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किं काहदि वणवासो, कायकलेसो विचित्त उववासो । अज्झयणमोणपहुदी, समदारहियस्स समणस्स ॥४॥
समता-रहित श्रमण का वनवास, कायक्लेश, विविध उपवास, अध्ययन और मौन आदि व्यर्थ है । भावो हि पढमलिंगं, ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा बिंति ॥५॥
भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है । द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है, क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का कारण कहते हैं । भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स ॥६॥ ___ भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है उसका बाह्य त्याग निष्फल है।
समिति-गुप्तिसूत्र
तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चा-वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥१॥
कठोर और प्राणियों का उपघात करने वाली, चोट पहुँचाने वाली भाषा न बोलें । ऐसा सत्य-वचन भी न बोलें जिससे पाप का बन्ध होता है।
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