Book Title: Mahakavi Harichandra Ek Anushilan
Author(s): Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशम · Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन मध्यप्रदेश के सागर-अंचल में जिन-विद्या का विशेष प्रगमन हुमा है। सुदूर प्राचीन काल से ही इस क्षेत्र के वन-कुंजों में ऋषि-मुनियों ने तपःस्वाध्याय-निरत होकर ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि के साथ ही साथ मे सर्मजन-मूलभ भी बनाया है। इस दिशा में प्राचार्य, ओ. पन्नालाल जैन का अनवरत प्रयास अनुत्तम है। उनकी हिन्दी और संस्कृत को बहुविध कृतियों से विद्वानों और जिज्ञासुओं को प्रेरणा मिली है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन' डॉ. जैन का शोष-नियन्ध है। इस प्रम्य पर सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें पी-एच. डी. उपाधि से समलंकृत किया है। डॉ. जैन ने इसमें मानव व्यक्तित्व के विकास और सांस्कृतिक उपलब्धियों का सूक्ष्म दृष्टि से अनुसन्धान किया है। आशा है. आधुनिक युग के पारित्रिक निर्माण की दिशा का निर्धारण करते समय विचारकों और राष्ट्र-निर्माताओं को इसमें बहुमूल्य सामग्री मिलेगी। हम कामना करते है कि प्राचार्य जैन अपनी लेखनी से भारत-भारती को निरन्तर निर्भर करते रहें। रामजी उपाध्याय अध्यक्ष, संस्कृत विभाग सागर विश्वविद्यालय, सागर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना महाकवि हरिचन्द्र संस्कृत साहित्य जगत् के प्रख्यातनामा फवि है । कोमलकान्तपदावली के द्वारा नवीन-नवीन अर्थ का प्रतिपादन करना कवि की विशेषता है। यह कवि, कल्पनाओं के अन्तरिम में उड़ान भरने में सिद्ध हुआ है तो इसके अगाध सागर में डुबकी लगाने में भी अतिशय निपुण है । इनको 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'जीवन्धरचम्मू ये दो अमर रचनाएं हैं। 'धर्मशर्माभ्युदय में पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ और 'जीवन्धरचम्पू' में जीवन्धर स्वामी का जीवन-चरित वर्णित है। कथा पौराणिक है परन्तु कवि ने उसे काव्यमयी भाषा में ऐसा अवतीर्ण किया है कि उसे पढ़कर पाठक का हृदय भाव-विभोर हो जाता है। धर्मशर्माम्युदय और जीवन्धरचम्पू दोनों ही ग्रन्थ मेरे द्वारा सम्पादित तथा हिन्दी अनुवाद से अलंकृत हो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुके हैं। दोनों ग्रन्थों की प्रस्तावनाओं में अन्यकर्ता तथा काथ्य की विधाओं पर संक्षिप्त सा प्रकाश डाला गया है । इस 'महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन' नामक शोध-प्रबन्ध में उन्हीं दो अन्थों की विस्तृत समीक्षा की गयी है। ग्रन्थकर्ता के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालने के अतिरिक्त ग्रन्थों की अम्यन्तर सामग्री का परिचय तथा शिशुपालवध, किरातार्जुनीय, नैषध तथा चन्द्रप्रभचरित आदि ग्रन्थों से तुलनात्मक उद्धरण भी अंकित किये गये हैं। इस शोध-प्रबन्ध के चार अध्यायों का संक्षिम सार निम्न प्रकार है। प्रबन्धसार प्रथमाध्याय काव्यधारा 'महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन' नामक इस शोध-प्रबन्ध में चार अध्याय है। प्रथमाध्याय में 'भाधारभूमि' और 'कथा' नामक दो स्तम्भ है । 'आधारभूमि' स्तम्भ के १. काव्यधारा, २. महाकवि हरिचन्द्र-व्यक्तित्व और कृतित्व, ३. अम्युदयनामान्त काम्यों की परम्परा और ४. महाकाव्य-परिभाषानुसन्धान नामक चार स्तम्भों में-पचकाव्य, गद्यकाव्य और चम्पूकाव्यों की चर्चा करते हुए चम्पूकाव्यों का ऐतिहासिक क्रम से परिचय दिया गया है। नलचम्पू, यशस्तिलकचम्पू, जीवन्धरचम्यू और पुरुदेवयम्पू का कर्ता के Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ परिचय दिया गया है। अन्य--'चम्पू रामायण,' 'भागवतचम्पू तथा 'आनन्दवृन्दावनचम्पू' यावि प्रसिद्ध चम्पूकाव्यों का उनके कर्ता के साथ नामोल्लेख किया गमा है। महाकवि हरिचन्द्र-व्यक्तित्व और कृतित्व महाकवि हरिचन्द्र का परिचय देते हुए कहा गया है कि वे नोमक वंश के कायस्थ कुलोत्पन्न आर्द्रदेव और रथ्या के पुत्र थे । इनके छोटे भाई का नाम लक्ष्मण था । गुरु के प्रसाद से इन्हें वासिद्धि प्राप्त हुई थी । यह दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे । इनका समय ११वीं और १२वीं शताब्दी के मध्य आंका जाता है। इनके रचे हुए 'धर्मशभियुदय' और 'जीवन्धरचम्पू' ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं । 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य है और 'जीवन्धरचम्मू' यथानाम चम्पूकाव्य है । धर्मशर्माभ्युदय में जन धर्म के पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ का चरित्र लिखा गया है और जीवन्धरचम्पू में भगवान महावीर स्वामी के समकालीन क्षत्रिय-शिरोमणि श्री जीवन्धर स्वामी का चरित्र किन दिया गया है। सुन्टा निदानों प्रमुख रूप से थी नाथूरामजी प्रेमी का अभिमत था कि जीवन्धरचम्मू किसी अन्य लेखक की रचना है परन्तु दोनों ग्रन्थों के वर्णन-सादृश्य से यह सिद्ध किया गया है कि ये दोनों प्रन्थ एक ही हरिचन्द्र की रचनाएँ हैं। दोनों की भाषा और भाव का सादृश्य, अनेक उद्धरण देकर सिद्ध किया गया है । जीवन्धरचम्पू का प्रकाशन प्रेमीजी के जीवनकाल में हो चुका था और उन्हीं की सम्मति से हुआ था। जब मैंने छपने के पूर्व उसकी प्रस्तावना उनके पास भेजी तब उन्होंने धर्मशर्माम्युदय और जीवन्धरचम्पू के सुलनात्मक उद्धरण देखकर उक्त तथ्य को स्वीकृत कर लिया था। ___महाकवि हरिचन्द्र का व्यक्तित्व महान् था। कालिदास, माघ, भारवि आदि महाकवियों की श्रेणी में इनका नाम लिया जाता है । महाकाव्य के समस्त लक्षण इनकी कृतियों में अवतीर्ण है । पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन-प्राचीनतर लक्षणों का समन्वय करते हुए अपने रसगंगाधर में काव्य का लक्षण' लिखा है-'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' अर्थात् रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला शब्द-समूह कान्य है। वह रमणीयता चाहे अलंकार से प्रकट हो, चाहे अभिधा, लक्षणा या व्यंजना से। मात्र सुन्दर शब्दों से या मात्र सुन्दर अर्थ से काव्य, काव्य नहीं कहलाता किन्तु दोनों के संयोग से हो काव्य, काश्य कहलाता है। महाकवि हरिचन्द्र ने अपने कायों में शब्द और अर्थ-दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ संजोया है । काव्यवेभव रस, ध्वनि, गुण, रीति और अलंकार-साहित्य की इन समस्त विधाओं का इनकी रचनाओं में अच्छा निर्वाह हुआ है । उपमा-उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकार, अनुप्रास Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमक मादि शब्दालंकार, अलक्ष्यक्रम-व्यंग्य, अर्थान्तर-संक्रमितवाच्य आदि ध्वनि, माधुर्य-ओज मावि गुण तथा प्रवी-पांचाली आदि रीति के विविध उदाहरण देकर . धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू के कान्यवैभव का दिग्दर्शन कराया गया है । धर्मशर्माम्युदय तथा जीवन्धर पम्पू के अनेक स्थल इतने अधिक कौतुकावह हैं कि उन्हें पढ़कर सहृदय पाठक हर्षविभोर हो जाता है । सज्जन-दुर्जन-प्रशंसा, चन्द्रग्रहण, मरा, पुष्पावच्य, जलकोड़ा तथा चन्द्रोदय आदि का वर्णन कवि ने जिस चमत्कार-पूर्ण बाणी में किया है उससे उनकी काव्य-प्रतिभा साकार हो उठी है। अभ्युदयनामान्त काव्यों की परम्परा संस्कृत-साहित्य में अभ्युदयनामान्त काव्यों को भी एक बड़ी शृंखला है । उस शृंखला में हम जिनसेनाचार्य के 'पाश्र्वाम्मुदय' का महत्त्वपूर्ण स्थान देखते है। इसमें उन्होंने कालिदास के मेघदूत के समस्त इलोकों को समस्या पूर्ति के रूप में मात्मसात् करके तीर्थंकर पार्श्वनाथ का दिब्य चरित लिखा है। नवीं शती के शिवस्वामी का 'कफिर्णाभ्युदय' भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । यादवाभ्युदय, भरतेश्वराभ्युदय, मालवाभ्युदय, रामाभ्युदय, मला युदय, अच्युतरामाभ्युदय और रघुनाथाभ्युदय भी संस्कृत-साहित्य की गरिमा को बढ़ा रहे है। इसी परम्परा में महाकवि हरिचन्द्र का यह 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य माता है जिसमें पन्द्रहवें जैन-तीर्थंकर धर्मनाथ का चरित्र निबद्ध किया गया है। महाकाव्य परिभाषानुसन्धान विश्वनाथ कविराज ने साहित्य दर्पण के षष्ठ परिच्छेद में ३१५ से ३२५ श्लोक तक महाकाव्य की जिस परिभाषा का उल्लेख किया है वह धर्मशर्माभ्युदय में पूर्ण रूप से चटित होती है। धीरोदात्त नायक के गुणों से युक्त, क्षत्रियवंशोत्पन्न धर्मनाथ तीर्थंकर इसके नायक है । शान्त रस अंगो रस है, शेष रस अंग रस हैं । जीवन्धरचम्प की रचना गद्य-पद्ममय है इसलिए वह चम्पूकाव्य में आता है। उसमें भी धीरोदात्त नायक जीवन्धर स्वामी का चरित्र अंकित है। उसका भी अंगी रस शान्त रस है और अंग रस के रूप में सब रसों का अपछा विन्यास है । इराके दशम लम्भ में वीर रस का प्रवाह उच्चकोटि का है। इसका शब्दविन्यास और वर्णनक्रम आश्चर्यजनक है। कथा का आधार द्वितीय स्तम्भ में धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू की कथाओं का आधार बतलाते हुए दोनों के आख्यान दिये गये हैं। धर्मशर्माभ्युदय का आख्यान भरतक्षेत्र के उत्तर कोशलदेश में राजा महासेन रहते थे। उनकी रानी का नाम सुनता था । पति-पत्नी में अगाध प्रेम था । अवस्था दल गयी परन्तु सन्तान उत्पन्न Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हुई। दम्पती का मन उत्कण्ठित होने लगा । प्रचेतस् मुनि ने राजा को बताया कि तुम्हारे यहाँ तीर्थंकर धर्मनाथ का जन्म होनेवाला है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने धर्मनाथ के पूर्वभवों का वर्णन किया । समय आने पर रानी सुव्रता ने धर्मनाथ को जन्म दिया । सर्वत्र आनन्द छा गया। देवों ने जन्मकल्याणक का उत्सव किया। इस प्रकरण में सुमेरु पर्वत, देवसेना तथा क्षीरसमुद्र का उत्तम वर्णन हुआ है। धर्मनाथ तोर्थंकर ने बाल्यकाल को व्यतीत कर ज्यों हो यौवन अवस्था में पदार्पण किया त्यों हो उनके शरीर की आभा दिन दूनी रात चौगुनी विस्तृत होने लगी । विदर्भदेश के राजा प्रतापराज ने अपनी पुत्री श्रृंगारवती के स्वयंवर में युवराज धर्मनाथ को आमन्त्रित करने के लिए दूत भेजा। पिता की आज्ञानुसार युवराज धर्मनाथ ने विदर्भदेश के लिए प्रस्थान किया । इस सन्दर्भ में कवि ने गंगा नदी का और दशम सर्ग में विन्ध्याचल का नाना छन्दों में वर्णन किया है। ऋतुचक्र, वनक्रीड़ा, पुष्पात्रषय, जलक्रीड़ा, चन्द्रोदय, मधुपान, सुरसगोष्ठी तथा प्रभात आदि काव्य के विविध अंगों का अलंकार पूर्ण भाषा में विषम किया है। दिव युवराज की बड़े सम्मान के साथ अगवानी की। स्वयंवर में अनेक राजकुमार एकत्रित हुए। सखियों के साथ श्रृंगारवती ने स्वयंवर - मण्डप में प्रवेश किया । सखी ने सब राजकुमारों का वर्णन किया । अन्त में शृंगारवती ने मुवराज धर्मनाथ के गले में वर-माला अल दी। युवराज ने वैभव के साथ राजभवन में प्रवेश किया। वर-वधू को देखने के लिए नारियों के हृदय उत्कण्ठा से भर गये । विधिपूर्वक विवाह संस्कार हुआ। इसी बीच पिता महासेन का पत्र पाकर धर्मनाथ पत्नी सहित विमान द्वारा घर चले गये । कुछ असहिष्णु राजकुमारों ने सुषेण सेनापति का प्रतिरोध किया परन्तु मे बुरी तरह पराजित हुए । धर्मनाथ संसार से विरक्त दीक्षा कल्याणक का उत्सव बहुत समय तक राज्य करने के बाद उल्कापात देख हो तपश्चर्या करने के लिए उद्यत हुए। देवों ने उनके किया । कुछ समय बाद उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और वे चराचर विश्व के ज्ञाता हो गये । समवसरण की रचना हुई। उसमें स्थित होकर दिव्यव्त्रनि के द्वारा उन्होंने तस्वोपदेश दिया । अन्त में वे सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त हुए । जीवन्धरचम्पू का आख्यान राजपुर नगर में राजा सत्यन्धर रहते थे । उनकी रानी का नाम विजया था । राजा सत्यन्धर, विषयासक्ति के कारण, राज्य का भार काष्ठांगार को सौंपकर अन्तःपुर में रहने लगे। रानी विजया ने गर्भ धारण क्रिया । जब प्रसन का समय आया तब कांगार ने राजद्रोह वश राजा सत्यन्धर को सेना से घेरकर मार डाला। युद्ध में जाने के पूर्व सत्यन्धर ने एक मयूरयन्त्र के द्वारा गर्भवती विजया को आकाश में उड़ा दिया । ፡ : Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्यकाल में वह मयूरयन्त्र राजपुर के श्मशान में उतरा । वहीं घनघोर अन्धकार के बीच रानी ने कथा-नायक जीवन्धर को जन्म दिया। एक देवी ने चम्पकमाला दासी के वेष में आकर रानी की परिचर्या की। सद्योजात पुत्र को नगर का गन्धोत्कट सेठ ले गया। उसने अच्छी तरह उसका पालनपोषण किया । रानी विजया दण्डकवन में एक तापसी के वेष में रहने लगी । जीवन्धर ने विद्याध्ययन किया । आर्यनन्दी गुरु ने उनकी अन्तरात्मा को उत्तम संस्कारों से सुसंस्कृत विया। गन्धर्वदत्ता तथा गुणमाला के साथ उनका विवाह हुआ। झाष्ठांगार उनकी प्रभुता से मन ही मन खीझता था। एक बार उसने जल्लादों को आदेश दिया कि इसे जान से मार दें। जल्लाद श्मशान में ले गये परन्तु जीवन्धर कुमार के द्वारा उपकृत सुदर्शन यक्ष उन्हें आकाश-मार्ग से अपने स्थान पर ले गया और बड़े सम्मान के साथ उनकी सेवा करने लगा। कुछ समय बाद तीर्थयात्राके उद्देश्य से जीवन्धर कुमार यत्र-तत्र भ्रमण करते रहे । इस सन्दर्भ में उनके कई विवाह हुए । अन्म से ही बिछुड़ी माता विजया के साथ उनका मिलन हुआ । एक वर्ष बाद वैभव के साथ वे राजपुर वापस आये। वहाँ दो कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। अन्त में मन्त्रणा के उद्देश्य से अपने मामा गोविन्दराज से मिलने के लिए विदर्भदेश गये और गुप्त मन्त्रणा कर गोविन्दराज के साथ राजपुर वापस आये। यहाँ लक्ष्मणा के स्वयंवर में चक्र वेषकर उसके साथ विवाह किया और काष्ठांमार के साथ युद्ध कर उसे समाप्त किया। अपना राज्य पाकर में प्रमुदित हुए। सुदर्शन यक्ष ने जीवन्धर स्वामी का राज्याभिषेक किया। उन्होंने बारह वर्ष के लिए पृथिवी का लगान छोड़ दिया। प्रजा का जीवन मानन्द से व्यतीत होने लगा। अनन्तर संसार से विरक्त हो उन्होंने दीक्षा धारण की और तपश्चर्या कर राजगही के पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया। ___ इस प्रबन्ध में उनका आख्यान उत्तरपुराण के अनुसार दिया गया है और टिप्पण में अन्य ग्रन्थों के तुलनात्मक टिप्पण देकर उसकी विशेषता सिद्ध की गयी है। द्वितीयाध्याय द्वितीयाध्याय के प्रथम स्तम्भ का नाम साहित्यिक सुषमा है । इसके अन्तर्गत सर्वप्रथम धर्मशर्माभ्युदय की काव्य-पीठिका का परिचय देने के अनन्तर उसके कान्यवैभव का प्रदर्शन किया गया है । इस वैभव के प्रदर्शन में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, श्लेष, परिसंख्या, अर्थान्तरम्यास, भ्रान्तिमान् और दीपक मावि अलंकारों के महाकाव्यगत उदाहरण देकर सिद्ध किया गया है कि यह महाकाव्य साहित्यिक सुषमा से अत्यन्त सुशोभित है । अलंकार ही नहीं, घ्यनि की सुषमा भी इसकी शोभा बढ़ा रही है। इसके अनन्तर 'जीवन्धरचम्मू की काव्यकला' तथा 'जीवन्धरचम्पू का [२] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्प्रेक्षालोक' हम पो सन्दर्भ लेखों के द्वारा जीवघरचम्मू की काव्यकला और उसकी उत्प्रेक्षारूप लम्बी-लम्बी उड़ानों का दिग्दर्शन कराया गया है। दोनों ही लेखों में काध्यगत अनेक उदाहरण सानुवाद प्रस्तुत किये गये हैं। जोवन्धरसम्पू की गद्य भी अपनी निराली छटा रखता है। इसे देख, ऐसा लगता है कि महाकवि हरिचन्द्र के हवय में न जाने कितने असंख्य शब्दों का भाण्डार भरा हआ है। रस के अनुरूप पादों का विम्यास करना इनके गय की विशेषता है। रस, काव्य की आत्मा है अतः उसके परिपाक की ओर कवि का ध्यान जाना भावश्यक है। दोनों ही ग्रन्थों में कवि ने श्रृंगार के दोनों भेद, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, अद्वत, बीभत्स और शान्त इन नौ रसों का यथावसर अच्छा वर्णन किया है। जिस रस से काम्य का समारोष होता है वह अंगी रस कहलाता है । इस दृष्टि से दोनों ही काव्यों का अंगी रस शाम्त रस है परन्तु विभिन्न अवसरों पर अंगभूत रसों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है । अनुष्टुप् छन्द तथा चित्रालंकार की विवशता के कारण यपि धर्मशर्माभ्युदय में वीररस का परिपाक अच्छा नहीं हो पाया है तथापि जीवन्धरचम्पू में यह सब परतन्त्रता न होने से वीररस का परिपाक पराकाष्ठा को प्राप्त हुमा है। उसके वशम लम्भ सम्बन्धी ३. गहलों में युद्ध का वह वर्णन है जिसमें वीररम अअस गति से प्रवाहित हुआ है । रस, अलंकार, गुण और रीति के समान छन्द भी काव्य के प्रधान अंग है। लिखते हुए गौरव होता है कि दोनों ही ग्रन्थों में रसानुरूप प्रायः समस्त प्रसिद्ध छन्दों का प्रयोग किया गया है। इस सन्दर्भ में दोनों ग्रन्थों के समस्त श्लोकों के छन्दों की छानबीन की गयी है । क्षेमेन्द्र के सुवृत्ततिलक के अनुगार ही इन काव्यों में छन्दों का प्रयोग हुआ है । आदान-प्रदान इस स्तम्भ के अन्तर्गत सर्बप्रथम बताया गया है कि 'जीवन्धरचरित' को उपजीव्य बनाकर संस्कृत, अपभ्रंश, कर्णाटक, तमिल तथा हिन्दी आदि में कितनं कान्य उपजीवित हुए हैं उनका उल्लेख किया गया है । प्रत्येक कवि अपने से पूर्ववर्ती कवियों के काव्यों से कुछ ग्रहण करता है तो आगे आनेवाले कवियों के लिए विरासत के रूप में बहुत कुछ दे जाता है । इस सन्दर्भ में विविध उद्धरणों को उद्धृत कर यह सिद्ध क्रिया है कि महाकवि हरिचन्द्र ने कालिदास, भारवि, माण, दण्डी, माघ तथा बीरनम्दी आदि फत्रियों से क्या ग्रहण किया है तथा श्रीहर्ष और अहंदास आदि कवियों के लिए क्या दिया है। ___ "शिशुपालबध और धर्मशर्माभ्युदय' तथा 'चन्द्रप्रभचरित और धर्मशभियुवय' इन प्रकरणों में धोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन कर यह प्रकट किया गया है कि किससे किसने क्या लिया है। दोनों में कितना सादृश्य और कितनी हीनाधिकता है। वस्तुतः ये समीक्षात्मक लेख इस स्तम्भ के महत्त्वपूर्ण अंग बन गये हैं । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयाध्याय तीर्थकर तृतीयाध्याय में १. सिद्धान्त, २. वर्णन और ३, प्रकृति-निरूपण ये सीन स्तम्भ रखे गये हैं । प्रथम स्तम्भ में तीर्थकर वैसे हुआ जाता है इसका दिग्दर्शन कराने के लिए दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का वर्णन किया गया है। इस समय 'वत्त्वार्थसूत्र' आदि ग्रन्थों में जिन दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का वर्णन उपलब्ध है, उनका मूल स्रोत क्या है यह बताने के लिए षट्खण्डागम के सूत्रों की छानबीन की गयी है तथा उनके उद्धरण देकर दोनों की तुलना को गयी है ! इस सबका वर्णन तीर्थकर की पृष्ठभूमि शीर्षक से किया है। जैन सिद्धान्त और जैनाचार भगवान् धर्मनाथ ने सर्वज्ञ होने के बाद जो तस्योपदेश दिया था उसका कुछ विस्तार से वर्णन किया गया है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । इन सभी का अच्छा वर्णन इस सन्दर्भ में किया गया है। जीवन्धरचम्पू के भी विभिन्न प्रकरणों में जैनाचार-थावक के कर्वव्यों का अच्छा निदर्शन प्राप्त है अतः उसका भी सप्रमाण संकलन किया गया है। चार्वाक-दहन धर्मशर्माभ्युदय के चतुर्थ सर्ग में चार्वाक दर्शन का पूर्वपक्ष और उत्तर-पक्ष के द्वारा समीचीन दिग्दर्शन कराया गया है। काच्य में दर्शन जैसा नीरस विषय भी सरस हो गया है यह महाकवि की काव्यप्रतिमा का ही महत्त्व मानना चाहिए। चार्वाक-दर्शन आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत नहीं करता है अतः उसमें परलोक सापक तपश्चरणादि क्रियाओं को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है परन्तु कवि ने सुयुक्तियों के द्वारा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध कर तपश्चरणादि क्रियाओं को सार्थकता सिद्ध को है। देश और नगर वर्णन द्वितीय स्तम्भ में देश, नगर, नारी-सौन्दर्य, नेपथ्यरचना, राजा, देवसेना, सुमेरु पर्वत, क्षीरसमुद्र तथा विन्ध्याचल का वर्णन पृथक्-पृथक् लेखों के द्वारा किया मया है । धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्प इन दोनों ही अन्यों में देश और नगर का वर्णन करने के लिए कवि ने जिस अलंकार-विच्छित्ति का दर्शन कराया है वह अन्यत्र दुर्लभ है । इस प्रसंग में अनेक उद्धरण देकर उपर्युक्त तथ्य को सिद्ध किया है। नारी-सौन्दर्य नारी प्रारम्भ से ही संसार के आकर्षण का केन्द्र रही है, अत: कवियों ने, कलाकारों ने तथा चित्रकारों ने उसे अपनी रचना का लक्ष्य बनाया है। महाकवि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिचन्द्र ने दोनों ही काव्यों में नारी के सौन्दर्य का वर्णन जिस खूबी से किया है वह उनकी काव्य-प्रतिभा को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है। इस स्तम्भ में सुव्रता और गन्धर्वदत्त के नखशिख वर्णन सम्बन्धी अनेक पद्य उद्धृत कर उल्लिखित सत्य की पुष्टि की गयी है । राजा , राजा, संसार के सात परम स्थानों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । शिष्टानुग्रह और दुष्टनिप्रद राजा के प्रमुख कार्य हैं। साम, दाम, दण्ड और भेद- इन चार उपायों तथा सन्धि विग्रह, यान आदि छह गुणों का धारक होना, राजा के लिए आवश्यक है । राजा के इन सब गुणों का वर्णन दोनों ग्रन्थों में अच्छी तरह किया गया है। धर्मशर्माभ्युदय में राजा महासेन और राजा दशरथ का तथा जीवन्धरचम्पू में राजा सत्यन्वर का वर्णन साहित्यिक और राजनीतिक विधाओं से परिपूर्ण है । देवसेना भगवान् धर्मनाथ का जन्माभिषेक करने के लिए सोधर्मेन्द्र, अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ सुमेरु पर्वत पर गया है। वहाँ हाथी, घोड़े, रथ और पयादे इन चारों अंगों का अच्छा वर्णन हुआ है । स्वभावोक्ति अलंकार ने कवि की तुलिका के द्वारा अंकित रेखाचित्रों में रंग भरने का काम किया है । सुमेरु वसुधा के समान धरातल से एक लाख योजन ऊँचे सुमेरु पर्वत के पाण्डुकवन में स्थित पाण्डुक शिला पर तीर्थंकर का जन्माभिषेक होता है। इस प्रसंग में सुमेरु पर्वत का वर्णन आया है । कवि ने श्लेष, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा नादि अलंकारों के द्वारा उसका सुन्दर वर्णन किया है । क्षीर सागर देवों को पंक्तियाँ अभिषेक का जल लेने के लिए क्षीरसमुद्र गयी हैं। इस सन्दर्भ में क्षीरसमुद्र के वर्णन का प्रसंग आया हूँ । मालिनी छन्द में लहराते हुए समुद्र का वर्णन बड़ा मनोरम जान पड़ता है। ऐसा लगता है मानो कवि की उत्प्रेक्षाएं पाठक के मन को अन्तरिक्ष में उड़ा ले जा रही हैं । विन्ध्यगिरि विदर्भदेश को जाते समय सुवराज धर्मनाथ ने विन्ध्याचल पर निवास किया या । इसी सभ्दर्भ में उसका वर्णन आया है। 