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________________ शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥५॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो नैवेद्यं समर्पयामि स्वाहा ॥ रत्न धेनु सर्पिषादि दीपकैः शिखोज्ज्वलैः, वटि धार तोय कोप कंपरूप वर्जितैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥६॥ ॐ आँ क्रोँ ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो दीपं समर्पयामि स्वाहा ॥ शिल्पिता सिता गुरु प्रधूप केल मिश्रितैः, वाद्यमान वर्धमान माननी मनोहरैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपालं चर्चनं ॥७॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो धूपं समर्पयामि स्वाहा ॥ श्री फलैश्च कर्करी सुदाडिमादिभिः फलैः, स्वादमिष्ट सौरभादि जंजरादि मोदनैः । भूत प्रेत राक्षसादि दुष्ट कष्ट नाशनं, शान्ति सिद्धि ऋद्धि वृद्धि क्षेत्रपाल चर्चनं ॥८ ॥ ॐ आँ क्रीं ह्रीं अत्रस्थ विजयभद्र, वीरभद्र, मणिभद्र, भैरव, अपराजित पंच क्षेत्रपालेभ्यो फलं समर्पयामि स्वाहा ॥ १०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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