________________
छट्ठेणं भत्तेणं अपाणेणं तु सत्त जत्ताइं । जो कुणइ सेत्तुंजे, तइय भवे लहइ सो मुक्खं अज्जवि दीसइ लोए, भत्तं चड़ऊण पुंडरीय नगे । सग्गे सुहेण वच्चइ, सीलविहूणो वि होणं
छत्तं झयं पडागं, चामर - भिंगार - थालदाणेणं । विज्जाहरो अ हवइ, तह चक्की होइ रहदाणा
दस वीस तीस चत्ता, लक्ख पन्नास पुप्फदामदाणेण । लहइ चउत्थ छट्ठट्ठम- दसम दुवालस फलाइं
धुवे पक्खुववासो, मासक्खमणं कपूरधुवम्मि । कित्तिय मासक्खमणं, साहू पडिलाभिए लहड़ न वि तं सुवन्नभूमि - भूसणदाणेण अन्न तित्थेसु । जं पावइ पुण्णफलं, पूआ न्हवणेण सित्तुंजे
कंतार- चोर - सावय-समुद्द - दारिद्द - रोग - रिउ - रुद्दा | मुच्चंति अविग्घेणं, जे सेत्तुंजं धरन्ति मणे
सारावली - पयन्नग - गाहाओ, सुअहरेण भणिआओ । जो पढइ गुणइ निसुणइ, सो लहइ सित्तुंजजत्तफलं
॥१८॥
॥१९॥
॥२०॥
॥२१॥
॥२२॥
॥२३॥
॥२४॥
॥२५॥
३३
Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org