'नानावृत्तमयः कश्चित् सर्गः ' इस सिद्धान्त के अनुसार कवि ने उसका नाना वृत्तों - छन्दों में वर्णन किया है । अर्थालंकार तो है ही पर यमक नामक शब्दालंकार भी यहाँ अपनी अद्भुत छटा दिखला रहा है । I ३२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति-निरूपण तृतीय स्तम्भ में प्रकृति-निरूपण की चर्चा की गयी है । ऋतुचक्र धर्मशर्माभ्युदय के ११वें सर्ग में द्रुतविलम्बित छन्द के द्वारा वसन्त आदि छह ऋतुओं का बड़ा सुन्दर वर्णन हुषा है। नार्म साल में feem एक पल का है मन को लुभा लेता है। जीवन्धरचम्पू के चतुर्थ प्लम्भ में आया हुया वसन्त ऋतु का वर्णन भी अपने आपमें परिपूर्ण है । तपोवन तीर्थयात्रा के प्रसंग में जीवन्धर स्वामी ने तपोवन में विश्राम किया है । इस प्रसंग में तपोवन में पाये जानेवाले विविध अंगों का वर्णन कवि ने अपनी स्वाभाविक वाग्धारा में किया है। यहां अलंकार की विच्छित्ति नहीं है किन्तु परमार्थ का प्रशान्त वर्णन है । जटाधारी साधु, वन्य पशुओं का निर्भय विचरण और मुनि बालिकाओं की सदयवृत्ति को देखकर मोही मानव' एक बार कुछ विचार करने के लिए उद्यत हो जीवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन . जीवन्धरचम्पू के प्रकृति-वर्णन ने भवभूति के प्रकृति-वर्णन को निष्प्रभ-सा कर दिया है । जीवन्धर स्वामी ने घनघोर अरवियों में एकाकी भ्रमण किया है । वहां उन्होंने दावानल में रुके हुए हाथियों के झुण्ड देखे हैं। गरजते और बरसते हुए मेत्र देखे है। कल-कल करते हुए पहाड़ी निर्झर और रंग-बिरंगे फूलों से सुशोभित वन की वसुन्धरा को भी देखा है। सूर्यास्तमन आदि का वर्णन थर्मश म्युदय में सूर्यास्त, तिमिर-प्रसार और चन्द्रोदय आदि का वर्णन कवि ने जिस अलंकारपूर्ण भाषा में किया है उसे देख सहृदय पाठक का हृदय बाँसों उछलने लगता है। इस सन्दर्भ में अनेक पद्य उद्धृत कर कवि को प्रतिभा का दिग्दर्शन कराया गया है। प्रभात-वर्णन - संस्कृत साहित्य में शिशुपाल का प्रभात-वर्णन प्रसिद्ध है पर जब हम धर्मशर्माभ्युदय के प्रभात-वर्णन को देखते हैं तब वह निष्प्रभ दिखाई देने लगता है। शिशुपाल में यत्र-तत्र अश्लीलता के भी दर्शन होते है पर धर्मशर्माभ्युदय में शालीनता का पूर्ण ध्यान रखा गया है। १३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थाध्याय मनोरंजन __ चतुर्थ अध्याय के पांच स्तम्भ हैं। उनमें से प्रथम स्तम्भ में मनोरंजन का निदर्शन कराते हुए पुष्पावश्चय और जलक्रीड़ा का वर्णन किया गया है। पुष्पावचय में स्त्रियों की सरलता और पुरुषों की बंधकता का अच्छा चित्रण हुआ है । जलक्रीड़ा भी कौतुक बनानेवाली है। इस सन्दर्भ में शिशुपालवत्र, धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरसम्पू के विविध उद्धरण देकर उनकी समीक्षा की गयी है। प्रकीर्णक निर्देश वित्तीय स्तम्भ में शिशुवर्णन, प्रयोधगीत, स्वयंकर-वर्णन, पम्त्रग्रहण और जरा का अद्भुत वर्णन, सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निन्दा, पुत्र के अभाव में होनेवाली विफलता और तीर्थकर की जननी-सुव्रता द्वारा स्वप्न-दर्शन इन सबका पृथक-पृथक् लेखों में वर्णन है । धर्मशर्माभ्युदय का स्वयंवर-वर्णन रघुवंश के स्वयंवर-वर्णन से प्रभावित है, इसका उद्धरणों द्वारा समर्थन किया गया है। जीवन्धरा का प्रयोधगीत भी रघुवंश के प्रबोधगीत का अनुसरण करता है, यह बतलाया गया है। पुत्र के अभाव में होनेवाली विकलता का वर्णन करते समय चन्द्रप्रभ में प्रतिपादित विकलता का भी वर्णन किया गया है । इस स्तम्भ में चन्द्रग्रहण तथा जरा के अद्भत वर्णन पर प्रकाश डालते हुए उस प्रकरण के अनेक श्लोक उद्धृत किये गये है। नीतिनिकुंज नीदिनिकुंज नामक तृतीय स्तम्भ में दोनों ही ग्रन्थों में आये हुए सुभाषितों का पृथक-पृथक् संग्रह किया गया है। सुभाषित, उस प्रकाश स्तम्भ के समान है जो पथभ्रान्त पुरुषों को सही मार्ग पर लगाया करते हैं 1 अप्रस्तुत-प्रशंसा अथवा अर्थान्तरन्यास के रूप में अनेक सुभाषित इन ग्रन्थों में अवतीर्ण हुए हैं। सुभाषितों के अतिरिक्त धर्मशर्माभ्युदय में राजा महासेन के द्वारा युवराज धर्मनाथ के लिए जो नीति का उपदेश और राज्य शासन का दिग्दर्शन कराया गया है वह बाण के शुकनासोपदेश का स्मरण कराता है। इस सन्दर्भ में चन्द्रप्रभचरित के नीत्यूपवेश का भी उल्लेख हुआ है। भक्तहृदय जीवन्धरकुमार ने तीर्थयात्रा के प्रसंग में जहां-तहाँ जिनेन्द्र भगवान् की जो स्तुति की है उसका 'भक्तिगंगा' नाम से निदर्शन किया गया है। सामाजिक दशा और युद्ध निदर्शन इस स्तम्भ में जीवन्धरचम्पू से प्रतिफलित होनेवाली सामाजिक वशा का वर्णन करते हुए वैवाहिक, परिधान, राजनयिक, युद्ध और वाहन, शैक्षणिक, यातायात और धार्मिक व्यवस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। धर्मशर्माभ्युदय तथा जीवन्धरसम्पू के Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युश-वर्णन की भी विशद चर्चा की गयी है। इस सम्दर्भ में शिशुपालवध, किरातार्जुनीय तथा चन्द्रप्रभचरित के युद्ध-वर्णन की भी समीक्षा की गयी है। भौगोलिक निर्देश और उपसंहार पंचम स्तम्भ में रत्नपुर, हेमार्गद देश तथा जीवन्धर स्वामी के भ्रमण-क्षेत्र में आये हुए स्थानों का परिचय प्राप्त करने का प्रयल किया गया है। यह सिद्ध किया गया है कि रत्नपुर, बिहार प्रान्त के पटना का निकटवर्ती कोई नगर रहा है और हेमांगद देश, मैसूर प्रान्त के अन्तर्गत कोई मण्डल रहा है। इसी स्तम्भ में धर्मशर्माभ्युदय के संस्कृत टीकाकार यशस्कीति के जीवन परिचय पर विचार किया गया है। अन्त में धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू के अनुशीलन भा में लिखे हुए दोन हात मिल गया है । परिशिष्ट परिशिष्ट में ४४ सहायक ग्रन्थ और अन्धकारों की सूची दी गयी है। प्रस्तावना में काव्य-विषा के उद्धरण देकर मैं शोध-प्रबन्ध को पुनरुक्त नहीं करना चाहता है। इस शोध-प्रबन्ध के लिखने में थीमान् डॉ. रामको उपाध्याय एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट्, अध्यक्ष संस्कृत विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर ने पूर्ण सहयोग दिया है। उन्होंने प्रबन्ध को बड़े मनोयोग से देखा है तथा आवश्यक परिवर्तन और परिवर्धन कराया है । उनकी इस कृपा के लिए मैं आभारी हूँ । सागर विश्वविद्यालय ने इस प्रबन्ध को स्वीकृत कर महाकवि के ग्रन्थ-रत्नों से साहित्यिक क्षेत्र को अवगत कराया, इसकी प्रसन्नता है। __ भारतीय ज्ञानपीठ के माध्यम से इस प्रबन्ध का प्रकाशन हो रहा है इसके लिए मैं उसके संचालकों, प्रमुख रूप से उसके मन्त्री श्री बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी एम. ए. का अत्यन्त आभारी है जिनकी उदार कृपा से ही इसका प्रकाशन हो रहा है। प्रबन्ध के लिखने में जिन ४४ ग्रन्थ तथा प्रन्थकारों का सहयोग प्राम हुआ है उनके प्रति नम्र श्रद्धाभाव प्रकट करता हुआ त्रुटियों के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। विनीत सागर १अगस्त १९७५ पन्नालाल साहित्याचार्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची प्रथम अध्याय स्तम्भ १: आधारभूमि ३-२० १. काव्यधारा, २. महाकवि हरिचन्द्र-व्यक्तित्व और कृतित्व, ३. अम्युदयनामान्त काश्यों की परम्परा, ४. महाकाव्य-परिभाषानुसम्पान। स्तम्भ २: कथा ..... २१-४३ ५. धर्मशर्माभ्युदय की कथा का आधार, ६. जीवन्धरचम्पू की कथा का आधार, ७. धर्मशर्माभ्युदय का आख्यान, ८. जीवन्धरचरित का तुलनात्मक अध्ययन, १. जीवम्बरचम्पू के प्रमुख पात्रों का चरित्रचित्रण । द्वितीय अध्याय स्तम्भ १ : साहित्यिक सुषमा १०. धर्मशर्माम्युदय की काव्य-पीटिका, ११. धर्मशर्माभ्युदय का काव्य-वैभव, १२. जीवन्धरचम्पू को काव्यकला, १३. जीवन्धरचम्म का उत्प्रेक्षा-लोक, १४. धर्मशर्माभ्युदय का रस-परिपाक, १५, जीवन्धरचम्पू का रस-प्रवाह, १६. जीवधरचम्पू का विप्रलम्भ श्रृंगार और प्रणय-पत्र, १७. जीवन्धरचम्पू में शान्त रस की पावन धारा, १८. धर्मशर्माभ्युदय में छन्दों की रसानुगुणता, १९. जीवन्धरचम्पू में छन्दोयोजना। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ २ : आदान-प्रदान .... ८७-१०१ २०. जीवन्धरचरित की उपजीव्यता, २१. उपजीच्य और उपजीवित, २२. शिशुपालवध और धर्मशर्माभ्युदय, २३. चन्द्रप्रभचरित और धर्मशर्माभ्युदय । तृतीय अध्याय स्तम्भ १ : सिद्धान्त ... १०५-११८ २४. तीर्थंकर की पृष्ठभूमि, २५. धर्मशर्माभ्युदय में जैन-सिद्धान्त, २६. जीवन्धरचम्पू में जैनाचार, २७. धर्मशर्माभ्युदय में चार्वाक दर्शन और उसका निराकरण । स्तम्भ २: वर्णन २८. धर्मशर्माभ्युदय में देश और नगर-वर्णन, २९. जीवन्धरचम्मू का नगरी-वर्णन, ३०, धर्मशर्माभ्युदय का नारी-सौन्दर्य, ३१. जीवन्धरपम्पू में नारी-सौन्दर्य का वर्णन, ३२. जीवन्धरचम्पू की नेपथ्य-रचना, ३३, राजा, ३४. देवसेना, ३५. सुमेरु, ३६, क्षीरसमुद्र, ३७. वियगिरि । स्तम्भ ३: प्रकृति-निरूपण ३८. धर्मशर्माभ्युदय का ऋतुचक्र, ३९. जीवन्धरचम्पू का तपोवन, ४०. जीवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन, ४१. सूर्यास्तमन, तिमिरोद्गति, अन्धोदय, पानगोष्ठी आदि, ४२. धर्मशर्माम्युदय का प्रभात-वर्णन । चतुर्थ अध्याय स्तम्भ १ : आमोद-निदर्शन ( मनोरंजन ) .... १५२-१६७ ४३, धर्मशर्माभ्युदय में पुरुषावचय और जलक्रीड़ा, ४४. जीवन्धरचम्पू का वसन्त-यभव। स्तम्भ २: प्रकीर्णक निर्देश ... १६८-१८३ ४५. जीवधरचभ्यू में शिशु-वर्णन, ४६, जीबम्परचम्पू का प्रबोध-गीत, ४७. धर्मशर्मास्युदय का स्वयंवर वर्णन, ४८. चन्द्रग्रहण और जरा का अद्भुत वर्णन, ४९, सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन-निन्दा, ५०. पुत्राभाववेदना, ५१. स्वप्नदर्शन। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ ३ : नीति-निकुंज .... १८४-१९१ ५२. धर्मशर्माभ्युदय का सुभाषितनिचय, ५२. धर्मशर्माम्युदम का नीत्युपदेश और राज्य शासन, ५४. जीवन्धरचम्पू का सुभाषितसंचय, ५५. जीवन्धर स्वामी की भक्तिगंगा । स्तम्भ ४ : सामाजिक दशा और युद्ध-निदर्शन .... १९२-२०१ ५६. जीयम्घर घम्पू से ध्यनित सामाजिक स्थिति, ५७, धर्मश म्युदय का युद्धवर्णन और चित्रालंकार, ५८, जीवन्धरचम्मू का युद्धनिरूपण । स्तम्भ ५ : भौगोलिक निर्देश और उपसंहार .... २०२-२०७ ५९. धर्मशर्माभ्युदय का रत्नपुर, ६०, जीवन्धर का हेमांगद देश और उनका भ्रमण क्षेत्र, ६१. धर्मशर्माभ्युदय के संस्कृत-टीकाकार, ६२, उपसंहार, ६३. अन्स्यनिवेदनम् । परिशिष्ट सहायक ग्रन्थ सूची .... २०८-२१० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि वरिचन्द्र: एक अनुशीलन Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय स्तम्भ १: आधारभूमि १. काव्यधारा २. महाकवि हरिचन्द्र-व्यक्तित्व और कृतित्व ३. अभ्युदयनामान्त काव्यों की परम्परा ४. महाकाव्य--परिभाषानुसन्धान स्तम्भ २ कथा ५. धर्मशर्माभ्युदय की कथा का आधार ६. जीवन्धरचम्पू की कथा का आधार ७ धर्मशर्माभ्युदय का आख्यान ८. चरित मुल.. ९. जीवन्धरचम्पू के प्रमुख पात्रों का चरित्र-चित्रण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ १ : आधारभूमि काव्यधारा पद्यकाव्य अब्यकाव्य के पद्य, गद्य और चम्पू इन तीन भेदों में पद्यकाव्य अत्यन्त विस्तुत है। भगवती शारदा ने वैदिक दुरूह गीतों की कारा से मुक्ति पाकर ज्योंही कवियों की कमनीय कल्पनाओं से ओतप्रोत काव्यकाल में पदार्पण किया त्योंही भास, कालिदास, अश्वघोष, भारवि, भवभूति, माघ, हरिचन्द्र, वीरनन्दी और श्रीहर्ष आदि कवियों ने विविध ग्रन्थ रूप पारिजात-पुष्पों से उनकी परण-वन्दना की। यही कारण है कि संस्कृत का पद्य-साहित्य-रूप उपवन आज भी विविध प्रबन्ध-पादपों से हरा-भरा है। पद्य शब्द को निष्पत्ति 'पद गो' धातु से हुई है। उसकी निरुक्ति है 'पत्तुं योग्य पद्यम्' अर्थात् जो गतिशील हो वह पद्य कहलाता है। वस्तुतः पद्य कितना गतिशील है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। संस्कृत साहित्य ही नहीं, विश्व का समस्त साहित्य आज पद्यरचना से प्रभावित है। गद्यकाव्य 'गदितुं योग्यं गद्यम्' इस निरुक्ति से गहा शब्द की निष्पत्ति 'गद व्यक्तायां वाचि' धातु से होती है और उसका अर्थ होता है स्पष्ट कहने के योग्य । तात्पर्य यह है कि मनुष्य, जिसके द्वारा अपना अभिप्राय स्पष्ट कह सके वह गद्य है। पश्य की मात्राओं और गणों की परतन्त्रता में मनुष्म ऐसा जकड़ जाता है कि खुलकर पूरी बात कहने को उसमें सामर्थ्य ही नहीं रहती। कर्ता, कर्म, क्रिया और उसके विशेषणों का जो स्वाभाविक क्रम होता है वह भी पद्य में समाप्त हो जाता है। कर्ता कहीं पड़ा है, कर्म कहीं है, क्रिया कहीं है और उनके वियोषण कहीं है। बिना अन्त्रय की योजना किये पद्य का अयं लगाना भी कठिन हो जाता है परन्तु गद्य में यह असंगति नहीं रहती। हृदय यह स्वीकृत करना चाहता है कि भाषा में गद्य प्राचीन है और पद्य अर्वाचीन । शिशु के मुख में जब वाणी का सर्वप्रथम स्रोत फूटता है तब वह गध-रूप में ही फूटता है । पद्म' का प्रवाह प्रबुद्ध होने पर जिस किसी के मुख से ही फूट पाता है सबके नहीं। पद्य-साहित्य की इतनी प्रचुरता और लोकप्रियता के होने पर भी गद्य-साहित्य ही स्थिर ज्योति-स्तम्भ के समान कल्पनाओं के अन्तरिक्ष में उड़नेवाले कवियों को मार्ग आधारभूमि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन करा रहा है । विद्वानों के वैदुष्य की परख कविता से न होकर गद्य से ही होती देखी जाती है । अब भी संस्कृत साहित्य में यह उक्ति प्रचलित है- 'गद्यं कवीनां निकर्ष वदन्ति' अर्थात् गद्य-काव्य ही कवियों की कसौटी है । कवि के दुष्य की होनता, कविता-कामिनी के अंचल में सहज ही छिप सकती है पर गद्य में नहीं । कविता में छन्द की परतन्त्रता कवि की रक्षा के लिए उन्नत प्राचीर का काम देती है पर गद्य लेखक की रक्षा के लिए कोई प्राचीर नहीं रहती । गद्य साहित्य की विरलता में उसकी कठिनाई भी एक कारण हो सकती है। क्योंकि गद्य लिखने की क्षमता रखनेवाले विद्वान् अल्प ही होते आये है । यही कारण है कि संस्कृत-साहित्य में काव्य की शैली से गद्य लिखनेवाले लेखक अंगुलियों पर गणनीय हैं। यथा- वासवदत्ता के लेखक सुबन्धु, कादम्बरी और हर्षचरित के लेखक माण, दशकुमारचरित के लेखक दण्डी, गद्य चिन्तामणि के लेखक वायमसिंह, तिलक-मंजरी के लेखक धनपाल और शिवराजविजय के लेखक अम्बिकादत्त व्यास | चम्पू साहित्य के रूप में पद्यों के साथ गद्य लिखनेवाले लेखक इनको अपेक्षा कुछ अधिक हैं । गद्य की धारा सदा एक रूप में प्रवाहित नहीं होती, किन्तु रख के अनुरूप परिवर्तित होती रहती है । रौद्र अथवा वीर रस के प्रकरण में जहाँ हम गद्य की समाप्तबहुल गौड़ी - रीति प्रधान रचना देखते हैं वहीं शृंगार तथा शान्त आदि रसों के सन्दर्भ में उसे अल्प- समास से युक्त अथवा समास-रहित वैदर्भी रीतिप्रधान देखते हैं। संस्कृत गद्य साहित्य में बाण की कादम्बरी का जो बहुमान है यह उसकी रसानुरूप शैली के ही कारण है । नाटकों में गद्य का दीर्घ समालरहित रूप हो शोभा देता है । संस्कृतनाटकों में भवभूति के मालती - माधय और हस्तिमल्ल के विक्रान्त कौरव का गद्य नाट्यसाहित्य के अनुरूप नहीं प्रतीत होसा। जिस गद्य को सुनकर दर्शक को झटिति भावावबोध न हो वह नाटकोचित नहीं है । भास और कालिदास की भाषा नाटकों के सर्वथा अनुरूप है । चम्पू-काव्य 'गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते' इस लक्षण के अनुसार चम्पू-काव्य उस मिश्र काव्य का नाम है जिसमें गद्य और पद्य का मिश्रण रहता है। इस मिश्रण का समुचित विभाग यही प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा हो और वर्णनात्मक विषयों का वर्णन गद्य के द्वारा ही, परन्तु उपलब्ध चम्पू - काव्यों में इस विभाग की उपलब्धि कम होती है । चम्पू-काव्य, गद्य काव्य का ही प्रकारान्तर से संवर्धन प्रतीत होता है इसीलिए पश्चात् आता है। यही कारण है कि दशम अभी तक नहीं हुई है । यद्यपि गद्य और पद्य का मिश्रण वैदिक संहिताओं, विशेषकर कृष्ण यजुर्वेदीय संहिताओं में भी उपलब्ध इसका उदय काल गद्यकाव्य के सुवर्णयुग के शताब्दी से पूर्वरचित चम्पू की उपलब्धि महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुसीलन 8 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तथापि वह चम्पू का प्रकार नहीं माना जा सकता ! पद्य के साथ गद्य को मिश्रित करने की पत्ति विक्रम की द्वितीय शताब्दी में भी परिलक्षित होती है । आर्यसूर की 'जातकमाला' इसका सुन्दर दृष्टान्त है । हरिषेण को प्रयाग-प्रशस्ति में भी पद्य के साथ गद्य की समन्वित रचना पायी जाती है अतः इन्हें चम्पू-काश्य के पूर्व-रूप मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं जान पड़ती परन्तु काश्य के सम्पूर्ण लक्षणों से समन्वित भम्यूकाव्य का जो रूप आज उपलब्ध है वह उनमें नहीं है। ___लोगों की रुचि विभिन्न प्रकार की होती है, कुछ लोग तो गद्यकाव्य को अधिक चाहते हैं और कुछ पद्यकाव्य को अच्छा मानते हैं, पर चम्पकाव्य में दोनों का ध्यान रखा जाता है इसलिए वह राबको अपनी ओर आकर्षित करता है। महाकवि हरिचन्न ने जीवापान प्रारम हा भी ... गद्यावलिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् । हर्षप्रकर्ष तनुते मिलित्वा द्वाग् बाल्यतारुण्यवत्तीष कान्ता ॥ अर्थात् गद्यायली और पद्यायली-दोनों ही प्रमोद उत्पन्न करती हैं फिर हमारा यह काव्य तो दोनों से मुक्त है। अतः मेरी यह रचना बाल्य और तारुण्य अवस्था से मुक्त कान्ता के समान अस्पालाद उत्पन्न करेगी । संस्कृत का सर्वप्रथम उत्कृष्ट चम्पू, त्रिविक्रम भट्ट का नलचम्पू इसमें नल-दमयन्ती की कथा गुम्फित है। सात उच्छवासों में अन्य पूर्ण हुआ है। श्लेष, परिसंख्या आदि अलंकार पद-पद पर इसकी शोभा बड़ा रहे हैं । पदविन्यास इतना सरस और सुकुमार है कि कवि की कला के प्रति मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। इसी कवि की दूसरी रचना 'मदालसाचम्पू' भी है। यह कवि ई, ९१५ में हुआ है। इसका दूसरा नाम 'यमुना-निविक्रम' भी प्रसिद्ध है। यशस्तिलकचम्पू आचार्य सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू की रचना ९५९ ई. में हुई है। इस चम्भू में आवार्य ने कथा-भाग की रक्षा करते हुए कितना प्रमेय भर दिया है, यह देखते ही बनता है। इसके गद्य कादम्बरी से भी बढ़-चढ़कर है, कल्पना का उत्कर्ष अनुपम है, कथा का सौन्दर्य ग्रन्थ के प्रति आकर्षण उत्पन्न करता है । सोमदेव ने प्रारम्भ में ही लिखा है कि जिस प्रकार नीरस तण खानेवाली गाय से सरस दूध की धारा प्रवाहित होती है उसी प्रकार जीवनपर्यन्त न्याय-जैसे नीरस विषय में अवगाहन करनेवाले मुझसे यह काव्यसुधा की धारा बह रही है। इस ग्रन्थ-रूपी महासागर में अवगाहन करनेवाले विद्वान ही समझ सकते हैं कि आचार्य सोमदेव के हृदय में कितना अभाध वैदुष्य भरा है। उन्होंने एक स्थल पर स्वयं कहा है कि लोकवित्व और कवित्व में समस्त संसार सोमदेव का उच्छिष्ट भोजी है अर्थात् उनके द्वारा वर्णित वस्तु का ही वर्णन करनेवाला है । इस महामन्य में आठ समुच्छ्वास हैं। अन्त के तीन समुच्छ्वासों में सम्यग्दर्शन तथा आधारभूमि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकाध्ययनांग का विस्तृत और समयानुरूप वर्णन है । तृतीय समुच्छ्वास में राजनीति की विशद चर्चा है । आचार्य सोमदेव का नोतिवाक्यामृत नीतिशास्त्र का उत्तम ग्रन्थ है । इसके सूप, प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने कितने ही स्थलों पर उद्धृत किये हैं। इनका एक 'अध्यात्मामृततरंगिणी' ग्रन्थ भी है जिसकी रचना अत्यन्त प्रौड़ है। ग्रन्थ पद्यमय है । यह मेरे द्वारा सम्पादित और अनूदित होकर अहिंसा मन्दिर दिल्ली से प्रकाशित हो चुका है। जोवन्धरचम्पू यशस्तिलकचम्पू के पश्चात् महाकवि हरिचन्द्र का जीवन्धरचम्पू मिलता है । इसकी कथा वादीभसिंह की 'गद्मचिन्तामणि' अथवा 'क्षत्रचूडामणि' से ली गयी है। यद्यपि जीवन्धर स्वामी की कथा का मूल स्रोत गुणभद्र के उत्तर-पुराण में मिलता है तथापि चम्प में मूल कथा से नाम तथा कथानक सम्बन्धी भिन्नता है । इसमें प्रत्येक लम्भ की कथा-वस्तु तथा पात्रों के नाम आवि गद्यचिन्तामणि से मिलते-जुलते हैं । महाकवि के इस काव्य में भगवान महावीरस्वामी के समकालीन क्षत्रचूडामणि श्री जीवन्धरस्वामी की कथा गुम्फित की है। पूरी कथा अलौकिक घटनाओं से भरी है। जीवन्धरस्वामी का चरित्र-चित्रण' इतना उत्कृष्ट है कि उससे उनका क्षत्रचूडामणित्व अर्थात क्षत्रियों का शिरोमणिपना अनायास सिद्ध हो जाता है। इस काव्य की रचना में कवि ने विशेष कौशल दिखलाया है । अलेकार की पुट और कोमलकान्त-पदावली बरबस पाठक के मन को और आशष्ट संयो। सो वि को गिभर्गसद्ध प्रतिभा झलकती है, इसीलिए प्रकरणानुकूल अर्थ और अर्थानुकूल शब्दों के चयन में उसे अल्प भी प्रयत्न नहीं करना पड़ा है। कितने ही गद्य तो इतने कौतुकावह है कि उन्हें पढ़कर कवि की प्रतिमा का अलौकिक चमकार दृष्टिगोचर होने लगता है। नगरीवर्णन, राजवर्णन, राज्ञीवर्णन, चन्द्रोदय, सूर्योदय, वनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, युद्ध आदि काब्य के समस्त वर्णनीय विषयों को कवि ने यथास्थान इतना सजाकर रखा है कि देखते ही बनता है। गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि के समान इसमें भी ग्यारह लम्भ है । पुरुदेवचम्पू इसके पश्चात् चम्नू काव्यों में महाकवि अर्हहास के पुरुदेवचम्पू वा स्थान या नाम आता है । इसमें श्लेष, परिसंस्था तथा उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों को विच्छित्ति अपना प्रमुख स्थान रखती है। इसके दस स्तवकों में भगवान् ऋषभदेव तथा उनके पुत्र भरत और बाहुबली की कथा चचित है। आदि के तीन स्तवकों में भगवान् ऋपभदेव के पूर्वभवों का वर्णन है और उसके आगे के स्तवकों में उनकी पंचकल्याणकरूप कथा का १. भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित ( सम्पादन और संस्कृत हिन्दी टोका पन्नाला साहित्याचार्य)। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन किया गया है। वैसे तो इसके सभी स्तवक विशिष्ट कवि-प्रतिभा के परिचायक है पर धतुर्थ स्तवक से लेकर आगे के स्सवकों में कवि-प्रतिभा का बिशिष्ट दर्शन होता है। इसके रचयिता अहंदासजी तेरहवीं शती के अन्तिम भाग के विद्वान् है। इन्होंने अपने आपकी जन घामय के प्रसिद्ध विद्वान पं. आशापुरजी का शिष्य घोषित किया है। तदनन्तर भोजराज के 'चम्पूरामायण', अभिनव कालिदास के 'भागवतचम्पू', कवि कर्णपूर के 'आनन्दवृन्दावनचम्पू', जीव गोस्वामी के 'गोपालचम्पू, अनन्त कवि के 'चम्पूभारत', केशवभट्ट के 'नृसिंहचम्पू', रामनाथ के 'चन्द्रमोखरचम्पू', श्रीकृष्ण कवि के 'मन्दारमरन्दनम्पू' और पन्त विट्ठलदेव के 'गजेन्द्रसम्म आदि ग्रन्थ दृष्टि में आते हैं । आचार्य बलदेव उपाध्याय के उललेखानुसार एक सौ इक्तीस चम्पूकाव्यों के नाम तथा अस्तित्व का परिज्ञान होता है। जबकि डॉ. छविनाथ त्रिपाठी ने अपनी 'चम्पकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन' नामक कृति में २४५ चम्पूकाव्यों की सूची दी है। इनमें अधिकांश रचनाएँ अब भी अप्रकाशित है। इस अल्पकाय निबन्ध में समस्त नम्पुकाव्यों का परिचय दे सकना शक्य नहीं है, इसलिए कुछ प्रकाशित रचनाओं का परिचय व नाम देकर ही सन्तोष धारण किया है। इस प्रासंगिक भूमिका के अनन्तर महाकवि हरिचन्द और उनके ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाता है । महाकवि हरिचन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व महाकाव्यों में 'धर्मशर्माभ्युदय' और चम्धूकाव्यों में 'जीवन्धरचम्पू' प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं। धर्मशर्माम्युदय के प्रत्येक सर्ग के तथा जीवन्धरचम्पू के प्रत्येक लम्भ के अन्त में दिये हुए पुष्पिकाआक्यों से और धर्मशर्माभ्युदय के उन्नीसवे सर्ग फे ९८-९९ श्लोकों के द्वारा रचिल षोडशदल कमलबन्ध से सूचित 'हरिचन्द्रकृतं धर्मजिनपतिचरितम्' पद से तथा उसी सर्ग के १०१-१०२ श्लोकों से निमित चक्रवन्ध से निर्गत निम्नांकित आर्द्रदेवसुतेनेदं काव्यं धर्मबिनोवयम् । रचितं हरिचन्द्रेण परम रसमन्दिरम् ॥ श्लोक से सिद्ध होता है कि इन दोनों ग्रन्थों के रचयिता महाकवि हरिचन्द्र हैं। यह हरिचन्द्र कौन हैं ? किसके पुत्र हैं और इनके भाई का क्या नाम है ? इसका परिचय धर्मशर्माभ्युदय को प्रशस्ति से निकलता है। यधपि यह प्रशस्ति सम्पादन के लिए प्राप्त सब प्रतिमों में नहीं है, जैसे 'क' प्रति, जो संस्कृत टीका से युक्त है उसमें यह प्रशस्ति नहीं है। इससे संशय होता है कि यह प्रशस्ति महाकवि हरिचन्द्र के द्वारा रचित न हो, पीछे से किसी ने जोड़ दी हो किन्तु १५३५ विक्रम संवत् की लिखी ',' प्रति में यह मिलती है इससे इतना तो सिद्ध होता है कि यह प्रशस्ति यदि पीछे से किसी ने जोड़ो १. सास्कृत साहित्य का इतिहास । २. मह प्रति ऐलक पन्नालाल दिन सरस्वती भग्न बाई की है। ३. यह प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पुना को है। आधारभूमि Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो १५३५ संवत् से पूर्व ही जोड़ी है। अमके अतिरिक्त सपने पिता-'आवेद' का उल्लेख अन्यकर्ता ने स्वयं धर्मशर्माभ्युदय में किया ही है । प्रशस्ति के श्लोकों की भाषा, महाकवि की भाषा से मिलती-जुलती है अतः बहुत कुछ सम्भव यही है कि यह अन्यकर्ता की ही रचना है । प्रशस्ति इस प्रकार है श्रीमानमेयमहिमास्ति स नोमकानां' वंशः समस्तजगतीवलयावतंसः । हस्तावलम्बनमवाप्य यमुल्लसन्ती बुद्धापि न स्खलति दुर्गपर्थेषु लक्ष्मीः ।।१।। मुक्ताफलस्थित्तिरलंकृतिषु प्रसिद्ध स्लवादेव इति निर्मलमूर्तिरासीत् । कायस्थ एव निरवद्यगुणग्रहः स प्रेकोऽपि यः कुलमशेषमलंचकार ।।२।। लावण्याम्बुनिधिः कलाकुलगृह सौभाग्पसद्भाग्मयोः क्रीडावेश्म विलासवासवलभीभूषास्पदं संपदाम् । शौचाचारविधेकविस्मयमही प्राणप्रिया शूलिनः . शर्वाणीव पतित्रता प्रणयिनी रथ्येति तस्याभवत् ।।३।। अर्हत्पदाम्भोसहचञ्चरीकस्तयोः सुतः श्रीहरिचन्द्र आसीत् । गुरुप्रसादादमला बभूवुः सारस्वते स्रोलसि यस्य वाचः ॥४॥ भक्तेन शक्तेन च लक्ष्मणेन निर्याकुलो राम इवानुजेन । यः पारमासादितबुद्धिसेतुः शास्त्राम्बुराशेः परमाससाद ।।५।। पदार्थवैचियरहस्यसंपत्सर्वस्व-निर्वेशमयात्प्रसादात् । वाग्देवतायाः समवेवि सभ्यर्यः पश्चिमोऽपि प्रथमस्तनूजः ॥६॥ स कर्णपीयुषरसप्रवाह रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः । श्रीधर्मशर्माभ्युदयाभिधानं महाकविः काममिदं व्यधत्त ।।७।। एष्यत्यसारमपि काव्यमिदं मदीय मादेयतां जिनपतेरनर्घश्चरित्रः । पिण्डं मृदः स्वयमुदस्य नरा नरेन्द्र मुद्राङ्कितं किमु म मूर्धनि धारयन्ति ||८|| दक्षः साधु परीक्षितं नवनवोरलेखापणेनादराद् यतः कषपट्टिकासु शतशः प्राप्तप्रकर्षोदयम् । नानाङ्गिविचित्रभावघटनासौभाग्यशोभास्पद सम्नः काव्यसुवर्णमस्तु कृतिनां कर्णद्वयीभूषणम् ।।