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________________ जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टि कुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥५॥ ___ त्यागी वही कहलाता है, जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहं, तं वयं बूम माहणं ॥६॥ __ जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम-भोग के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। तेल्लोकाड-विडहणो, कामग्गी विसयरुक्ख-पज्जलिओ। जोव्वण-तणिल्लचारी, जंण डहइ सो हवइ धण्णो ॥७॥ विषय रूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोक रूपी अटवी को जला देती है। यौवन रूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जलाती, वह धन्य है । जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥८॥ जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती । अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती है। • १४४ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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