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________________ ध्यानसूत्र सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ १ ॥ जैसे शरीर में सिर और वृक्ष में उसकी जड़ मुख्य है वैसे ही साधु के समस्त साधु-धर्मों का मूल ध्यान है । जं थिरमज्झवसाणं, तं झाणं जं चलंतयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥३॥ | स्थिर अध्यवसान अर्थात् मानसिक एकाग्रता ही ध्यान है । चित्त की जो चंचलता है उसके तीन रूप हैं-भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । जस्स न विज्जदि रागो, दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो, झाणमओ जायए अग्गी ॥४॥ जिसके राग-द्वेष और मोह नहीं है तथा मन-वचन-कायरूप योगों का व्यापार नहीं रह गया है, उसमें समस्त शुभाशुभ कर्मों को जलाने वाली ध्यानाग्नि प्रकट होती है । जे इदियाणं विसया मणुण्णा, न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मणुण्णेसु मणं पि कुज्जा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥५॥ समाधि की भावना वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के अनुकूल विषयों में कभी रागभाव न करे और प्रतिकूल विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे । - १५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004960
Book TitleMaro Swadhyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaratnavijay
PublisherShraman Seva Parivar
Publication Year
Total Pages244
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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