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________________ लोग भोजन करते हुए भी उपवासी ही होते हैं । जह बालो जंपन्तो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को वि ॥६॥ जैसे बालक अपने कार्य-अकार्य को सरलतापूर्वक माँ के समक्ष व्यक्त कर देता है, वैसे ही हमें भी अपने समस्त दोषों की आलोचना मायामद (छल-छद्म) त्यागकर करनी चाहिए । एवमणुद्धियदोसो, माइल्लो तेणं दुक्खिओ होइ।। सो चेव चत्तदोसो, सुविसुद्धो निव्वुओ होइ ॥७॥ __जैसे काँटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना होती है और काँटे के निकल जाने पर शरीर निःशल्य अर्थात् सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रकट न करने वाला मायावी दुःखी या व्याकुल रहता है और उनको गुरु के समक्ष प्रकट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं । आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएसं ॥८॥ ___ अपने परिणामों को समभाव में स्थापित करके आत्मा को देखना ही आलोचना है । ऐसा जिनेन्द्रदेव का उपदेश है । अद्धाणतेण-सावद-राय-णदीरोधणासिवे ओमे। वेज्जावच्चं उत्तं, संगहसारक्खणोवेदं ॥९॥ जो मार्ग में चलने से थक गये, हैं, चोर श्वापद (हिस्र पशु), राजा द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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