है । अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च दुष्पट्ठिय सुप्पट्ठिओ ॥२॥ " आत्मा ही सुख - दुःख का कर्ता और विकर्ता (भोक्ता) है । सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है । जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥३॥ जो दुर्जेय संग्राम में हजारों-हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय परमविजय है । एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियतिं च, संजमे य पवत्तणं ॥४॥ एक ओर से निवृत्ति और दूसरी ओर से प्रवृत्ति करनी चाहिए— असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति । १४५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागे दोसे य दो पावे, पावकम्म पवतणे । जे भिक्खू संभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥५॥ राग और द्वेष-ये दो पाप पापकर्म के प्रवर्तक हैं । जो सदा इनका निरोध करता है वह संसार-मंडल से मुक्त हो जाता है । जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥६॥ जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वार समेट लेता है । से जाणमजाणं वा, कट्टे आहम्मिअं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीय तं न समायरे ॥७॥ जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाये। धम्माराम चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही । धम्मारामरए दंते, बंभचेर-समाहिए ॥८॥ धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य में चित्त का समाधान पाने वाला भिक्षु धर्म के आराम में विचरण करे। • १४६ . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रमादसूत्र सीतंति सुवंताणं, अत्था पुरिसाण लोगसारत्था । तम्हा जागरमाणा, विधुणध पोराणयं कम्मं ॥ १ ॥ जो पुरुष सोते हैं उनके जगत् में सारभूत अर्थ नष्ट हो जाते हैं । अतः सतत आत्म-जागृत रहकर पूर्वार्जित कर्मों को नष्ट करो । जागरिया धम्मणं, अहम्मीणं च सुत्तया सेया । वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए ॥ २ ॥ 'धार्मिकों का जागना श्रेयस्कर है और अधार्मिकों का सोना' - ऐसा भगवान् महावीर ने वत्सदेश के राजा शतानीक की बहन जयन्ती से कहा था । सव्वओ पमत्तस्स भयं । सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ॥३॥ प्रमत्त को सब ओर से भय होता है । अप्रमत्त को कोई भय नहीं होता । आदाणे णिक्खेवे, वोसिरणे ठाणगमणसयणेसु । सव्वत्थ अप्पमत्तो, दयावरो होदु हु अहिंसओ ॥४॥ वस्तुओं को उठाने रखने में, मल-मूत्र का त्याग करने में, बैठने तथा चलने-फिरने में, और शयन करने में जो दयालु पुरुष सदा अप्रमादी अर्थात् विवेकशील रहता है, वह निश्चय ही अहिंसक है । १४७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-मोक्षसूत्र जीवा हंवति तिविहा, बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ॥१॥ जीव (आत्मा) तीन प्रकार का है--बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । परमात्मा के दो प्रकार हैं-अर्हत् और सिद्ध । णिइंडो णिद्वन्दो, णिम्मणो णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो, णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ॥२॥ आत्म वचन-वचन-कायरूप त्रिदंड से रहित, निर्द्वन्द्व, निर्ममममत्वरहित, निष्कल-शरीररहित, निरालम्ब, रागरहित, निर्दोष, मोहरहित तथा निर्भय है। णिग्गंथो णीरागो, णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मको। णिक्कामो णिक्कोहो, णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ॥४॥ - वह आत्मा निर्ग्रन्थ-ग्रन्थिरहित, नीराग, नि:शल्य सर्व दोष मुक्त, निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान तथा निर्मद है। सद्दहदि य पत्तेदि य, रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्मं भोगणिमित्तं, ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥५॥ अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किन्तु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं। .१४८ . Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुण्णं सुगईहेदुं, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ||६|| जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है । पुण्य सुगति का हेतु है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है । वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरड़ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥७॥ (तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है । इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं ज्यादा अच्छा है रत्नत्रयसूत्र नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ १ ॥ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता । चारित्रगुण के बिना मोक्ष ( कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता । आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य । आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे ॥२॥ आत्मा ही मेरा ज्ञान है । आत्मा ही दर्शन और चारित्र है । आत्मा ही १४९ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान (नियम) है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात् ये सब आत्मरूप ही हैं। जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि । जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥३॥ जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसे जिनशासन में ज्ञान कहा गया है । सुबहु पि सुयमहीयं, किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ॥४॥ चारित्र-शून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी वैसे ही व्यर्थ है, जैसे अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना । अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण । अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे ॥५॥ आभ्यन्तर-शुद्धि होने पर बाह्य-शुद्धि भी नियमतः होती ही है । आभ्यन्तर-दोष से ही मनुष्य बाह्य दोष करता है । मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥६॥ __ मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है, ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रष्टा सर्वज्ञदेव का भव्य जीवों के लिए उपदेश है। • १५० . Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणधर्मसूत्र सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी । खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू ॥१॥ परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्बी होते हैं । (साधु की ये चौदह उपमाएँ हैं ।) न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥२॥ केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुशचीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होई, तवेण होइ तावसो ॥३॥ वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है । • १५१ . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किं काहदि वणवासो, कायकलेसो विचित्त उववासो । अज्झयणमोणपहुदी, समदारहियस्स समणस्स ॥४॥ समता-रहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विविध उपवास, अध्ययन और मौन आदि व्यर्थ है । भावो हि पढमलिंगं, ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिंति ॥५॥ भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है । द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का कारण कहते हैं । भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥६॥ ___ भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है। समिति-गुप्तिसूत्र तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चा-वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥१॥ कठोर और प्राणियों का उपघात करने वाली, चोट पहुँचाने वाली भाषा न बोलें । ऐसा सत्य-वचन भी न बोलें जिससे पाप का बन्ध होता है। • १५२ . Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाणाजीवा णाणाकम्मं, णाणाविहं हवे लद्धी । तम्हा वयणविवाद, सगपरसमएहिं वज्जिज्जा ॥२॥ इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिए कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसी के भी साथ वचन - विवाद करना उचित नहीं । चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा, दुहओवि समिए सया ॥३॥ यतना (विवेक) पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला अपने दोनों प्रकार के उपकरणों को आँखों से देखकर तथा प्रमार्जन करके उठाये और रखे। यही आदाननिक्षेपण समिति है । अर्थात् किसी भी वस्तु को विवेकपूर्वक उठाना रखना चाहिए । खेत्तस्सवई णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो । तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥४॥ जैसे खेत की रक्षा बाड़ और नगर की रक्षा खाई या प्रकार करते हैं, वैसे ही पाप-निरोधक गुप्तियाँ साधु के संयम की रक्षा करती हैं । तपसूत्र हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥१॥ जो मनुष्य हित-मित तथा अल्प आहार करते हैं, उन्हें कभी वैद्य से १५३ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सा कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । वे तो स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं, अपनी अन्तशुद्धि में लगे रहते हैं । जे पुयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए । जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥२॥ जो शास्त्राभ्यास के लिए अल्प आहार करते हैं वे ही आगम में तपस्वी माने गये हैं । श्रुतविहीन अनशन - तप तो केवल भूख का आहार करना है अर्थात् भूखे मरना है । सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥३॥ वास्तव में वही अनशन - तप है जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) तथा मन-वचन-कायरूप योगों की हानि (गिरावट ) न हो । बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ४ ॥ अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकार अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए | क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है । उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण । तम्हा भुंजंता वि य, जिदिदिया होंति उववासा ॥ ५ ॥ संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। जितेन्द्रिय १५४ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं । जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को वि ॥६॥ जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष व्यक्त कर देता है, वैसे ही हमें भी अपने समस्त दोषों की आलोचना मायामद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए । एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ।। सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥७॥ __जैसे काँटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना होती है और काँटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात् सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं । आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं ॥८॥ ___ अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है । ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है । अद्धाणतेण-सावद-राय-णदीरोधणासिवे ओमे। वेज्जावच्चं उत्तं, संगहसारक्खणोवेदं ॥९॥ जो मार्ग में चलने से थक गये, हैं, चोर श्वापद (हिस्र पशु), राजा द्वारा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यथित, नदी की रुकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुर्भिक्ष से पीड़ित हैं, उनकी सार-सम्हाल, लेवा तथा रक्षा करना वैयावृत्य है। पूयादिसु णिरवेक्खो, जिण-सत्थं जो पढेइ भत्तीए । कम्ममल-सोहणटुं, सुयलाहो सुहयरो तस्स ॥१०॥ आदर-सत्कार की अपेक्षा से रहित होकर जो कर्मरूपी मल को धोने के लिए भक्तिपूर्वक जिनशास्त्रों को पढ़ता है, उसका श्रुतलाभ स्व-पर सुखकारी होता है। सज्झायं जाणंतो, पंचिंदियसंवुडो तिगुत्तो य । होइ य एकग्गमणो, विणएण समाहिओ साहू ॥११॥ __ स्वाध्यायी पुरुष पाँचों इन्द्रियों से संवृत, तीन गुप्तियों से युक्त, विनय से समाहित तथा एकाग्रमन होता है । णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं । णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो कुज्जा ॥१२॥ ___ ज्ञान से ध्यान की सिद्धि होती है। ध्यान से सब कर्मों की निर्जरा (क्षय) होती है। निर्जरा का फल मोक्ष है। अतः सतत ज्ञानाभ्यास करना चाहिए। नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं । सुआणि अ अहिज्जित्ता, रओ सुअसमाहिए ॥१३॥ __ अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानसूत्र सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ १ ॥ जैसे शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ मुख्य है वैसे ही साधु के समस्त साधु-धर्मों का मूल ध्यान है । जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥३॥ | स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है । चित्त की जो चंचलता है उसके तीन रूप हैं-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥४॥ जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचन-कायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलाने वाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है । जे इदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥५॥ समाधि की भावना वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे । - १५७ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णाहं होमि परेसिं, ण मे परे संति णाणमहमेक्को । इदि जो झायदि झाणे, से अप्पाण हवदि झादा ॥ ६ ॥ वही श्रमण आत्मा का ध्याता है जो ध्यान में चिन्तवन करता है कि “मैं न 'पर' का हूँ, न 'पर' पदार्थ या भाव मेरे हैं, मैं तो एक शुद्धबुद्ध ज्ञानमय चैतन्य हूँ ।' णातीतमट्ठे ण य आगमिस्सं, अट्टं नियच्छंति तहागया उ । विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥७॥ तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना-मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म - शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है । मा चिट्ठह मा जंप, मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिये । अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥ ८ ॥ हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा — तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी । यही परम ध्यान है । • १५८ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षासूत्र पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं । को कस्स जए सयणो ? को कस्स व परजणो भणिओ ? ॥१॥ प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है । ऐसी स्थिति में कौन किसका स्वजन है और किसका परजन ? अणुसोअइ अन्नजणं, अन्नभवंतरगयं तु बालजणो । नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥२॥ __ अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता। जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥३॥ __जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है । माणुस्सं विग्गहं लद्धं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पविज्जंति तवं खंतिमहिंसयं ॥४॥ मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो दुर्लभ ही है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाए । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहच्च सवणं लद्धं, सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा ने आउयं मग्गं, बहवे परिभस्सई ॥५॥ __कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाये, तो उस पर श्रद्धा होना परम, दुर्लभ है । क्योंकि बहुत-से लोग न्यायसंगत मोक्षमार्ग का श्रवण करके भी उससे विचलित हो जाते हैं । सुइं च लद्धं सद्धं च, वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमाणा वि, नो एणं पडिवज्जए ॥६॥ धर्म-श्रवण तथा श्रद्धा हो जाने पर भी पुरुषार्थ होना और दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्-रूपेण स्वीकार नहीं कर पाते । संलेखनासूत्र सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥१॥ शरीर को नाव कहा गया है और जीव को नाविक । यह संसार समुद्र है, जिसे महर्षि जन तैर जाते हैं । चरे पयाइं परिसंकमाणो, जं किंचि पासं इह मनमाणो । लाभंतरे जीविय वूहइत्ता, पच्चा परिणाय मलावधंसी ॥२॥ साधक पग-पग पर दोषों की आशंका (सम्भावना) को ध्यान में रखकर चले । छोटे-से-छोटे दोष को भी पाश समझे, उससे सावधान रहे । नये • १६० . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नये लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे । जब जीवन तथा देह से लाभ होता हुआ दिखाई न दे तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर दे । संलेहणाय दुविहा, अब्भितरिया य बाहिरा चेव । अभितरिया कसाए, बाहिरिया होइ य सरीरे ॥३॥ संलेखना दो प्रकार की है— आभ्यन्तर और बाह्य । कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीरं को कृश करना बाह्य संलेखना । न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुया भूमी । