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पुण्णं पि जो समिच्छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि । पुण्णं सुगईहेदुं, पुण्णखएणेव णिव्वाणं ||६|| जो पुण्य की इच्छा करता है, वह संसार की ही इच्छा करता है । पुण्य सुगति का हेतु है, किन्तु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है । वरं वयतवेहि सग्गो, मा दुक्खं होउ णिरड़ इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरुभेयं ॥७॥
(तथापि) व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है । इनके न करने पर नरकादि के दुःख उठाना ठीक नहीं है। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं ज्यादा अच्छा है
रत्नत्रयसूत्र
नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ १ ॥
सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता । चारित्रगुण के बिना मोक्ष ( कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता ।
आया हु महं नाणे, आया मे दंसणे चरित्ते य ।
आया पच्चक्खाणे, आया मे संजमे जोगे ॥२॥
आत्मा ही मेरा ज्ञान है । आत्मा ही दर्शन और चारित्र है । आत्मा ही
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