९।। १. मुइमिति के जैन मठ में स्थित २४ नम्बर की पुस्तक में नेत्रदाना' पाठ है। २. '' भति में येति' पाठ है। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुपीलम Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयानमिदं मतं शमयतु क्रूरानपीयं कृपा भारत्या सह पोलयत्वविरवं श्रीः साहचर्यदत्तम् । मात्सर्य गुणिषु त्यजन्तु पिशुनाः संतोषलीलाजुषः सन्तः सन्तु भवन्तु च श्रमविदः सर्वे कवीनां जनाः ।।१०।। प्रशस्ति का भाव यह है श्रीमान् तथा अपरिमित महिमा को धारण करनेवाला वह नोमक वंश या जो समस्त भूमण्डल का आभरण था। जिसका हस्तावलम्बन पा लक्ष्मी, वृद्ध होने पर भी दुर्गम मागों में कभी स्खलित नहीं होती ।।१1। उस नोमक वंश में निर्मल-मूर्ति के धारक वह आदेव हए जो अलंकारों में मुक्ताफल की तरह सुशोभित होते थे। वह कायस्थ थे, निर्दोष गुणग्राही थे, और एक होकर भी समस्त कुल को अलंकृत करते थे ॥२॥ उनके महादेव के पार्वती की तरह रथ्या नाम की वह प्राणप्रिया थी, जो सौन्दर्य की सिन्धु थी, कलाओं की फूलभवन श्री, सौभाग्य और उत्तम भाग्य को कोड़ाभवन थी, विलास के रहने की अट्टालिका थी, सम्पदाओं के आभूषण का स्थान थी, पवित्र आचार, विवेक और आश्चर्य की भूमि थी ।।३।। उन दोनों के अरहन्त मगवान् के चरण-कमलों का र विनाम का ना नि मर गुल्मों के प्रसाद से सरस्वती के प्रवाहशास्त्रों में निर्मल थे ||४|| वह हरिचन्द्र श्रीरामचन्द्रजी के समान भक्त तथा समर्थ लघु भाई लक्ष्मण के साथ निराकुल हो बुद्धिरूपी पुल को पाकर शास्त्ररूपी समुद्र के द्वितीय तट को प्राप्त हुआ था ।५।। पदार्थों की विचित्रता-रूप गुप्त सम्पत्ति के समर्पणस्वरूप सरस्वती के प्रसाद से सभ्यों ने उसे सरस्वती का अन्तिम पुत्र होने पर भी प्रथम पुत्र माना था ।।६।। जो रस-रूस इवनि के मार्ग का सार्थवाह था ऐसे उसी महाकवि ने कानों में अमृत-रस के प्रवाह के समान यह धर्मशर्माभ्युदय नाम का महाकाव्य रचा है ||७|| मेरा यह काव्य निःसार होने पर भी जिनेन्द्र भगवान के निर्दोष चरित्र से उपादेयता को प्राप्त होगा । क्या राजमुद्रा से अंकित मिट्टी के पिण्ड को लोग उठा खठाकर स्वयं मस्तक पर धारण नहीं करते ? ||८॥ समर्थ विद्वानों ने नये-नये उल्लेख अस्ति कर बड़े आदर के साथ जिसकी परीक्षा की है, जो विद्वानों के हृदय-रूप कसौटी के ऊपर सैकड़ों बार खरा उत्तरा है और जो विविध उक्तियों से विचित्र भाव की घटना रूप सौभाग्य का शोभाशाली स्थान है, ऐसा हमारा यह काव्यरूपी सुवर्ण विद्वानों के कर्णयुगल का आभूषण हो ।।९।। यह जिनेन्द्र भगवान् का मत जयवन्त हो, यह दया क्रूरप्राणियों को भी शान्त करे, लक्ष्मी निरन्तर सरस्वती के साथ साहचर्य-प्रत वारण करे, खलपुरुष गुणवान् मनुष्यों में ईर्ष्या को छोड़ें, सज्जन सन्तोष की लीला को प्राप्त हों, और सभी लोग कवियों के परिश्रम को जाननेवाले हों ॥१०॥ । उक्त प्रशस्ति से विदित होता है कि नोमकवंश के कामस्थ कुल में आर्द्रदेव नामक एक श्रेष्ठ पुरुषरत्न थे। उनकी पत्नी का नाम रथ्या था। महाकवि हरिचन्द्र इन्हीं के पुत्र थे। प्रशस्ति के पंचम श्लोक में उपमालेकार के द्वारा इन्होंने अपने छोटे आधारभूमि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई लक्ष्मण का भी उल्लेख किया है। जिस प्रकार रामचन्द्रजी अपने भक्त और शक्त--- समर्थ छोटे भाई लक्ष्मण के द्वारा समुद्र के पार को प्राप्त हुए थे उसी प्रकार महाकवि हरिचन्द्र भी अपने भक्त तथा शपत छोटे भाई लक्ष्मण के द्वारा गृहस्थी के भार से निर्व्याकुल हो शास्त्र रूपी समुद्र के द्वितीय पार को प्राप्त हुए थे । कवि ने यह तो लिखा है कि गुरु के प्रसाद से उनकी वाणी निर्मल हो गयी थी पर वे गुरु कौन है ? यह नहीं लिखा । प्रतिपादित पदार्थों के वर्णन से प्रतीत होता है कि वे दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। यद्यपि यह जन्मना कायस्थ थे और कायस्थों में वैष्णव धर्म का प्रचार देखा जाता है परन्तु अपने परीक्षा-प्रधान गुण के कारण इन्होंने जैन-धर्म स्वीकृत किया था ऐसा जान पड़ता है 1 स्वयं जैन न होते हुए केवल अर्थलाभ के उद्देश्य से उन्होंने जैन महाकाव्यों की रचना की होगी यह सम्भावना नहीं की जा सकती क्योंकि 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'जीवन्घरचम्पू' दोनों ही ग्रन्थों में जैन तत्त्व का जो भी वर्णन किया गया है उससे कवि की जैनधर्म में पूर्ण आस्था प्रकट होती है । अन्तरंग की आस्था के बिना ऐसा वर्णन सम्भव नहीं दिखता। ___महाकवि, धर्म के विषय में मनुष्य की आस्था को स्वतन्त्र छोड़ देना अच्छा समझते थे । कोई भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म में अपनी आस्था रखने और सदनुसार आचरण करने में स्वतन्त्र है 1 धर्मशर्माम्युदय के चतुर्थ सर्ग में वर्णित सुसीमा नगरी का राजा दशरथ जैन था परन्तु उसकी सभा में जो सुमन्त्र मन्त्री था वह चार्वाक मत का अनुयायी था। चन्द्रग्रहण को देख राजा दशरष, संसार शरीर और भोगों से निर्विष्ण होकर मुनि-दोक्षा धारण करने का विचार सभा में प्रकट करते हैं उसके उत्तर में सुमन्त्र मन्त्री अपनी धारणा के अनुसार परलोक का खण्डन करता हुआ राजा के उस प्रयत्न को व्यर्थ बतलाता है। राजा दशरथ सुमन्त्र के वक्तव्य का सुयुक्तियों से खण्डन तो करते हैं पर यह धमकी नहीं देते कि तुम हमारे अधीनस्थ मन्त्री होकर हमारे धर्म की निन्दा करते हो, साथ ही हमारे प्रयत्न को व्यर्थ बतलाते हो अत: हमारे मन्त्री नहीं रह सकते ? सुमन्त्र मन्त्री के मन में भी यह आतंक उत्पन्न हुआ नहीं दिखता कि मैं महाराज के द्वारा स्वीकृत धर्म की बुराई कर चावकिमत की प्रशंसा करता हूँ, इससे महाराज रुष्ट न हो जायें । इस सन्दर्भ से यह सिद्ध होता है कि महाकवि हरिचन्द्र धर्म के विषय में प्रत्येक मानव को स्वतन्त्र रहने देना चाहते हैं। अपनी रचनाओं में जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते हुए वे किसी अन्य सिद्धान्त की कटु आलोचना नहीं करते है इससे कवि की धर्म-विषयक उदारता प्रमाणित होती है। १. देव स्त्रदारमिदं विभाति नभःप्रसुनाभरणोपमानम् । जीवारपया तत्वमपीह नास्ति कुरास्तमी तपरसोश्वार्ता ॥६॥ विहाय तवष्टमारहेतो'धा कृया: पार्थिव मा प्रयत्नम् । को न। स्तमामाण्यनग धेनोग, निदग्धो ननु दोग्थि गम् || ४-६६॥ धर्मशर्माभ्युदय महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि हरिचन्द्र' सरल और विनयी थे। उन्हें इस बात का अहंकार नहीं था कि मैं एक बड़ा कवि हूँ । ग्रन्थ के प्रारम्भ में अपनी लघुता बतलाते हुए वे बहुत ही नन । शब्दों में कहते हैं वियत्पथप्रान्तपरीक्षणाद्वा तदेतदम्भोनिधिलङ्घनाद्वा । मात्राधिकं मन्दघिया मयापि यद्वय॑ते जैनचरित्रमत्र ।।११।। पुराणपारीणमुनीन्दवाग्भिर्यद्वा ममाप्यत्र गतिवित्री । सुप सिध्यत्यधिरोहिणः मिमिनस्यापि भनाभिलाषः ॥१२॥ मुझ' मन्दबुद्धि के द्वारा भी इस ग्रन्थ में जो जिनेन्द्रदेव का चरित्र कहा जा रहा है सो मेरा यह कार्य समुद्र को लांघने अथवा आकाश-मार्ग के अन्त के अवलोकन से भी कुछ आंधक है-उक्त दोनों कार्य तो अशक्य है ही पर यह कार्य उनसे भी कुछ अधिक अशक्य है। ___ अथवा पुराण-रचना में निपुण महामुनियों के वचनों से मेरी भी इसमें गति हो जायेगी, क्योंकि सीढ़ियों के द्वारा लघु मनुष्य को भी मनोभिलाषा उत्तुंग भवन सम्बन्धी शिखर पर चढ़ने में पूर्ण हो जाती है । महाकवि हरिचन्द्र को यह विनयोक्ति कालिदास की निम्नांकित विमयोहित के अनुरूप है क्व सूर्यप्रभयो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तितोषदुस्तर मोहाङ्पनास्मि सागरम् ।।२।। मन्दः कवियश:-प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम् । प्राशुलभ्ये फले लोभाधुबाहुरिब वामनः ।।३।। अथवा कृत बाग्द्वारे बंशेऽस्मिन् पूर्वसूरिभिः ।। मणौ बनसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मै गतिः ॥४॥ (रघुवंश सर्ग १) कवि कहता है नृपो गुरूणां विनयं प्रदर्शयन् भवेदिहामुत्र च मङ्गलास्पदम् । स घाविनीतस्तु तनुनपादिव ज्वलन्नशेषं दहति स्वमाश्रयम् ॥३४॥ (सर्ग १८) गुरुओं की विनय को प्रदर्शित करनेवाला राजा इस लोक तथा परलोक में मंगलभाक् होता है। यदि वहो राजा अधिनीस-विनयहीन (पक्ष में अवि-मेष रूप बाहृन पर भ्रमण करनेवाला) हुआ तो अग्नि के समान प्रज्वलित होता हुआ अपने समस्त आश्रय को जला देता है। महाकवि हरिचन्द्र का परिवार विस्तृत नहीं था। उन्होंने प्रशस्ति में माता-पिता के अतिरिक्त मात्र लक्ष्मण नामक छोटे भाई का उल्लेख किया है। साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि उनका वह भाई भक्त और शक्त-दोनों था । अपने अग्रज की सुखसुविधा का सदा ध्यान रखता था और कुटुम्ब के परिपालन में समर्थ था। भाई के इन भाधारभूमि Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों के कारण ही वे गृहस्थी की चिन्ताओं से मुक्तप्राय रहते थे तथा इसीलिए शास्त्रसमुद्र के पारगामी हो सके थे। गृहस्थी को चिन्ताओं में उलझा हुआ मानव सरस्वती की आराधना में निमग्न नहीं हो सकता है । इन्हें अपने भाई की अनुकूलता अपने स्नेह के कारण ही प्राप्त हुई थी। उनका कहना है कि अपने आश्रित मनुष्य को यदि स्नेह से युक्त रखना चाहते हो तो उसे सिद्धार्थ - कृतकृत्य करो — उसकी सुख-सुविधा का पूर्ण ध्यान रखो 1 यदि कदाचित् उसे सिद्धार्थ न कर सके तो वह पीड़ित होने पर स्नेह की छोड़कर जल- दुर्जन हो जायेगा । इसका श्लेषमय चित्रण देखिए अनुमितस्नेहभरं विभूतये विधेहि सिद्धार्थसमूहमाश्रितम् । स पीलितः स्नेहमपास्य तत्क्षणात्खलोभवन् केन निवार्यते पुनः ॥ ( १८-१८) स्नेह का भार न छोड़नेवाले ( पक्ष में तेल का भार न छोड़नेवाले ) आश्रित जन को विभूति प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ समूह — कृतकृत्य ( पक्ष में पोल सरसों ) बना लो। क्योंकि पीड़ित किया नहीं कि वह स्नेह ( पक्ष में तेल ) छोड़कर तत्क्षण खलदुर्जन ( पक्ष में खली ) होता हुआ पुन: किसके द्वारा रोका जा सकता है । यह भी हो सकता है कि महाकवि हरिचन्द्र स्त्री-रहित हों, इसीलिए उनका छोटा भाई उन्हें एकाकी जानकर उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता हो और वे स्वयं भी गार्हस्थ्य के चक्र से निवृत्त होने के कारण तत्सम्बन्धी बाकुलता में न पड़कर शारदा देवी की उपासना में संलग्न हो गये हों। इस आशंका का समर्थन इससे भी होता है कि इन्होंने स्त्रां के शरीर का को चित्रण काव्य में किया ससे स्त्री के प्रति उनका पूर्ण त्रिराग सिद्ध होता है । देखिए -- विण्मूत्रादेर्धा मध्यं वधूनां तष्टिव्यन्दनारमेवेन्द्रियाणि । श्रोणीबि स्थूलमांसास्थिकूटं कामान्वानां प्रीतये त्रिस्तथापि ।।२०- १७११ स्त्रियों का मध्यभाग मल-मूत्र आदि का स्थान है, इनकी इन्द्रियाँ मल-मूत्रावि निकलने का लार हैं और उनका नितम्बधिम्ब स्थूल मांस तथा हड्डियों का समूह है फिर भीका है कि वह कामान्य मनुष्यों की प्रीति के लिए होता है । यद्यपि महाकवि ने प्रशस्ति में अपने निवास का कुछ भी उल्लेख नहीं किया है तथापि मन्यान्तर्गत वर्णनों से जान पड़ता है कि मध्यप्रान्त से उनका अच्छा सम्बन्ध रहा हैं। उन्होंने उत्तरकोशल देश के रत्नपुर नगर से लेकर विदर्भदेश की कुण्डिनपुरी तक धर्मनाथ की स्वयंवर - यात्रा का वर्णन किया है इसी प्रसंग के बीच, मार्ग में पड़नेवाली गंगा नदी का साहित्यिक रीति से सुन्दर वर्णन किया है । विन्ध्याचल का दशमस्वव्यापी वर्णन यह सूचित करता है कि कवि ने इस पर्वत का साक्षात्कार अवश्य किया है । इसके अतिरिक्त जीवन्धरचम्पू के सप्तम लम्भ में एक किसान का वर्णन किया है १२. करवृतऋजुतीत्रः कम्बलच्छत्र देहः कटितटगतदात्रः स्कन्धसम्बद्धसीरः । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनभुवि पथि कश्चिनागमत्तस्म पार्य नियतिनियतरूपा प्राणिनां हि प्रवृत्तिः ।।३।। जो हाथ में सीधा परेना लिये था, कम्बल से जिसका शरीर आच्छादित था, जिसकी कमर में हँसिया लटक रहा था लथा जिसके कन्धे पर हल रखा हुआ था ऐसा कोई पुरुष वनभूमि में उनके समीप आमा । किसान का यही रूप मध्यप्रदेश में आज भी देखा जाता है। जान पड़ता है कि कवि की आँखों में मध्यप्रदेश के किसान का गद हम बार-बार वा रहा है भी तो उसका इतना स्वाभाविक वर्णन किया है। हरिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान् और महाकवि हरिचन्द्र का समय - 'कर्पूरमंजरी नाटिका' में महाकवि राजशेखर ने प्रथम यवनिका के अनन्तर एक जगह विदूषक के द्वारा हरिचन्द्र का उल्लेख किया है । एक हरिचन्घ्र का उल्लेख बाणभट्ट ने 'श्रीहर्षचरित में किया है। एक हरिचन्द्र विश्वप्रकाशकोष के कर्ता महेश्वर के पूर्वज घरकसंहिता के टीकाकार साहसांक नृपति के प्रधान वैद्य भी थे। पर इन सबका धर्मशक्ष्यि ' और 'जीवन्धरसम्पू' के कर्ता हरिचन्द्र के साथ कोई एकीभाव सिद्ध नहीं होता, क्योंकि धर्मशर्माभ्युदय के २१ सर्ग में जैन-सिद्धान्त का जो वर्णन है यह पशस्तिलकचम्पू और चन्द्रप्रमचरित से प्रभावित है अतः उसके कर्ता, आचार्य सोमदेव और आचार्य श्रीरनन्दी से परवर्ती हैं पूर्ववर्ती नहीं 1 'कर्पूरमंजरी' के कर्ता राजशेखर और 'श्रीहर्षचरित' के कर्ता बाणभट्ट पूर्ववर्ती है। जीवन्धरचम्यू और धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता एक ही हरिचन्द्र है ऐसा आगे तुलनात्मक उद्धरणों से सिद्ध किया जायेगा । जीवन्धरचम्पू का कथानक जहाँ वादीभसिंह सूरि की 'गद्यचिन्तामणि' तथा 'क्षत्रचूडामणि' से लिया गया है वहाँ गुणभद्र के 'उत्तरपुराण' से भी वह प्रभावित है अतः हरिचन्द्र गुणभद्र से परवर्ती है। साथ ही धर्मशर्माभ्युदय में श्रावक के जो आठ मूल-गुणों का वर्णन किया गया है वह यशस्तिलकचम्पू के रचयिता सोमदेव के मतानुसार है इसलिए सोमदेव के परवर्ती हैं। सोमदेव ने यशस्तिलकचम्पू की रचना १८१६ वि. सं. में पूर्ण की है । धर्मशर्माम्युदय की एक प्रति पाटण ( गुजरात ) के संघबीपाड़ा के पुस्तकभण्डार में वि. सं. १२८७ को लिखी विद्यमान है। इससे यह निश्चित होता है कि महाकवि हरिचन्द्र उक्त संवत् से पूर्ववर्ती है। इस तरह पूर्व और पर-अवधियों पर विचार करने से जान पड़ता है कि हरिचन्द्र ११-१२ शताब्दी के विद्वान् है। धर्मशर्माभ्युदय १. घिदूषक : ( अज्वेव तरिकन भण्यते, अस्माकं चेटिका हरिचन्द्र-मन्दिचन्द्र-कोटिया-हालप्रभृती नामपि मुकविरिति) २. पवमधीज्ज्वलो हारी कृतवर्णकमस्थितिः । भट्टारहरिचन्द्रस्म गधबन्धो नपायते॥ ३. २२८७ वर्षे हरित-त्रि पिरचिव-धर्मशमभ्युदयपुस्तिका श्रीरत्नाकर-हरि-सावेशेन की नि चन्द्रगणिना ज़िखिसमिति भनम् । पाटग के समीपाड़ा के पुस्तक भण्डार की सूची । आधारभूमि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर कालिदास के रघुवंश, भारवि के किरातार्जुनीय, वीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित, मात्र के शिशुपाल वध की शैली का प्रभाव है. इसका आगे विचार किया जायेगा। महाकवि हरिचन्द्र की रचनाएँ महाकवि हरिचन्द्र की दो रचनाएँ उपलब्ध हैं-१. धर्मशर्माभ्युदय और २. जीवन्धरचम्पू । यद्यपि स्व. नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार जीवन्धरचम्पू के कर्ता, धर्मशर्माभ्युदय के कर्ता से भिन्न हैं परन्तु धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरचम्पू के भावों तथा शब्दों को समानता से जान पड़ता है कि दोनों का कर्ता एक होना चाहिए। इसके अतिरिक्त जीवन्धरपम्प की जो हस्तलिखित प्रति उपलब्ध है उसके पुष्पिका-पाक्यों में इसके कर्ता हरिचन्द्र का ही उल्लेख किया गया है। प्रन्थान्त में ग्रन्धका ने स्वयं अपने नाम का उल्लेख इस प्रकार किया है अष्टाभिः स्वगुणरयं कुरुपतिः पुष्टोऽथ जीवन्धरः सिद्धः श्रीहरिचन्द्र वाङ्मयमधुस्यन्दिप्रसूनोच्चयः । भक्त्याराधितपादपपयुगलो लोकातिशायिप्रभा निस्तुल्यां निरपायसोस्यलहरी संप्राप मुक्तिश्रियम् ॥५८।। -जी, पं. लम्भ ११ इस प्रकार जो अपने आ3 गुणों से पुष्टि को प्राप्त हुए थे, और हरिचन्द्र कवि ने अपने मधुर-वचन-रूपी पुष्पों के समूह से भक्तिवश जिनके दोनों चरण-कमलों की पूजा की थी वे जीवधर स्वामी सिद्ध होकर लोकोत्तरप्रभा से युक्त, अनुपम तथा अविनाशी सुख की परम्परा से सुशोभित मतिरूपी लक्ष्मी को प्राप्त हए । __ कीथ महोदय भी हरिचन्द्र को ही जीवन्धरचम्पू का कर्ता मानते हैं। यह कहना कि धर्मशर्माभ्युदय को देखकर किसी परवर्ती कवि ने उसके भाव और शब्दों को आत्मसात् कर इसकी रचना की है, उचित नहीं जान पड़ला । मर्मज्ञ विद्वान् की दृष्टि में यह बात अनायास आ जाती है कि यह बाव कवि ने अन्मत्र से ली है और यह स्वतः लिखी है । अन्ततोगत्वा नकल नकल ही है। जिस प्रकार सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू के नीविभाग और नीति-वाक्यामृत में एककतक होने के कारण पद-पद पर सादृश्य पाया जाता है उसी प्रकार जीवन्धर बम्पू और धर्मशर्माभ्युदय में एककर्तृक होने से पद-पद पर सादृश्य पाया जाता है | दोनों ही ग्रन्थों में रस का प्रवाह, अलंकार को पृट और शब्द-विम्यास की शैली एक-सी है। यहाँ में दोनों ग्रन्थों के कुछ अवतरण देकर इस विषय को स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ । विस्तार के भय से अवतरणों का अनुवाद नहीं दिया जा रहा है १. जैनसाहिरय का इतिहास, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, सम्बई । २. ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, मम्बई। ३. देरनो, पं. सीताराम अवराम जोशी का 'संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' । १४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मशर्माभ्युदय अपारसंसारतमस्यपारे सन्तश्चतुर्वर्गफलानि सर्वे। इतीव यो द्वि-विदिवाकरेन्दु ब्याजेन पत्ते चतुरः प्रदीपान् ।-सर्ग १, श्लोक ३५ १. जीवन्धरचम्पू पारसंसारसन्तमसान्धीकृतजीवलोकस्य पुरुषार्थवतुष्टयप्रकाशनायेव दिवाकर युगलनिशाकरयुगलग्याजेन प्रदीपचतुष्टयमाबिभ्राणे । -पृष्ठ ४ २. धर्मसर्माभ्युदय जनैः प्रतिग्रामसमीपमुच्चः कृता वृषाव्यधरवान्यकूटाः । दादास्तासन्यःय निराशा नवानि नोः ॥-सर्ग १, श्लोक ४८ २. जीवन्धरचम्पू उदयास्ताचलमध्यसंचारखिनस्य सरोजवन्घोविनमाय वेधसा विरचितरित्र धरा घरैर्धान्यराशिभिरुद्भासितम् । -पृष्ठ ५ ३. धर्मशर्माभ्युदय कल्पद्रुमान कल्पितदानशीलान् जेतुं फिलोत्तालपतत्रिनादः । आहूय दूराद्वितरन्ति वृक्षाः फलान्यचिन्त्यानि जनाय पत्र 11-सर्ग १, श्लोक ५५ ३. जीवन्धरचम्पू अतिदूरप्रवृद्धशाखाविलसिलकैतवेन हस्तमुदस्य विचित्रपतत्रियिरुतः कल्पपादपान् जेतुमिवाहूयमानः । -पृ.५ ४. धर्मशर्माभ्युदय वृद्धि परामुदरमाप यथा यथास्याः श्यामाननः स्तनभरोऽपि तथा तथाभूत् । यदा नितान्तकठिनां प्रकृति भजन्ती मध्यस्थमप्यु दयिनं न जडाः सहन्ते । -सर्ग ६, श्लोक ५ ४. जीवन्धरचम्पू यथा यथासीदुदरं विवृद्धं तथा तथास्याः कुचकुम्भयुग्मम् । बयामानमत्वं सममाप राज्ञा स्वप्नस्य पाकादनुतापक; 11--लम्भ १, श्लोक ५६ संवृद्ध मुदरं वीक्ष्य तत्स्तनौ मलिनाननौ । न सहन्ते हि कठिना मध्यस्थस्यापि संपदम् ॥--लम्भ १, श्लोक ५७ आधारभूमि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. धर्मशर्माभ्युदय सा भारतीय चतुरालिगभीरमर्थ वेलेव गूहमणिमण्डलमम्बूराशेः । पौरन्दरी दिगिय मेरुतिरोहितेन्दु गर्भ तदा नुपवधूर्दघती रराज ||--सर्ग ६ ५. जीवन्धरचम्पू सा मरपालसता महाकविमारतीव गम्भाश, भारतजरसीद राजहंसम्, रत्नाकरवेलेव मणिम्, पुरन्दरहरिदिवेन्दुमण्डलम् । -पृ. २३ ६. धर्मशर्माभ्युदय उत्सातपङ्किलबिसाविव राजहंसी शुभ्री सभृङ्गवदनाविव पद्मकोषौ । तस्याः स्तनौ हृदि रसैः सरसीव पूर्णे संरेजतुर्गवलभेचकच्चुकायो 11-सर्ग ६, श्लोक ८ ६. जीवन्धरचम्मू श्यामाननं कुचयुगं दधती वधूः मा पाथोजिनीव मधुपाश्चितकोशयुग्मा । पङ्घास्यहंसमिथुना सरसीव रेजे लोलम्बचुम्बितगुलुच्छयुगा ललेव ।।-लम्भ १, पद्य ५८ ७. धर्मशर्माभ्युदय एकेन तेन बहिना स्वबलेन तस्या भक्त्वा अलित्रयमवर्धत मध्यदेशः । ................ .................................. .... || सर्ग ६, एलोक ७ ७. जीवन्धरचम्पू मध्यदेशश्चकोराक्ष्याः शिशुमा बलिमा तदा । मङ्कत्या वलित्रयं राशस्तापेनाभूत्समं गुरुः । लभ १, श्लोक ६० ८. धर्मशर्माभ्युदय चित्रं किमेलभिजनयामिनीपति मंथा यथा वृद्धिमनश्वरीमगात् । सीमानमुल्लङ्घय तथा लथासिलं प्रमोदधिर्जगदप्यपूरयत् ।।-सर्ग ९, श्लोक २ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन १.६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जीवन्धरधम्पू ९. धर्मशर्माभ्युदय ९. जीवन्धरचम्पू यथा यथा जीवकयामिनीशो विवृद्धिमागाद्विलसत्कलापः । तथा तथार्धत मोदवाधि उदयदुच्चैः स्तनवप्रशालिनतदङ्गकन्दर्पविलासवेश्मनः । वरोरुयुग्मं नवतप्तकाञ्चन आधारभूमि ३ १०. धर्मशर्माभ्युदय रुद्रलमूरम्य निकायभर्तुः ॥ - लम्भ १. पलोक ९९ मनोजगेहस्य तदङ्गकस्य ऊरुद्वयं स्तम्भनिभं विरेजे १०. जीवन्धरचम्पू पतिस्तम्मनिभं व्यराजत ॥ -- सर्ग २, श्लोक ४१ वक्षोजवप्रेण विराजितस्य । ललामलेखाशकलेन्दुनिर्गलत् ११. धर्मं शर्माभ्युदय प्रतप्तचामीकरचारुरूपम् ॥ लम्भ ३, तदीयनासा द्विजरत्नसंहते ११. जीवन्धरचम्पू सुषोरुधारेव घनत्वमागता । नासा तदीया मुखचद्रनिम्बाद्विनिर्गतव्यसुधोश्वारा । घनत्वमाप्तेवरदालिमुक्ता स्तुव कान्त्या जगदप्यतोलयत् ॥ सर्ग २, एलोक ४३ - कपोललावण्यमयाम्युपत्वले मणी-तुलायष्टिरिव व्यलासीत् ॥ लम्भ ३, श्लोक ६४ श्लोक ५५ पतत्सतृष्णा खिलनेत्रपत्रिणाम् । ग्रहाय पाशाविव वेषसा कृती तश्रीयकर्णी पृथुलांसघुम्बिनी ॥ सर्ग २ श्लोक ५७ P जनदृपक्षिवन्धाय पाशी कि वेधसा कृतौ ! तत्कण बुत्पलव्याजाज्जनदृक् पक्षिरक्षिणी ॥ --लम्भ ४, श्लोक ६६ १७ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. धर्मशर्माभ्युदय उच्चस्तनशिखोल्लासि-पत्रशोभामदूरतः ।। वनालों वीक्ष्य भूपाल प्रेयसीमित्यभाषत -सर्ग ३, इलोक २२ अनेकविटपस्पृष्टपयोपरतटा स्वयम् । वदत्यूद्यानमालेयमकुलीनत्वमात्मनः ।।-सर्ग ३, श्लोक २४ १२. जीवन्धरचम्पू अभिसारिकामियोपः स्तनशिखरशोभितपत्ररचनामनेकविटपसंस्पृष्ट पयोधरतटों चारामवीथीम्।-पृ. ७७ १३. धर्मशर्माभ्युदय स्रजो विचित्रा हृदि जीवितेवरः समाहिताश्चारुचकोरचक्षुषाम् । तदन्तरेऽन्तत्रिंशतो गनोभुव चकासिरे वन्दनमालिका इव ।।-सर्ग १२, श्लोक ५४ १३. जीवन्धरचम्पू वक्षःस्थलेष्वत्र चकोरचक्षुणां प्रियः प्रमलप्ताः सुखमालिका बभुः । अन्तःप्रवेशोद्यतशम्बरद्विषः सनातनास्तोरणमालिका इव । -लम्भ ४, एलोक ११ १४. धर्मशर्माभ्युदय उदाशाखाकुसुमार्थमृद्भुना न्युदस्य' पाष्णिद्वयमश्वितोदरी । नितम्बभूत्रस्तदुकूलबन्धना नितम्बिनी कस्य चकार नोत्सवम् ।।-सर्ग १२, श्लोक ४२ १४. जीवन्धरचम्पू उपरिजतक्षजार्थवामहस्तेन काचिद् विधुतसुरभिशाखा सव्यहस्ताप्तकाची । अमलकानकगौरी निर्गलनी त्रिबन्धा नयनसुखमनन्तं कस्य मा दाङ् न तेने ।- सम्भ ४, एलोक ७ एक विचारणीय बात __इतना सब होने पर भी एक बात अवश्य विचारणीय है कि कवि ने जीवन्धरपम्पू में पाँच अणुव्रतों का धारण और तीन मकार का त्याग इनको श्रावक के आठ मूल गुण मतलाया है और धर्मशर्माभ्युदय में मद्य, मांस, मधु, त्याग तथा पंचोदुम्बर फल के त्याग को आठ मूल गुण बताया है । जैसा कि दोनों ग्रन्थों में कहा गया है महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुशीकम Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसानृतस्तेयवधूज्यकायपरिग्रहेम्यो विरतिः कचित् । मद्यस्य मांसस्य च माक्षिकस्य त्यागस्तथा मूलगुणा इमेऽष्टौ ॥ -जी. च., लम्भ ७, कोक १६ मद्यमांसासवल्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । अमी मूलगुणाः सम्यग्दृष्टेरष्टो प्रकीर्तिताः ।। -धर्म., सर्म २१, एलोक १३२ इसी प्रकार चार शिक्षाक्तों के वन में भी कुछ वैशिष्टय है.... सामायिक प्रोषधकोपबासस्तथातियीनामपि संग्रहश्च । सल्लेखना चेति चतुःप्रकार शिक्षाबत शिक्षितमागमः 11 -जी. च., लम्भ ७, श्लोक १८ सामायिकमथाचं स्याच्छिक्षाव्रतमगारिणाम् । आरोद्रे परित्यज्य त्रिकालं जिनयन्दनात् ।।१४९।। निवृत्तिभुक्तभोगानां वा स्यात्पर्वचतुष्टये । प्रौषधाख्यं द्वितीयं तच्छिक्षावमितीरितम् ।।१५०॥ भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते यदलोलुपैः । तृतीयं तत्तदाख्यं स्यादुःखदावानलोदकम् ॥१५॥ गृहागताय यत्काले शुद्धं दानं यतात्मने । अन्ते सल्लेखना वाभ्यत्तच्चतुर्थ प्रकोपसे ।।