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धो मणो जस्सो ॥४॥ जिसका मन विशुद्ध है, उसका शय्या न तो तृणमय है और न प्रासुक भूमि है । उसकी आत्मा ही उसका संस्तारक है । सम्मर्द्दसणरत्ता, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा । इय जे मरंति जीवा, तेसिं सुलहा भवे बोही ॥५॥ जो जीव सम्यग्दर्शन के अनुरागी होकर, निदान - रहित तथा शुक्ललेश्यापूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनके लिए बोधि की प्राप्ति सुलभ होती है । • १६१ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाणसूत्र सव्वे सरा नियटृति, तक्का जत्थ न विज्जइ ।। मई तत्थ न गाहिया, ओए अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने ॥१॥ ___जहाँ से सारे स्वर लौट जाते हैं, जहाँ तर्क का प्रवेश नहीं है, जिसे बुद्धि ग्रहण नहीं कर सकती, जो ओज-प्रतिष्ठान-खेद रहित है, वही मोक्ष ण वि दुक्खं ण वि सुक्खं, ण वि पीडा णेव विज्जदे बाहा । ण वि मरणं ण वि जणणं, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥२॥ जहाँ न दुःख है न सुख, न पीड़ा है न बाधा, न मरण है न जन्म, वहीं निर्वाण है। ण वि इंदिय उवसग्गा, ण वि मोहो विम्हयो ण णिद्दा य । ण य तिण्हा व छुहा, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥३॥ ___ जहाँ न इन्द्रियाँ हैं न उपसर्ग, न मोह हैं न विस्मय, न निद्रा है न तृष्णा और न भूख, वहीं निर्वाण है। ण वि कम्मं णोकम्मं, ण वि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि । ण वि धम्मसुक्कझाणे, तत्थेव य होइ णिव्वाणं ॥४॥ ___जहाँ न कर्म है न नोकर्म, न चिन्ता है न आर्त-रौद्र ध्यान, न धर्मध्यान है और न शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है । • १६२ . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं य केवलं विरयं । केवलदिट्ठि अमुत्तं, अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥५॥ वहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व ये गुण होते हैं । મંત્ર પરંપરા • બીજ મંત્ર – જેમાં બીજાક્ષરો તથા અન્ય અક્ષરો હોય પણ મંત્ર દેવતાનું નામ ન હોય. • નામ મંત્ર -> જે મંત્રમાં મંત્ર દેવતાનું નામ હોય તે દા.ત. “ શ્રી पार्श्वनाथाय नमः। • આગ્નેય મંત્ર – પૃથ્વી, અગ્નિ, આકાશ મંડળવાળા મંત્રો • સૌમ્ય મંત્ર – જળ અને વાયુ મંડળવાળા મંત્રો. નોંધઃ મંત્રના અંતમાં જ પલ્લવનો પ્રયોગ થાય તો સૌમ્ય મંત્રો આગ્નેય મંત્રો બને. અને ન: પલ્લવ લાગે તો આગ્નેય મંત્રી સૌમ્ય મંત્રો બને. ૦ ૨૬ ૩ ૦ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પલ્લવ બીજા અક્ષર મંત્રના ત્રણ લિંગ મંત્રના અંતે વષર્ અને ર્ પલ્લવ હોય તે પુલિંગ મંત્ર મંત્રના અંતે વૌષટ્ અને સ્વાહા પલ્લવ હોય તે સ્ત્રીલિંગ મંત્ર. મંત્રના અંતે દૂ અને નમઃ પલ્લવ હોય તે નપુ. લિંગ મંત્ર. → નામ મંત્ર ૬.૬ ૬ ૬૬. તંત્ર મંત્રના અંતે લાગતો શબ્દ. પલ્લવમાં નમ:, સ્વાહા, વષર્ વાષર્, હું, દ્ વગેરેની મુખ્યતા હોય છે. → 1,Ä,†,વી, નાઁ, વગેરે મંત્રના પ્રારંભમાં અથવા અંતમાં લાગતા શબ્દો. → પલ્લવ અને બીજાક્ષર છોડીને મધ્યમાં જેનો મંત્ર હોય તેનો ઉલ્લેખ હોય તે. → વર્ણોનું વિશિષ્ટ સંયોજન તે. → દૈવી તત્ત્વોની વિશિષ્ટ સ્થાપના. વસ્તુઓમંત્રિત કરીને થતા પ્રયોગ. → વર્ણો - અક્ષરોને આધીન હોય છે. → મંત્રના દેવ-દેવીને આધીન હોય છે. → યંત્ર-મંત્રને આધીન હોય છે. १६४ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર શાસ્ત્રોની નિધિ ભદ્બાહુ સ્વામી ઃ ઉવસગ્ગહર • સિદ્ધસેન ઃ કલ્યાણ મંદિર માનતુંગસૂરિ : ભકતામર સ્તોત્ર • નંદિષેણ : અજિત-શાંતિ • મુનિસુંદરસૂરિ સંતિકર • માનદેવસૂરિ : લઘુશાંતિ (૯૦૦ વર્ષ) આ સર્વે સ્તોત્ર, સ્મરણ વગેરે મંત્ર વિદ્યા છે. ‘ૐ બ્લ્યૂ પપ્’ ઈત્યાદિ શબ્દોથી ભરેલા ગુપ્ત ભાષાના શબ્દોના સમૂહ મંત્ર વિદ્યા છે. એવું માનવું નહીં જયાં પ્રસંગનું વર્ણન હોય તે ગાથા પણ મંત્ર બને છે. જાપના ૧૩પ્રકાર • રેચક ॰ પુરક ઃ કુંભક ♦ સાત્વિક રાજસિક ♦ તામસિક – સ્થિરીકૃતિ • સ્મૃતિ હક્કા ૦ નાદ હું ધ્યાન ૭ ધ્યેયેક ૭ તત્ત્વ જાપ • વાચિક (ભાષ્ય) • ઉપાંશુ માનસ જાપના ૩પ્રકાર કઈ રીતે ઉચ્ચારથી જીહાથી મનથી —સિંહતિલકસૂરિકૃત મંત્રાધિરાજ કલ્પ ફળ ૧ ગણું ૧૦૦ ગણું ૧૦૦૦ ગણું १६५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સાધકે મુખ્યતયા ઉપાંશુ અને માનસ જાપ ઉપર વિશેષ ભાર આવવો. મોક્ષ પ્રાપ્તિ, ગ્રહશાંતિ હેતુ, સર્વપ્રકારની સિદ્ધિ, રોગ નિવારણ, વગેરે માટે ભારતીય મહર્ષિઓ જાપને ઉત્તમ સાધન માને છે. મંત્ર-વિદ્યા સાધના પ્રારંભ રાશિ ફળ મેષ : ધન્ય ધાન્ય દાયક તુલા : સર્વસિદ્ધકર વૃષભ : સાધક વિનાશ વૃશ્ચિક : સુવર્ણલાભ મિથુન : સંતતિ નાશ ધન : સન્માન નાશ કર્ક : સર્વસિદ્ધિ દાયક મકર : પુણ્યપ્રદ સિંહ : બુદ્ધિનાશક કુંભ : ધનસમુદ્ધિ કન્યા : લક્ષ્મીપ્રદાન મીન : દુઃખદાયી મંત્ર જાપમાં દિશા વિચાર વશીકરણ - પૂર્વાભિમુખ ધન-સંપત્તિ વગેરે લાભ - પશ્ચિમાભિમુખ શાંતિ, તૃષ્ટિ વગેરે ઉત્તરાભિમુખ ૦ અન્ય પ્રયોગ - દક્ષિણાભિમુખ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર-વિદ્યા અનુષ્ઠાન આરંભ - નક્ષત્રફળ બંધુવૃદ્ધિ ૧૪. કૃતિકા → દુઃખ → પુત્રહાનિ ૧૫. રોહિણી → જ્ઞાનલાભ → કીર્તિ વૃદ્ધિ ૧૬. મૃગશીર્ષ ૧. અનુરાધા ૨. જયેષ્ઠા ૩. મૂલા ૪. પૂર્વાષાણ ૫. ઉ.ષાઠા યશવૃદ્ધિ → યશવૃદ્ધિ ૧૭. આદ્રા ૧૮. પુનર્વસુ દુઃખ વૃદ્ધિ ૧૯. પુષ્ય → શત્રુનાશ --> દારિદ્રય વૃદ્ધિ ૨૦. આશ્લેષા → મૃત્યુ ૨૧. મેઘા ૨૨. પૂર્વા. ફા. ૨૩. ઉ. ફા. ૬. શ્રવણ ૭. ધનિષ્ઠા ૮. શતભિષા → બુદ્ધિ ૯. પૂર્વાભદ્રપદા - સુખ ૧૦. ઉત્તર ભદ્ર. --> સુખ ૧૧. રેવતી ૧૨. અશ્વિની ૧૩. ભરણી ૨૭. વિશાખા --> કીર્તિ વૃદ્ધિ → સુખ → મરણ → દુ:ખજનક → સુખ → બંધુનાશ → ધનલાભ ૨૪. હસ્તા ૨૫. ચિત્રા ૨૬. સ્વાતિ → દુઃખ મોચન -> સૌંદર્ય --> જ્ઞાન વૃદ્ધિ ધનલાભ -> જ્ઞાનવૃદ્ધિ → શત્રુનાશ १६७ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર-વિદ્યા સાધના-આસન ફળઃ • વાંસ – વ્યાધિ, દ્રરિદ્રતા ૦ કાળા મૃગ – જ્ઞાન સિદ્ધિ પત્થર બિમારી ૯ વ્યાઘ્રચર્મ - મોક્ષ-લક્ષ્મી ૦ ધરતી – દુઃખાનુભવ ૦ રેશમ – પુષ્ટિ દાયક ૦ કાષ્ટ -> દુર્ભાગ્ય કંબલ ને દુ:ખનાશ ૦ તૃણ - યશનાશ રંગીન કંબલ — સર્વાર્થ સિદ્ધિ પર્ણ – ચિત્ત વિક્ષેપ કપાસ, કંબલ, વ્યાધ્ર, મૃગચર્મના આસન જ્ઞાન, સિદ્ધિ, સૌભાગ્ય આપનાર છે. મંત્ર-સિદ્ધિ ક્યારે? આ વિષયમાં જૈન અને જૈનેતર ગ્રંથો બેના મત પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ સર્વ સંમત છે. મંત્રમાં દેવ અને વિદ્યામાં દેવીની મુખ્યતા હોય છે. (૧) મંત્ર - વિદ્યાના અધિષ્ઠાયક દેવ-દેવી પર પૂર્ણ શ્રદ્ધા (૨) આમ્નાય પ્રાપ્ત મંત્રદાતા ગુરૂ પર બહુમાન નોંધઃ જે જે મંત્રના વિદ્યાના અધિષ્ઠાયક દેવ-દેવી તે તે મંત્રના જાપ દ્વારા તે તે દેવી-દેવતા મંત્ર સાધકની પર ખુશ થાય છે. અને મનોકામના પૂર્ણ કરે છે. ૦ ૧૬૮ ૦ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર ફળ ચારે વિધિ પૂર્વક ૮ લાખ જાપ પૂર્ણ થાય ત્યારે મંત્ર ચૈતન્ય બને છે. ૧૦ લાખ - સ્વપનસિદ્ધિ ૧૪ લાખ - આગાહી કરવાનું સામર્થ ૧૮ લાખ - સમસ્યાઓ ઉકેલવાની વિપત્તિ નિવારવાની, સંમોહન ત્રાટક, કામણ પ્રયોગની સિદ્ધિઓ પ્રાપ્ત થાય છે. મંત્રના સંપ્રદાય અભિપ્રેત મંત્ર પ્રકાર : ૧ થી ૯ અક્ષર સુધીના મંત્ર : ૧૦ થી ૨૦ અક્ષર સુધીના મંત્ર : ૨૧ થી અધિક અક્ષર સુધીના મંત્ર ૧. સાત્ત્વિક મંત્ર ૨. રાજસિક મંત્ર ૩. તામસિક મંત્ર ૧. સિદ્ધ મંત્ર ૨. સાધારણ મંત્ર ૩. નિર્બીજ મંત્ર એક અક્ષરના મંત્રને પિંક કહે છે. બે અક્ષરના મંત્રને તવી કહે છે. ત્રણથી નવ અક્ષરના મંત્રને ટ્વીન કહે છે. દસથી વીસ અક્ષરના મંત્રને મંત્ર કહેવાય છે. તેનાથી વધારે અક્ષરના મંત્રને માના મંત્ર સંપ્રદાયવાળા કહે છે. ૧. બીજ મંત્ર ૨. મંત્ર મંત્ર ૩. માળા મંત્ર આ બધી માહિતી વિવિધ ગ્રંથોના આધારે આપી છે. આપણા ગુરુદેવની આજ્ઞા પ્રમાણે મંત્ર-વિદ્યા આમ્નાય મેળવી સાધના કરવાથી સફળતા મળે છે. ત્રણ-ત્રણ વખત સાધના કરવા છતાં સફળતા ન મળે તો આપણી કચાસ માનવી. १६९ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર વિદ્યા સ્થાન મહત્વ ઘરમાં જાપ કરવાથી ૧ ગણ પવિત્ર ઉદ્યાન વનમાં ૧૦૦૦ ગણુ પવિત્ર પર્વત ઉપર ૧૦,૦૦૦ ગણુ નદી ઉપર ૧,૦૦,૦૦૦ ગણુ દેવાલય ઉપાશ્રય ૧ કરોડ ગણુ ભગવાન સમક્ષ અંનતગણુ જાપ કરતી વખતે માળા સ્થાન સવારે : નાભિ ઉપર હાથ રાખવો બપોરે : હૃદયની આગળ હાથ રાખવો સાંજે : મુખની આગળ હાથ રાખવો મોક્ષ પ્રાપ્તિ, ગ્રહશાંતિ હેતુ, સર્વપ્રકારની સિદ્ધિ, ભારતીય મહર્ષિઓએ જાપને ઉત્તમ સાધન કહ્યું છે. મંત્ર ગ્રહણ દિવસનું ફળ રવિ ધનલાભ ગુરૂ --* જ્ઞાન બુદ્ધિ સોમ શાંતિ શુક્ર સૌભાગ્ય મંગળ - આયુષ્ય શનિ - વંશહાનિ બુધ – લાભ સૌંદર્ય + +++ • ૨૭૦ ૦ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મંત્ર-વિદ્યા સાધના માટે વિધિ ક્રમ મંત્ર-વિદ્યા