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अनुप्रेक्षासूत्र पत्तेयं पत्तेयं नियगं, कम्मफलमणुहवंताणं । को कस्स जए सयणो ? को कस्स व परजणो भणिओ ? ॥१॥
प्रत्येक जीव अपने-अपने कर्मफल को अकेला ही भोगता है । ऐसी स्थिति में कौन किसका स्वजन है और किसका परजन ? अणुसोअइ अन्नजणं, अन्नभवंतरगयं तु बालजणो । नवि सोयइ अप्पाणं, किलिस्समाणं भवसमुद्दे ॥२॥ __ अज्ञानी मनुष्य अन्य भवों में गये हुए दूसरे लोगों के लिए तो शोक करता है, किन्तु भव-सागर में कष्ट भोगने वाली अपनी आत्मा की चिन्ता नहीं करता। जरामरणवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥३॥ __जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते-डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति है तथा उत्तम शरण है । माणुस्सं विग्गहं लद्धं, सुई धम्मस्स दुल्लहा । जं सोच्चा पविज्जंति तवं खंतिमहिंसयं ॥४॥
मनुष्य-शरीर प्राप्त होने पर भी ऐसे धर्म का श्रवण तो दुर्लभ ही है, जिसे सुनकर तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त किया जाए ।
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