१५२।। अर्थात् जीवन्धरचम्पू में सामायिक, प्रोषयोपवास, अतिथिसंविभाग और सस्लेखना वे चार शिक्षावत गिनाये गये हैं। और धर्मशर्माभ्युदय में सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग अथवा सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे गये है। एक ही ग्रन्थकर्ता अपने दो ग्रन्थों में दो प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख करता है यह विचारणीय बात है। मूल-गुण, गुणव्रत और शिक्षाप्रतों के नामोल्लेख में जैनाचार्यों में शासन-भेद है। इतना अवश्य है कि आचार्यों ने एतद्विषयक अपनी मान्यता का उल्लेख करते हुए किसी दुसरी मान्यता का निराकरण किया हो, यह देखने में नहीं आया। फलतः जो दो-तीन प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित है वे सबको स्वीकार्य है। सम्भव है कि कवि ने एक ग्रन्थ में एक मान्यता का उल्लेख किया हो और दूसरे अन्य में दूसरी मान्यता का । धर्मशर्माभ्युदय में शिक्षाव्रतों का वर्णन करते समय अतिथिसंविभाग के विकल्प में सल्लेखना का भी नामोल्लेख करते हुए कवि ने अपनी दटस्थता सूचित की है। महाकवि हरिवाद की दूसरी रचना-जीवन्धरचम्पू का विशद परिचय आगे दिया जायेगा। आधारभूमि Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्युक्यनामान्त काश्यों को परम्परा अभ्युदयान्त नामनाले कामों में जिनसेन का 'पार्वाभ्युदम' बहुत प्रसिद्ध है। यह कालिदास के मेघदूत की समस्या पूर्ति के रूप में उपलब्ध है। इसमें मेघदूत के दोनों सण्ट समाये हुए है । नवमी शती के महाकवि शिवस्वामी का ‘कल्फिणाभ्युदय' महाकाव्य है। इसका कथानक बौद्धों के 'अवदानों से गृहीत है। १३वीं शती में दाक्षिणात्य कवि मेंकटनाय वेदान्तदेशिक ने 'यादवाम्युचय' नामक २४ सर्गात्मक महाकाव्य लिखा है, जिस पर अप्पम दीक्षित ने (ई. १६००) एक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। इसी १३ पाती में महाकार अशा भायु मारक काव्य की रचना हुई है पर अभी इसकी उपलब्धि नहीं हुई है। ईसवीय १४वीं शती के राजनाथ ने 'सालवाभ्युदय' नामक महाकाव्य की रचना की है जिसमें विजयनगर के वीर सेनापति साल्व नरसिंह का चरित्र निबद्ध है। यशोवर्मा का 'रामाभ्युदय', वामनभट्ट बाण का 'नलाम्युदय', राजनाथ तृतीय का 'अच्युतरामाभ्युदय' और रघुनाथ की विदुषी पत्नी रामभद्राम्बा का 'रघुनाथाभ्युदय' ग्रन्थ प्रसिच है। इसी परम्परा में महाकवि हरिचन्द्र का यह 'धर्मशर्मास्युदय' महाकाव्य है जिसमें पन्द्रहवें जैन तीर्थकर धर्मनाथ का चरित्र निषद्ध किया गया है। महाकाव्य-परिभाषानुसन्धान धर्मशर्माभ्युदय में महाकाव्य को परिभाषा पूर्ण रूप से संघटित है। घीरोदात्त नायक के गुणों से साहित, क्षत्रिय-वंशोत्पन्न धर्मनाथ तीर्थकर इसके नायक है। शान्तरस अंगी रस है, शेष रस अंग रस के रूप में यथास्थान संनिविष्ट हैं । मोक्ष इसका फल है, नमस्कारात्मक पद्यों से इसका प्रारम्भ हुआ है। इसकी दुर्जन-निन्दा और सज्जन-प्रशंशा उम्मचकोटि की है। सगों की रचना एक छन्द में हुई है और सर्गान्त में छन्द वैषम्य है । दशम सर्ग नाना छन्दों में रचा गया है। सन्ध्या, ऋतु, वन, समुद्र, सम्भोग और विप्रलम्भश्रृंगार, मुनि, स्वर्ग के देव-देवियां, युद्ध, प्रयाण, विवाह तथा पुत्र-जन्म आदि वर्णनीय विषयों का सुन्दर वर्णन इसमें हुआ है। अहिंसा सिद्धान्त के प्रतिकूल होने से इसमें मृगया-शिकार और वैदिक अज्ञों का वर्णन नहीं किया गया है । नायक के नाम पर इसका धर्मशर्माभ्युदय नाम रखा गया है और सर्गों के नाम वर्मा विषय के अनुसार हैं। १. 'संस्कृत-काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान' (ले. , नेमिचन्द्रजी बी. लिट. आरा) के आधार से-- भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित)। २. महाकाव्य की परिभाषा साहित्यदर्पण के परिच्छेद ६ में स्लोक १५५ से ३२५ सक दृष्य है। २० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ २: कथा धर्मशर्माभ्युक्य की कथा का आधार जैन धर्म की मान्यता के अनुसार सीर्थ-धर्म की प्रवृत्ति करनेवाले २४ महापुरुष होते हैं जिन्हें तीर्थकर कहते हैं । यह तीर्थकर दश कोडाकोड़ी सागर के प्रमाणवाले प्रत्येक उत्सपिगी और अवसर्पिणी के युग में होते आये हैं। इस समय यहाँ अवसर्पिणी का युग चल रहा है। एक-एक युग के सुषमा-सुषमा आदि छह-छह भेद होते हैं । वे ही छह काल कहलाते हैं। तीर्थंकरों की उत्पत्ति तृतीय काल के अन्त से लेकर चतुर्थ काल के अन्त तक होती है । इस युग के तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे और अन्तिम तीर्थंकर महावीर । धर्मनाथ, पन्द्र हवे तीर्थंकर थे, इन्हीं का पात्रन चरित्र काव्य की शैली से धर्मशमयुिदव में लिखा गया है।। गुणभद्राचार्य के उत्तरपुराण के ६१३ पर्व में और महाकवि पुष्पदन्त के अपभ्रंश महापुराण की ५९वीं सन्धि में धर्मनाथ तीर्थंकर का चरित्र संक्षेप से लिखा मिलता है। उसरपुराण' में यह चरित्र केवल ५५ श्लोकों में और महापुराण की ५९वीं सन्धि के प्रथम ७ कड़वकों के अन्तर्गत मात्र १४१ पंनियों में वर्णित है। उसी संक्षिस कथा को महाकवि हरिचन्द्र ने अपने इस काव्य में बड़ी सुन्दरता के साथ पल्लवित किया है। यद्यपि सामान्य रूप से धर्मशर्माम्युदय की कथा का आधार उत्तरपुराण और अपभ्रंश महापुराण माना जाता है परन्तु उसमें धर्मनाथ के माता-पिता के नाम दूसरे दिये है । धर्मशर्माभ्युदय में पिता का नाम महासेन और माता का नाम सुनता बतलाया है जबकि उस रपुराण और महापुराण में पिता का नाम भानु महाराज और माता का नाम सुप्रभा दिया हुआ है। उनमें स्वयंवर यात्रा का वर्णन नहीं है। धर्मशम्युदय के फर्ता ने काव्य की शोभा और सजावट के लिए उसे कल्पना-शिल्पि-निर्मित किया है। स्वयंवरयात्रा के कारण इसमें काव्य के कितने ही अंगों का वर्णन अच्छा बन पड़ा है। अन्त में समवसरण के मुनियों को जो संख्या दी है उसमें भी नहीं कहीं भेद प्रतीत होता है। इस महाकाव्य की कथा २१ सर्गों में निरूपित है जो आगे दी जायेगी। जीवन्धरचम्पू की कथा का आधार गचिन्तामणि, क्षत्रचूड़ामणि, जीवकचिन्तामणि और जीवन्धरचम्पू की कथा एक सदृश है। स्थानों तथा पात्रों के नाम एक सदशा है, घटनाचक्र-वृत्तवर्णन भी तोनों का समान है परन्तु उत्तरपुराण का वर्णन जहाँ कहीं समानता रखता है तो अनेक कथा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानों पर असमानता भी। उसमें स्थान तथा पात्रों के नाम भी दूसरे-दूसरे है। बीचबीच में कुछ ऐसी घटनाएं भी उपलब्ध हैं जिनका उक्त तीनों ग्रन्थों में उस्लेख नहीं है । गद्यचिन्तामणिकार ने यद्यपि प्रारम्भिक वक्तव्य में--- ____ निःसारभूतमपि बन्धनवन्तुजातं मूनों जनो वति हि प्रसवानुषङ्गात् । जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगावाक्यं ममाप्युभयलोकहितप्रदायि ।। कोक द्वारा जीवन्धर से सम्बद्ध पुराण का उल्लेख किया है और विद्वान् लोग उनके इस पुराण से गुणभन्न के उत्तरपुराणान्तर्गत जावकचारत को समझते आते हैं पर कथा में भेद होने से ऐसा लगता है कि वादोभसिंह ने अपने ग्रन्थों का आधार उत्तरपुराण को न बनाकर किसी दूसरे ही पुराण को बनाया है। पुराण का कान्यीकरण तो हो सकता है और अनावश्यक कथाभाग छोड़ा भी जा सकता है परन्तु स्थान और पात्रों के नाम भादि में परिवर्तन सम्भव नहीं दिखता। हाँ, जीवन्धरचम्पकार महाकवि हरिचन्द्र ने अपने ग्रन्थ का आधार जहाँ मद्य चिन्तामणि को बनाया है वहां उत्तरपुराण के वृत्तवर्णन का भी उपयोग किया है । उदाहरण के लिए एक स्थल पर्याप्त है जीवन्धर का गुरु लोकपाल विद्याधर, अपनी पूर्व कथा जीवन्धर को सुना रहा है। वह भस्मक व्याधि के कारण बनतपस्या से भ्रष्ट होकर अन्य साधु का रूप रख लेता है और भोजन करने के लिए जीवन्धर के साथ गन्धोपट की भोजनशाला में पहुँचता है। जीवन्धर के सामने गरम भोजन आता है उसे देख वे रोने लगते है, साधु उनसे रोने का कारण पूछता है और जीवन्धर कौतुकपूर्ण रीति से रोने के गुण बतलाते हैं। इस घटना का वादी भसिंह की गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि में उल्लेख नहीं है पर गुणभद्र के उत्तरपुराण में पाया जाता है। जीवन्धरचम्पूकार ने भी इस घटना का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है, देखिए सहायः सह संविश्य भोक्तुं प्रारब्धवानसी। अथार्भकस्वभाचेन सर्वमुष्णमिदं कथम् ॥२७१।। भुजेऽहमिति रोदित्वा अननीमकदर्थयत् । रुदन्तं तं समालोक्य भन्द्रतत्ते न युज्यते ।।२७२॥ अपि त्वं वयस्वाल्पीयान् वीस्थो वीर्यादिभिर्गुणैः । अधरी कृतविश्वोऽसि हेतुना केन रोदिषि ॥२७३।। इति तापसवेषेण भाषितः स कुमारकः । शृणु पूज्य न घेरिस त्वं रोदनेऽस्मिन्गुणानिमान् ।। २७४।। निर्याति संहतश्लेष्मा वमत्यमपि नेत्रयोः । शोतीभवति थाहारः कथमेतन्निवार्यते ॥२७५।। इत्याख्यत्तत्समाकर्ण्य मातास्य मुदिता सतो । यथाविधि सहायैस्वं सह सम्यगभोजयत् ॥२७६॥ -उत्तरपुराण, पर्व ७५ महाकवि हरिरम्द्र : एक अनुशीलन Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तावर्भकस्वभावेन सर्वमुष्णमिदं कथं भुजेऽहमिति रोदनवोन नयनकायुग. सञ्जातमकरम्हपूरकानुकारिणीभिरश्रुधाराभिर्नयनकमलपास्तव्यलक्ष्मीवक्षःस्थलस्थपुटिवमालामुक्ता इव किरन्तं भवन्तं समीक्ष्य भिक्षुरयं विश्वातिशायिमतिमहिममहितस्य भृशमपरोदननिदानस्यापि तत्र रोदनं धमिति चित्रमितीयते चित्तमित्यावभाषे । श्रुत्वा वाणी तस्य मन्दस्मितेन तन्वनिर्यक्षीरधारेति शङ्काम् । इत्थं बाचागाचचक्षे भवान्य मोचामाध्वीमाधुरीमादधानाम् ॥१४॥ श्लेष्मच्छेदो नयनयुगली निर्मलत्वं च नासा शिवाणानां भुवि निपतनं कोष्णता भोज्यवर्गे । शीर्षाबद्धभ्रमकरपयोदोषबाधानिवृत्तिरन्मेऽप्यस्मिन् परिचितगुणा रोदने संभवन्ति ॥ -जीवन्धरचम्पू, लम्भ २ क्षत्रचूडामणि की भूमिका में दोनों ग्रन्थों के उद्धरण देकार श्री टी. एस. कुप्पूस्त्रामी ने ग्रह सिद्ध किया है कि तामिल भाषा के जीवकचिन्तामणि के कर्ता तिस्तक्कदेव ने कथाभाग वादीभसिंह के ग्रन्थों-गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि से लिया है। गद्यचिन्तामणि के 'जीवन्धरप्रभयपुष्यपुराणयोगात्' इस सामान्य पद से उत्तरपुराण की स्पष्टता होती भी तो नहीं है । इलोक का सीधा अर्थ यह है कि जिस प्रकार फूलों की संगति के कारण लोग बन्धन में उपयुक्त होनेवाले निःसार तन्तुओं के मस्तक पर धारण करते है उसी प्रकार पतः मेरे वचन भी जीवन्धरस्वामी से उत्पन्न पवित्र पुराण के साथ सम्बन्ध रखते हैं-उसका वर्णन करते हैं अतः दोनों लोकों में हितप्रदान करनेवाले होंगे। इस परिप्रेक्ष्य में जीवन्धरचम्पू की कथा का श्राघार गद्यचिन्तामणि, क्षत्रचूडामणि तथा आंशिक रूप से उत्तरपुराण के निश्चित होने पर भी गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि का आधार स्तम्भ अन्वेषण की प्रतीक्षा करता है। आगे कुछ उद्धरण दिये जाते हैं जिनसे क्षषचूडामणि बोर जीवन्धरचम्पू का भाव-सादृश्य ही नहीं, शब्द-सादृश्य भी स्पष्ट प्रकट होता है-- ___ गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूडामणि वादीभसिंह सूरि की अमर रचनाएँ है । इनमें से क्षत्रचूडामणि में कथा का उपक्रम बतलाते हुए उन्होंने लिखा है कि सुधर्म गणधर ने राजा श्रेणिक के प्रति जो कथा कही थी वाही मैं कह रहा हूँ। यथा श्रेणिकप्रश्नमुद्दिश्य सुधर्मो गणनायकः । यथोबाच मयाप्येतदुच्यते मोक्षलिप्सया ॥३|| –क्षत्रचूडामणि, प्रथम लम्भ जीवन्धरचम्यू में भी यही कहा गया है या कथा भूतधानीशं श्रेणिक्र प्रतिणिता। . सुधर्मगणनायेन तां वक्तुं प्रयतामहे ॥१०॥ -जीवन्धर चम्पू, प्रथम लम्भ कथा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके सिवाय कथा का सादृश्य यहाँ तक कि शाब्दों का सादृश्म भी दोनों का मिलता-जुलता है। जीवन्धरचम्प के ११वे लम्भ में एक श्लोक आता है काष्टाङ्गारायते कीशो राज्यमेतत्फलायते । मद्यते वनपालोऽयं स्पाज्यं राज्यमिदं मया ॥ यह श्लोक क्षत्रचूडामणि के निम्न इलोक का परिवर्तित रूप हो विदित होता है-- मचते वनपालोऽयं काष्टाङ्गारयते हरिः । राज्यं फलायते तस्मान्मयैव त्याज्यमेन तत् ।।२८॥ लम्भ ११ जीवन्धरचम्पू के सातवें लम्भ के निम्न श्लोक क्षत्रचूडामणि के सप्तम लम्म के उद्धृत श्लोकों से अत्यधिक अनुरूप है पञ्चधाणुव्रतसम्पन्न-गुणशिशाव्रतोद्यताः । समाराकिलाना: सपना पहले धमः ।-.-जोग या व त्रिचतुःपञ्चभिर्युक्ता गुणशिक्षाणुभिवतैः । तस्वधीरुचिसंपन्नाः सावद्या गृहमेधिनः ।।२२।।–क्षत्रचूडामणि हिंसानृतस्तेयवधूव्यवायपरिग्रहेभ्यो विरतिः कथंचित् । मद्यस्य मांसस्य च माक्षिकस्य त्यागस्तथा मूलगुणा इमेष्टौ ।।१६।। -जीवन्ध्ररचम्प अहिंसासत्यमस्तेयं स्वस्त्रीमितवसुग्रही। मद्यमांसमधुत्यागस्तेषां मूलगुणाष्टकम् ।।२३॥ --क्षत्रचूडामणि इसी प्रकार आगे चलकर शत्रचूडामणि के 'वृषस्यन्तो' और 'अश्वस्यन्ती' इन प्रमुख शब्दों को जी. च. में ज्यों का त्यों ले लिया गया है । जैसे वृषस्यन्ती वरारोहा वृषस्कन्धं कुरूद्वहम् । वीक्ष्य तस्याङ्गसौन्दर्य नातृपत् सा प्रपाकुला ॥२५॥ -लम्म ७, जीवम्घरचम्पू सा तु जाता वृषस्यन्ती वृषस्कन्धस्य वीक्षणात् । अप्राप्ते हि रूचिः स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ||३५॥ -लम्भ ७, क्षत्रचूडामणि अश्वस्यन्ती विशालाक्षी विश्वाधिकविभोज्ज्वलम् । कुरबीरमुवाचेदं कुसुमायुधवञ्चिता ॥२८॥ -लम्भ ७, जीवन्धरचम्पू अश्वस्यन्ती विभाव्पनामाकूतज्ञो व्यरज्यत । अनुरागकृदज्ञानां बशिनां हि विरक्तये ॥३६।। -लम्भ ७, क्षत्रचूडामणि महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और भी कथा 'यश्च समुपस्थितायां विपदि विषादस्य परिग्रहः सोऽयं चण्डातपचकितस्य दावहुतभुजि पातः ।" - गद्य चिन्तामणि, पृ. २९, लम्भ १ — क्षत्रचूडा. लम्भ ७, क्लोक ६९ लयोः सुताः सुमित्राद्यास्तेष्वप्यन्यतमोऽस्म्यहम् । विद्याहोना वयं सर्वे नद्या हीना इवाद्रयः ॥ - जी. व., लम्भ ७, श्लोक ४७ इन सब सादृश्यों को देखते हुए जान पड़ता है कि जीवम्बरचम्पू की कथा का आधार वादीभसिंह सूरि द्वारा विरचित शत्रचूडामणि और गद्य चिन्तामणि ही है । कतिपय स्थलों पर उत्तरपुराण भी इसका उपजीव्य है । धर्मशर्माभ्युदय का आख्यान } लत्रणसमुद्र के मध्य में कमल के समान शोभा देनेवाला जम्बूद्वीप है । इसके बीच में सुमेरु पर्वत है। दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र है । उसके मार्यखण्ड में उत्तरकोशल नाम का देश है और उस देश में सुशोभित है रत्नपुर नाम का नगर । रत्नपुर के राजा महासेन थे । महासेन अपनी महती सेना के कारण सचमुच ही महासेन थे । उनकी रानी का नाम सुद्रता था । सुत्रता, जहाँ शील, संयम आदि गुणों के द्वारा अपने नाम को सार्थक करती थी वहाँ वह सौन्दर्यसागर की एक अनुपम वेला भी थी । अवस्था ढल गयी फिर भी सुत्रता के पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए राजा महासेन का मन चन्द्ररहित गगन के समान मलिन रहने लगा । पुत्र के बिना राजा चिन्तानिमग्न थे उसी समय वनमाली ने वन में वरुण नामक मुनिराज के आगम की सूचना दी। मुनि आगमन का सुखद समाचार पाकर राजा का रोम-रोम खिल उठा तथा नेत्रों से हर्ष के आंसू बरस पड़े । राजा महासेन, सुव्रता के साथ गजेन्द्र पर आरूढ़ हो मुनि-दर्शन के लिए चल पड़े। उनके साथ नगरवासियों की बड़ी भीड़ भी चल रही थी। वन के निकट पहुँचते ही राजा ने राजकीय वैभव - छत्र, चमर आदि का त्याग कर दिया और पैदल ही चलकर सुनिराज के समीप पहुँचे । प्रदक्षिणा और नमस्कार की प्रक्रिया को पूरा कर राजा ने किं कल्पते कुरङ्गाक्षि शोचनं दुःखशान्तये । आतप क्लेशनाशाय पावक्रस्य प्रवेशवत् || प्र. ल., श्लोक ५३, जी. घ. सुमित्राद्यास्तयोः पुत्रास्तेष्वप्यन्यतमोऽस्म्यहम् । यसैव वयं पक्वा विश्वेऽपि न तु विद्यया ॥ * १. चिन्तामणि, उत्तर पुराण और जीवन्धरचम्पू- मेरे द्वारा सम्पादित और हिन्दी में अनुदित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। ג' २५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके मुखारविन्द से धर्म का उपदेश सुना और अन्त में सकुचाते हुए, सुब्रता के पुत्र न होने का कारण पूछा । मुनिराज ने कहा- तुम्हारी इस रानी के गर्भ से तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होनेवाला है, चिन्ता क्यों करते हो ? इतना कहकर उन्होंने तीर्थकर के पूर्वभघों फा निम्न प्रकार वर्णन सुनाया। धातकीखण्ड द्वीप के वत्स देवा में सुसीमा नाम का नगर था । वहीं राजा दशरथ राज्य करते थे । एक दिन रात्रि में चन्द्रग्रहण देखकर उनका भवभीरु मन संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। उन्होंने राज्य-वैभव छोड़कर मुनिदीक्षा लेने का विचार सभा में रखा । जिसे सुनकर चार्वाक मत का पक्षपाती सुमन्य मन्त्री परलोक का खण्डन करता हुआ राजा के प्रयत्न को व्यर्थ बतलाने लगा। परन्तु राजा ने सारगर्भित युक्तियों द्वारा सुमन्त्र की मन्त्रणा का निरसन कर विमलवाहन मनिराज के पास दीक्षा धारण कर ली । घोर तपश्चर्या की और दर्शन-विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थकर-प्रकृति का बन्ध किया। वे आयु के अन्त में समाधि धारण कर सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र हुए : है राजन् ! ई मा के ला अहभित्र का जीव, तुम्हारी रानी सुत्रता के गर्भ में अवतीर्ण होगा और पन्द्रहवें तीर्थंकर के रूप में प्रसिद्ध होगा। मुनिराज के इन वचनों से राजा महासेन और रानी सुत्रता के हर्ष का पार नहीं रहा । अन्त में मुनिराज को नमस्कार कर राजदम्पती अपने घर गये ।। इन्द्र की आज्ञा पाफर श्री, ही आदि देवियों का समूह जिनमाता की सेवा करने के लिए गगन-मार्ग से पृथिवीतल पर अक्तीर्ण हुआ और राजा की आज्ञा से अन्तःपुर में प्रविष्ट हो रानी सुव्रता की सेवा करने लगा। रानी ने नियोगानुसार ऐरावत हाथी आदि सोलह स्वप्न देखे । राजा महासेन ने उनका उत्तम फल सुनाकर उसे सन्तुष्ट किया । रानी गर्भवती हुई। गर्भावस्था के कारण रानी सुव्रता के शरीर की शोभा निराली हो गयी । माघशुक्ल-त्रयोक्शी की पुण्य बेला में पुष्य नक्षत्र के रहते हुए धर्मनाथ तीर्थकर का जन्म हुआ। तीर्थंकर का जन्म होते ही समस्त लोक में भानन्द छा गया। सौधर्म इन्द्र, चतुर्विध देवों के साथ नाना प्रकार के उत्सव करता हुआ रत्नपुर नगर आया । इन्द्राणी ने प्रसूतिका-ह में स्थित जिनमाता की गोद में मायानिर्मित बालक को रखकर जिन-बालक को उठा लिया तथा लाकर इन्द्र को सौंप दिया। इन्द्र भी जिन-वालक को लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हुआ और सुरसेना के साथ आकाश-मार्ग से सुमेरु पर्वत पर पहुँचा । सुमेरु पर्वत को अद्भुत शोभा देख, इन्द्र का हृदय बाग-बाग हो गया । सुरसेना पाण्डुक वन में विश्राम करने लगी। पाक बन में स्थित पाण्डक शिला को देखकर इन्द्र बहुत ही सन्तुष्ट हुआ। पाण्डुक शिला के ऊपर स्थित मणिमय सिंहासन पर इन्द्र ने जिन-बालक को विराजमान किया । कुबेर अभिषेक की तैयारियां करने लगा। अभिषेक का नल लाने के लिए देवों की पंक्तियां क्षीरसागर गयीं। वे क्षीरसागर की अद्भुत शोभा देख बहुत ही - महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन . Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न हुए । क्षीरसागर के जल से भरे हुए कलशों के द्वारा सौधर्मेन्द्र तथा ऐशानेन्द्र ने जिन बालक का अभिषेक किया। इन्द्र ने भगवान् की स्तुति की ओर इन्द्राणी ने आभूषण पहनाये । तदनन्तर उसी वंभय के साथ वापस आकर जिन चालक को माता की गोद में इन्द्र ने अद्भुत नृत्य किया । यह सब कर चुकने के अनन्तर देव लोग अपने-अपने स्थानों पर चले गये । साथ भगवान् धर्मनाथ पदार्पण किया । उनके विक्रिया ऋद्धि से बालशेष को धारण करनेवाले देवों के बालकीड़ा करने लगे । क्रम-क्रम से उन्होंने यौवन अवस्था में शरीर की सुषमा यद्यपि जन्म से ही अनुपम थी तथापि यौवन की अपेक्षा सहस्रगुणी हो गयी । विदर्भ देश के राजा प्रतापराज ने के स्वयंवर में कुमार धर्मनाथ को बुलाने के लिए प्रमुख दूत भेजा । पिता की आज्ञा पाकर धर्मनाथ, सेना सहित विदर्भ देश की ओर चल पड़े। उसे पार करते विन्ध्याचल पर पहुँचे । मधुर बेला में पहले की अपनी पुत्री शृंगारवती बीच में गंगा नदी मिली, विन्ध्याचल के प्राकृतिक सौन्दर्य से मुग्ध हो उन्होंने वहाँ निवास किया 1 प्रभाकर मित्र ने विन्ध्याचल की अद्भुत शोभा का वर्णन किया । किन्नरदेव ने विक्रिया से सुन्दर गावास की रचना कर वहां ठहरने की प्रार्थना की। उनके पुण्योदय से विन्ध्याचल पर एक साथ हों ऋतुएं प्रकट हो गयीं जिससे वन की शोभा अद्भुत दिखने लगो । साथ के स्त्री-पुरुष वनक्रीड़ा के लिए वन में बिखर गये । पुष्पित पल्लवित लताओं के निकुंजों में स्त्री-पुरुषों ने विविध क्रीडाएं कीं। पुष्पावचय किया । धान्त होने पर सबने नर्मदा के नीर में जल-क्रीड़ा की । जलशकुन्त्रों से युक्त लहराती हुई नर्मदा में जलक्रीड़ा कर युवा-युवतियों ने अपूर्व आनन्द का अनुभव किया । सायंकाल आया, संसार की अनित्यता का पाठ पढ़ाता हुआ सूर्य अस्त हो गया । रजनी का सघन तिमिर सर्वत्र फैल गया। थोड़ी देर बाद प्राची-गुरन्ध्री के ललाट पर चन्दनबिन्दु की शोभा को प्रकट करता हुआ चन्द्रमा उदित हुआ । हुई चांदनी में दम्पत्तियों ने पेयरस का पान किया, स्त्रियों ने किये । पान-गोष्ठियों के माध्यम से स्त्री-पुरुषों ने रात्रि पूर्ण की। उषा की लाली छा गयी। प्रभात हुआ और युवराज धर्मनाथ ने किया | नर्मदा नदी को पार कर वे विदर्भ देश में पहुंचे। वहीं कुण्डिनपुर के राजा प्रतापराज ने उनका बहुत स्वागत किया । चारुचन्द्र की चमकती नये-नये प्रसाधन धारण कथा धीरे-धीरे प्राची में आगे के लिए प्रस्थान स्वयंवर - मण्डप राजकुमारों से परिपूर्ण था। युवराज धर्मनाथ के पहुँचते ही सबकी दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हुई। सखियों के साथ शृंगारवती ने स्वयंवर मण्डप में प्रवेश किया । सखी ने क्रम-क्रम से सब राजकुमारों का वर्णन किया परन्तु श्रृंगारवती की दृष्टि किसी पर स्थिर नहीं हुई। अन्त में धर्मनाथ की रूपमाधुरी पर मुग्ध होकर श्रृंगारवती ने उनके कण्ठ में वरमाला डाल दी । धर्मनाथ ने जब कुण्डिनपुर की सड़कों पर प्रवेश किया तब वहाँ की नारियाँ कुतूहल से प्रेरित हो अपने-अपने कार्य छोड़ झरोखों २७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आ हटौं। धर्मनाथ का विधिपूर्वक विवाह हुआ। उसी समय पिता का पत्र पाकर धर्मनाथ, कुबेरनिर्मित विमान के द्वारा सपत्नीक घर आ गये और सेना का सब भार सुषेण सेनापति के अधीन कर आये । रत्नपुर में धर्मनाथ का अभूतपूर्व सत्कार हुआ। इसी के मध्य उनके पिता महासेन महाराज, संसार से विरक्त हो गये। उन्होंने युवराज धर्मनाथ के लिए नोति का उपदेश देकर उनका राज्याभिषेक कराया और स्वयं वन में जाकर दीक्षा धारण कर ली । राजा धर्मनाथ ने अच्छी तरह राज्य का पालन किया । सुषेण सेनापति प्रतिरोधी राजकुमारों को परास्त कर सकुशल वापस आ गया । एक दूत ने अनेक राजाओं के साथ हुए युद्ध में सुषेण सेनापति की शूरता का कि जब मानाय । म किया तः वे सन्न हुए। दीर्घकाल तक राज्य करने के बाद एक दिन उल्कापात देख, धर्मनाथ का मन संसार से विरक्त हो गया। जिससे समस्त राज्य को तृण के समान छोड़कर वे वन में दीक्षित हो गये । केवलज्ञान प्राप्त होने पर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरणधर्मसभा को रचना की। उसफे मध्य में सिंहासन पर अन्तरिक्ष में विराजमान हुए श्री धर्मनाथ भगवान का अष्टप्रातिहार्यरूप दिच्य ऐश्वर्य सबको आकृष्ट कर रहा था। भगवान् ने दिव्य ध्वनि के द्वारा जैन-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अन्त में सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया । जीवन्धर-परित का तुलनात्मक अध्ययन . गद्यचिन्तामणि, उत्तरपुराण तथा जीवन्धरचम्पू आदि के आधार पर जीवन्धरचरित का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। __एक बार मगध सम्राट् राजा श्रेणिक भगवान् महावीर के समवसरण सम्बन्धी आनापि पारों वनों में घूम रहे थे। वहीं पर अशोक वृक्ष के नीचे जोवन्धर मुनिरान ध्यानारूढ़ थे। महाराज श्रेणिक उनके अनुपम सौन्दर्य तथा अतिशय प्रशान्त ध्यानमुद्रा से आकष्टचित्त हो उनका परिचय प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो उठे । फलतः उन्होंने समवसरण के भीतर जाकर सुघर्माचार्य गणघरदेव से पूछा-"ये मुनिराज कौन हैं ? जान पड़ता है अभी हाल कर्मों का आय कर मुक्त हो जाने वाले हैं ।" इसके उत्तर में चार ज्ञान के धारक सुधर्माचार्य कहने लगे हे श्रेणिक ! इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी हेमांगद देश में राजपुर नगर सुशोभित है। इस नगर का राजा सत्यन्धर था और उसकी दूसरी विजय-लक्ष्मी के समान विजया नाम की रानी थी। राजा सत्यन्घर का काष्ठांगारिफ नाम का मन्त्री था और देवजन्य उपद्रवों को नष्ट करनेवाला सवदत्त नाम का पुरोहित था। एक दिन १. गवितामणि आदि में इस पुरोहित का कोई उल्लेख नहीं है। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीला Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयारानी ने दो स्वप्न देखे। पहला स्वप्न था कि राजा सत्यन्ध र ने मेरे लिए आठ घण्टाओं से सुशोभित अपना मुकुट दिया है और दूसरा स्वप्न था कि वह जिस अशोकवृक्ष के नीचे बैठी थो उसे किसी ने कुल्हाड़ी से काट दिया है और उसके स्थान पर एक छोटा-सा अशोक का वृक्ष उत्पन्न हो गया है। प्रातःकाल होते ही रानी ने राजा से स्वप्नों का फल पूछा। राजा ने कहा कि मेरे मरने के पश्चात् तुम शीघ्र ही ऐसा पुत्र प्रास करोगी, जो आठ लाभों को पाकर पृथिवी का भोक्ता होगा। स्वप्नों का प्रिय तथा अप्रिय फल सुनकर रानी का चित्त शोक और हर्ष से भर गया। उसकी व्यग्रता देख राजा ने उसे अच्छे शब्दों से सन्तु कर दिया, जिससे दानी का माल सुख से ब्यतीत होने लगा। __उसी राजपुर नगर में एक गन्धोत्कट नामक धनी सेठ रहता था। उसने एक बार तीन ज्ञान के धारक शीलगुप्त मुनिराज से पूछा, "भगवन् ! हमारे बहुत-से अल्पायु पुत्र हुए है, क्या कभी दीर्घायु पुत्र भी होगा ?" मुनिराज ने कहा, "हाँ, त दोर्षायु पुत्र प्रास करेगा। किस तरह ? यह भी सुन । तेरे एक मुल पुत्र उत्पन्न होगा। उसे छोड़ने के लिए जब तू वन में जायेगा तब यहीं किसी पुण्यात्मा पुत्र को पायेगा। वह पुत्र समस्त पृथिवी का उपभोक्ता हो अन्त में मोक्ष-लक्ष्मी को प्रास' करेगा।" जिस समय मुनिराज, गन्धोत्कट से यह वचन कह रहे थे उसी समय वहाँ एक यक्षी बैठी थी। मुनिराज के वचन सुन यक्षी के मन में होनहार राजपुत्र की माता का उपकार करने की इच्छा हुई । निदान, जब राजपुत्र की उत्पत्ति का समय आया तब वह यक्षी उसके पुण्य से प्रेरित हो राजकुल में गयी और एक गाँड्यन्त्र का रूप बनाकर पहुंची। वसन्त ऋतु का समय था। एक दिन रुद्रदत्त पुरोहित प्रातःकाल राजा के घर गया। उस समय रानी आभूषणरहित बैठो थी। पुरोहित ने पूछा कि राजा कहाँ हैं ? रानी ने उत्तर दिया कि अभी सोये हुए हैं, इस समय उनके दर्शन नहीं हो सकते । रानी के इन वचनों को अपशकुन समझ वह लोट आया और काष्ठांगारिक मन्त्री के घर गया। पाप-बुद्धि पुरोहित ने मन्त्री से एकान्त में कहा, "तू राजा को मार डाल ।” मन्त्री ने पुरोहित की बात मानने में असमंजसता दिखायी तो पुरोहित ने दृढ़ता के साथ कहा, "राजा के जो पुत्र होनेवाला है वह तेरा प्राणघातक होगा इसलिए इसका प्रतिकार कर 1" रुद्र दत्त इतना कहकर घर चला गया और रोग से पीड़ित हो तीसरे दिन मर कर चिरकाल तक दुख देनेवाली नरक गति में जा पहुंचा। ___ इघर काष्टांगारिक में रुद्रदत्त के कहने से अपनी मृत्यु की आशंका कर राजा १. चिन्तामणि आदि में तीन स्वप्नों की चर्चा है--पहले स्वप्न में एक विशाल अशोक वक्ष वेरमा, दूसरे स्वप्न में उस वक्ष को नष्ट हुअा देखा और प्रोसरे स्पष्क में उस नष्ट वृक्ष में से उत्पन्न युए एफ छोटे अशोक पृस को घेखा जिसकी बार शाखाओं पर आठ मालाएँ तटक रही थी। २. गचिन्तामणि में पर्या है कि राजा सरमन्धर ने रानी का बाकाश-भ्रमण सम्बन्धो दोहद पुर्ण _करने के लिए कारीगर से मयूरयन्त्र बनवाया था और इसमें बैठाकर उसे आकाश में घुमाया था। १. गचिन्तामणि आदि में इसको कोई चर्चा नहीं है। कथा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मारने की इच्छा की । उसने धन देकर दो हजार शूरवीर राजाओं को अपने अधीन कर लिया। वह उन्हें साथ लेकर युद्ध के लिए राजमन्दिर की ओर चल पड़ा। जब राजा को इस बात का पता चला तब उसने रानी को गरुडयन्त्र पर बैठाकर यहीं से शीघ्र ही दूर कर दिया। काष्टांगारिक मन्त्री ने पहले जिन राजाओं को अपने वश कर लिया था, उन राजाओं ने जब सत्यन्धर को देखा तब वे मन्त्री को छोड़ राजा की ओर हो गये। राजा सत्पन्धर ने उन सबको साथ ले काष्टांगारिक मन्त्री पर आक्रमण किया और उसे खदेड़कर भयभीत फर दिया । काष्टांगारिक के पुत्र कालांगारिक ने जब पिता को हार का यह समाचार सुना तब वह बहुत-सी सेना लेकर अकस्मात् वहाँ जा पहुँचा। उसकी सहायता से कामरिक ने रान यन्धनको पार हाल और स्वयं राजा बन बैठा। विजयारानी गरुडपन्न पर बैठकर श्मशान में पहुंची। वह शोक से बहुत विह्वल थी परन्तु पूर्वोक्त यक्षी उसकी रक्षा कर रही थी। उसी श्मशान में रात्रि के समय विजयारानी ने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र-जन्म का रानी को थोड़ा भो आनन्द उत्पन्न नहीं हुआ। इसके विपरीत भाग्य की प्रतिकूलता पर शोक ही उत्पन्न हुआ। . यक्षी ने सारगर्भित शब्दों में उसे सान्त्वना दी। गन्धोत्कट सेठ भी अपने मृत पुत्र को छोड़ने के लिए उसी श्मशान में पहुंचा और शीलगुप्त मुनिराज के वचनों का स्मरण कर दीर्घायु पुत्र की खोज करने लगा। रोने का शब्द सुन विजयारानी के पुत्र की ओर उसकी दृष्टि गयी। सेठ ने 'जीव-जीव' कहकर उस पुत्र को दोनों हाथों से उठा लिया । विजयारानी ने आवाज से सेट को पहचान लिया और उसे अपना परिचय देकर कहा, "भद्र ! तू मेरे पुत्र का इस प्रकार पालन करना कि जिससे किसी को परिचय न मिल सके।'' 'मैं ऐसा ही करूंगा' कहकर सेट उस पुत्र को घर ले गया और अपनी पत्नी सुनन्दा को डांट दिखाते हुए बोला, "तू ने जीवित पुत्र को मृत कैसे कह दिया ?" सुनन्दा उस पुत्र को पाकर बड़ी प्रसन्न हुई। सेठ ने जन्म-संस्कार कर उसका 'जीवक' अथवा 'जीवन्धर' नाम रखा। सेठ के घर जोवन्धर का अच्छी तरह लालन-पालन १. यहाँ उत्तरपुराण में श्मशान का वर्णन करते हुए गुण भद्र स्वामी ने जलती चिताओं में से बधजले मुरदे पोवार उहें खण्ड-खण्ड कर खातो हुई राकिनियों का दर्शन किया है और इसका अनुकरण कर जोवन्धरचम्पूकार ने भी अक्का गय लिखा है पर गारचिन्तामा में मात्र रमशान का उसलेख कर छोड़ दिया है। उसमें डाकिनी-शाकिनी आदि का कोई उक्लेख नहीं किया है। हाईकनी आदि पन्तर येवों का मांस भक्षण शास्त्र-सम्मत थी तो नहीं है जिन्ह'ने वर्णन किया है एन्होंने मात्र कवि-सम्प्रदायवश किया है। २. चिन्तामणिकार ने यक्षी को विजयारानी की धपक माला दासी के वेप में प्रस्तुत किया है पर . उरारपुराग में इसकी चर्चा नहर है। ३. गयचिन्यामकार ने गन्धरकट के पहुंचने पर रानी का वृक्ष की ओट में अन्तहित कर दिया है और ज्यों हो गन्धोत्कृट ने उस नाशक को उदारा श्मों ही आकाश में 'मीर' इस सन्द का उच्चारण कराया है। ४, पराया पुत्र समझ सुनन्या इसका ठीक-ठीक पालन नहीं करोगी, इस आशका से पूरपर्शी २८ मे सुनन्दा के सामने यह भेद प्रकट नहीं किया कि यह किसी दूसरे का पुत्र है। ३० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने लगा। विजयारानी' उसी गरुडयन्त्र में बैठकर पण्डक बन में स्थित तपस्वियों के पाश्रम में चली गयी और वहाँ अपना परिचय न देकर तापसी के वेष में रहने लगी। यक्षी बीच-बीच में जाकर उसका शोक दूर करती रहती थी। राजा सत्यन्धर की भामारति और अनंगपताका नाम की दो छोटी स्त्रियाँ और थीं। उन दोनों ने मार और वकुल नाम के दो पुत्र प्राप्त किये । इन दोनों हो रानियों ने धर्म का स्वरूप सून श्रावक के व्रत धारण कर लिये थे इसलिए ये दोनों ही भाई गन्धोत्कट के यहाँ ही पलन-पोषण को पाम हो रहे थे। उसी नगर में विजयमति, सागर, धनपाल और मतिसागर नाम के चार नायक और थे जो कि अनुक्रम से राजा के सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी और मन्त्री थे। इन चारों की स्त्रियों के नाम अनुक्रम से जयावती, श्रीमती, श्रीदत्ता और अनुपमा थे। इनसे क्रमशः देवसेन, बुद्धिषेण, वरदत्त और मधमुख नाम के पुत्र हुए थे। मधुमुख आदि को लेकर वे छहों पुत्र जीवन्धरकुमार के साथ वृद्धि को प्राप्त हुए थे। इधर गन्धोत्कट की स्त्री सुनन्दा ने भी नन्दाढ्य नाम का पुत्र उत्पन्न किया। ___ 'एक दिन जीवन्धरकुमार नगर के बाहर अपने साथियों के साथ गोली बंटा आदि खेल रहे थे कि इतने में एक तपस्वी ने आकर. पूछा कि यहाँ से गांव कितनी दूर है ? तपस्वी का प्रश्न सुन जीवन्धरकुमार ने उत्तर दिया, "आप युद्ध होकर भी अज्ञानी हैं ? बालकों की भीड़ा देख कौन नहीं जान लेगा कि नगर पास ही है।" जीवन्धर की उत्तर-प्रणाली से तपस्वी बहुत प्रसन्न हुआ और जान गया कि यह कोई राजनेश का उत्तम बालक है। फिर भी परीक्षार्थ उसने कहा कि तुम मुझे भोजन दोगे? जीवन्धरकुमार ने उसे भोजन देना स्वीकृत कर लिया और साथ लेकर घर आने पर अपने पिता गन्धोत्कट से कहा, "मैंने इसे भोजन देना स्वीकृत किया है, फिर आपकी जो आज्ञा 2. गवन्तामणि में चर्चा है कि चम्पकमाता दासी का श्रेघ सख नेपाली पक्ष में रानी के सामने भाई घर चले जाने का प्रस्ताव रखा पर रानी ने विपत्ति के समय स्वयं किसी के यहाँ जाना स्त्री कृष्ण नहीं किया । तब वह उसे दण्डन में भेज आयी। २. यह कया गयचिन्तामणि आदि में नहीं है मात्र बुद्धिग का लेख सुर में प्रकरण में श्रवस्य आया है। ३. गन्धोएकट सेठ बड़ा बुम्निमाद और दीर्घ दी था। उसने विचार किया कि यदि काष्ठागार से अन्ग रहते हैं तो यह राजपूत्र जोवन्धर को कभी भी अपनो हदि मे ताड़ सकता है हरा लिए कार से बच उससे मिल गया और मिलकर उसने अत्यधिक धन पाम किया। उसके मन में आया कि सदि राजपत्र को रक्षा के लिए अलग से सेना रखी जायेगी तो भेद जदौल जायेगा, इसलिए उसने कहा रिफ की आला से उस दिन नगर में उत्पन्न हुए सब बालकों को अपने घर बुन्ना लिया और सबका पाज्ञन अपने हो घर कराने लगा । उसका अभिवाय था कि बड़े होने पर थे औषम्घर के अभिन्म गित होगे और वही एक छोटी-मोटो सेना का काम देंगे। साथ हो अनेक पालकों के यौन राजपुत्र-जीनवर का अभिवान RI सरना भी काष्ठगिरिक के लिए दुर्भर रहेगा-चिन्तामणि में इसका अच्छा संकेत है। *. इस घटना को चिन्तामणिकार ने कोई उन्नाव नहीं किया है । हो, जीवन्धचम्कार ने किया है शीर मदरसा केरा किया है। कथा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो !" पुत्र की विनम्रता से गन्वोत्कट बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा, "तू भोजन कर, यह तपस्त्री मेरे साय भोजन कर लेगा।" जीवनधर भोजन के लिए भोजनशाला में बैठे। भोजन गरम था इसलिए रोने लगे। उन्हें रोते देख तपस्वी ने पूछा “तू अच्छा बालक होकर भी क्यों रीता है ?" इसके उसर में जीवन्धरकुमार ने रोने के अनेक गुण बता दिये । जिसे सुन हास्य गंज उठा और प्रसन्नता का वातावरण छा गया । __ जीवन्धरचम्पू और गद्यचिन्तामणि में चर्चा है कि वह तपस्त्री भस्मक-व्याधि से पीड़ित होने के कारण उस भोजनशाला में हुए समस्तजा गया फिर भी उसे तृप्ति नहीं हुई। आश्चर्य से चकित बालक जीवन्धर ने अपने हाथ का एक पास उसे दिया । जिसे खाते ही उसकी क्षुधा शान्त हो गयी। कृतज्ञता से प्रेरित तपस्वी ने बालक जीवन्धर को विद्या पट्टाना उचित समझा। जब गन्धोत्कट भोजन कर चुका तब शान्ति से बैठे हुए तपस्वी ने कहा, "यह बालक बहुत होनहार है। मैं इसे पढ़ाना चाहता हूँ।" गन्धोरकट ने कहा, "मैं श्रावक हूँ इसलिए अन्य लिगियों को नमस्कार नहीं करता । नमस्कार के अभाव में आपको बुरा लगेगा अतः आपसे पढ़ाई का काम नहीं हो सकता।" इसके उत्तर में तपस्वी ने अपना परिचय दिया, "मैं सिंहापर का राजा था, आर्यवर्मा मेरा नाम था, चीर-नन्दी मुनि से धर्म का स्वरूप सुन सम्यग्दर्शन धारण कर लिया और अपने तिपेण पुत्र को राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली, परन्तु भस्मक-व्याधि से पीड़ित होने के कारण मैंने तपस्वी का वेष धारण कर लिया है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, तुम्हारा धर्मबन्धु हूँ।" इस प्रकार तपस्त्री के वचन सुन तथा उसकी परीक्षा कर गन्धोत्कट सेठ ने उसके लिए मित्रों सहित जीवनरकुमार को सौंप दिया ।' तपस्त्री ने थोड़े ही समय में जीवघरकुमार को समस्त विद्याओं का पारगामी बना दिया और स्वयं फिर से 'दीक्षा धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। तदनन्तर कालकूटननामक भीलों के राजा ने अपनी सेना के साथ नगर पर आक्रमण कर गायों का समूह चरा ले जाने का उत्पात किया। काष्टांगारिक ने घोषणा करायी कि गायों को छुड़ानेवाले के लिए गोपेन्द्र की स्त्री गोपथी से उत्पन्न गोदावरी नाम को कन्या दी जायेगी। इस घोषणा को सुनकर जीवन्ध रकुमार, काष्टांगारिक के पुत्र कालांगारिक तथा अन्य साथियों के साथ काव्यकूट भील के पास पहुँचे और उसे १. इस बिनोद घटना का भी चिन्तामणि में कोई वर्णन नहीं है परन्तु जीवन्धरचम्भू में बड़ी सरसता के साथ इसका वर्णन किया गया है। २. जीवन्धरचा आय में गुरु ने विद्याध्ययन समाप्ति के पश्चात् अपना परिचय देते हुए कहा है, "मैं विनारों के निवास स्थल में लोकपाल नाम का राजा था।" आदि । ३. जोवन्धरम् आदि ने नर्णन है कि तपस्मो ने भद्याएं पूर्ण होने के नाब जघन्घर को रत्नप्रय का उपदेश दिया और साथ में यह भी कहा, "तुम राजा सत्यन्धर के गृष हो । काठोगार ने तुम्हारे पिता को मार डाला था।" यह मनमर जोवन्धरकुमार को कायागार पर बहुत कध बाया और उसे मारने को तत्पर हो गये परन्तु तपस्वी ने उसे समझाकर एक वर्ष तक ऐसा न करने के लिए शान्य कर दिया। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परास्त कर गायें वापस ले आये । इस घटना से कुमार की बहुत कीति फैली । कुमार' ने अपने सब साथियों से कहा, "तुम लोग एक स्वर से राजा काष्ठांगारिक से कहो कि भील को नन्दाय ने जीता है।" इस प्रकार राजा के पास सन्देश भेजकर उन्होंने पूर्वघोषित गोदावरी फन्या विवाह-पूर्वक नन्दाय को दिलवायी। भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजया पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक गगनवल्लभ नाम का नगर है, उसमें विद्याधरों का राजा महडवेग राज्य करता था। दैवयोग से उसके भागीदारों ने उसका अभिमान नष्ट कर दिया, इसलिए वह भागकर रत्नबीप में चला गया और वहाँ मनुजोदय पर्वत पर एक सुन्दर नगर बसाकर रहने लगा। उसकी स्त्री का नाम धारिणी था और उन दोनों के गन्नदत्ता नाम की पुत्री थी। जब वह विवाह के योग्य अवस्था में पहुंची तब राजा ने मन्त्रियों से वर के लिए पूष्ठा । उत्तर में मन्त्री ने भविष्य के ज्ञाता मुनिराज से जो सुन रखा था वह कहा "हे राजन् | मैंने एक बार सुमेरु पर्वत के नन्दन वन में स्थित विपुलमति नामक चारणऋद्धि-धारक मुनिराज से आपकी कन्या के वर के विषय में पूछा था तो उन्होंने कहा था कि भरतक्षेत्र के हेमांगद देश में एक राजपुरी नाम की नगरी है । उसके राजा सत्यन्धर और रानी विजया के एक जोवन्धर नाम फा पुत्र हुआ है वह बीणा के स्वयंवर में गन्धर्ववत्ता को जीतेगा । वही उसका पति होगा। राजा ने उसो मतिसागर मन्त्री से पुनः पूछा कि भूमिगोचरियों के साथ हम लोगों का सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? इसके उत्तर में उसने मुनिराज से जो अन्य बातें सुन रखी थी वे स्पष्ट कह सुनायींउसने कहा कि राजपुरी नगरी में एक वृषभदत्त रोठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम पद्मावती था और उन दोनों के एक जिनदत्त नाम का पुत्र था । किसी एक समय रामपुरी के उद्यान में सागरसेन जिन राज पधारे थे। उनके केवलज्ञानसम्बन्धी उत्सव में वह अपने पिता के साथ बाया था । आप भी वहां पधारे थे इसलिए उसे देख आपका उसके साथ प्रेम हो गया था। वहो जिनदत धन कमाने के लिए रत्नद्वीप आयेगा, उसी से हमारे इष्ट कार्य की सिद्धि होगी।" . इस तरह कितने ही दिन बीत जाने पर जिनदत्त रत्नद्वीप आया। राजा गरुड़वेग ने उसका पर्याप्त सत्कार किया और उसे सब बात समझाकर गन्धर्वदत्ता सौंप दी। जिनदत्त सेठ ने भी राजपुरी नगरी में वापिस आकर मनोहर नामक उद्यान में गन्धर्वदता के वीणा स्वयंवर की घोषणा करायी। स्वयंवर में जीवन्धरकूमार ने १ गधिन्तामणि आदि में एश्लेख है कि कालागार की सेना के हार जाने पर नन्दपोप ने घोषणा करायी सी और विजय के बाद जब वह अपनी कन्या जीवन्धर को देते लगा तम उन्होंने न लेकर अपने मित्र पहास्य को दिलायी। २. गद्यचिन्तामन आदि में गरुध्वेग का नगर निवालोक बहलाया है तथा उसके भाग कर रत्नदीप में बसने का कोई इग्लेख नहीं है। वर के विषय में मुनिराज की भविष्यवाणी न देकर ज्योतिषियों की बात लिखी है। जिनदत्त सेठ के अगले श्रीदत्त सेठ का उल्लेख है। श्रीदस समुदाय के लिए गया था. पर लौटते समय विद्याधर की माया से उभे लगा कि हमारा जहाज डूम गया है। वह उसके साथ विजार्ध पर्वत पर स्थित नित्यालीकनगर में पहुँचता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धर्वदत्ता को सुघोषा नामक वीणा लेकर उसे इस तरह बजाया कि वह अपने बापको पराजित समझने लगी तथा उसी क्षण उसने जोवघर के गले में करमाला डाल दी। इस घटना से काष्ठांगारिक का पुत्र 'कालांगारिक बहुत क्षुभित हुआ। यह गन्धर्वदत्ता को हरण करने का उद्यम करने लगा, परन्तु बलवान जीवन्धरकुमार ने उसे शीघ्न ही परास्त कर दिया | गन्धर्वदत्ता के पिता गरुड़वेग ने अनेक विद्याधरों के साथ आकर सबको शान्त किया और विधिपूर्वक गन्धर्वदत्ता का जीवन्धरकुमार के साथ पाणिग्रहण करा दिया । इसी राजपुरी नगरी में एक वैश्रवणदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी आम्रमंजरी नामक स्त्री से सुरमंजरी नाम की कन्या हुई थी। उस सुरमंजरो को एक श्यामलता नाम की दासी थी। वसन्सोत्सव के समय श्यामलता, सुरमंजरी के साथ उद्यान में आयी थी। वह अपनो स्वामिनी का चन्द्रोदय नामक चूर्ण लिये श्री और उसकी प्रशंसा लोगों में करती फिरती थी। उसी नगरी में एक कुमारदत्त सेठ रहता घा, उसकी जिमला नामक स्त्री से गुणमाला नामक पुत्री हुई थी। गुणमाला की एक विघल्लता' नाम की दासी थी 1 वह अपनी स्वामिनी का सूर्योश्य नामक चूर्णं लिये थी और उसकी प्रशंसा लोगों में करती फिरती थीं । चूर्ण को उत्कृष्टता को लेकर दोनों कन्याओं में विवाद चल पड़ा। उस वसन्तोत्सन' में जीवन्धरकुमार भी अपने मित्रों के साथ गये हुए थे। जब चूर्ण को परोक्षा के लिए उनसे पूछा गया तब उन्होंने सुरमंजरी के चूर्ण और सिद्ध किया। नमर के लोग वसन्तोत्सव में लोन थे। उसी समय कुछ दुष्ट बालकों ने चपलतावश एक कुत्ते को मारना शुरू किया। भय से म्याकुल होकर वह मागा और एक कुण्ड में गिर कर मरणोन्मुख हो गया । जीवघरकुमार ने यह देख उसे अपने नौकरों से बाहर निकलवाया और पंप नमस्कार मन्त्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह चन्द्रोदय पर्वत पर सुदर्शन यक्ष हुआ। पूर्वमन का स्मरण कर वह जीवन्धर के पास माया और उनकी स्तुति करने लगा। अन्त में वह जीयन्धरकुमार से यह कहकर अपने स्थान पर चला गया कि दुख और सुख में मेरा स्मरण करना । जब सज लोग क्रीड़ा कर वन से लौट रहे थे तब काष्ठांगारिक के अशनिधोष नामक हाथी ने कुपित होकर जनता में आतंक उत्पन्न कर दिया। सुरमंजरी उसको चपेट में आनेवाली ही थी कि जीवन्धरकुमार ने टीक समय पर पहुँचकर हाथी को १. जीवन्घरदम्प आदि में कालागारिक की कोई चर्चा नहीं है। स्वयं काहगार ने आगत राजकुमारों को उत्तेजित किया है। २, गद्यविस्तामपि तया जोवतारचम्पू आदि में वर्श है कि जीपश्वरकुमार ने गुणमाला के चूर्ण को उस्कृष्ट सिद्ध किया था इसलिए समंजरी कुपित होकर विना तान किमे ही घर वापस चली गयी थी। ३. गद्यविम्तामप्पि आदि में चर्चा है कि भोजन को मुंघने के अपराध से कृम्ति माह्मणों ने उस से को न तथा पर आदि से इतना मारा कि वह मरणोन्मुख हो गया। ३१ महाकवि हरिचन्न : एक अनुशीलन Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदरहित कर दिया। इस घटना से सुरमंजरी का जीवन्धर के प्रति अनुराग बढ़ गया और उसके माता-पिता ने जीवन्धर के साथ उसका विवाह कर दिया ।" जीवम्बर कुमार का सुवा सब ओर फैलने लगा जिससे काष्ठांगारिक भ्रम ही मन कुपित रहने लगा । ' इसने हमारे हाथी को बाधा पहुँचायी है' यह बहाना लेकर काष्ठांगारिक ने अपने चण्डदण्ड नामक मुख्य रक्षक को आदेश दिया कि इसे शीघ्र ही ममराज के घर भेज दो। आज्ञानुसार चण्डदण्ड अपनी सेना लेकर जीवम्बर की ओर मोड़ परन्तु पहले ही उसे पराजित कर भगा दिया। इस घटना से काष्यशंगारिक और भी अधिक कुपित हुआ । अबकी बार उसने बहुत-सी सेना भेजी परन्तु दयालु जीवम्बरकुमार ने निरपराध सैनिकों को मारना अच्छा नहीं समला, इसलिए सुदर्शन यक्ष का स्मरण कर सब उपद्रव शान्त कर दिया। सुदर्शन यक्ष उन्हें विजयगिरि हाथी पर बैठाकर अपने घर ले गया । जीवन्धरकुमार को यक्ष के साथ जाने का समाचार गन्धर्वदत्ता को छोड़कर किसी को विदित नहीं था इसलिए सब लोग बहुत दुखी हुए परन्तु गन्धर्वदत्ता ने सबको सान्त्वना देकर स्वस्थ कर दिया । जीबन्धरकुमार, यक्ष के घर में बहुत दिन तक सुख से रहे । पश्चात् चेष्टाओं द्वारा उन्होंने यक्ष से अपने जाने को इच्छा प्रकट की। उनका अभिप्राय जान यक्ष ने उन्हें कान्ति से देवीप्यमान इच्छित कार्य को सिद्ध करनेवाली और मनवाहा रूप बना देनेवाली एक अँगूठी देकर पर्यत से नीचे उतार दिया तथा सब मार्ग समझा दिया । "कुछ दूर चलने पर जीवम्बर चन्द्राभनगर पहुँचे । वहाँ धनपति नाम का राजा था और तिलोत्तमा नाम की उसकी स्त्री थी। दोनों के पद्मोत्तम माम की पुत्री थी । एक बार वनविहार के समय पद्मोत्तमा को सांप ने काट खाया । सर्प विष से पद्मोत्तमा मूच्छित हो गयी । उपचार करने पर भी जब अच्छी नहीं हुई तब राजा धनपति ने उसे अच्छी कर देनेवाले के लिए आधा राज्य और वही कन्या देने की घोषणा करायी । राजा धनपति के सेवकों के आग्रह से जीवम्बर उसके घर गये और यक्ष का स्मरण कर भन्त्र द्वारा उन्होंने पद्मोत्तमा का विष दूर कर दिया। शका बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसने जीवम्बर के लिए अपना भाषा राज्य तथा पद्मोसमा कन्या दे दो । राजा पसि के लोकपाल आदि बत्तीस पुत्र थे। उन सबके स्नेहवरा जीवम्वर वहाँ कुछ समय तक सुख से रहे । 3 २. चिणदि में यहाँ मुरमंजरी के साथ विवाह न कर गुणमाला के साथ विवाह कराने का उल्लेख है । २. गधचिन्तामणि आदि में विडूर करनेवाली. मनचाहा रूप मना देनेवाली और उत्कृष्ट मोहक संगीत करानेवाली तीन त्रिचाएं दीं. ऐसा उश्लेख है। ३. चिन्तामणि आदि में चन्द्रामनगर पहुँचने के पूर्व रम में दावा री झुलसते हुए हाथियों और यक्ष के स्मरण से अाकस्मिक वृष्टि द्वारा उनका उपद्रव शान्त होने का वर्णन है। ४. गद्यचिन्तामणि आदि में राजा का नाम लोकपाल दिया है। ५. चिन्तामणि आदि में कन्या का नाम था दिया है। कथा ३५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदनन्तर चुपचाप वहाँ से चलकर क्षेमदेश के क्षेमनगर पहुँचे। वहां के बास्य उद्यान में सस्रकूट जिनालय देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उनके पहुंचते ही चम्पा फूल उठा, कोकिलाएँ बोलने लगीं, सूखा सरोवर भर गया और मन्दिर के द्वार के कपाट अपने झाप खुल गये । कुमार ने सरोवर में स्नान कर भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा की और वहाँ के सुभद्र रोठ को निर्वृति नामक स्त्री से उत्पन्न क्षेमसुन्दरी कन्या के साथ विवाह किया। एक दिन प्रसन्न होकर सुभद्र सेठ ने जीवन्धर से कहा, "जब मैं पहले राजपुर नगर में रहता था तब राजा सत्यन्धर ने मुझे यह धनुष और ये बाण दिये थे। ये आपके ही योग्य है अतः आप ही ग्रहण कीजिए।" यह कहकर वह धनुष और बाण उन्हें दे दिये । जीवारामार अनुष-बाण करताए। कहीं - उनकी प्रथम स्त्री गन्धर्वदत्ता अपनी विद्या के द्वारा उनके पास गयी और उन्हें सुख से बैठा देख किसी के जाने बिना वापस आ गयी। “वहाँ से चलकर जीवन्धरकुमार सुजन' देश के हेमाभनगर पहुँचे । वहाँ का राजा दृढमित्र था और उसकी स्त्री का नाम नलिना था। दोनों के एक हेमामा नाम की कन्या थी । हेमाभा के जन्म के समय किसी निमित्तज्ञानी ने बताया कि मनोहर नामक आयुधशाला में जिसका बाण लक्ष्यस्थान से लौटकर पीछे आयेगा वही इस कन्या का पति होगा । अन्य धनुषधारियों के कहने से जीवन्धरकुमार ने भी अपना बाण छोड़ा और वह लक्ष्य को बेधकर वापस उनके पास आ गया। निमित्तज्ञानी के कहे अनुसार उनका हेमामा के साथ विवाह हो गया। गन्धर्वदत्ता की सहायता से नन्दाय स्मरतरंगिणी नामक शय्या पर सोकर भोगिनी विद्या के द्वारा जीवन्धरकुमार के पास पहुँच गया । राजा दृढ़मित्र के गुणमित्र, बहुमित्र, सुमित्र और घनमित्र आदि कितने ही पुत्र थे। उन सबके साथ जीवन्धरकुमार का समय सुख से व्यतीत होता रहा । तदनन्तर उसी हेमाभनगर में श्रीचन्द्रा के साथ युवक नन्दाय का विवाह हुआ। सरोवर का रक्षक एक विद्याधर मुनिराज के मुख से सुनकर जीवन्धर स्वामी के पूर्वभवों का वर्णन इस प्रकार करने लगा ।" १. मद्य चिन्तामणि यानि में कन्या का नाम लेमनी है। क्षेमनगर धने के पूर्व गद्य चन्तामगि आदि में एक तर वन में तपस्वियों को समीचीन धर्म का उपदेश देने का वर्णन है। २. गा चिन्तामणि आदि में धनुष-बाण देने तथा गन्धर्षयता के पहुँचने का कोई डफदेख नहीं है। ३. गाचिन्तामणि थादि में हेमाभनगर झुंचने के पूर्व अदबी में एक विद्याधरी की कामुकता का वर्णन है। १. गद्यचिन्तामगि आदि में मध्यदेश का उल्लेख है। ५. गाचिन्तामणि आदि में रानी का नाम नलिनी लिखा है। 1. अन्यत्र कन्या का नाम कमकमाता लिखा है। गद्य चिन्तामणि आरि ने वृद्धमित्र के मुमित आदि मृत्रों द्वारा एक आम का फल सोजना, उसमें सफल नहीं होना और जीनन्धरकुमार के द्वारा उसका दोहा जाना. इससे प्रभावित होकर मृमित्र आदि के बारा जीवघर को अपने घर ले जाना, एनमै दास्त्रविना सीखना और अन्त में कनकमाला का विवाह कर देना आदि का वर्णन है। प. इस विवाह का वर्णन गचिन्तामणि आदि में नहीं है। ८. जीवन्धर के पूर्मयों का वर्य न गद्मचिन्तामणि आदि में अन्यत्र दिया है तथा उसमें नाम आदि का बहुत और है। महाकवि हरिचन्न : एक मनुशीलन । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "घातकीखण्ड द्वीप के पूर्वमेससम्बन्धी पूर्वविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी पुण्डरी किणी नगरी में राजा जयन्धर राज्य करता था। उसकी जयावती रानी से तू जयद्रथ नाम का पुत्र हुआ था। किसी समय जयद्रथ क्रीड़ा करने के लिए मनोहर नामक वन में गया। वहां उसने सरोवर के किनारे एक इस शिशु को देखकर कोतुकवश चतुर सेवकों के द्वारा उसे पकड़वा लिया और उसके पालन करने का प्रयत्न करने लगा। मह देख उस शिशु के माता-पिता शोकाकुल हो आकाश में बार-चार करुण कन्दन करने लगे। उनका शब्द सुन तेरे एक सेवक ने बाण द्वारा उस शिशु के पिता को मारकर नीचे गिरा दिया। यह देख, जयद्रथ की माता का हृदय या से बात हो गया। उसने पाला किया है। कार से सब समाचार जानकर वह पक्षी के मारनेवाले सेवक पर बहुत कुपित हुई तथा सुल्ले भी डांटकर कहने लगी कि तेरे लिए यह कार्य उचित नहीं है, तू शीघ्र ही इस शिशु को इसकी माता से मिला दे। इसके उत्तर में तूने कहा कि यह कार्य मैंने अज्ञानतावश किया है और जिस दिन उस शिशु को पकड़वाया था उसके सोलहवें दिन उसकी माता से मिला दिया। काल पाकर जयद्रथ भोगों से विरक्त हो साधु हो गया और अन्त में सल्लेखना कर सहस्रार नामक स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ की आयु समाप्त कर तू जीवन्धर हुआ है और पक्षी को मारनेवाला सेवक काष्ठांगारिक हुमा है। उसी ने तुम्हारा जन्म होने के पूर्व तुम्हारे पिता राजा सत्यन्धर को मारा है। सुमने सोलह दिन तक हंस-शिशु को माता-पिता से अलग रस्ना था उसी के फलस्वरूप तुम्हारा सोलह वर्ष तक माता-पिता तथा भाइयों से वियोग हुआ है। जीवन्धरकुमार उस विद्याधर से अपने पूर्वभव सुनकर बहुत प्रसन्न हुए।"' इधर जब नन्दाब्य राजपुरी नगरी से बाहर हुषा तब मधुर आदि मित्र शंका में पड़ गये। उन्होंने गन्धर्वदत्ता से पुछा तो उसने स्पष्ट बताया कि इस समय जीवन्धर और नन्द, क्य, दोनों भाई सुजनदेश के हगामनगर में सुख से विराज रहे हैं। गन्धर्वदत्ता से पता आदि पूछकर सब भित्र उन दोनों से मिलने के लिए चल पड़े। मार्ग में जब वण्डक वन में पहुंचे तो वहीं तापसी के वेप में रहनेवाली विजयारानी से उनको भेंट हुई। वार्तालाप के प्रसंग में काष्ठांगारिक के द्वारा जीवन्धर के मारे जाने का अपूर्ण समाचार सुनकर विजया को बहुत दुल हुआ परन्तु पश्चात् पूर्ण समाचार सुनकर समाधान को प्राप्त हुई। दण्डक वन से आगे जाने पर मधुर आदि को भीलों की सेना ने घेर लिया परन्तु अपनी शुरवीरता से उसे परास्त कर वे आगे निकल गये। हेमाभनगर के निकट पहुँचकर उन्होंने वहां के गोपालों की मायें छीन ली। उनकी चिल्लाहट सुन जीवन्धर १. जोवनभरपा तथा गा चिन्तामणि अादि में उपलेख है कि जोमस्थर पूर्व भष में धातकौरखण्ड द्वीप के भूमितिज्ञक नगर के राजा पवनवेग के यशोधर नामक पुत्र थे। सशिशु के पकड़ने पर पिता ने जोवन्धर को उपदेश दिया था। कथा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमार ने उनका सामना कर उन्हें परास्त किया। अन्त में मधुर आदि मित्रों ने अपने मामांकित बाण चलाकर जीवन्धर को अपना परिचय दिया । समका सुखद मिलन हुआ। मधुर आदि मित्रों के द्वारा अपनी माता का परिचय प्राप्त कर जीवन्धरकुमार दण्डक वन गमे और चिरकाल से बिछुड़ी हुई माता से मिलकर परम आनन्द का अनुभव किया । विजया माता ने भीवन्धरकुमार को समस्त घटना-पक से अवगत कराया। माता को माश्वासन देकर वे अपने मित्रों के साथ राजपुर वापस आये। वहां उन्होंने अपने आने का समाचार प्रकट नहीं होने दिया । राजपुरनगर में उन्होंने सागरफ्त सेठ की कमला नामक स्त्री से उत्पन्न विमला नामक पुत्री के साथ विवाह किया और उसके बाद बुद्ध का रूप रख गुणमाला को चकमा दे उसके साथ विवाह किया। इस तरह कुछ दिन तक उन्होंने राजपुरनगर में अशातबास कर किसी शुभ दिन विजयगिरि मामक हाथी पर सवार हो बड़ी धूमधाम से गन्धोत्कट के घर में प्रवेश किया। इस घटना से काष्टांगारिक को बहुत बुरा लगा परन्तु उसके मन्त्रियों ने उस शाम्त कर दिया । विदेह देश के विदेह नामक नगर में राजा गोपेन्द्र रहते थे, उनकी स्त्री का माम पृथ्वीसुन्दरी था और उन दोनों के एक रत्नवती माम की माया थी। उसकी प्रतिशा थी कि जो चन्द्रकोष में पतुर होगा उसी के साथ वह बिवाह करेगी। रामा गोपेस्ट कन्या को लेकर राजपुर आया और वहाँ उसने उसका स्वयंवर रचा। स्वयंवर में जीवन्धरकुमार ने चन्द्रकवेष को वेध दिया जिससे रलवती में उसके गले में वरमाला डाल दी। इस घटना से का छांगारिक बहुत कुपित हुआ । उसने युद्ध के द्वारा रलवती को छीनने की योजना बनायो । जब जीवन्धर को इसका बोध हुआ तब उन्होंने सत्यधर महाराज के सब सामन्तों के पास दूत भेजकर यह समाचार विदित कराया, "मैं रामा सत्वन्धर की विजमारानी से उत्पन्न पुत्र है। काष्ठांगारिक को हमारे पिता ने मन्त्री बनाया था परन्तु इसने उन्हें मारकर राज्य प्राप्त कर लिया। आप लोग इस कृतघ्न को अवश्य नष्ट करें।" जीवन्धरकुमार नर सन्देश पाकर सब सामम्त इनकी ओर आ मिले । अन्त में शुद्ध कर जीयम्धर ने काष्टांगारिक को मारकर अपना राज्य प्राप्त कर लिया। सुदर्शन यक्ष ने सब लोगों के साथ मिलकर जीबन्धर का राज्याभिषेक किया। गन्धोत्कट राजसेठ हुए । माता विजया और माठौं रानियां सर एकत्रित हुई। सबका समय सुख १, गव्य चिन्तामणि प्रथा जीवन्धर चम्मू आदि में सुरमंजरी के साथ विवाह करने का उक्लेव ।। २. गवधितामणि दापि में उल्लेख है कि विदेह देश में राजा गोविन्द रहते थे, उनके नती रानी से उत्पन्न लक्ष्मणा नाम की पुत्री.थी। गोविन्द महाराज, अबन्धमार के मामा थे अतः कागार के ऊपर चढ़ाई करने के पूर्व विचार-विमर्श करने के लिए वे उनके पास गये थे। उसी समय काष्ठागार का एक पत्र भी उन्हें अपुरी बुलाने के विषय में गया था। फन्न स्वरूप राजा गोविन्द पूरी सवारी के साथ राजपुरो की और चले। उनके साथ में इनकी 'लक्ष्मणा' नामक पुत्री भी थी। राजपुरी में उसका स्वयंवर हुशा और उसने चन्द्रकवेध के वेधने पर बोधन्धर को अपना पति कमाता था। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से व्यतीत होने लगा एक बार जीवनयकुमार ने सुर नामक स्थान सुनिराज से धर्म का स्वरूप सुना और व्रत लेकर सम्यग्दर्शन को निर्मल किया । नरवाला आदि भाइयों ने भी यथाशकि व्रत लिये। तदनन्तर बीचन्धर किसी एक दिन अपने अशोक वन में गये । जहाँ लड़ते हुए दो मन्दरों के झुण्डों को देखकर संसार से विरक्त हो गये । वहीं उन्होंने प्रशान्तवक नामक मुनिराज से अपने पूर्वभव सुने । उसी समय सुरमलम उद्यान में भगवान् महावीर का समवसरण बाया सुन वैभव के साथ वहाँ गये और गन्धर्वदत्ता के पुत्र वसुन्धरकुमार को राज्य देकर नन्दाय आदि के साथ दीक्षित हो गये । महादेवी विजया और गन्धर्वदत्ता आदि रानियों ने भी चन्दना आर्या के पास दीक्षा ले ली । सुधर्माचार्य राजा श्रेणिक से कहने लगे कि अभी जीवन्धर मुनिराज महातपस्वी तो है परन्तु घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञानी होंगे और भगवान् महावीर के साथ बिहार कर उनके मोक्ष चले जाने के बाद विपुलाचल से मुक्ति प्राप्त करेंगे। इस प्रकार अनेक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि जीवन्चर स्वामी का उदास चरित्र अलौकिक घटनाओं से परिपूर्ण है तथा आत्मोन्नति में परम सहायक है । जीवन्धरचम्पू के प्रमुख पात्रों का चरित्र चित्रण १. महाराज सत्यन्धर P महाराज सत्यन्धर हेमांगद देश और राजपुरी नगरी के राजा थे । कथानायक जीवन्धर के पिता है। प्रजा तथा मन्त्री बादि मूल वर्ग को अपने अधीन रखते थे, अत्यन्त शूरवीर थे, यशस्वी थे और अपनी दानवीरता से कल्पवृक्ष की गरिमा को भी मन्द करनेवाले में कुरुवंश के शिरोमणि थे। शत्रुओं को जीतकर जब अपने राज्य को स्थिर कर चुके तद विषयासक्ति के कारण राज्य कार्यों से विमुख हो गये। राज्य का कार्य काष्यगार मन्त्री के स्वायत्त कर आप रागरंग में मस्त हो गये । राजा के भविष्य को समझनेवाले धर्मदत्त आदि मन्त्री राजा को हितावह उपदेश देते हैं और काष्ठांगार का विश्वास न करने की प्रार्थना करते हैं परन्तु विषयासक्ति की प्रबलता और काष्ठागार के ऊपर जमे हुए अपने विश्वास के कारण मन्त्रियों के हितकर उपदेश को उपेक्षित कर देते १. चिमण तथा जीवन्धरम् आदि में चर्चा है कि राजा जीवनभर जम अशोक वन में पहुंचे तब एक बात और वानरों में प्रणयं हो रही थी। प्रणयकलह शान्त होने पर वानर ने एक पनस क' कल वानरों के लिए दिया परन्तु वनपाल बानरी से वह पास नवीन लिया। इस घटना से जाबन्धर के मन में यह विचार आया. जिस प्रकार इस वनपाल ने बजरी से पनस फल छीना है उसी प्रकार मैंने भी कार से राज्य है। इस माटी मे भरे हुए संसार में कोई भी मनुष्प स्थायी रूप से युवी नहीं है।" ऐसा विचार करके संसार से विरक्त हो गये और मुनिराज के मुख से धर्मोपदेश सुनकर घर लौट आये तथा गन्धर्नदत्ता के पुत्र सत्यन्धर को राज्य देकर थुनि हो गये । कथा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अन्त में काण्ठांगार को दुरभिसन्धि के लक्ष्य हो मृत्यु को प्राप्त होते हैं । राजा को धर्म, अर्थ और काम का पारस्परिक विरोध बचाते हुए प्रवृत्ति करना चाहिए । जहाँ इनके विरोध की उपेक्षा होती है वहाँ पतन निश्चित होता है । राजा सत्यम्घर इनके उदाहरण हैं। २. विजयारानी विजयारानी विदेह के राजा गोविन्द महाराज की बहन और राजा सत्पन्धर की प्रमुख रानी थो । यद्यपि राजा सत्यधर की भागारति और अनंगपत्ताका नाम की दो रानियाँ और भी थीं' परन्तु पति का अगाध प्रेम इसे ही प्राप्त था। इसने तीन स्वप्न देखें, जिनमें प्रथम स्वप्न का फल राजा की मृत्यु या। उसे सुनकर वह बहुल दुखी हुई परन्तु राजा के उपदेश से प्रणयलीला पूर्ववत् चलती रही। राजा सत्यन्धर का पतन होने पर श्मशान में पुत्र की उत्पत्ति हुई। विजयारानी का जीवन बड़ा कष्टसहिष्णु और विपत्ति में श्यन नहीं होनेवाला दिखता है। आत्मगौरव की तो वह प्रतीक ही जान पड़ती है। राजा की मृत्यु और सद्योजात पुत्र का गन्धोत्कट सेठ के यहाँ स्थानान्तरण होने पर जब वक्षी उसे अपने भाई के घर जाने की सलाह देती है जब वह आत्मगौरय की रक्षा के लिए उस सलाह को ट्वारा देती है और दण्ठक बन के एक तपोवन में तापसी के वेष में रहना पसन्द करती है । उसमें एक नीति यह भी मालूम होती है कि वेषान्तर से रहने में काष्ठोगार को उसका पता न चल सके । अन्यथा उसके रहते काष्ठांगार सदा संशयालु रहता और उसके मामा का प्रयत्न करता रहता । अन्त में पुत्र के साथ माता का मिलन होता है। पुत्र, पिता का राज्यसिंहासन प्राप्त करता है और विजयारानी पुनः अपने महलों में प्रवेश करती है। अन्तिम अवस्था में विजयारानी आयिका के व्रत धारण करती है। विजयारानी के जीवन में सुख-दुख का बड़ा सुन्दर समन्वय दिखाई देता है। ३. काष्टांगार काष्ठांगार जीवन्धरचम्पू का प्रतिनायक है। यह बड़ा कृतघ्न मन्त्री है । राजा सत्यन्धर ने जिसे मन्त्री पद पर आसीन किया और अन्त में अपना सारा राज्म-पाट भी जिसके अधीन कर दिया उसका इस तरह कुतघ्न होना नीचता की पराकाष्ठा है । केवल राज्य प्राप्त कर स्वायत्त होने की आकांक्षा मनुष्य का इतना पतन नहीं करा सकती, इसका दूसरा भी कारण होना चाहिए, जिसे उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने स्पष्ट किया है। महाराज सत्यधर का एक रुद्रदत्त नाम का पुरोहित था, जो भविष्यवक्ता भी था। उसने काष्ठांगार को बतलाया था कि राजा सत्यधर की विजयारानी के गर्भ से १. उत्तरपुर के आधार पर । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न हुक्षा पुत्र तुम्हारा प्राणघातक होगा। राजा सत्यन्पर के रहते वह विजया और उसके भावी पुत्र को नष्ट करने में समर्थ नहीं था अतः उसने सर्वप्रथम राजा सत्यन्धर को ही नष्ट करने का उपाय रथा । सत्य घर को मारकर वह उनके राज्य का अधिकारी हो गया। श्मशान में उत्पन्न पुत्र उसी रात्रि को गन्धोत्कट सेठ के अधीन हो गया और रानी विजया दण्डक वन में तापसी के देष में रहने लगी। काण्ठांगार ने समझा कि मैंने राजा को मार डाला है और रानी मसूरयन्त्र में बैठकर गयी थी अतः गिरने पर उसका और उसके गर्भस्थ बालक का प्राणघात स्थय हो गया होगा । इस प्रकार निश्चिन्त होकर अपना राज्य शासन चलाता है। __ आतंक से किसी की अकीति दबती नहीं है उलटी फैलती है। काष्टांगार को भी अकीर्ति राजघातक के रूप में सर्वत्र फैल गयी अतः वह अन्त में विजयारानी के भाई गोविन्द महाराज के पास सन्देश भेजता है कि राजा का धात एक उन्मत्त हाथी ने किया है और उसका फलंक मुझे लगाया जा रहा है। आप आकर हमारे इस कलंक का परिमार्जन कर दीजिए। तबतक जीयाधर भी वयस्क होकर अपने मातुल गोविन्द महाराज के घर पहुंच चुके थे। फाष्ठांगार के कपट पत्र का उपयोग करते हुए, मित्र के नाते एक बड़ी सेना साथ लेकर गोविन्द महाराज काहांगार के यहां आये। वहीं उन्होंने अपनी पुत्री लक्ष्मणा का स्वयंवर रचा । जीवन्धर ने चन्द्रकवेव को वेधकर लक्ष्मणा की वरमाला प्राप्त की। इससे उत्तेजित हो काष्ठांगार भड़क उठा । इधर युद्ध की तैयारी पूरी थी अत: युद्ध हुआ और काळांगार उसमें मारा गया । ४. जीवन्धर आप महाराज सत्पन्घर और विजयारानी के पुत्र हैं । उत्तरपुराण के उल्लेखानुसार इन्होंने एक हंस के बच्चे को उसके माता-पिता के पास से पकढ़वा लिया था। बच्चे का पिता हंस इस दुख से दुखी होकर आकाश में केकार कर रहा था अतः इसे उन्होंने अपने किसी सेवक से मरवा दिया। पीछे चलकर गधचिन्तामणि के अनुसार पिता के और उत्तरपुराण के अनुसार माता के उपदेश से इन्होंने सोलह दिन बाद उस हंस-शिशु को उसको माता के पास भेज दिया। करनी का फल सबको मिलता है, अत: जीवघर को भी उसके फलस्वरूप उत्पत्ति के पूर्व ही पिता की मृत्यु तथा माता से सोलह वर्ष का विछोह सहन करना पड़ा। जीवन्धर मोक्षगामी पुरुष थे, करुणा इनको रग-रग में भरी भी। कालकूट भील के द्वारा गायों के चुरा लिये जाने पर जब गोपों के परिवार काष्ठांगार के द्वार पर रोते हैं और उसकी अकर्मण्य सेना जब पराजित होकर लौट आती है तब आप अपने सखाओं के साथ जाकर भील को परास्त करते हैं और गोपों का पशुधन वापस लाकर उन्हें देते हैं । ___ एक मरणोन्मुख कुक्कुर को देखकर उनकी करुणा जाग उठती है और उसे वे पंचनमस्कार मन्त्र सुनाकर कृतकृत्य करते हैं। कुक्कुर का जीव मरकर सुदर्शन यक्ष Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है और कृतज्ञता के नाते बीवन्धर का बड़ा उपकार करता है । कृतघ्न काठांगार और कृतज्ञ सुदर्शन मक्ष, दोनों के जीवन में स्वर्ग और नरक के समान अन्तर दिखाई देता है । भीतमूर्ति गुणमाला की रक्षा के लिए अकेले ही एक उम्मत हाथी से जूझ पड़ते हैं। सर्पदंश से मूच्छित कन्या का विषहरण करने के लिए मान्त्रिक के रूप में सामने आते है तो काष्ठांगार की मृत्यु के बाद बारह वर्ष तक पृथिवी को करभार से मुक्त कर देशवासियों के लिए एक कल्पवृक्ष के रूप में विखाई देते हैं। आपका जीवन बड़ा ही पवित्र और परोपकारमय रहा है । इनके जीवन की विशेषता से प्रभावित होकर हो वादी मसिंह ने इन्हें क्षत्रचहामणि-मत्रियों के शिरोमणि अथवा राजराज-राजाओं के राजा-जैसे शब्दों से संजित किया है। शलाकापुरुष' न होनेपर भी पुराणकारों ने अपने पुराणों में इनका चरित्र अंकित किया है और कवियों ने इन पर गद्यपद्यात्मक काव्य लिखे है। जीवन्धरचम्पकार ने तो स्पष्ट ही घोषित किया है-'जीवन्धरस्य चरितं दुरितस्य हन्त'-जीवन्धर का चरित्र पाप को नष्ट करनेवाला है। आपने अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के समवसरण में दीक्षा मारण कर राजदुईटि विल को प्राप्त किया है। जोवन्धर, जीवन्धर-चम्पू. के नायक है। ५. गन्धोत्कट जीवन्धर के जीवन में गन्धोत्कट को उनके पिता का स्थान प्राप्त है जिसे उसने बट्टी कुशलता से निभाया है। यह राजपुरी का एक बड़ा सेठ था। इसके पुत्र अल्पायु होते थे अतः इसने मुनि महाराज से पूछा, "क्या कभी हमारे भी दीर्घायु पुत्र होगा?" मुनिराज ने उसे सन्तोष दिलाया और कहा, "जब तुम अपने मृत पुत्र को छोड़ने के लिए श्मशान जाओगे तब तुम्हें एक भाग्यशाली उत्तम पुत्र प्राप्त होगा।" ऐसा ही हा। जीवन्धर के बाद उसकी सुनन्दा स्त्री से एक स्वयं का मी पुत्र हो गया पर उसके जीवन में कभी यह देखने को नहीं मिलता कि नन्दाय उसका निज का पुत्र है और जीवन्धर दूसरे का । उसकी स्त्री सुनन्दा भी बड़ी उदात्त महिला है। ६. गन्धर्वदत्ता यह जीवन्मर को प्रथम और प्रमुख पस्नी है। विद्याधर गरुड़वेग की पुत्री है. संगीत की मर्मज्ञ है और जीवन्धर के भ्रमण काल में अपनी विद्याओं के उपयोग से सबको सान्त्वना देती रहती है। गन्धर्वदत्ता के कारण ही जीवन्धर का विद्याधरों के साथ सम्पर्क बढ़ा है। १. २४तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, E नारायण, प्रतिनारायण और १ बलभद ये प्रेशठ शलाकापुरुष कहलाते हैं। ४२ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. गुणमाला मह राजपुरी के कुबेरभित्र सेठ और उसकी स्त्री विनयमाला की पुत्री है । हाथी के उपद्रव से जीवन्धरकुमार ने इसकी रक्षा की थी। उसी समय से इसका जीवन्धर के प्रति और जीवन्धर का इसके प्रति अनुराग बढ़ गया था | अनुराग की पूर्ति के लिए इसने जीवन्धर के पास शुक के द्वारा प्रणय-पत्र भेजा और जीवन्धर ने भी इसी शुक के द्वारा प्रतिपत्र भेजा। अन्त में दोनों का विवाह हुआ। श्रीहर्ष के द्वारा नैषध काव्य में मल और वमयम्ती के बीच हंस का दूत बनाया जाना इसी शुकदूत की कल्पना का प्रसार है। ८. सुरमंजरी यह राजपुरी के कुबेरदत्त सेठ और उसकी सुमत्ति स्त्री को पुत्री है। अपने सुगन्धित चूर्ण के विषय में गुणमाला से पराजित होने पर जीवन्धर में इसकी आस्था बढ़ गयी थी। इतनी अधिक, कि इसने अपने अन्तःपुर में अन्य पुरुषों का प्रवेश भी निषिद्ध कर दिया था। परिभ्रमण से तापस आने पर जब जीवन्धर को इस बात का पता चला तब वे एक वृद्ध के रूप में उसके घर गये। जीवन्धरचम्पू का वह सन्दर्भ हास्य रस का अच्छा उदाहरण है। अन्त में दोनों का विवाह हुआ। जहाँ जीवन्धर और नन्दाढ्य में सोभाव है वहाँ जीवन्धर की आठों रानियों में सौमनस्य दृष्टिगोचर होता है । पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए इसका होना अत्यन्त यावश्यक है। जीवन्धरचम्पू चरितकाव्य है अतः उसमें अनेक पात्रों का चरित्र-चित्रण हुआ है और धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य है उसमें चरित्र-चित्रण को गौण कर काव्यात्मक वर्णन को प्रमुखता दी गयी है। । कथा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय स्तम्भ १ : साहित्यिक सुषमा १. धर्मशर्माभ्युदय की काव्य-पीठिका २. धर्मशर्माभ्युदय का काव्य-वैभव ३. जीवन्धरचम्पू की काव्य-कला ४. जोवन्धरचम्पू का उत्प्रेक्षालोक ५. धर्मशर्माभ्युदय का रस-परिपाक ६. जीवन्धरचम्पू का रस-प्रवाह ७. जीवन्धरचम्पू का विप्रलम्भ-शृंगार और प्रणय-पत्र ८. परचम्पू में शामली पार ९. धर्मशर्माभ्युदय में छन्दों की रसानुगुणता १०. जीवन्धरचम्पू की छन्दो-योजना सम्म २: मावान-प्रदान ११. जीवन्धरचरित की उपजीव्यता १२. उपजीव्य और उपजीवित १३. शिशुपालवध और धर्मशर्माभ्युदय १४. चन्द्रप्रभचरित और धर्मशर्माभ्युदय Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ १ : साहित्यिक सुषमा धर्मशर्मास्युदय को काव्य-पीठिका कवि कैसे हुआ जाता है ? तथा काव्य में किस-किस तत्त्व की आवश्यकता है ? इसका सुन्दर विश्लेषण कवि ने फाव्य के प्रारम्भ में ही किया है । वे लिखते हैं अर्थ' भले ही हृदय में स्थित हो परन्तु जिसे काव्य-रचना की शक्ति प्राप्त नहीं है ऐसा मनुष्य कवि नहीं हो सकता क्योंकि पानी अधिक भी भरा हो फिर भी कुत्ता बिह्वा से जल का स्पर्श छोड़कर उसे अन्य प्रकार से पीना नहीं जानता।। रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द-समूह ही काव्य कहलाता है, यह तत्त्व हृदयंगत करते हुए कवि ने कहा है वाणी', अच्छे-अच्छे पदों से सुशोभित क्यों न हो परन्तु मनोहर अर्थ से शून्य होने के कारण विद्वानों का मन सन्तुष्ट नहीं कर सकती। जैसा कि यूवर से सरता हुआ दूध का प्रवाह यद्यपि नयनप्रिय होता है देखने में सुन्दर होता है तथापि मनुष्यों के लिए रुचिकर नहीं होता। कवि की वाणी में शब्द और अर्थ-दोनों की गरिमा को स्वीकृत करते हुए कहा है ___ बड़े पुण्य से किसी एक आदि कवि की ही वाणी शब्द और अर्थ-दोनों की विशिष्ट रचना से युक्त होती है। देखो न, चन्द्रमा को छोड़कर अन्य किसी की किरण अन्धकार को दूर करने और अमृत को शरानेवाली नहीं होती। ___ उपयुक्त शब्दों द्वारा कवि ने, सुकवि बनने के लिए शक्ति, व्युत्पत्ति और प्रतिभा इन तीनों की आवश्यकता प्रकट की है। जैसा कि काव्यमीमांसा में रामशेखर ने भी लिखा है "काव्यकर्मणि कवेः समाधिः परं व्याप्रियते", इति श्यामदेवः, मनस एकाग्रता समाधिः । समाहितं चित्तमर्थान् पश्यति । 'अभ्यासः' इति मङ्गलः अविच्छेदेन शील१. अर्थे दिस्यऽपि पिन कश्चिभि निधगी म्फविचक्षण: स्यात् । ___EXIबलस्पमिपास्य पातु वा मान्यधाम्भो घनमय वि१] धर्म.. प्रथम सर्ग २. रमणीया प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्-रसगंगाधर ३. धार्थ मन्या पदमपुरापि वाणी नुधानो न मनो धिनोति । गरोचते लोचनबालभापिस्नुहोक्षरस्तोरसरिनरेम्सः ॥१५॥ धर्म., प्रथम सर्ग ४. वाणी भरकस्यचिवेव पृण्यैः शधार्थसन्दर्भ विशेषगर्भा। इन्दु विनान्यस्य न रश्यते धत्तमो धुनाना च सुघाधुनौद ।१६-धर्म., प्रथम सर्ग साहिरियक सुषमा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यासः सर्वगामी सर्वत्र निरतिशयं कलमाधत्ते । समाधिरान्तरः प्रयत्नो आह्यस्त्वम्यासः । वावुभावपि शक्तिमुद्भासयतः । ' सा केवलं काव्ये हेतुः' इति यायावरीयः । विप्रसृतिश्च प्रतिभाव्युत्पत्तिभ्याम् । शक्तिकर्तके हि प्रतिभाव्युत्पत्तिकर्मणी । शक्तस्य प्रतिभाति शक्तश्च व्युत्पद्यते । या शब्दग्राममर्थ सार्थ मलङ्कारतन्त्रयुक्तिमार्गमन्यवपि तथाविधमधिहृदयं प्रतिभासयति सा प्रतिभा । अप्रतिभस्य पवार्थसार्थ: परोक्ष इव, प्रतिभावतः पुनरपश्यतोऽपि प्रत्यक्ष इव । यतो मेधाविरुद्रकुमारदासादमो जात्यन्धाः कवयः श्रूयन्ते ।" उक्त सन्दर्भ का तात्पर्य यह है कि काव्य की उत्पत्ति में मन की एकाग्रता और अभ्यास प्रथम कारण हैं । ये दोनों कवि की शक्ति को उद्भासित करते हैं । शक्ति के उद्भासित होने पर कवि की प्रतिभा और व्युत्पत्ति प्रकट होती है । उस प्रतिभा के द्वारा अभिनव अर्थ की ओर व्युत्पत्ति के द्वारा अर्थानुकूल शब्द समूह की उपस्थिति होती है । शब्द और मयं ही काव्य का दृश्यमान शरीर है । अपने इस सिद्धान्त के अनुसार धर्मशर्माभ्युदय में कवि ने शब्द और अर्थ - दोनों ही सम्पतियों को सँजोया है । इसके एक-दो उदाहरण देखिए कवि कहना चाहता है कि सुन्दर काव्य रचे जाने पर भी कोई विरला मनुष्य ही सन्तोष को प्राप्त होता है सब नहीं, सबमें गुण ग्रहण की क्षमता भी नहीं है । अपने इस भाव को प्रकट करने के लिए नीचे लिने पञ्च में कवि ने जिस शब्द और अर्थसम्पत्ति को संकलित किया हूँ उसपर दृष्टिपात कीजिए श्रव्येऽपि काव्ये रचिते विपरिसरकश्चित्सचेताः परितोष मेति । उत्कोरकः स्यात्तिलक्ररचलाक्ष्याः कटाक्ष भावैरपरे न वृक्षाः ॥ १७॥ -- मनोहर काव्य के रचे जाने पर भी कोई सहृदय विज्ञान ही पूर्ण सन्तोष को प्राप्त होता है क्योंकि किसी चंचललोचना के कटाक्षों से तिलक वृक्ष ही कुड्मलित होता है, अन्य नहीं । पुत्र के न होने से राजा महासेन का मन चिन्तातुर होता हुबा किसी एक स्थान पर स्थित नहीं है - इसका वर्णन करने के लिए कवि के शब्द और अर्थ पर दृष्टि दीजिए का यामि तकि नु करोमि दुष्करं सुरेश्वरं वा कमुपैमि कामदम् । इतीष्टचिन्ताच मचक्र चालितं यत्रचिन चेतोऽस्य बभूव निश्चलम् ॥७४॥ -सर्ग २ ' --कहाँ जाऊँ, कौन-सा कठिन कार्य करूँ अपने मनोरथ को पूर्ण करनेवाले किस देवेन्द्र की शरण गहूँ इस प्रकार इष्टपदार्थविषयक चिन्तासमूहरूपी चक्र से चलाया हुआ राजा का मन किसी भी स्थान पर निश्चल नहीं हो रहा था । -- देवियों द्वारा सुव्रता माता की सेवा की जा रही है - इस सन्दर्भ का एक श्लोक देखिए . महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्गरागमिय कापि सुभ्रवः साध्यसंपविव निर्ममे विवः । यामिनीव शुचिराषिो पा चारुचामरमचालयाचरम् ।।४९|| -सर्ग ५ -जिस प्रकार सन्ध्या आकाश में लालिमा उत्पन्न करती है उसी प्रकार किसी देवी ने माता के शरीर में अंगराग लगाकर लालिमा उत्पन्न कर दी और जिस प्रकार रात्रि चन्द्रमा को चलाती है उसी प्रकार कोई देवी चिरकाल तक सुन्दर चंवर पलाती रही। स्वयंवर-वर्णन में कन्या के प्रति सुभद्रा की सम्बोधनोति देखिए कोलकैलालवलीलवङ्गरम्येषु बेलाद्रिवनेषु सिन्धोः । कुरु स्पृहा नागरखण्डवल्लीलीलावलम्बिक्रमुकेषु रन्तुम् ||६२।। सर्ग १७ -हे तन्वि ! तू कबाकचीनी, इलायची, लवली और लौंग के वृक्षों से रमणीय, समद् के तटवर्ती पर्वतों के उन वनों में क्रीड़ा करने की इच्छा कर जिनमें सुपारी के वृक्ष ताम्बूल की लताओं से लीलापूर्वक अवलम्बित है-लिपटे हुए हैं। धर्मशर्माभ्युदय का काव्य-वैभव पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के प्राचीन-प्राचीनतर लक्षणों का समन्वय करते हुए अपने 'रसगंगाधर' में. उसका लक्षण लिया है.