સાધનામાં સામાન્યથી જે વિધિ છે એની મૂળભૂત ક્રિયાઓ ઉપર ધ્યાન રાખવું અત્યંત જરૂરી છે. સ્થાન : પવિત્ર, શુદ્ધ, સ્વચ્છ જોઈએ. જેની સાધના હોય તેના ચિત્ર સામે રાખવા... અથવા પ્રભુજીને સામે રાખવા. દરેક મંત્રના જાપ સમય-સંખ્યા નિર્ધારિત છે તેને અનુરૂપ જાપ કરવો. વસ્ત્ર : શુદ્ધ-સ્વચ્છ સાંધા વિનાના રાખવા ઉત્તમ છે. ધૂપ-દીપ રાખવા (પૂ. સાધુ-સાધ્વી મ. ન રાખે તો ચાલી શકે તેના સ્થાને ચાંદીના બે સિક્કા રાખવા. ધૂપ-દીપની કલ્પના કરવી.) પૂ. ગુરુદેવ ઉપર સમર્પણ ભાવ . મંત્ર દાતા ઉપર બહુમાન અને શ્રદ્ધા. ભારે આહારનો ત્યાગ. બ્રહ્મચર્યનું અવશ્ય મેવ પાલન. મંત્રોના શબ્દોના ઉચ્ચારણ શુદ્ઘ તેમજ ધીમા જોઈએ. અથવા મનમાં જાપ કરવો. મંત્રની ઉપાસના, ધ્યાન, પૂજન અને જાપ શ્રદ્ધા વિશ્વાસપૂર્વક કરવા જોઈએ. ♦ દિશા, કાળ, મુદ્રા, આસન, વર્ણ, પુષ્પ વગેરે જાણીને મંત્ર-સાધનાનો પ્રારંભ કરવો. १७१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विंशति वर्धमान विद्या मजा श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुनी श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मशी श्री अहँ नमो आरियाणं, मला श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्रीं अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, नमी श्री अहँ नमो जिणाणं, ममी श्रीं अहँ नमो ओहिजिणाणं, नशा श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, नही श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मनी श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ उसभसामिस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा मी नमो अरहओ उसभसामिस्स आइतित्थगरस्स जस्सेअं जलं तं गच्छइ, चक्खं सव्वट्ठ (सव्वत्थ) अपराजियं आयाविणी ओहाविणी मोहणी थंभणी जंभणी हिलि हिलि कालि कालि धारणी चोराणं भंडाणं भोइयाणं अहीणं दाढीणं सिंगीणं नहीणं चोराणं चारियाणं वेरिणं जक्खाणं रक्खसाणं भूयाणं पिसायाणं मुहबंधणं गइबंधणं चक्खुबंधणं दिट्ठिबंधणं करेमि सव्वट्ठसिद्धे महा ठः ठः ठः स्वाहा ॥१॥ मना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, नशा श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मनी श्री अहँ नमो आरियाणं, मनी श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मना श्री अहँ नमो जिणाणं, मला श्रीं अहँ नमो ओहिजिणाणं, मनी श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मला श्रीं अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, नली श्रीं अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मनी श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ अजियजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा , नमो भगवओ अरिहओ अजिए अपराजिए महाबले लोगसारे सव्वट्ठसिद्ध मनी ठः ठः ठः स्वाहा ।।२।। मी श्री अहँ नमो अरिहंताणं, अशी श्रीं अहँ नमो सिद्धाणं, मला श्री अहँ नमो आरियाणं, नया श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, नया श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मुनी श्री अहँ नमो जिणाणं, ममी श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मसी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मनी श्री अहँ न नमो भगवओ अरहओ संभवस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा मनमो भगवओ अरिहओ संभवे महासंभवे अपराजियस्स संभूए महासंभावणे सव्वट्ठसिद्धे नती ठः ठः ठः स्वाहा ॥३।। मनी श्री अहँ नमो अरिहंताणं, नझी श्रीं अहँ नमो सिद्धाणं, मला श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, नशा श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, ना श्री अहँ नमो जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नही श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, नना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मला श्रीं अहँ में नमो भगवओ . १७३ . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहओ अभिनंदणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा ॐ नमो भगवओ अरिहओ नंदणे अभिनंदणे सुनंदणे महानंदणे सव्वट्टसिद्धे न ठः ठः ठः स्वाहा ||४|| श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवलि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ सुमइस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ सुमए सुमई समणे सुमणे सुमणसे सुसुमणसे सोमणसे सव्वट्टसिद्धेी ठः ठः ठः स्वाहा ॥५॥ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अहं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, श्रीं अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहूणं, श्रीं अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं ॐ श्रीं अर्हं नमो केवलि जिणाणं, अरहओ पउमप्पहस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो श्रीं अर्हं नमो भगवओ श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, ना श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, १७४ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवओ अरिहओ पउमे महापउमे पउमुत्तरे पउमुप्पले पउमसरे पउमसिरि सव्वट्ठसिद्धे जमा ठः ठः ठः स्वाहा ॥६॥ मा श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मला श्री.अहँ नमो सिद्धाणं, मा श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मला श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मा श्री अहँ नमो जिणाणं, तुझा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मुना श्रीं अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, अशा श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ सुपासस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ पासे सुपासे अइपासे सुहपासे महापासे सव्वट्ठसिद्धे मुना ठः ठः ठः स्वाहा ॥७॥ मना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुना श्री अहँ नमो सिद्धाणं, या श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मुना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मा श्री अहँ नमो जिणाणं, अशा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नया श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, ना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मनी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अहँ अनमो भगवओ अरहओ चंदपभस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ चंदे सुचंदे चंदप्पभे महाविद्याप्पभे सुप्पहे अइप्पहे .१७५ . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्प सव्वट्टसिद्धेी ठः ठः ठः स्वाहा ॥८॥ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, श्री अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवलि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ पुप्फदंतस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जानमो भगवओ अरिहओ पुप्फे पुण्फे महापुष्फे पुप्फेसु पुप्फदंते पुप्फसुइ सव्वसिद्धेी ठः ठः ठः स्वाहा || ९ || ॐ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्री अर्हं नमो सिद्धाणं, डी श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्ह श्रीं अर्हं नमो श्रीं अर्हं नमो श्री अर्हं नमो श्री अर्हं नमो आरियाणं, नमो लोए सव्वसाहूणं, ओहिजिणाणं, सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, केवलि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ सीयला जिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ सीयले सीयले पासे पसंते पसीयले संते निव्वुए निव्वाणे निव्वएत्ति नमो भगवईए सव्वसिद्धे ठः ठः ठः स्वाहा ॥१०॥ १७६ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, ॐ श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, नी श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवल जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ सिज्जंस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ सिज्जसे सिज्जंसे सेयंकरे सेयंकरे सुसिज्जंसे सुसिज्जंसे पभंकरे सुपभंकरे सव्वट्टसिद्धे ठः ठः ठः स्वाहा ॥११॥ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्री अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, भ्री श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवलि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ वासुपूजस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ वासुपूज्जे वासुपूज्जे अइपूज्जे महापूज्जे पूज्जारुहे सव्वट्टसिद्धे ठः ठः ठः स्वाहा ॥१२॥ १७७ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुना श्री अहँ नमो सिद्धाणं, ममा श्री अहँ नमो आरियाणं, मुमा श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मुनी श्री अहँ नमो जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मुदा श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मला श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मला श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ विमलस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ अमले अमले विमले विमले कमलिणी निम्मले सव्वट्ठसिद्ध मला ठः ठः ठः स्वाहा ॥१३॥ मुभा श्रीं अहँ नमो अरिहंताणं, मुनी श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मना श्री अर्ह नमो आरियाणं, मा श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मजा श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, अशी श्री अहँ नमो जिणाणं, अशा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, अशा श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुभा श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मी श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ अणंत जिणस्स सिज्जउ मे भगवई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ अणंते केवलनाणे अणंते पज्जवानाणे अणंतेगमे अणंतकेवलदंसणे सव्वट्ठसिद्धे नया ठः ठः ठः स्वाहा ॥१४॥ .१७८ . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुना श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मला श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, नशा श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, नशा श्री अहँ नमो जिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नया श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, अशा श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अर्ह अनमो भगवओ अरहओ धम्म जिनस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ धम्मे सुधम्मे धम्मचारिणि धम्म धम्मे सुअधम्मे चरित्तधम्मे आगमधम्मे धम्मुद्धरणी उवएसधम्मे सव्वट्ठसिद्धे तुला ठः ठः ठः स्वाहा ॥१५॥ या श्री अहँ नमो अरिहंताणं, ना श्री अहँ नमो सिद्धाणं, अशा श्री अहँ नमो आरियाणं, मी श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मुना श्रीं अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मा श्री अहँ नमो जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नया श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मुङ्गा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, नगा श्री अहँ अनमो भगवओ अरहओ संति जिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ भुसंति संति पसंति उवसंति सव्वपापं उवसमेहि सव्वट्ठसिद्धे नशा ठः ठः ठः स्वाहा ॥१६॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमा श्रीं अहँ नमो अरिहंताणं, मुना श्रीं अहँ नमो सिद्धाणं, मना श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मुना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मना श्री अहँ नमो जिणाणं, मुना श्रीं अहँ नमो ओहिजिणाणं, नशा श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, ना श्रीं अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, नना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ कुंथुजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ कुंथु कुंथे सुरकुंथे कीडकुंथुमई सव्वट्ठसिद्धे नमी ठः ठः ठः स्वाहा ॥१७॥ भी श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मा श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मुना श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्रीं अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मुना श्रीं अहँ नमो जिणाणं, मला श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मला श्रीं अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मनमा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, सुधा श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्रीं अहँ अनमो भगवओ अरहओ अरजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ अरहो अरणी आरणीस्स पिणियले (सयाणिए) सव्वट्ठसिद्धे नशा ठः ठः ठः स्वाहा ॥१८॥ मना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुनी श्री अहँ नमो सिद्धाणं, • १८० . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनी श्री अहँ नमो आरियाणं, मुन्ना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मुना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मना श्री अहँ नमो जिणाणं, मना श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, नशा श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो भगवओ अरहओ मल्लिजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ मल्लि सुमल्लि जयमल्लि महामल्लि अप्पडिमल्लि सव्वट्ठसिद्धे जी ठः ठः ठः स्वाहा ॥१९॥ मना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मा श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मनी श्री अहँ नमो आरियाणं, मुना श्रीं अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, मुना श्री अहँ नमो जिणाणं, मुमा श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नया श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, नानी श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, नमी श्री अर्ह अनमो भगवओ अरहओ मुणिसुवयस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ सुव्वए महासुव्वए अणुव्वए महाव्वए वएयइ महादिवादित्ये सव्वट्ठसिद्धे मला ठः ठः ठः स्वाहा ॥२०॥ मुना श्री अहँ नमो अरिहंताणं, ममा श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मना श्री अहँ नमो आरियाणं, मना श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मुना • १८१ . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, अर्हं नमो ओहिजिणाणं, अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवल जिणाणं, नमिजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ नमि नमि नामिणि नमामिणि सव्वट्टसिद्धे भुडी ठः ठः ठः स्वाहा ||२१|| श्रीं अर्हं नमो भगवओ अरहओ श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो परमोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो अणंतोहि जिणाणं, श्रीं अर्हं नमो केवलि जिणाणं, श्रीं अर्हं नु नमो भगवओ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा नमो भगवओ अरिहओ रहे रहावत्ते ( अरे रहावत्ते ) आवत्तेवत्ते अरिठ्ठनेमि सब्मट्ठसिद्धे ठः ठः ठः स्वाहा ॥ २२ ॥ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, श्रीं अर्हं नमो ओहिजिणाणं, श्रीं अर्हं नमो सव्वोहि जिणाणं, ॐ श्रीं अर्हं नमो अरिहंताणं, श्रीं अर्हं नमो आरियाणं, श्रीं अर्हं नमो लोए सव्वसाहुणं, श्रीं श्रीं श्रीं अर्हं नमो सिद्धाणं, श्रीं अर्हं नमो उवज्झायाणं, श्रीं अर्हं नमो जिणाणं, • १८२ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, नशा श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मुभा श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, मुना श्री अर्ह अनमो भगवओ अरहओ पासजिणस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा अनमो भगवओ अरिहओ उग्गे उग्गे महाउग्गे उग्गजसे गामपासे नगरपासे पासे पासे सुपासे पासमालिणि सव्वट्ठसिद्धे नशा ठः ठः ठः स्वाहा ॥२३॥ मुली श्री अहँ नमो अरिहंताणं, मुना श्री अहँ नमो सिद्धाणं, मी श्री अहँ नमो आरियाणं, मुनी श्री अहँ नमो उवज्झायाणं, मना श्री अहँ नमो लोए सव्वसाहुणं, ममा श्रीं अहँ नमो जिणाणं, मला श्री अहँ नमो ओहिजिणाणं, मुनी श्री अहँ नमो परमोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो सव्वोहि जिणाणं, मुना श्री अहँ नमो अणंतोहि जिणाणं, मना श्री अहँ नमो केवलि जिणाणं, अशा श्रीं अहँ नमो भगवओ अरहओ वद्धमाणसामिस्स सिज्जउ मे भगवई महई महाविज्जा मनमो भगवओ अरिहओ सुर-असुर तेलुक्क पूइअस्स वेगे वेगे महावेगे निद्धतरे निरालंबणे अंतरहिओ भवामि मा वीरे मुली महावीरे मुना महावीरे, मला जयवीरे नना जयवीरे, मुन्ना सेणवीरे मुली सेणवीरे, मा वद्धमाणवीरे मुना वद्धमाणवीरे, नशा जये ना विजये जा जयन्ते मना अपराजिए ममा अणिहए मना सव्वट्ठसिद्धे निव्वुए महाणसे महाबले नशा ठः ठः ठः स्वाहा ॥२४॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમ્નાય છે પ્રયોગ આ ૨૪ પ્રકારની વર્ધમાનવિદ્યાને સિદ્ધ કરવા માટે તે તે તીર્થંકર પરમાત્માના જિનાલયમાં ચઉત્થભત્તના પચ્ચક્ખાણ સાથે (ઉપવાસ આગળ-પાછળ એકાસણું) ૧૦૮ વાર ગણવામાં આવે તો સિદ્ધ થાય છે. આ વિદ્યાઓ અચિંત્ય પ્રભાવશાળી છે. વિવિધ ઉપયોગમાં આવે છે. તેની જાણકારી જોગ વિશારદથી પ્રાપ્ત કરવી. અધિકારી શ્રી મહાનિશીથગ્રંથના યોગોદહન કરનાર પૂજ્ય મુનિભગવંતો. અથવા....