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________________ चिकित्सा कराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती । वे तो स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं, अपनी अन्तशुद्धि में लगे रहते हैं । जे पुयणुभत्तपाणा, सुयहेऊ ते तवस्सिणो समए । जो अ तवो सुयहीणो, बाहिरयो सो छुहाहारो ॥२॥ जो शास्त्राभ्यास के लिए अल्प आहार करते हैं वे ही आगम में तपस्वी माने गये हैं । श्रुतविहीन अनशन - तप तो केवल भूख का आहार करना है अर्थात् भूखे मरना है । सो नाम अणसणतवो, जेण मणोऽमंगुलं न चिंतेइ । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥३॥ वास्तव में वही अनशन - तप है जिससे मन में अमंगल की चिन्ता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) तथा मन-वचन-कायरूप योगों की हानि (गिरावट ) न हो । बलं थामं च पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो । खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निजुंजए ॥ ४ ॥ अपने बल, तेज, श्रद्धा तथा आरोग्य का निरीक्षण करके तथा क्षेत्र और काल को जानकार अपने को उपवास में नियुक्त करना चाहिए | क्योंकि शक्ति से अधिक उपवास करने से हानि होती है । उवसमणो अक्खाणं, उववासो वण्णिदो समासेण । तम्हा भुंजंता वि य, जिदिदिया होंति उववासा ॥ ५ ॥ संक्षेप में इन्द्रियों के उपशमन को ही उपवास कहा गया है। जितेन्द्रिय १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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