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जीवनासिताऽगुरू द्रवाक्षतैः प्रसूनकैः, चारु चरु प्रदीपकैः धूपकैः फलोत्करैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥ ॐ आँ क्रॉ ही अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो अर्घ्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ लक्ष्मी धान्यकरं जगत् सुखकरं सुदीर्घ कायावरं । रात्रौजागरवाहनं सुखकरं वरवार पाणिधरं । निर्विजं भय नाशनं भयहरं भूतादि रक्षाकरं । वन्दे श्री जिन सेवकं हरिहरं श्री क्षेत्रपालं परं ॥
जयमाला
सुरासुर खेचित पूजित पाद, गुणावर सुन्दर कृत शुभनाद । मनोहर पन्नग कण्ठ विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥१॥ सुडाकिन शाकिन नाशन वीर, सुकाकिन राकिन भ्रंशन धीर । अनुपम मस्तक शोभित भाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥२॥ सुलाकिन हाकिन पन्नग त्रास, कुभूपति तस्कर दुर्भिक्ष नाश । निशाकर शेखर मंडितमाल, सदा शुभ हो जयक्षेत्र सुपाल ॥३॥ समुद्गल साद्वल लूकर वृन्द, सुराक्षस भोजन दुर्लभकन्द । सदामल कोमल अङ्ग विशाल, सदा शुभ हो जय क्षेत्रसुपाल ॥४॥
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