ગીતાર્થ ગુરુભગવંત જેમને આપે તેઓ. સંકલ્પ → चउत्थेणं साहणं अरहंताययणेसु । अट्ठसएण जावेण सिज्झई, सव्वकम्मी आएसा ॥ ॐ नमो भगवओ अरहओ अमुं विज्जं पउज्जामि से मे विज्जा पसिज्जउ । (દરેક વિદ્યાના જાપ કરતી વખતે કરી શકાય) १८४ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्रक पेज नं | पंक्ति अशद्ध पाठ शुद्ध पाठ o nu N. गहाण सुरेन्द्रकरणी दरदरिते सर्वगोत्तम : चतुवर्णी विउव्विणइ. पन्नासमणाणं भगवई महाविज्जा जर्जा / 4 क्ष्वाँ छिन्धि ॥३॥ मध्यक्षुद्रोपद्रव मध्यक्षदोपद्रव क्षीरोदधिसमावृतः Ở 6 ec e nő lemon veu leo e गहाणे सुरेन्द्रकरिणी दरदुरिते सर्वतोमुखः चतुर्वर्णी विउव्वणइ.. एण्हसमणाणं | भगवई महई महाविज्जा जौ प्रों प्रों क्ष्वीं छिन्धि छिन्धि छिन्धि ॥२॥ मध्ये क्षुद्रोपदव मध्ये क्षुद्रोपद्रव क्षारोदधिसमावृतः श्री सुमतिं पोडशैवं जिनानेतान् शेपास्तीर्थकृतः देवाः, सुमति एतांश्व पोडश जिनान शेपाः तीर्थकृतः देवा, .१८५. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रातर्ये समणे | पेज नं| पंक्ति अशद्ध पाठ शब्द पाठ सर्वदाः सर्वदा नमः नमो नमः प्रातःये प्रातः उत्थाय प्रातरुत्थाय नंदितः नन्दसम्पदाम् स्मरणात् जापात् स्मरणाज्जापाल फुट् फट १७४ सुमणे नोंध :- (1) पृष्ठ १७२ से १८३.२४ वर्धमान विधामें जर्हा-आरियाणं शब्द है वहाँ आयरियाणं पाठ शुद्ध है । (2) पृष्ठ ९१ पंक्ति १६, 'सप्तमं रक्षेन्नाभ्यंतं. पादान्तमष्टमं पुनः' पाठ है वहा 'नाभ्यन्तं सप्तमं रक्षेत् रक्षेत् पादान्तमष्टमं' करना (3) पृष्ठ १२४ गाथा ही रत्नैः तथा सा सर्वगात्रेषु जापेषु सर्वाणि इतना सुधारना । प्रतिष्ठा, अंजनशलाका, शांतिस्नात्र आदि विधानो में जो मुद्रा बताई जा रही है उस पर निश्रादाताओं को विचार करना आवश्यक है ।आज प्रायः निर्बीज मद्रा की जा रही है अपेक्षा सहित के विधानो में सबीज मुद्राए बतानी चाहिए । मुद्राओं का परिशीलन करके अज्ञात प्रथाओं को अपनाओ ताकि विधान शीघ्रफलदायी बने । ___ - विद्या प्रवाद पूर्व। मंत्र-मुद्राविशारदों का कथन .१८६. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्वान मुद्रा उभयकनिष्ठिकामूलसंयुक्तांगुष्ठाग्रद्वयमुत्तानितं संहितं पाणियुगमाह्वानमुद्रा । अर्थ : दोनों हाथों की कनिष्ठिका के मूल [अंगुली के अन्तिम पर्व ] में स्थापित दोनों अंगुष्ठों के अग्रभाग को उन्मुखकर दोनों हाथों की अंगुलीयों को पंक्तिबद्ध मिलाना आह्वानमुद्रा है । उपयोग : अनुष्ठान - साधना के वक्त आराध्यदेव तत्त्व को आमंत्रण । 1. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापन मुद्रा Low! तदेव तर्जनीमूलसंयुक्तांगुष्ठद्वयांवाङ्मुखस्थापनमुद्रा । अर्थ : आह्वानमुद्रा के समान ही दोनों हाथों की तर्जनी अंगुली के मूल में दोनों अंगुष्ठों को स्थापित कर उसको अधोमुख [ उल्टा ] करना स्थापनमुद्रा । उपयोग : आराध्यदेव तत्त्व की स्थापना । 2. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह्वानी मुद्रा हस्ताभ्यामञ्जलिंकृत्वा प्राकामामूलपांगुष्ठसंयोजने नाह्ववानी। अर्थ : दोनों हाथों से अञ्जली करके भलीभौतिमूलपर्व [हथेली के पौंचों का बीच भाग] पर अंगुष्ठा का संयोजन [स्पर्शन या स्थापन] करना आह्वानीमुद्रा है। उपयोग : अनुष्ठान - साधना के वक्त आराध्य देवी तत्त्व को आमंत्रण। . 3. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनी मुद्रा M इयमेवाधोमुखा स्थापनी । अर्थ : आह्वानीमुद्रा को ही अधोमुख करना स्थापनीमुद्रा है । उपयोग : आराध्यदेवी तत्त्व की स्थापना । 4. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संनिधान मुद्रा ( आगे का भाग ) संलग्नमुष्ट्युच्छ्रितांगुष्ठौ करौ संनिधानी । अर्थ : संलग्न मुट्ठीवाले दोनों हाथों के अंगुष्ठों को ऊपर करना संनिधानी मुद्रा है । उपयोग : आमंत्रित आराध्यको अनुष्ठान पर्यंत स्थायी बनने हेतु विनंती । • 5 • Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संनिधान मुद्रा ( पीछे का भाग) संलग्नमुष्ट्युच्छ्रितांगुष्ठौ करौ संनिधानी । 1916 अर्थ : संलग्न मुट्ठीवाले दोनों हाथों के अंगुष्ठों को ऊपर करना संनिधानी मुद्रा है । For Private Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संनिरोध-निष्ठुर मुद्रा संलग्न मुट्ठीवाले दोनों अंगुष्ठो को भीतर की ओर करना संनिरोध [निष्ठुर] मुद्रा है। उपयोग ः आमंत्रित आराध्य को अनुष्ठान पर्यंत अवश्यमैव स्थिरता हेतु आज्ञा । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवगुण्ठन मुद्रा शिरोदेशमारभ्याप्रपदंपार्श्वभ्यां तर्जन्यो भ्रमणमवगुंठनमुद्वदेत्येके । अर्थ : मस्तक के मूलभाग से लेकर पाँव तक, शरीर के दोनों पार्श्वो में अर्थात् दोनों तरफ दोनों तर्जनी अंगुलियों का भ्रमण करवाना अवगुंठन मुद्रा है ऐसा कुछ जन कहते है । [Note- इस मुद्रा को सही रूप में चित्र के माध्यम से समझना पाना असम्भव है फिर भी वर्तमान में प्रसिद्ध अवगुण्ठनमुद्रा का Phota दिया है] उपयोग : दुष्टतत्त्व-शक्तियों का नियंत्रण । 8. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अञ्जली मुद्रा • उत्तानौ किञ्चिदाकुञ्चितकरशाखौ पाणी विधारयेदिति अञ्जलीमुद्रा। अर्थ : उठी हुई और किञ्चिद् झुकी हुई अंगुलीयोंवाले दोनों हाथों को । अच्छी तरह से धारण करना अञ्जली मुद्रा है। उपयोग : नम्रतादर्शक मुद्रा, अर्घ्य + मन, वचन काया समर्पित करने हेतु । For Private Personal Use Only __ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्बज सौभाग्य मुद्रा [आगे का भाग] दोनों हाथ जोड़कर दोनों मध्यमा अङ्गली को सीधी करके दोनों अनामिका को तर्जनी से पकड़ना, कनिष्ठिका को अनामिका के पीछे रखना और कनिष्ठिका के तृतीय पर्व पर अंगुष्ठों को रखने से निर्बज सौभाग्य मुद्रा बनती है। उपयोग : सौभाग्यमय जीवन बनाने हेतु, सौभाग्य प्राप्त हेतु पुरुषतत्त्व प्रधान साधना में प्रयुक्त है। Foop10 e Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौभाग्य मुद्रा [ पीछे का भाग] धार्मिक परंपरागत अनुष्ठानों में निर्बज सौभाग्य मुद्रा प्रचलित है। पंच मुद्रा का विधान के वक्त उपयोग होता है किसी भी प्रकार के अपेक्षा युक्त अनुष्ठान हो तो सबीज मुद्रा भी साथ में करनी चाहिए। सबीज मुद्रा करने से ही अपेक्षित अर्थ की प्राप्ति होती है। . 11 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबीज सौभाग्य मुद्रा अत्रैवांगुष्ठ्यद्वयस्याधः कनिष्ठिकां तदाक्रान्ततृतीयपर्विकां न्यसेदिति सबीजसौभाग्य मुद्रा । अर्थ : यह मुद्रा भी सौभाग्यमुद्रा की तरह ही बनायी जाती है विशेष में यह है कि दोनों अंगुष्ठों को नीचे की ओर करके, कनिष्ठिका अंगुली का तृतीयपर्व जो आक्रान्त है उस तृतीयपर्व के स्थान में अंगुष्ठों को रखना सबीज सौभाग्यमुद्रा है । उपयोग : स्त्रीतत्त्वप्रधानसाधना में प्रयुक्त तथा आशंसा के अनुष्ठान में प्रयुक्त । For Private 12 Parsonal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sap परमेष्ठी मुद्रा - (१) उत्तानहस्तद्वयेन वेणीबन्धं विधायांगुष्ठाभ्यां कनिष्ठिके तर्जनीभ्यां च मध्यमे संगृह्यानामिके समीकुर्यात् इति परमेष्ठिमुद्रा । अर्थ : उठे हुए दोनों हाथों की अंगुलियों से वेणीबंध [ परस्पर में अंगुलियों को एक-दूसरे में गूंथ] करके, फिर दोनों अंगुष्ठों को दोनों कनिष्ठिका अंगुलियों से और दोनों तर्जनी अंगुलियों को दोनों मध्यमा अंगुलियों से अच्छी तरह पकड़कर दोनों अनामिका अंगुलियों को समानरूप से एक दूसरे के स्पर्श करते हुए सीधा करना परमेष्ठी मुद्रा है I उपयोग : गुण प्राप्ति तथा योगशुद्धि । .13. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमेष्ठी मुद्रा - (२) यद्वा वामकरांगुली - रूर्ध्वकृत्यमध्यमां मध्ये कुर्यादिति द्वितीया । PRIR F 51015 জम अर्थ : बाँये हाथ की अंगुलियों को ऊपर की ओर करके मध्यमा अंगुली को हथेली के मध्य में करना दूसरी परमेष्ठी मुद्रा है 1 उपयोग : पंचपरमेष्ठी के गुणों की प्राप्ति, यह मुद्रा में नवकारमंत्र स्मरण करने से गुणों का विकास । • 14 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्म मुद्रा पद्माकारौ करौ कृत्वा मध्येऽङ्गष्ठौ कर्णिकाकारौ विन्यसे दिति पद्ममुद्रा । अर्थ : दोनों हाथों को कमल के आकार का करके कमलाकार हाथ के बीच में दोनों अंगुष्ठों को कणिका के आकार का बनाना पद्म मुद्रा है। उपयोग : पद्मवत् निर्लेपता प्राप्ति, तथा निस्पृहताकारक आकर्षण हेतु। .15. