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________________ धर्मसूत्र जड़ किंचि पमाएणं, न सुट्ठ भे वट्टियं मए पुवि । तं मे खाम अहं, निस्सल्लो निक्कसाओ अ ॥१॥ किंचित् प्रमादवश यदि मेरे द्वारा आपके प्रति उचित व्यवहार नहीं किया गया हो तो मैं निःशल्य और कषाय-रहित होकर आपसे क्षमा-याचना करता हूँ । परसंतावयकारण-वयणं, मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ॥२॥ जो दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों का त्याग करके स्व-परहितकारी वचन बोलता है, उसके सत्य धर्म होता है । पत्थं हिदयाणि पि, भण्णमाणस्स सगणवासिस्स । कडुगं व ओसहं तं महुरविवायं हवइ तस्स ॥३॥ , अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले ही वह मन को प्रिय न लगे, पर कटुक औषध की भाँति परिणाम में मधुर ही होती है । विस्ससणिज्जो माया व, होइ पुज्जो गुरुव्व लोअस्स । सयणुव्व सच्चवाई, पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ ॥४॥ सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है । १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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