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________________ न वि तं कुणइ अमित्तो, सुड्डु वि य विराहिओ समत्थो वि । जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥२॥ अत्यन्त तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी अनिगृहीत / अनियंत्रित राग और द्वेष पहुँचाते हैं । जड़ तं इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स । तो तवसंजमभंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो ॥३॥ यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर । जेण विरागो जायड़, तं तं सव्वायरेण करणिज्जं । मुच्चइ हु ससंवेगी, अनंतवो होड़ असंवेगी ॥४॥ जिससे विराग उत्पन्न होता है, उसका आदरपूर्वक आचरण करना चाहिए । विरक्त व्यक्ति संसार - बन्धन से छूट जाता है और आसक्त व्यक्ति का संसार अनन्त होता जाता है । भावे विरतो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी- पलासं ॥५॥ भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है । जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता । १४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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