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरुड मुद्रा - (१) आत्मनोऽभिमुखदक्षिणहस्तकनिष्ठिकयावामकनिष्ठिकां संगृह्याधः परावर्तितहस्ताभ्यां गरुडमुद्रा । अर्थ : अपनी ओर अभिमुख किये हुए दाँये हाथ की कनिष्ठिका अंगुली से बाँये हाथ कनिष्ठिका अंगुली को पकड़कर नीचे की ओर परावर्तित प्रत्यावर्त्तन किये हुए हाथों से गरुड मुद्रा होती है। उपयोग : जीवन में प्रतिबंधक तत्त्वो का नाश । .16. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धेनु - सुरभि मुद्रा - ( अधोमुख) अन्योऽन्यग्रथितांगुलीषु कनिष्ठिकानामिकायोर्मध्यमातर्ज्जन्योश्च संयोजनेन गोस्तनाकारा धेनुमुद्रा । अर्थ : परस्पर दोनों हाथों की गुंथी हुई अंगुलीयों में कनिष्ठिका को अनामिका के साथ संयोजित करने से और मध्यमा अंगुली को तर्जनी अंगुली के साथ संयोजित करने से गोस्तन आकारवाली धेनु मुद्रा होती है I उपयोग : अधोमुख तत्त्वों को पदार्थों को जीवंत - सचेतन करना, प्राण प्रतिष्ठा के वक्त उपयुक्त । ПЕРЕ • 17. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धेनु - सुरभि मुद्रा - (तिर्यग्मुख) दक्षिणहस्तस्य तर्जनीं वामहस्तस्य मध्यमया संदधीत मध्यमां व तर्जन्याऽनामिकां कनिष्ठिकया कनिष्ठिकां चानामिकया एतच्चाधोमुखं कुर्यात् एषा धेनुमुद्रेत्यन्ये विशिषन्ति । अर्थ : दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली को बाँये हाथ का मध्यमा अंगुली से मिलाना और दाहिने हाथ की मध्यमा बाँये हाथ की तर्जनी से मिलाना, इसी प्रकार दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली को कनिष्ठिका अंगुली साथ और कनिष्ठिका को अनामिका के साथ मिलाकर इस मुद्रा को नीचे की ओर करना, यह भी धेनु मुद्रा ऐसा अन्य आचार्य कहते हैं । उपयोग : तिर्यग्मुख तत्त्वों को जीवंत करने हेतु । For Private 18 monal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धेनु - सुरभि मुद्रा - (ऊर्ध्वमुख) अर्थ : सौभाग्य मुद्रा की तरह बनेगी मुख उपर की ओर करना । उपयोग : आकाशतत्त्व को जीवंत करना । यह मुद्रा धार्मिक परंपरा के अनुष्ठान में प्रयुक्त है। अनुष्ठान के अनुरूप त्रिविभाग है। गोस्तन आकार में बनती है। मुद्रा करते वक्त अमृतदुग्धका प्रवाह प्रवाहित हो रहा है ऐसी कल्पना करना। .19. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्र मुद्रा वामहस्तस्योपरि दक्षिणकरं कृत्वा कनिष्ठिकांगुष्ठाभ्यां मणिबन्धं संवेष्ट्यशेषांगुलीनां विस्फारितप्रसारणेन वज्रमुद्रा । अर्थ : बाँये हाथ के उपर दाहिने हाथ को करके, कनिष्ठिका अंगुली और अंगुष्ठ दोनों के द्वारा, मणिबन्ध (कलाई) को लपेटकर शेष अंगुलियों को अलग-अलग करके उपर की ओर फैलना वज्र मुद्रा है उपयोग : वज्र समान आत्मशक्ति तथा प्राप्त शक्ति की वृद्धि । I • 20. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकुश मुद्रा बद्धमुष्टेर्वामहस्तस्य तर्जनी प्रसार्य किञ्चिदाकुचयेदित्यंकुशमुद्रा। अर्थ : बाँये हाथ की बन्धी हुई मुठ्ठी से तर्जनी को फैलाकर तर्जनी अंगुली को ही कुछ झुकना अंकुश मुद्रा है। उपयोग : विरोधी तत्त्व को पराजित करने हेतु । मन को अंकुश में रखने के लिए। .21. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदगर-गदा मुद्रा वामहस्तमुष्टेरुपरि दक्षिणमुष्टिं कृत्वा गोत्रेण सह किञ्चिदुन्नामयेदिति गदामुद्रा । अर्थ : बाँये हाथ की मुठ्ठी के उपर दाहिने हाथ की मुठ्ठी को करके शरीर के साथ हाथ को कुछ उठाना गदा मुद्रा है । उपयोग : विविध प्रकार की दुष्टशक्तिओं का उन्मूलन । • 22. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्त्र मुद्रा (१) दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्धा तर्जनीमध्यमे प्रसारयेदिति अस्त्रमुद्रा । अर्थ : दाहिने हाथ की मुठ्ठी बाँधकर तर्जनी और मध्यमा को फैलाना, अस्त्र मुद्रा । उपयोग : शक्ति का प्रदर्शन । यह मुद्रा आसुरी उपासना के वक्त की जाती है । . 23. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्त्र मुद्रा - (२) दोनों हाथ जोड़कर अंगुलीओं को अंदर रखकर दोनों अंगुष्ठ को उपर करके दोनों तर्जनी अंगुली को फैलाना । उपयोग : शक्ति का प्रदर्शन। यह मुद्रा परंपरागत सात्त्विकविधान उपासना के वक्त की जाती है। SPE • 24 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वत [ गिरि] मुद्रा उभयोः करयोरनामिकामध्यमे परस्परानभिमुखे ऊर्ध्वकृत्य मीलयेच्छेषांगुली: पातयेदिति पर्वतमुद्रा । अर्थ : विपरीत मुखवाली दोनों हाथों को अनामिका अंगुलियों और मध्यमा अंगुलीयों को उपर उठाकर परस्पर मिलाना और शेष अंगुलियों को नीचे गिराना पर्वत मुद्रा है। उपयोग : पर्वत की तरह स्थिरतागुण की प्राप्ति। चंचलता का नाश । वायु जन्य रोग निवारण । .25. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुर्म मुद्रा हाथ के उपर हाथ रखकर की जाती है। फोटा देखने से कर । पायेंगे। उपयोग : पृथ्वी तत्त्व की प्रतिक है । कुर्म की तरह भारवहन करने की शक्ति का विकास । तथा साधना की स्थिरता प्रतिष्ठा आदि में कुर्मस्थापन वक्त करनी चाहिए । 26 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्स्य मुद्रा बायें हाथ पर दायें हाथ रखकर अंगुष्ठ को अलग करने से बनती है । उपयोग : यह जलतत्त्व की मुद्रा है जल जन्य रोग का प्रतिकार होता । अनुष्ठान में सामग्री की शुद्धि इस मुद्रा से होती है । है . 27. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंख मुद्रा बाँये हाथ से मुट्ठी बांधकर कनिष्ठिका अंगुली को फैलाकर दबाना शंखमुद्रा है। लाभ : थाइरोइडरोग बिमारी दूर होती है। नाभिकेन्द्र की ७२,००० स्नायुओं की शुद्धि । नाभि स्वस्थान पर स्थित होती है । पाचनतन्त्र में उपयोगी । लकवाग्रस्त एवम् वाणी विषयक दोष दूर । लक्ष्मी प्राप्ति । .28. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहज शंख मुद्रा दोनों हाथ की अंगुलियों को परस्पर दबाने से हस्ततल दबाने से दोनों अंगुष्ठों को तर्जनी पर दबाने से होती है। लाभ : शक्ति ऊर्ध्वगामी बनती है। स्तम्भनशक्ति की पुष्टि होती है। शंख मुद्रा के सभी लाभ प्राप्त होते हैं। प्राप्त लक्ष्मी की स्थिरता। • 29. Jain Education Interrational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जन संहार मुद्रा (१) ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसार्य कनिष्ठिकादि-तर्जन्यन्तानामङ्गुलीनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठमूलानयनात् संहारमुद्रा । विसर्जनमुद्रेयम् । अर्थ : ग्रहण करने योग्य (जो सामग्री प्रतिष्ठा पूजादि में उपयोग में आनेवाली है) वस्तुओं के ऊपर हाथ को फैलाना, फिर कनिष्ठिका से लेकर तर्जनी पर्यन्त अंगुलियों को क्रम से संकुचित करते हुए अंगुष्ठ के मूल भाग तक अंगुलियों को ले जाना संहार मुद्रा है । यह विसर्जन की मुद्रा है | उपयोग : पारंपरिक सात्त्विक अनुष्ठान में आमंत्रिततत्त्वों का विसर्जन । • 30 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसर्जन - संहार मुद्रा (२) फोटो को देखने से कर सकते हैं। उपयोग : आसुरी शक्ति के अनुष्ठान में आमंत्रित तत्त्वों का विसर्जन। .31. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्र मुद्रा वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं संनिवेश्य करशाखा विरलीकृत्य प्रसारयेतिति चक्रमुद्रा । अर्थ : बाँये हाथ के तल स्थान में दाँये हाथ के मूल को रखकर दोनों हाथ की अंगुलियों को अलग अलग करके फैलाना चक्र मुद्रा है। उपयोग : स्थगित वस्तुओं को गतिमान करने हेतु । .32. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन मुद्रा |. दक्षिणांगुष्ठेन तर्जनीं संयोज्य शेषाङ्गलीप्रसारणेन प्रवचनमुद्रा । अर्थः दाँये हाथ के अंगुष्ठ से दाँये हाथ की तर्जनी को संयुक्त (जोड़) ___ कर शेष अंगुलियों को प्रसारित करना प्रवचन मुद्रा है। उपयोग : वक्ता तथा श्रोता को ज्ञान की प्राप्ति हेतु । .33. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्व मुद्रा पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यसंश्लेष्य शेषांगुलिमध्येऽङ्गुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पार्श्व मुद्रा। अर्थ : नीचे की ओर मुख किये हुए दोनों हाथों से वेणीबन्ध बनाना अर्थात् परस्पर में दोनों हाथों की अंगुलियों को एक दूसरे से गूंथना, फिर वेणीबन्ध किये हुए दोनों हाथों को एक दूसरे के सम्मुख करके, दोनों हाथ की तर्जनी अंगुलियों को परस्पर में सम्बद्ध करना, तत्पश्चात् शेष अंगुलियों के मध्य में दोनों अंगुष्ठों को रखना पार्श्व मुद्रा है । .34. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति मुद्रा विधाय मध्यमे प्रसार्य संयोज्य च शेषांगुलीभिर्मुष्टिं बन्धयेत् इति शक्तिमुद्रा । अर्थ : परस्पर में अभिमुख (आमने-सामने) दोनों हाथों से वेणीबन्ध बनाकर (अंगुलियों को परस्पर गूंथकर ) दोनों मध्यमा अंगुलियों को फैलाकर मिलाना तथा शेष अंगुलियों से मुट्ठी बाँधना शक्ति मुद्रा है 1 • 35. Main Education International . Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनि मुद्रा (१) ग्रथितानामगुलीना तर्जनीभ्यामनामिके संगृह्य मध्यपर्व - स्थांगुष्ठयोर्मध्यमयोः सन्धानकर योनिमुद्रा । अर्थ : दोनों हाथ की परस्पर में बन्धी हुई अंगुलियों की तर्जनियों के द्वारा दो अनामिका अंगुलियों को पकड़कर फिर दोनों मध्यमा अंगुलियों के मध्य पर्व में दोनों अंगुष्ठो को स्थापित करना, अंगुष्ठों को मिलाना योनि मुद्रा है । उपयोग : सदाचारों की वृद्धि । • 36. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योनि मुद्रा (२) वामहस्तांगुलितर्जन्या कनिष्ठिकामाक्रम्य तर्जन्यग्रं मध्य-मया कनिष्ठिकाग्र पुनरनामिकया आकुंच्य मध्येऽङ्गुष्ठं निक्षिपेदिति योनिमुद्रा। अर्थ : बाँये हाथ की तर्जनी अंगुली से कनिष्ठिका अंगुली को पकड़ना फिर तर्जनी अंगुली के अग्र भाग को मध्यमा अंगुली से पकड़ना पुनः कनिष्ठिका अंगुली के अग्रभाग को अनामिका अंगुली से पकड़कर अथवा झुकाकर बीच के भाग में अंगुष्ठ को रखना योनि मुद्रा है। .37. ain Education International Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुष्ठ - लिङ्ग मुद्रा दोनों हाथ की अंगुलियों को परस्पर एक-दूसरे में फंसाना, Left अंगुष्ठ को सीधा रखना ओर पीछे से Right अंगुष्ठ से दबाना तथा अंगुलियों का भी Pressure देने से बनती है। अर्थ : स्मरणशक्ति बढ़ती है। मानसिक विचारों में परिवर्तन आता है। उपयोग : पाचनशक्ति बढाने में शरीर सुडोल बनाने में, सदाचार पालनमें शक्ति की प्राप्ति । 38 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानध्यान मुद्रा दो हाथों एकत्र करके हाथ के हस्ततल पर दायाँ हाथ रखकर सुखासन या पद्मासन करके नाभि पास हाथ रखने से ज्ञानध्यान मुद्रा होती है। लाभ : ज्ञानमुद्रा से प्राप्त होने वाले सभी लाभ होते हैं। तथा ध्यान में प्रगति होती है । ज्ञान मुद्रा तर्जनी अंगुलि और अंगुष्टों के अग्रभाग को एकत्रित करके मध्यमा, अनामिका तथा कनिष्ठका साथ में रखकर सीधी करने से ज्ञान मुद्रा बनती है। लाभ : ज्ञानतंतु क्रियावंत होते हैं । स्मरण शक्ति, एकाग्रता, प्रसन्नता की वृद्धि होती है अनिद्रा के रोग में लाभदायी है । यह मुद्रा को सरस्वती मुद्रा भी कहते हैं। Pitutory और Pencal उपयोग : अनिद्रा, Maygrain, शरीर के मास्टर ग्लान्ड रोगो में उपयोगी । 39 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानवैराग्य मुद्रा दायें हाथ की ज्ञान मुद्रा करके हृदय के पास हाथ को रखना और बायें हाथ की ज्ञान मुद्रा करके घुटन के पास रखने से ज्ञानवैराग्य मुद्रा बनती है। लाभ : ज्ञान मुद्रा के सभी लाभ तदुपरांत वैराग्य की प्राप्ति। उपयोग : संसार में निष्पाप जीवन जीने में सहायक है। .40. For Private Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वज्ञान मुद्रा बोधिसत्त्वज्ञान मुद्रा बायें हाथ की पृथ्वी मुद्रा हृदय के पास दायें हाथकी (अंगुष्ठ और अनामिका के ज्ञान मुद्रा करके बायें हाथ अग्रभाग को मिलाना) तथा की ज्ञानमुद्रा करके हृदय दायें हाथ की ज्ञान मुद्रा पर रखकर दोनों हाथ का (तर्जनी और अंगुष्ठ के अंगुष्ठ और तर्जनी एक अग्रभाग को मिलाना) दूसरो से मिले उसी तरह करके दोनों घुटन पर हाथ रखने से बोधिसत्त्वज्ञान रखने से तत्त्वज्ञान मुद्रा होती मुद्रा बनती है। लाभ : ज्ञान मुद्रा के सभी लाभ लाभ : ज्ञानमुद्रा के सभी लाभ | तथा भावो में परिवर्तन, तथा तत्त्वज्ञान प्राप्ति । ध्यान में प्रगति होती है। है। .41. Ein Education International Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधक मुद्रा पुस्तक मुद्रा । फोटा को अच्छी तरह से|. दोनों हाथ की अंगुलीओं के देखने से कर पायेंगे। अग्रभाग को अंगुष्ठ के पास लाभ : उष्णता उर्जा बढ़ती है। लगाना तथा अंगुष्ठ के हृदयविकार में लाभ- अग्रभाग को तर्जनी के पास दायी, अद्भूत शान्ति की रखने से बनती है। प्राप्ति । लाभ : अध्ययन में लाभकारी, यह उपयोग : उच्च रक्तदाब नियंत्रण मुद्रा करने से ज्ञानप्राप्ति । ज्ञान के लिये । आध्यात्मिक तथा एकाग्रता प्राप्त करने हेतु शक्ति में आगे बढ़ने के क्षमता का विकास होता है। लिए। उपयोग ः ज्ञानप्राप्ति हेतु मन और चित्तकी एकाग्रता प्राप्त करने के लिए। .42. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्ट मुद्रा फोटा को अच्छी तरह से देखने से कर पायेंगे । लाभ : टेन्शन, प्रकम्पन, हृदय की बिमारीयाँ आदि दूर होती है । तादात्म्य भाव और ध्यान में प्रगति होती है । स्वयं में स्थिरता का गुण उपलब्ध होता है । उपयोग : Pain, Highper Tension नाडी की अस्तव्यवस्था दूर करने लिए हृदय की बीमारी दूर करने के लिए । • 43. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगी मुद्रा मध्यमा और अनामिका मिलाना। दोनों अंगुलियों के दूसरे पर्व के अग्रभाग पर अंगुष्ठ को रखने से तर्जनी और कनिष्ठिका को सीधा रखने से बनती है । लाभ : मृगवत् सरलता सहजता के भावों की प्राप्ति । नम्रता की प्राप्ति । आहुति में यह मुद्रा उपयोगी है। उपयोग : दांत, सायन्स शरदी से शीरदर्द में राहत और मानसकि शांति के लिए। हंसी मुद्रा फोटा को अच्छी तरह से देखने से कर सकते हैं । लाभ: हंस के समान विवेकता की प्राप्ति । आहुति के वक्त यह मुद्रा करके मध्यमा के अग्रभाग पर आहुति द्रव्य रखकर आहुति देने से धन, धान्य विजय आदि इच्छित फल की प्राप्ति होती है। उपयोग: राजसिक और मानसिक शक्ति बढ़ाने के लिए । 44 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीसुरभि मुद्रा सुरभि मुद्रा करके दोनों अंगुष्ठो के अग्रभाग को अनामिका के पर्व पर रखने से बनती है। लाभ : पृथ्वीतत्त्वजन्य अग्नितत्त्वजन्य रोग में राहत होती है । उदररोग में लाभकारी है । उपयोग : कफ प्रकृति के लिए, पाचन संबंधी रोगो के लिए और शरीर की जडता व स्थूल का दूर करने के लिए। जलसुरभि मुद्रा सुरभि मुद्रा करके दोनों अंगुष्ठो के अग्रभाग को दोनों कनिष्ठिका के पर्व पर लगाने से बनती है। लाभ : पित्तजन्य रोग में राहत । जलजन्य रोग में कीडनी के रोग में तथा Urine के रोग में लाभ । उपयोग : पित प्रकृति, कीडनी और मूत्र जन्य रोगों के लिए । • 45. / Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायुसुरभि मुद्रा शून्यसुरभि मुद्रा • सुरभि मुद्रा करके दोनों अंगुष्ठों |. सुरभि मुद्रा करके दोनों अंगुष्ठो के अग्रभाग को तर्जनी के पर्व के अग्रभाग को मध्यमा के पर्व पर लगाने से बनती है। पर रखने से बनती है। लाभः वायुजन्य रोग मेंराहत।मनकी| लाभ : अन्तरमुखी जीवन में लाभ। चंचलता का नाश । ध्यान-. शान्ति, आनन्द, प्रफुल्लिता भाव का विकास होता है। जप में अत्यन्त उपयोगी है। | उपयोग : कान के दर्द को दूर करने उपयोग : ध्यान व जाप में | के लिए । अंतरसमृद्धि स्थिरता प्राप्त करने हेतु । बढाने के लिए। नोंध : विधान तथा रोगोपशमन वक्त मुद्रा कब कितने समय तक करनी चाहिए उनका ज्ञान प्राप्त करके मुद्रा का उपयोग करना। .46. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 શતશઃ વંદન...! ! ! ગયા ભલે નજરથી દૂર અંતરથી દૂર તો જાય ના, શતકોટિ વંદન પણ પડે ઓછા એમનું ઋણ જીવનમાં ચૂકવાય ના, છે કેટલા ઉપકાર લોગ જીવન પર આ જનમે તો એ ભૂલાય ના, રહે ઝંખના સદા વાત્સલ્ય ભરી તુમ અમી નજરની, પણ.....એ હેતભરી નજર જગમાં ક્યાંય કળાય ના, ભદ્રંકર તો ભદ્રંકર છે, એની તોલે કોઈ આવે ના, એમની જીવમૈત્રી અનમોલ છે – એનો મોલ કદી અંકાય ના, એમની નવકાર રમણતા અજોડ છે. અમ જીવનમાં કદી જડાય ના, ચારિત્રના ગુણો વસ્યા તુમ ગગનમાં અમ ગાગરમાં કદી સમાય ના, • 47. PIKE Pey Pic ISTE Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આવા પૂજ્યપાદ પંન્યાસ પ્રવરશ્રીભદ્રંકરવિજયજી મહારાજા તથા.... યુગો સુધી ઝળહળશે ભુવનભાનુના અજવાળા આવા પૂજ્યપાદશ્રી ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા.... સફળતા એક અકસ્માત નથી પણ પસંદગી છે. આપણે સ્વસ્થ, સુખી સમૃદ્ધ રહી સિદ્ધિ હાંસલ કરતા રહી સર્વોપરી બનીએ તેનું સઘળું આયોજન આપણા જાગ્રત મનમાં થાય છે. આવા જાગૃત મનના સ્વામી પૂજ્યપાદ આ. ગુરુદેવશ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.ના ચરણોમાં મારો સ્વાધ્યાય સમાપન વેળાએ પુનઃ પુનઃ વંદન । 48. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૂજ્ય આચાર્ય હેમચંદ્રસૂરિ મ.સા.ના શિષ્યરત્ન પૂજ્ય મુનિશ્રી મેરૂચંદ્ર વિ.મ.ની પ્રેરણાથી શ્રી સીમંધરસ્વામી આરાધનાભવના (સીરોલી) ટ્રસ્ટ કોલ્હાપુર, (મહારાષ્ટ્ર)ના જ્ઞાનખાતામાંથી લાભ લીધેલ છે. VARDHMAN PUSTAK PRAKASHAN Phone : 079-22860785, 92275 27244 in Education International For Private Perse rary or