---'रमणीयार्थप्रतिपादकः शब्दः काश्यम्'-रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करनेवाला शब्द-समूह कान्य है । वह रमणीयता चाहे अलंकार से प्रकट हो, चाहे अभिधा, लक्षणा या व्यंजना से । मात्र सुन्दर दाब्दों से या मात्र सुन्दर अर्थ से काव्य, कान्य नहीं कहलाता, किन्तु दोनों के संयोग से ही काम्य कहलाता है। महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माम्मुदय में शब्द और अर्थ-दोनों को बड़ी सुन्दरता के साथ संजोया है । उपमालंकार की अपेक्षा उत्प्रेक्षालंकार कवि की प्रतिभा को अत्यधिक विकसित करता है । हम देखते है कि धर्मशर्माम्पुदय में उत्प्रेक्षालंकार की धारा महानदी के प्रवाह के समान प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अजस्र गति से प्रवाहित हुई है। उपमा, रूपक, विरोधाभास, श्लेष, परिसंख्या, अर्थान्तरन्यास और दोपक आदि अलंकार भी पद-पद पर इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं । उदाहरण के लिए देखें श्लेष लब्धात्मलाभा बहुधान्यवृद्धय निर्मूलयन्ती घननीरसत्वम् । सा मेघसंत्रातमपेतपडा शरत्सतां संसदपिक्षिणीतु ॥१-१०॥ -जिसने अनेक प्रकार के अन्न की वृद्धि के लिए स्वरूपलाभ किया है, जो मेत्रों में जल के सदभाव को दूर कर रही है तथा जिसने कीचड़ को दूर कर दिया है, ऐसी शरद् ऋतु मेघों के समूह को नष्ट करे । और जिसने अनेक प्रकार से दूसरों की साहित्यिक सुषमा २ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धि के लिए जन्म धारण किया है, जो अत्यधिक नीरसपने को दूर कर रही हैं तथा जिसने पाप को नष्ट कर दिया है ऐसी सज्जनों की सभा भी मेरे पापसमूह को नष्ट करे । श्लेषव्यतिरेक अनेकपद्माप्सरसः समन्ताद्यस्मिन्नसंस्थात हिरण्यगर्भाः । जयन्ति त्रिदिव प्रदेशान् ।।१--४४॥ जीतते हैं, क्योंकि स्वर्ग के प्रदेशों में तो गाँवों में अनेक पद्मा नामक अप्सराएं है स्वर्ग के प्रदेशों में एक ही हिरण्य अनन्तगीताम्बरघा मरम्या ग्रामा जिस देश में गाँव स्वर्ग के प्रदेशों को एक ही पद्मा नामक अप्सरा है परन्तु उन ! पक्ष में, कमलों से उपलक्षित जल के सरोवर हैं गर्भ - ब्रह्मा हैं परन्तु वहाँ असंख्यात हैं ( पक्ष में असंख्यात - अपरिमित हिरण्यसुवर्ण उनके गर्भ - मध्य में हैं ) और स्वर्ग के प्रदेश एक ही पीताम्बर - - नारायण के घाम - तेज से मनोहर है परन्तु गाँव अनन्त पीताम्बरों के धाम से मनोहर हैं ( पक्ष में, अपरिमित गगनचुम्बी भवनों से सुशोभित है ) उत्प्रेक्षा संक्रान्तविम्बः सवदिन्दुकान्ते नृपालये प्राहरिकैः परीते । हृवाननश्रीः सुदृशां चकास्ति काराभृतो यत्र रुदन्निवेन्दुः ॥१-६३ ॥ जिसमें चन्द्रकान्तमणि से पानी झर रहा है है, ऐसे राजमहल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा ऐसा जान तथा जो पहरेदारों से घिरा हुआ पड़ता है मानो स्त्रियों के मुख की शोभा चुराने के कारण उसे जेल में डाल दिया हो और इसलिए मानो रो रहा हो । और भी— महाजिनो नोर्ध्वधुरा रथेन प्राकारमारो मनुं क्षमन्ते । freeयितुं दिनेशः श्रयत्वाची मयत्राप्युदीचीम् ॥१-८१ ५० 1 जिसकी धूरा बिलकुल ऊपर की ओर उठ रही है ऐसे रथ के द्वारा हमारे घोड़े इस प्राकार को लांघने में समर्थ नहीं है -- यह विचार कर ही गानो सूर्य उस रत्नपुरको लाँचने के लिए कभी तो दक्षिण की ओर जाता है और कभी उत्तर की ओर । और भी प्रयाणली लाजित राजहंसक विशुद्धपाणि विजिगी वत्स्थितम् । सर्दहिमालोक्य न कोशदण्डभाग्भियेव पद्मं जलदुर्गमत्यजत् 11२ - ३६ ।। अपने प्रयाण मात्र की लीला से बड़े-बड़े निर्दोष है ( पक्ष में, सुरक्षित सेना निर्दोष जिसने अपनी सुन्दर चाल से राजहंस पक्षी को जीत लिया है ( पक्ष में, जिसने राजाओं को जीत लिया है ), जिसकी एड़ी छलरहित है) तथा जो किसी विजयाभिलाषी राजा के समान स्थित है ऐसे कमल ने फुड्मल और दण्ड से युक्त होने पर भी ( पक्ष में, महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजाना और सेना से सहित होने पर भी ) उस रानी के पैर को देखकर भय से ही मानो जलरूपी किले को नहीं छोड़ा था । रूपक और उपमा का सम्मिश्रण अनिन्द्यदन्तद्युतिफेनिलाधर बालशा लिम्युरुलोचनोत्पले । लदास्यलावण्यसुधोदधौ बभूस्तरङ्गभङ्गा इव भङ्गुरालकाः ॥२-५९॥ उत्तम दाँतों की कान्ति से फेनयुक्त, अधररूपी प्रवाल से सुशोभित और नेत्ररूपी बड़े-बड़े नीलकमलों से भासमान उसके मुखसौन्दर्यरूपी अमृत के समुद्र के घुंघराले बाल लहरों की सन्तति के समान सुशोभित हो रहे थे । श्लेषोपमा स्वस्थो श्रुताच्छद्मगुरूपदेश: श्रीदानवाराविविराजमानः । यस्यां करोल्लासितवमुद्रः पौरो जनो जिष्णुरिवावभाति ||४- २३ ॥ जिस नगरी में नगरवासी लोग इन्द्र के समान शोभायमान हैं क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र स्वस्थे है— स्वर्ग में स्थित है उसी प्रकार नगरवासी लोग भी स्वस्थ हैनीरोग हैं, जिस प्रकार इन्द्र छलरहित गुरु बृहस्पति के उपदेश को धारण करता है उसी प्रकार नगरवासी लोग भी छलरहित गुरुजनों के उपदेश को धारण करते हैं, जिस प्रकार इन्द्र श्रीदानवारातिविराजमान - लक्ष्मी - सम्पत उपेन्द्र से सुशोभित रहता है उसी प्रकार नगर निवासी लोग भी श्रीदानवारातिविराजमान - लक्ष्मी के दान जल से अत्यन्त सुशोभित हैं और इन्द्र जिस प्रकार करोल्लासितवञ्चमुद्र – हाथ में वस्त्रायुध को धारण करता है उसी प्रकार नगरनिवासी लोग भी करोल्लासितयज्ज्रमुद्र- किरणों से सुशोभित हीरे की अंगूटियों से सहित हैं । - और भी ● -- अभ्युपात्तकमलैः कवीश्वरैः संश्रुतं कुवलयप्रसाधनम् । द्रावितेन्दुरसराशिसोदरं सच्चरित्रमिव निर्मलं सरः ॥५-७० ।। तदनन्तर रानी सुनवा ने वह सरोवर देखा जो किसी सत्पुरुष के चरित्र के समान जान पड़ता था, क्योंकि जिस प्रकार सत्पुरुष का चरित्र मभ्युपात्तकमल --- लक्ष्मी प्राप्त करनेवाले कवीश्वर - बड़े-बड़े कवियों के द्वारा सेवित होता है उसी प्रकार वह सरोवर भी अभ्युपात्तकमल — कमलपुष्प प्राप्त करनेवाले कवीश्वर अच्छे-अच्छे जलपक्षियों से सेवित था । जिस प्रकार सत्पुरुष का चरित्र कुवलयप्रसाधन--महीमण्डल को अलंकृत करनेवाला होता है उसी प्रकार वह सरोवर भी कुवलयप्रसाधन — नीलकमलों से सुशोभित था और सत्पुरुष का चरित्र जिस प्रकार द्रावितेन्दु रस राशिसोदर - पिघले हुए चन्द्ररस C ९. स्व स्वर्गे तिष्ठतीति स्वस्थः खपरे शरि विसर्गली परे वा त्रयः' इति वार्तिकेत विसर्ग लोपः ॥ - सिमान्तकौमुदी साहित्यिक सुषमा पी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवा कर्पूररस के समान उज्ज्वल होता है उसी प्रकार यह सरोवर भी पिघले हुए चन्दूरस अथवा कपूररस के समान उज्ज्वल था। और भी पीवरोच्चलहरिजोधुरं सज्जनक्रमकरं समन्ततः । अधिमुग्रतरवारिमज्जितक्ष्माभूतं पतिमिवावनीभुजाम् ।।५-७१।। तदनन्तर वह समुद्र देखा जो कि श्रेष्ठ राजा के समान था क्योंकि जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा पीत्ररोच्चलहरिव्रजोवुर-मोटे-मोटे उछलते हुए घोड़ों के समूह से युक्त होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी पीवरोच्चलहरिखजोधुर--मोटी और ऊंची लहरों के समूह से युक्त था। जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा सज्जनामकर-सज्जनों के क्रम-आचार को करनेवाला होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी सज्जनक्रमकर-सजे हुए नाकुओं और मगरों से ग्रंक था और जिस प्रकार श्रेष्ठ राजा उनतरवारिमज्जितक्ष्माभृत्-पैनी तलवार से शत्रु राजाओं को खण्डित करनेवाला होता है उसी प्रकार वह समुद्र भी उग्रतरवारिमजितक्ष्माभूत्-गहरे पानी में पर्वतों को डुबानेवाला था। कालिदास की उपमा प्रसिद्ध है पर हम उसे मात्र उपमा के रूप में ही देखते हैं जबकि महाकवि हरिचन्द्र की उपमा, श्लेष आदि अलंकारों के साथ मिलकर कवि की अद्भुत प्रतिभा को प्रकट करती है। अर्थान्तरन्यास स वारितो मत्तमरुद्धिपौघः प्रसह्य कामश्रमशान्तिमिच्छन् । रजस्वला अप्यभजत्नवन्ती रहो मदान्धस्य कुतो विवेकः ।। ७-५३॥ जिस प्रकार कोई कामोन्मत्त मनुष्य रोके जाने पर भी बलात्कार से कामचम की शान्ति को चाहता हुआ रजस्वला स्त्रियों का भी उपभोग कर बैठता है उसी प्रकार देवों के मदोन्मत्त हाथियों का समूह वारितः-पानी से अपने अत्यधिक श्रम को शान्ति को पाहता हुआ जबरदस्ती रजस्वला-धूलि से ज्याप्त नदियों का उपभोग करने लगा लो ठीक ही है क्योंकि मदान्ध मनुष्य को विवेक कैसे हो सकता है ? परिसंख्या निवासु नूनं मलिनाम्बरस्थितिः प्रगल्भकान्तासुरते द्विजक्षतिः । यदि चित्रपः सर्वविनाशसंस्तवः प्रमाणशास्त्र परमोहसंभवः ॥२-३०॥ यदि मलिनाम्बर स्थिति-मलिन आकाश की स्थिति थी तो रात्रियों में ही थो, वहाँ के मनुष्यों में मलिनाम्बर स्थिति-मैले वस्त्रों की स्थिति नहीं थी । विणक्षति-दांतों के घाव यदि थे तो प्रौढ़ स्त्री के सम्भोग में ही थे, वहां के मनुष्यों में द्विज-सतिब्राह्मणादि का घात नहीं था। यदि सर्वविनाश का अवसर आता था तो व्याकरण में प्रसिद्ध विवप् प्रत्यय में ही आता था ( क्योंकि उसी में सब वर्गों का लोप होता है ), महाकवि हरिचन्न : एक अनुशीलन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ के मनुष्यों में किसी का सर्वनाश नहीं होता था, और परमोह-सम्भच-परम + अह उत्कृष्टव्याप्तिज्ञान प्रमाणशास्त्र-न्यायशास्त्र में ही था, वहाँ के मनुष्यों में परमोहसंभव - दूसरों को मोह उत्पन्न करना अथवा अत्यधिक मोह का उत्पन्न होना नहीं था । विरोधाभास महानदीनोऽप्यजडाशयो जगत्यनष्टसिद्धि : परमेश्वरोऽपि सन् । बभूव राजापि निकारकारणं विभावरीणामयमद्भुतोदयः ॥२-३३।। यह राजा संसार में महानदीन-महासागर होकर भी अजडाशय-जल से रहित था, परमेश्वर होता हुआ भी अणिमा आदि आठ सिद्धियों से रहित था और राजा-चन्द्रमा होकर भी विभावरी-रात्रियों के दुख का कारण था । परिहार पक्ष में वह राजा महान-अत्यन्त उदार अदीन-दीनता से रहित तथा प्रबुद्ध आयवाला था। अत्यन्त सम्पन्न होता हुआ अनष्ट-सिद्धि था-उसकी सिद्धियो कभी नष्ट नहीं होती थीं और राजा-नृपत्ति होसर भी वा अंगाविमौ शत्रुराजाओं के दुख का कारण था। इस तरह वह अद्भुत उदय से रहित था। और भी चित्रमेतज्जगन्मित्र नेत्रमंत्री गते त्वयि । यन्मे जडाशयस्यापि पङ्कजार्स निमोलति ॥३-५१॥ यह बड़ा आश्चर्य है कि आप जगत् के मित्र--सूर्य है और मैं जडाशय-तालाब हूँ, आप मेरे नयन-गोचर हो रहे हैं फिर भी मेरा पङ्कजात-कमल निमीलित हो रहा है। पक्ष में जगत् के मित्रस्वरूप आपके दृष्टिगोचर होते ही मुझ मूर्ख का भी पापसमूह नष्ट हो रहा है। दीपक नभो दिनेशेन नयेन विक्रमो वन मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना । प्रतापलक्ष्मीबलकास्तिशालिना विना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ॥२-७३॥ सूर्य के बिना आकाश, नय के बिना पराक्रम, सिंह के बिना धन, चन्द्रमा के बिना रात्रि और प्रताप, लक्ष्मी, बल तथा कान्ति से सुशोभित पुत्र के बिना हमारा कुल सुशोभित नहीं होता। भ्रान्तिमान रक्तोत्पलं हरितपत्रविलम्बितीरे विस्रोतसः स्फुटमिति निदतिपेन्द्रः । बिम्बं विकृष्य सहसा तपनस्य मुन्छन् धुम्बन्करं दिवि चकार न कस्य हास्यम् ।।६-४४॥ साहिरियक सुषमा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाशगंगा के किनारे हरे रंग के पते पर यह लाल कमल फूला हुआ है, यह समझकर ऐरावत हाथी ने पहले तो बिना विचारे सूर्य का विम्ब स्वींच लिया पर जब उष्ण लगा तब जल्दी से छोड़कर सूंह को फड़फलाने लगा यह देख आकाश में किसे हँसी न मा गयी थी? यहाँ उदाहरण के रूप में कुछ हो अर्थालंकारों के उद्धरण दिये गये हैं । धर्मशर्माम्युदय का ऐशा हम भी श्लोक नहीं है। जिसमें कोई न कोई शकार न हो । आगे शब्दालंकार का वैभव देखिए--- झाब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, शब्दश्लेष और चित्रालंकार की प्रधानता है। हम देखते हैं कि धर्मशर्माभ्युदय में इन सभी अलंकारों को अच्छा प्रश्रय दिया गया है अनुप्रास के कुछ उदाहरण देखिएयल्कायकान्ती फनकोज्ज्वलायां ॥ १-४॥ न प्रेम नम्रऽपि जने विधत्से || १-२४ ।। शेवालशालिन्युपले छलेन पातो भवेत्केवलदुःखहेतुः ॥ १-२७ ॥ उच्चासनस्थोऽपि सता न किचिन्नीचः स घिसषु धमत्करोति । स्वर्णाद्रिशुलाग्रमधिष्ठितोऽपि काको धराकः खलु काक एव ||१-३०॥ धत्तं समुत्तेजितशातकुम्भकुम्भप्रभां काञ्चन काश्चनादिः ।।३६।। तरङ्गिणीनां तरवस्तरेषु ।।१-४९।। पौराङ्गनाना प्रतिबिम्बदम्भात् ।।१-५९।। प्रालेयशैलेन्द्रविशालशालश्रोणीसमालम्बितयारिवाहम् ॥ १-८४॥ क्वचिदपि न कदाचित् केनचित् केपि दृष्टाः ।।१-८५।। सुधासुधारश्मिमुणालमालती-सरोजसा रिवं वेधसा कृतम् । शनैः शनैरियमतीत्य सा दो सुमध्यमामध्यममध्यमं ययः ।।२-३६।। ततान तन्मध्यमतीव ताननम् ।।२-४४|| इतीचिन्ताचायचक्रचालितं क्वचिन्न चेतोऽस्य बभूव निश्चलम् ॥२-७४|| वासुजतुरङ्गोर्मेस्तोरगे सैन्यवारिधः ॥३-२९11 फलावनमाविलम्बिजम्बूजम्बीरनारङ्गलवङ्गगम् । सर्वत्र यन्त्र प्रतिपय पान्थाः पाश्रेयभारं पथि नोद्वन्ति ॥९॥ को वा स्तनाग्राण्यवधूय घेनोर्बुग विदग्धो ननु दोन्धि शृङ्गम् ।।४-६६॥ यामिनीव शुचिरोधिषां परा चाश्चामरमचालयच्चिरम् ॥५-४९।। यमकालंकार की छटा यद्यपि सर्वत्र छिटकी हुई है तथापि हम उसकी पूर्ण छटा दशम और एकादरा सर्ग में देखते हैं । कुछ स्दाहरण देखिए मन्दाक्षमन्दा क्षणमत्र तावन्नव्यापि न व्यापि मनोभवेन । रामा वरा भावनिरम्यपुष्टबध्वा नववानवशा न यावत् ॥१०-३६।। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबो धनी यो मदनायको भवेन बोपनीयो मदनाय को भवे । स सुश्रुषामत्र तु नेत्रविक्रमविबोध्यते सत्तिलकोऽपि कानने ॥१०.३९|| कृतार्थीकृत हितं त्या हितल्वारसदानं सदा नन्दिनं वादिनं वा । विभालम्बिभालं सुधर्मा सुधर्मापितख्यापितख्याति सा नौति सानी ॥१०.५१॥ कलविराजिपिराजितकानने नवरसालरसालराषट्पदः । सुरभिकेसरकेसरशोभितः प्रविससार स सारबलो मधुः ॥१७॥ प्रभावितानेकलतागताया प्रभाविताने कलता गता या 1 प्रभावितानेकलतागलाया सा स्त्री मघौ कि स्पृहणीयपुण्या ॥६६॥ कालिदास ने रघुवंश के नवम सर्ग में चतुर्थपाद-सम्बन्धी समक के साथ द्रुतविलम्बित छन्द का अवतार कर काव्यसुधा की जो मन्दाकिनी प्रवाहित की है उसका अनुसरण माघ के षष्ठ सर्ग तथा धर्मशर्माम्युदय के एकादश सर्ग-सम्बन्धी ऋतु-वर्णन में भी किया गया है। जिस प्रकार नाक पर पहने हुए मोती से किसी शुभ्रवदना का पर कमल खिल उदता में नमी म मायापी दो पदों के यमक से द्रुतविलम्बित छन्द खिल उठा है। शब्द-श्लेष का चमत्कार देखिए कान्तारतरबो नेते कामोन्मादकृतः परम् । अभवन्नः प्रीतये सोऽप्युद्यन्मधुपराशयः ॥३-२३॥ यहाँ एकवचन और बहुवचन का श्लेष कवि के कौशल को प्रकट करता है तो उल्लसत्केसरो रक्तपलाशः कुञ्जराजितः ।। कठोरत्र इशारामः कं न व्याकुलयत्यसो ।।३-२५।। यहाँ सभंग श्लेष कवि की काव्यप्रतिभा को सूचित करता है। अधिश्रियं नीरदमानयन्ती नवान्नुबन्तीमतिनिष्कलाभान् । स्वनर्भुजङ्गान् शिखिनां दधानं प्रगल्भवेश्यामिव चन्दनालीम् ।।७-३३।। वह पर्वत चन्दन वृक्षों की जिस पंक्ति को धारण कर रहा था वह ठीक प्रौढ़ वेश्या के समान जान पड़ती थी। क्योंकि जिस प्रकार प्रौढ वेश्या अधिश्रियं-अधिक सम्पत्तिवाले पुरुष का, भले हो वह नीरद-दन्तरहित-वृद्ध क्यों न हो आश्रय फरती है उसी प्रकार वह चन्दन वृक्षों की पंक्ति भी अधिश्रियं-अतिशय शोभासम्पन्न नीरद-मेघ का आश्रय करती थी अत्यन्त ऊँची थी और जिस प्रकार प्रौढ़ वेश्या अतिनिष्कलाभान---जिनसे धनलाभ की आशा नहीं है ऐसे नवीन भुजङ्गान्-प्रेमियों को शिखिनाम्शिखण्डियों-हिजलों के शब्दों द्वारा दूर कर देती है उसी प्रकार यह चन्दन वृक्षों की पंक्ति अति निकलाभान्-अतिशय कृष्ण नन्नीनभुजङ्गान--सों को शिखिनाम् -मयूरों के शब्दों द्वारा दुर कर रही थी। यहाँ प्रत्येक पद का श्लेष पाठक के मन को आनन्द-विभोर कर देता है। साहित्यिक सुषमा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रालंकार को सुषमा धर्मशर्माम्युदय के १९३ सर्ग में व्याप्त है एकाक्षर, यक्षर, चतुरक्षर, गूढचतुर्थपाद, समुद्गक, निरोप, अतालव्य, प्रतिलोमानुलोम पाद, गोमूत्रिकाबन्ध, मुरजबन्ध, चक्रबम्ध, अभ्रम, षोडशदलकमलबन्ध आदि चित्र काव्यों से कवि की प्रतिमा का अनुमान लगाया जा सकता है। वस्तुतः शब्दालंकार की रचना करना अर्थालंकार की रचना की अपेक्षा कष्टसाध्य है। इस अलंकार को रचना में विरले ही कवि सफल हो पाते हैं । कालिदास ने चित्रालंकार को छुआ भी नहीं है। जबकि महाकबि हरिचन्द्र ने अपनी एतद्विषयक कुशलता सम्पूर्ण सर्ग में प्रदर्शित की है। इस सर्ग में न केवल शब्दालंकार-चित्रालंकार है किन्तु श्लेषालंकार भी चरम सीमा पर पहुंचा हुआ दिखाई देता है। जिस प्रकार शिशुपालवध में शिशुपाल का दूत, श्रीकृष्ण की सभा में जाकर अथक इलोकों के द्वारा स्तुति और निन्दा का पक्ष प्रस्तुत करता है उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के इस उन्नीसवें सर्ग में भी अंगादि देशों के राजकुमारों के द्वारा सुषेण सेनापति के पास भेजा हुआ दूत भी दूपर्थक लोकों के द्वारा निन्दा और स्तुति के पक्ष को रखता है। यह क्रम बारहवें श्लोक से लेकर बत्तीसवें श्लोक तक चला है । उदाहरण के लिए एक-दो फ्लोक उद्धृत कर रहा हूँ-- परमस्नेहनिष्ठास्ते परदानकृतोयमाः । समुन्नति तवेच्छन्ति प्रधनेन महापदाम् ॥१९-१८११ ___ अत्यधिक स्नेह रखनेवाले एवं उत्कृष्ट दान करने में उद्यमशील वे सब राजा प्रकृष्ट धन के द्वारा महान् पद-स्थान से युक्त आपकी उन्नति चाहते है अर्थात् आपको बहुत भारी धन देकर उत्कृष्ट पद प्रदान करेंगे ( पक्ष में वे सब रामा आपके साथ अत्यन्त अस्नेह-अप्रीति रखते हैं और पर- शत्रु को खण्ड-खण्ड करने में सदा उद्यमी रहते हैं अतः युद्ध के द्वारा आपको हर्षाभाव से युक्त-मुदो हर्षस्य सतिन्नतिस्तया महिता तो समुन्नतिम्-महापदा-महती आपत्ति की प्राप्ति हो ऐसी इच्छा रखते हैं )। सहसा सह सारेभैर्धाविताधाविता रणे ।। दुःसहेज्दुः सहेऽल ये कस्य नाकस्य नार्जनम् ॥२१॥ तेषां परमतोषेण संपदातिरसं गतः । स्वोन्नति पतितां बिभ्रत्सद्महीनो भविष्यसि ।।२२।। (युग्म) सर्ग १९ सारभूत श्रेष्ठ हाथियों से राहित जो, मानसिक व्यथा से रहित दुःसह-कठिन युद्ध में पहुंचकर किसके लिए मनायास ही स्वर्गप्रदान नहीं करा देते हैं अर्थात् सभी को स्वर्ग प्रदान करा देते हैं उन राजाओं के परम सन्तोष से तुम सम्पत्ति के द्वारा अधिक राग को प्राप्त होओगे तथा अपनी उन्नति से सहित स्वामित्व को धारण करते हुए शीघ्न ही श्रेष्ठ पृथिवी के इन-स्वामी हो जाओगे । (पक्ष में सारभूत श्रेष्ठ हाथियों से सहित हुए जो राजा मानसिक व्यथाओं से परिपूर्ण कठिन युद्ध में किसके लिए दुख का संचय प्रदान नहीं करते अर्थात् सभी के लिए प्रदान करते हैं, उन राजाओं को यदि तुमने अत्यन्त असन्तुष्ट रखा तो तुम्हें उनका पदाति-सेवक बनना पड़ेगा, असंगत-अपने महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवार से पृथक् एकाकी रहना पड़ेगा, अपनी उन्नति को छोड़ देना होगा और इस तरह तुम समहीन-गृहरहित हो जाओगे।) इस तरह यहा शब्दालंकार और अर्थालंकार के एकत्र स्थित होने से संसृष्टि अलंकार अत्यधिक सुशोभित हो रहा है । धर्मशर्माभ्युदय का रीति-सन्दर्भ रीति का विन्यास रस के अनुकूल परिवर्तित होता रहता है। कहीं गौड़ी, कहीं • पांचाली, कहीं लाटी और कहीं वैदर्भी रोति का प्रयोग कवि को करना पड़ता है । धर्मशर्माभ्युदय में गौड़ी रोति को छोड़कर तीन रीतियों का यथावसर उपयोग किया गया है। जीवन्धरचम्प में गौड़ी रीति का भी आश्रय लिया गया है। सामहिक विवेचना में धर्मशर्माम्युदय में बेदर्भीरोति मानी जा सकती है। उसका लक्षण विश्वनाथ ने इस प्रकार लिखा है माधुर्यमब्जर्वर्ण रचना ललितारिमका । सावृगिरतपनि गीरी तिरिमाते !! -सा द., परिच्छेद ९, श्लोक २-३ रुद्रट ने भी ऐसा ही कहा है अरामस्तकसमस्ता युक्ता दशभिर्गुणश्च वैदर्भी। वर्गद्वितीयबहुला स्वल्पप्राणाक्षरा च सुविधेया ।। एक-दो उदाहरण देखिए पुन्नागनारङ्गलबङ्गजम्बूजम्बीरली लायनशालि यस्य । शृङ्गं सदापारनभोविहारथान्ताः श्रयन्ते सवितुस्तुरङ्गाः ।।१०-८11 बहलकुङ्कमपङ्ककृतादरा मदनमुद्रितदन्तपदाधराः। तुहिनकालमतो धनकञ्चुका निजगदुर्जगदुत्सवमङ्गनाः ।।११-५५॥ धर्मशर्माभ्युदय में गुणगरिमा मम्मट और विश्वनाथ कविराज द्वारा चधित गुणों को त्रिकुटी ( माधुर्य, ओज और प्रसाद ) को ध्यान में रखते हुए जब धर्मशर्माभ्युदय के गुण का विचार करते हैं तो यहाँ माधुर्य मुण का विस्तार अधिक जान पड़ता है । उसका लक्षण लिखते हुए विश्वनाथ कविराज ने लिखा है चित्तद्रवीभावमयो लादो माधुर्यमुच्यते ।। संभोगे करुणे विप्रलम्भे शान्तेऽधिक क्रमात् ।1८-१॥ सा. दे, । यतश्च धर्मशर्माम्युदय का अंगी रस शान्त रस है अतः उसी के पोषक माधुर्य गुण का समावेश इसमें किया गया है। साहित्यिक क्षेत्र में गुण को रस का धर्म माना गया है । कुछ उदाहरण देखिए ---- साहित्यिक सुषमा ५७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेलोतरतुलमतङ्गजावलोकपोलपालीगलितमदाम्बुभिः । गङ्गाजलं कजलमजुलीकृतं कलिन्दकन्योरफविभ्रमं दो ॥९-७५।। अनिन्द्यदन्तद्युतिफेनिलाघरप्रवालशालिन्यु रुलोचनोत्पले । तदास्यलावण्यसुधोदधौ बमुस्तरङ्गभङ्गा इव भङ्गुरालकाः ॥२-५९।। धर्मशर्माभ्युदय में ध्वनि का विस्तार । काव्य में ध्वनि को बहुत भारी महिमा है। ध्वन्यालोककार ने 'काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुर: माम्नात दारा ध्वनि को भाग्य की आत्मा माना है। मम्मट तथा विश्वनाथ कविराज आदि ने ध्वनि को उत्तम काव्य माना है। जहां व्यंग्य अर्थ, वाच्य को अपेक्षा अधिक चमत्कारी होता है वही ध्वनि मानी जाती है, फलतः ध्वनि के लक्षणामलक और अभिधामलक के भेद से दो भेद माने जाते है। लक्षणामूलक को अविधक्षितमाच्य और अभिधामूलक को विवक्षितान्यपरवाच्य कहा गया है। अविवक्षितबाच्य को अर्थान्तरसंक्रमित और अत्यन्ततिरस्कृत के भेद से दो प्रकार का माना गया है। विवक्षितान्यपरवाच्य के असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य और संलक्ष्मक्रमव्यंग्य की अपेक्षा दो भेद माने गये हैं। असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य रसभावादिरूप होता है तथा गणना में उसका एक ही भेद लिया जाता है। संलक्ष्यक्रमभ्यंग्य के शब्दशक्तिसमुत्पन्न, अर्थशक्तिसमुत्पन्न और उभयशक्तिसमत्पन्न के भेद से तीन भेद कहे गये हैं। शब्दशक्तिसमुत्पन्न के वस्तु और अलंकार को अपेक्षा दो भेद हैं। अर्थशक्त्युभव स्वनि के स्वतःसम्भवी वस्तु और अलंकार, कविप्रोढोक्तिसिद्धवस्तु और अलंकार तथा कविनिबद्धवक्तृप्रौढोकिसिद्ध वस्तु और अलंकार इस प्रकार ६ और इन छह से प्रकट होनेवाली वस्तु और अलंकार व्यंग्य की अपेक्षा १२ भेद होते हैं । उभयशक्ति समुत्पन्न का एक ही भेद होता है। इस लरह संक्षेप से ध्वनि के अठारह भेद होते हैं। धर्मयार्माभ्युदय में ध्वनि के ये भेद यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुए हैं । जैसे अहो खलस्थापि महोपयोगः स्नेहद हो यत्परिशीलनेन । बाकर्णमापूरितपात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षतमेव गावः ॥२६॥ सर्ग १ --बड़े गाश्चर्य की बात है कि स्नेहहीन खल का-दुर्जन का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके संसर्ग से यह रचनाएं बिना किसी तोड़ के पूर्ण आनन्द प्रदान करती है। यहां खल, स्नेह तथा गो शब्द के श्लेष रूप होने से दूसरा अप्रवृत्त अर्थ यह प्रकट होता है -कैसा आश्चर्य है कि तैलरहित खली का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके खिलाने से यह गायें बिना किसी आधात के बरतन मर-भरकर दूध देती है। यहाँ 'गावो गाव इव' कवियों की वाणी गायों के समान है, 'खल: खल इव' दुर्जन खल के समान है, 'स्नेहः स्नेह इच' प्रेम तल के समान है तथा 'क्षीरं स्वान्तःसुखभिव' स्वान्तःसुख दूध के समान है इस प्रकार उपमालंकार व्यंग्य है । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णानिङ्गाग्रमधिष्ठितोऽपि काको वराकः खल काक एव ।।३०॥ सर्ग १ यहाँ द्वितीय काक शब्द 'नयने तस्यैव नयने' अथवा 'करभः करम:' के समान अर्थान्तरसंक्रमित हो गया है जिससे वह माष काक अर्थ का वाचक न रहकर नीच का वाचक हो गया है। अनेकपद्माप्सरसः समन्ताधस्मितसंख्यातहिरण्यगर्भाः। अनन्तपीताम्बरधामरम्या ग्रामा जयन्ति त्रिदिवप्रदेशान् ।।४४॥ सर्ग १ यहाँ स्वर्ग में एक पचा नाम की अप्सरा है जबकि ग्रामों में अनेक हैं, स्वर्ग में एक हिरण्यगर्भ-ब्रह्मा है जबकि गांवों में अनेक हैं, और स्वर्ग एक ही पीताम्बर के धाम से रमणीय है जबकि ग्राम अनेक पीताम्बरों के धाम से रमणीय है। इस प्रकार श्लेषोपमा से व्यतिरेकालंकार व्यंग्य है । 'हावली बीजयतीव मित्रम् ॥७७॥ यहाँ 'हावली प्रेमसंभृतनायिकेव' इस तरह उपमालंकार व्यंग्य है । कुलेऽपि कि तात तवेदृशी स्थितियंदात्मना श्रीन सभास्वपि त्यजेत् । 'तदङ्कलीलामिति कीतिरीय॑या ययाधुपालन्धुभिवास्य बारिधिम् ।।५।। सर्ग २ यहाँ 'तवापि मर्यादाशालिनः कुले किम् ईदृशी स्थितिः'-अन्य कुल में ऐसी विडम्बनापूर्ण रीति भले ही हो पर आप तो मर्यादाशाली हैं, आपके कुल में भी ऐसी विडम्बना है, यह 'अपि' शब्द के द्वारा घोत्रित होता है। इसी प्रकार 'सभास्वपि' किसी अल्पजन-सम्पर्क के स्थान में भले ही सम्भव हो परन्तु सभा में और एक सभा में नहीं किन्तु कई सभाओं में ऐसी विवम्बना श्री करती है यह बहुवचनान्त प्रयोग से घोवित्त होता है। निपीतमातङ्गघटाग्रशोणिता हठावगूढा सुरताथिभिभंटः । किल प्रतापानलमासदत्समिसमृद्धमस्यासिलताश्मयुद्धये ॥१५|| सर्ग २ यहाँ विशेषणों की समानता से 'असिलता' में स्त्री की उपमा सिद्ध है। परिष्वजति चन्दनावलिरियं भुजङ्गान्यत स्ततोऽतिगहनं स्त्रियश्चरितमात्र वन्दामहे ॥३५॥ सर्ग १० यहाँ 'चन्दनाबलि' में किसी कुलटा का सादृश्य व्यंग्य है। अहमिह गुरुलज्जया हतोऽस्मि भ्रमर विवेकनिधिस्त्वमेक एव । मुखमनु सुमुखी करी धुनाना यदुपजनं भक्ता मुद्द्वश्चुचुम्बे ॥३९॥ सर्ग १३ यहाँ चलापानां दृष्टि स्पृशसि पहुशो वेपथुमती रहस्याख्यायीय स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । कर ध्याधुन्वन्त्याः पिबसि रतिसर्वस्वमवरं वर्य तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ।। --अभिज्ञान शाकुन्तल साहित्यिक सुषमा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सा .' इति, ग पुनः दुगकार गर तरन हद प्रकृति के प्रयोग से तथा 'एव' और 'मुहः' इन अव्यय तथा निपातों से विशेष चमत्कार प्रकट किया गया है। जीवन्धरणम्पू की काव्यकला जीवन्धरचम्पू में कवि ने वर्ण्य विषयों की कलात्मक सज्जा प्रस्तुत की है । कवि, स्त्री-पुरुषों के नख-शिख का वर्णन करता हुआ जहां उनके वाह्य सौन्दर्य का वर्णन करता है वहाँ उनकी अभ्यन्तर पवित्रता का भी वर्णन करता है। 'राजा सत्यधर का पतन उनकी विषयासक्ति का परिणाम है' यह बतलाकर भी कवि उनको श्रद्धा और धार्मिकता के विवेक को अन्त तक जागृत रखता है। युद्ध के प्रांगण में भी वह सहलेखनासमाधिमरण धारण कर स्वर्ग प्रास करता है। ____ जीवन्धरचम्पू, गद्यपद्यात्मक रचना है । बाण' ने श्रीहर्षचरित में आदर्श गद्य के जिन गुणों का वर्णन किया है वे नवीन अर्थ, ग्राम्य जाति, स्पष्टश्लेष, स्फुट रस और अक्षरों की बिकटबन्यता, सबके सब जीवन्धरचम्म के गद्य में अवतीर्ण हैं। इसके पश्च भी कोमलकान्तपदावली, नयी-नयी कल्पनाओं और मनोहर अर्थ से समुद्भासित है । इसके गद्य और पद्य-दोनों ही श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या, विरोधाभास तथा भ्रान्तिमान आदि अलंकारों से अलंकृत हैं। प्रारम्भ में ही श्लेषानुप्राणित रूपकालंकार को छटा द्रष्टव्य है। श्रीपादाक्रान्तलोकः परमहिमकरोऽनन्तमोत्यप्रबोध __ स्तापघ्यान्तापनोदप्रचितमिजरुचिः सत्समूहाधिनाथः । श्रीमान्दिव्यध्वनिप्रोल्लसदखिलकलाबल्लभो मन्मनीपा नीलान्जिन्या विकास बितरतु जिनपो धीरचन्द्रप्रभेशः ।।२।। जिन्होंने अपने शोभासम्पन्न चरणों के द्वारा समस्त जगत् को आक्रान्त किया है, { पक्ष में जिसकी शोभायमान किरणें समस्त जगत् में व्याप्त है), जो श्रेष्ठ महिमा को करनेवाले हैं, ( पक्ष में अतिशय शीतलता को करनेवाले हैं ), जिन्हें अनन्तसुख और अनन्तज्ञान प्राप्त हुआ है, ( पक्ष में जिससे जीवों को अपरिमित सुख का बोध होता है ) जिनकी कान्ति अथवा श्रद्धा संताप और अज्ञानान्धकार को नष्ट करने में प्रसिद्ध है, ( पक्ष में जिसकी निज की काम्ति गरमी और अन्धकार दोनों को नष्ट करने में प्रसिद्ध है), जो अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मी से सहित है, ( पक्ष में अनुपम शोभा से सम्पन्न हैं) और जो दीव्यध्यान से सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओं के स्वामी हैं, ( पक्ष में जो आकाशमार्ग में सुशोभित होनेवाली समस्त कलाओं से प्रिय है ) ऐसे धीरवीर चन्द्रप्रभ-जिनेन्द्र-रूपी चन्द्रमा हमारी बुद्धिरूपी नीलकमलिनी का विकास करें। १, नवोऽयों जातिराम्या श्लेषः स्पष्टः स्फुटो रसः । विकटाशरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ॥ हर्षचरित) महाकषि हरिचम्न : एक मनुशीलन Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोधाभास हरीशपूज्योग्यहरीशपूज्यः सुरेशवाद्योऽप्यसरेशवन्यः । अनङ्गरम्योऽपि शुमाङ्गरम्यः श्रीशान्तिनाथः शुभमातनोतु ॥३|| जो हरीश-पूज्य होकर भी अहरीश-पूज्य है ( पक्ष में जो हरि-विष्णु और । ईश-रुद्र के द्वारा पूज्य होकर भी दिन के स्वामी सूर्य, उपलक्षण से मोतिषी देवों के द्वारा पूज्य है ), सुरेशवम्बू होकर भी असुरेशवन्ध है ( पक्ष में इन्द्रों के द्वारा बन्दनीय होकर भी भवन-वासी देवों के द्वारा बम्बनीय है ) और जो मनगरम्य-शरीर से सुन्दर न होकर भी शुभांग रम्य-शुभ शरीर से सुन्दर है (पक्ष में कामदेव के समान सुन्दर होकर भी शुभशरीर परमोदारिक शरीर से सुन्दर है, ऐसे शान्तिनाथ भगवान तुम सबका भला करें। श्लेषोपमा और विरोधाभास का सुन्दर संमिश्रण यश्च किल संक्रन्दन इवानन्दितसुमनोगणः, अन्तक इव महिषौसमधिष्ठितः, वरुण इवाशान्तरक्षणः, पवन हव पद्मामोदधिरः, हर इव महासेनानुयातः, नारायण इव वराहवषुष्कलोदयोद्धृतधरणीवलयः सरोजसंभव इव सकलसारस्वतामरसभानुभूति: भद्रगुणोऽप्यनागो, विबुधपतिरपि कुलीनः, सुवर्णधरोऽप्यनादित्यागः, सरसार्थपोषकवचनोऽपि नरसार्थपोषकवचनः, नागमाल्याश्रितोऽपि नागमास्याश्रितः। -पृ.८ श्लेष से अनुप्राणित परिसंख्यालंकार का चमत्कार यस्मिन्छासति महीमण्डलं मदमालिन्यादियोगो मत्तदन्तावलेषु, परागः कुसुमनिकरेषु, नीबसेवना निम्नगासु, आर्तयत्त्वं फलितवनराजिषु, करपीडनं निलम्बिनीकुचकुम्भेषु, विविघार्थचिन्ता व्याख्यानकलासु, नास्तिवादो नारीमध्यप्रदेशेषु, गुणभङ्गो युद्धेषु, खलसंगः कलमकुलेषु, अपाङ्गता कुरङ्गाक्षीलोचनतरङ्गेषु, मलिनमुखता मानिनोस्तनमुकुलेषु, आगमकुटिलता भुजङ्गषु, अजिनानुरागः शूलपाणी, सोपसर्गता चातुपु, दरिघ्रभावः शातोदरीणामुदरेषु, विजिल्लता फणिषु, पलाशिता विपिनत रुपण्डे , अघररागः सुदतीमुखकमलेषु, तीक्ष्णता कोविदबुद्धिषु, कठिनता कान्ताकुचेषु, नीचता नाभिगह्वरेषु, पिरोधः पञ्जरेषु, अपवादिता निरोष्ठयकाव्येषु, धनयोगभङ्गो वर्षावसानेषु कलिकोपचारः फामसंतापेषु, कलहंसकुलं को डासरसीषु परमेवं व्यवस्थितम् । -पृ. ९ पद्य में भी परिसंख्या का चमत्कार देखिएयस्मिन्छासति मेदिनी नरपतौ सद्वृत्तमुक्तात्मता हारेष्वेव गुणाकरेषु समभूच्छिद्राणि पैवान्ततः । लोल्यादन्यकलत्रसंगमरुचिः काञ्चीकलापे परं संप्रातः श्रवणेषु खजनदृशां नेत्रेषु पारिप्लवः ॥२८॥-पृ. ११४ साहित्पक सुषमा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्प्रेक्षा और भ्रान्तिमान् अलंकार की अपूर्व निमिति यस्य च वदनतटे कोपफुटिलितभ्रकुटिंघटितेऽशरणतया वनं प्रति धावमानानां प्रतिपक्षपार्थिवानां वृक्षराजिरपि वातान्दोलितशाखाहस्तेन पतत्रिविरुतेन च राजविरोधिनोऽत्र न प्रवेष्टव्या इति निषेधं कुर्वाणा तामतिक्रामत्सु तेषु राजापराषभयेनेव प्रवातकम्पमाना विशङ्ककण्टकेन केशेषु कर्षतीति शंकामङ्करयामास । पस्प प्रतिपक्षलोलाक्षीणां काननवीपिकादम्बिनीशम्पायमानतनुसंपदा वदनेषु वारिजभान्त्या पपात हैसमाला, ता करालीभिनिवारयन्तीनां तासां करगस्लवानि चकर्षुः कीरशाबकाः, हा हैति प्रलपन्तीनां कोकिलभ्रान्विभाविताः शिरस्सु कुट्टायितं कुर्वन्ति स्म करटाः, ततश्चलितवेणीनामेणाक्षीणां नागभ्रान्त्या कर्षन्ति स्म वेणों मयूराः, ततो दीर्घ-निःश्वासमातन्वतीनां तद्गन्धलुब्धमुग्धमधुकरा मदान्धाः समापतन्तः पश्यन्तोऽपि नासाचम्मकं न निवृत्ता बभूवुः, गुरुत्तरनितम्बकुचकुम्भभारानतानां वेधसा स्तनकलासृष्टं काठिन्य पादपद्मषु वाञ्छन्तीनां धावनोधुकमनसां चलितपादयुगलप्रसृतनखचन्द्रचन्द्रिकासु संमिलिताश्चकोरा उपसन्धन्ति स्म मार्गम्, वनो भुवि निपत्य लुठन्तीनां सुवर्णसवर्णमुरोजयुगलं पक्वतालफलनान्त्या फदर्थयन्ति वानराः, इति राजविरोधिनामरण्यमपि न शरण्यम् ।। पृ. ११ अतिशयोक्ति अलंकार की एक छटा यस्य प्रतापतपनेन चतुःप्रदिक्ष निःोषिताः किल पयोनिधयः क्षणेन । प्राधभूपसुदतीनयनाम्बुपूरैः संपूरिता पुनरतीत्य तटं वषरगुः ॥२५।। पृ. १२ श्लेषोपमा का एक सुन्दर उदाहरण देखिए जहाँ एक-एक पद के चार-चार अर्थ किये गये हैअस्याः पादयुगं गलश्च वदनं किचाजसाम्यं दधुः कान्तिः पाणियुगं दृशौ च विदधुः पद्माधिकोल्लासताम् । वणी मन्दमतिः कुची च वत हा सन्नागसंकाशता स्वी चक्रुः सुदृशोऽङ्गसौष्ठवकला दूरे गिरा राजते ।।२८॥ पृ. १३ यहाँ 'पद्माधिकोल्लासताम्' और 'सन्नागसंकाशता के श्लेषविशेष रूप से । ध्यान देने योग्य हैं। उत्प्रेक्षा की उड़ान का एक नमूना देवि त्वदीयमुखपङ्घजनिर्जिलश्रो चन्द्रो विलोचनजितं दधदेणमते । अस्ताधिदुर्गसरणिः किल मन्दतेजा द्राग्वारुणीभजनतश्च पतिष्यतीय ॥४४॥ पृ. १९ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशयालंकार का एक उदाहरण हारः किं वा सकलनयनाहार एवाम्बुजाक्ष्या गदा वक्षोरुहगिरिपतनिर्झरस्यैष पूरः । किं वा तस्याः स्तनमुकुलयोः कोमलश्रीमणामो मातिस्मैवं विषयवशतः स्त्रीजनैः प्रेक्ष्यमाणः ॥४३॥ पृ. १०५ श्लेष और व्यतिरेकालंकार की छटा देखिए 'कुवलयाहादसंदायकोऽपि निखिलममहीभृन्महितपादोपि भवानदोषकरतया न सुधाकरः, पद्मोल्लासनपटुरपि सन्मार्गाश्रितोऽपि सविरोधाभावेन म प्रभाकरः, सुमनोवृन्दवन्दितोऽपि मामृदनुकूलतया न पुरन्दरः, कुशाग्रनिकाशमतिरणि मौल्पविरहेण न सुरगुरु:'-पृ. १०० गुण संक्षेप में माधुर्य, ओज और प्रसाद मे तीन गुण माने गये हैं । गुण रस का धर्म होता है अतः रस के अनुसार ही इसमें गुणों का संकलन किया है । जहां शृगार मादि रसों का वर्णन है वहां माधुर्य गुण को प्रश्रय मिला है। जहाँ शान्त तथा हास्य आदि का अवसर है वहां प्रसाद गुण का वर्णन है और जहा वीर रस का ताण्डव है, वहाँ ओजगुण का प्रवाह प्रवाहित किया गया है। इस प्रकार प्रबन्ध की अपेशा इसमें समस्त गुणों का विकास हुआ है। माधुर्य गुण का एक दृष्टान्त मदनदुम-मन्जुमरीभिः स्फुटलावण्यपयोधिवीचिकाभिः । महितं वरवारकामिनीभिर्बहुसौन्दर्यतरङ्गिणीमरीभिः ॥२४॥ पृ. ६२ योज' गुण का उदाहरण वीर्यत्री प्रथमावतारसरणी सस्मिन्कुरूणां पतौ वाणान्मुञ्चति हस्तानतितधनुर्वल्लीसमारोपित्तान् । दोर्णक्षत्रभटच्छटाभिरभितः संभिद्यमानान्तर भास्वद्विम्बमहो बभार गगनश्रेणीमधुच्छात्रताम् ॥१०८॥ पृ. २०५ प्रसाद गुण का एक नमूना ममेयं महङ्गी मम तनय एष प्रचुरधी रिमे में पूर्वार्था इति विगतबुद्धिनरपणुः । अणुप्रख्ये सौख्ये विहितरुचिरारम्भवशगः ___ प्रयाति प्रायेण क्षितिधरनिभं दुःखमधिकम् ।।२७॥ पृ. २२४ साहित्यिक सुषमा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रीति रसों के अनुसार इस ग्रन्थ में वैदर्भी, लाटी, पांचाली और गौड़ी इन चारों रीतियों का अच्छा प्रयोग हुआ है। इस तरह जीवन्धरचम्पू को काव्य-कला साहित्यिक क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गयी है। जीवन्धर चम्पू का उत्प्रेक्षालोक उत्प्रेक्षालंकार से कवि की कवित्व-शक्ति का अनुमान लगाया जाता है। मात्र इतिवृत्त लिख देने से कवि का कर्तव्य पूरा नहीं होता क्योंकि वह तो इतिहास आदि से भी सिद्ध है। कवि का कर्तव्य विच्छित्तिपूर्ण उक्तियों से ही पूर्ण होता है । विच्छित्ति के प्रकट करने में उत्प्रेक्षा का सर्वप्रथम स्थान है 1 देखिए जीवन्धरचम्पू का सन्दर्भ 'चन्द्रमा अस्तोन्मुख है और प्रातःकाल की मन्द-मन्द वासु चल रही है इस समय विजयारानी ने तीन स्वप्न देने 1' इस अल्पतम सन्दर्भ में कजिनाएं किनारा 'अथ कदाचिश्यसनायां निशाय--वहति प्राभातिके मा मते-पृ. १७-१८ भाव यह है किसी समय जब रात्रि समाप्त होने को आयी सब चन्द्रमा पश्चिम दिशा की ओर हल गया। बह चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था मानो पश्चिम दिशा रूपी स्त्री की काजल से सुशोभित पाँदी को डिबिया ही हो, अथवा सूर्य कहीं देख न ले, इस कारण भय से भागती हुई रात्रिरूपी पुंश्वली स्त्री का गिरा हुआ मानो कर्णाभरण हो हो, अथवा आकाशरूपी हाधी के गण्डस्थल से निकले हुए मोतियों के रखने का मानो पात्र ही हो, अथवा पश्चिम समुद्र से जल भरने के लिए रात्रिरूपी स्त्री के द्वारा अपने हाथ में लिया हुआ स्फटिक का घड़ा ही हो, अथवा पश्चिम दिशा सम्बन्धी दिग्गज के शुण्डादण्ड से गिरा हुआ मानो कीचड़सहित मृणाल ही हो, अथवा कामदेव के बाणों को तीक्षण करनेवाला मानो शाण का पाषाण ही हो, अपवा पश्चिम दिशारूपी स्त्री की मानो फूलों से बनी हुई गेंद ही हो, अथवा अस्तापलरूपी हाथी के गण्डस्थल पर रखा हुआ मानो कामदेव का वज़मय ताल ही हो । वह पन्द्रमा पश्चिम की ओर ढलकर अस्ताचल के शिखर पर आरूढ़ हो गया था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो वोरजिनेन्द्र की क्रोधाग्नि से जिसका शरीर जल गया है ऐसे कामदेव को कलंक के बहाने अपनी गोद में रखकर उसे जीवित करने की इच्छा से संजीवन औषध ही खोज रहा हो और आकाशरूपी बन में खोजने के बाद अब उसी उद्देश्य से अस्ताचल के शिखर पर आरूढ़ हुमा हो।। उस समय तारागण भी विरल-विरल रह गये थे और सन्ध्या के कारण लालिमा को प्राप्त हुए अन्धकाररूपी कुंकुम के द्रव से चिह्नित आकाशरूपी पलंग पर रात्रि तथा ६४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकम Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रमारूपी नायक-नायिका के रतिसम्म के कारण बिखरे फूलों के समान म्लानता को प्रास हो गये थे। रात्रि के समय चमकनेवाली ओषधियो अपने तेज से रहित हो गयी थों सो ऐसी जान पढ़ती थी मानो अपने पति-चन्द्रमा को बीहीन देखकर ही उन्होंने अपना तेज छोड़ दिया हो । चन्द्रमा लक्ष्मी से रहिल हो गया था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो इस कुमुदों के बन्धु ने-पक्षकार ने हमारी वसतिस्वरूप कमलों के समूह को विध्वस्त किया है--सति पहुँचायी है, इस क्रोष से ही मानो लक्ष्मी चन्द्रमा से निकलकर अन्यत्र चली गयी थी। कुमुविनियों में से काले-काले भ्रमर निकल रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कुमदिनीरूपी स्त्रियां उन निकलते हुए भ्रमरों के बहाने अपने पति की विरहानल सम्बन्धी धूम की रेखा को ही प्रकट कर रही हो । इसके सिवाम उस समय प्रातःकाल की ठण्डी हवा चल रही थी जिससे ऐसा बान पड़ता था मानो स्त्री-पुरुषों के सम्भोग के समय जो पसीना आ रहा था उससे उनकी कामाग्नि बुझनेवाली थी सो उसे वह प्रातःकाल की हवा खिले हुए कमलों के पराग के कणों के द्वारा मानो प्रज्वलित कर रही हो। इसी तरह दावानल के समय धूमपटल उठकर आकाश में व्याप्त हो गया है इस सन्दर्भ में कमि की उत्प्रेक्षा देखिए कितनी सुस्पष्ट है-- असूर्यपश्येषु प्रचुरतपण्डान्तरवल प्रदेशेष्वत्यन्वं यदुषितमभूवन्धतमसम् । तदग्निवासनोद्यतमिव तदा धूमपटले तमालस्तोमाभं गगनतलमालिङ्ग्य वयुधे ।।१८। पृ. ९७ तमाल वृक्षों के समान कान्तिवाला जो धुएँ का पटल आकाश-तल का आलिंगन कर सब ओर बढ़ रहा था वह ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य के दर्शन से रहित सघन वृक्ष-समूह के तल-प्रदेशों में जो सघन अन्धकार चिरकाल से रह रहा था, अग्नि के भय से वही ऊपर की ओर उठ रहा था । धर्मशमोम्युक्य का रस-परिपाक शब्द और अर्थ काव्य के शरीर है तो रस उसकी आत्मा है। जिस प्रकार आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण हो जाता है उसी प्रकार रस के बिना काव्य निष्प्राण हो जाता है। इस दृष्टि से धर्मशर्माभ्युदय के रस का विचार करना आवश्यक है। महाकाव्य में शृंगार, वीर और शान्त-इन तीन रसों में से कोई एक अंगी रस होता है और शेष अंगरस होते हैं। काव्य का समारोप जिस रस में होता है वह अंगी रस कहलाता है और अवान्तर प्रकरणों में आये हुए रस अंग रस कहलाते हैं । धर्मशर्माम्युदय में धर्मनाथ तीर्थकर का पावन चरित वर्णित है। तीर्थकर का जन्म संसार के प्राणियों को सांसारिक दुःखों से निकालकर निर्माण के वास्तविक सुख की प्राप्ति कराने के लिए साहित्यिक सुषमा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। अतः वे स्वय पात रस को अंगीकृत करते है और दूसरों के लिए भी उसी का उपदेश देवे हैं। भगवान् धर्मनाथ एक बार स्फटिक निर्मित भवन की छत पर बैठे थे। चन्द्रमा की उज्वल चांदनी सब ओर फैल रही थी। उस चाँदनी में स्फटिक निर्मित भवन अदृश्य सा हो गया पा इसलिए भगवान की गोठी आकाश में स्थित इन्द्र की सभा के समान जान पढ़ती थी। उसी समय तारामण्डल से इल्कापात हुआ। एक रेखाकार ज्योति तारामण्डल से निकल कर आकाश में ही विलोम हो गयी। उसे देख, भगवान् के मन में यह विचार हिलोरें लेने लगा कि जिस प्रकार यह उल्का देखते-देखते नष्ट हो गयी उसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थ नष्ट हो जाने वाले है। न मैं रहूँगा और न मेरा यह राज्य परिवार रहेगा इसलिए समय रहते सचेत होकर आत्मकल्याण करना पाहिए । भगवान के हृदय में उमड़ने वाले इस वैराग्य का वर्णन कवि ने धर्मशर्माभ्युदय के बीसवें सर्ग के ९-२३ इलोकों में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। उस सन्दर्भ के कुछ श्लोक देखिए तामालोक्याकाशदेशानुदश्चज्ज्योतिलिादीपिताशां पतन्तीम् । इत्थं चित्ते प्राप्तनिवेदखेदो मीलचक्षुश्चिन्तयामास देवः ।।९।। आकाश से पड़ती तथा निकलती हुई किरणों को ज्वालाओं से दिशाओं को प्रकाशित करती, उस उस्का को देख जिन्हें चित्त में बहुत ही निर्वेद और खेद उत्पन्न हुआ है ऐसे धर्मनाथ स्वामी नेत्र बन्द कर इस प्रकार चिन्तवन करने लगे। देवः कश्चिज्ज्योतिषां मध्यवर्ती दुर्ग तिष्ठन्निस्यमेषोऽन्तरिक्षे । यातो देवादीशी चेदवस्था कः स्याल्लोके निळपायस्तदन्यः ।।१०॥ जब ज्योतिषी देवों का मध्यवर्ती तथा आकाश-रूपी दुर्ग में निरन्तर रहनेवाला यह कोई देव, दैववश इस अवस्था को प्राप्त हुआ है तब संसार में दूसरा कोन विनाशहीन हो सकता है ? यससक्त प्राणिनां क्षीरनोरन्पायनोच्चरङ्गमप्यन्तरङ्गम् । आयुश्छेदे याति चेत्तत्तदास्था का बाह्येषु स्त्रीतनूजादिकेषु ।।१२। प्राणियों का जो शरीर क्षीरनीरन्याय से मिलकर अत्यन्त अन्तरंग हो रहा है वह भी जब आयु कर्म का छेद होने से पला जाता है तब अत्यन्त बाह्म स्त्री-पुत्रादिक में मा आस्था है ? विमूत्रादेर्धाभ मध्यं वधूनां तनिष्यन्दद्वारमेवेन्द्रियाणि । प्रोणीबिम्ब स्थूलमांसास्पिकूटं कामान्धानां प्रीसये षिक् तथापि ॥१७॥ स्त्रियों का मध्यभाग मल मूत्र आदि का स्थान है, उनकी इन्द्रियाँ मल-मूत्राणि के निकलने का द्वार है और उनका नितम्ब-बिम्ज स्यूल मांस तथा हड्डियों का समूह है फिर भी घिरकार है कि वह कामान्ध मनुष्यों की प्रीति के लिए होता है । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रत्यासिन व्यतीतस्य नूनं सोत्यस्यास्ति भ्रान्तिरागामिनोऽपि । तत्तत्कालोपस्थितस्यैव हेतोबंधनात्यास्था संसृतौ को विदम्बः ।।१।। जो सुख व्यतीत हो चुकता है वह लौटकर नहीं आता और यामामी सुख को केवल भ्रान्ति ही है अतः मात्र वर्तमान काल में उपस्थित सुख के लिए फोन चतुर मनुष्य संसार में आस्था आदर बुखि करेगा ? घालं घायांसमानं दरिद्रं धीरं भीरु सज्जन दुर्जनं च । अश्नात्येक: कुष्णवत्व कक्षं सर्वग्रासी निर्विवेकः कृतान्तः ॥२९|| जिस प्रकार अग्नि समस्त वन को जला देती है उसी प्रकार सबको असने वाला यह विवेकहीन यम, बालक, वृद्ध, घनाम, दरिद्र, धीर, फायर, सज्जम और दुर्जन-सभी को ना कर देता है। विसं गेहादङ्गमुच्चश्चित्ताग्नेविर्तन्ते वान्धवाश्च श्मशानात् । एक नानाजन्मवल्लीनिदानं कम द्वधा याति जीवेन सार्धम् ॥२२॥ घन घर से, शरीर ऊंची चिता की अग्नि से और भाई-बान्धव श्मशान से लोट जाते हैं, केवल नाना जन्मरूपी लताओं का कारण पुण्य पाप रूप द्विविध कर्म ही जीव के साथ जाता है। छेत्तुं मूलात्कर्मपाशानशेषान्सद्यस्तीक्ष्णस्तद्यतिष्ये तपोभिः । को वा कारागाररुद्ध प्रबुद्धः शुद्धात्मानं वीक्ष्य कुर्यादुपेक्षाम् ।।२३।। इसलिए मैं तोष्ण तपश्चरणों के द्वारा कर्म रूपी समस्त पापों को जड़मूल से काटने का यत्न करूंगा। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो अपने शुद्ध आत्मा को कारागार में रुका हुआ देखकर भी उसकी उपेक्षा करेगा ? ब्रह्म स्वर्ग से आये हए देवषियों-लोकान्तिक देवों ने भी भगवान की इस वराम्मपूर्ण विचार-सन्तति का समर्थन किया, अन्ततः सालवन में उन्होंने पंचमुट्टियों से केशलोंच कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। इस तरह हम देखते हैं कि धर्मशर्माम्युदय में अंगी रस के रूप में शान्त रस का उसम परिपाक हुआ है। शान्त रस का एक सन्दर्भ चतुर्थ सर्ग ( ४-६०) में राजा दकारय के वैराग्यचिन्तन में आया है। वे चन्द्रग्रहण को देख संसार शरीर भोर भोगों से विरक्त हुए थे। __ अंग रसों में श्रृंगाररस का परिपाफ भी धर्मशर्माम्युदय में उच्च-कोटि का हुआ है। जिस प्रकार वर्षा का पानी यत्र तत्र प्रवाहित होता हुआ अन्ततः समुद्र में एकत्रित होता है उसी प्रकार शृंगार रस भी पुष्पावचय, जलक्रीडा तथा पानगोष्ठी में प्रवाहित होता हुआ पन्द्रहवें सर्ग के सुरत-वर्णन में एकत्रित हुआ है। कवि ने यहाँ सम्भोग १. दतोतमती तमेव तव सुबमामामिनि को विनिश्चयः । समुपैति वृधा अत श्रमं गुरुभस्तरक्षण-सौरबमोहितः १७०१-मन्द्रप्रभचरित, प्रथम सर्प साहित्यिक सुषमा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रृंगार का विस्तृत वर्णन करते हुए दम्पती के मनोभावों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है। विप्रलम्भ श्रृंगार के प्रमुख प्रकरण यद्यपि धर्मशर्माभ्युदय में नहीं हैं तथापि पुष्पावघय के समय एक रूठी हुई नायिका को अनुकूल करने के लिए सखियों द्वारा नायक को विरहावस्था का जो चित्रण किया गया है वह विप्रलम्भ श्रृंगार के वर्णन की कमी को कुछ अंशों में पूर्ण कर देता है । देशि से नायिः माहिती हे तन्धि 1 तेरी भृकुटी रूपी लता बार-बार अपर उठ रही है और ओष्ठ रूप पल्लव भी कांप रहा है इससे आन पड़ता है कि तेरे हृदय में मुसकान रूपी पुष्प को नष्ट करनेवाला मान रूपी पवन बढ़ रहा है। हे मृगनयनि | इस समय, जो कि संसार के समस्त प्राणियों को आनन्द करनेवाला है, तूने व्यर्थ ही कलह कर रखी । मानवती स्त्रियों को मान सदा सुलभ रहता है परन्तु यह ऋतुओं का क्रम दुर्लभ होता है । पति से किसी अन्य स्त्री के विषय में अपराध बन पड़ा है. इस निर्हेतुक बात से ही तेरा मन व्याकुल हो रहा है। पर हे भामिनि ! यह निश्चित समझ कि परस्पर उन्नति को प्राप्त हुआ प्रेम अस्थान में ही भय देखने लगता है। अन्य स्त्री में प्रेम करनेवाले पति में जो तूने अपराध का चिह्न देखा है वह तेरा निरा भ्रम है क्योंकि जो स्नेह से तुझे सब ओर देखा करता है वह सेरे विरुद्ध आचरण कैसे कर सकता है ? जिस प्रकार स्नेह-तेल से भरा हुआ दीपक, चन्द्रमा की शोभा को दूर करने बाली प्रातःकाल की सुषमा से सफेदी को प्राप्त हो जाता है-निष्प्रभ हो जाता है उसी प्रकार स्नेह-प्रेम से भरा हुआ तेरा वल्लभ भी चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करने वाली तुम्चा दूरवर्तिनी से सफ़ेद हो रहा है-विरह से पाण्डवर्ण हो रहा है। उसने अपना चित्त तुझे दे रहा है इस ईर्ष्या से ही मानो उसकी भूख और निद्रा कहीं चली गयी है और यह चन्द्रमा शीतल होने पर भी मानो तुम्हारे मुख की पासता को प्राप्त होकर ही निरन्तर उसके शारीर को जलाता रहता है। जान पड़ता है उसके वियोग में तुम्हारा हृदय भी तो काम के बाणों से खण्डित हो चुका है अन्यथा श्रेष्ठ सुगन्धि को प्रकट करनेवाले ये निःश्वास के पवन क्यों निकलते ? अतः मुहा पर प्रसन्न होओ और सन्तस लोहपिण्डों की तरह तुम दोनों का मैल हो. इस प्रकार, सखियों द्वारा प्रार्थित किसी स्त्री ने अपने पति को अनुकल किया था कृत्रिम कलह छोड़ उसे स्वीकृत किया था। __इस तरह उपर्युक्त श्लोकों में मानात्मक विप्रलम्भ शृंगार का अच्छा परिपाक हमा है। १. सर्ग १२. श्लोक १२ से १६ तक बदम्चति भ लतिका मुष्ठर्मुहुः.................. ॥१२ । कान्तं किल कापि कामिमी !१६॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह तो रूठी स्त्री को प्रसम्न करने के लिए पुरुष को विरह-चेष्टा का वर्णन है, अब कुछ रूठे हुए पुरुष को मनाने के लिए स्त्री की विरह-चेष्टा का भी वर्णन देखिए कवि ने कितना मार्मिक चित्रण किया है हे सगर्व ! दूसरे की बात जाने दो, जब तुम नाथ होकर भी अपना स्नेह-पूर्ण भाव छिपाने लगे तब मेरी उस सखी को निश्चित ही अनाथ-सा समझ वह मेष, शत्रु की तरह विष ( पक्ष में जल) देता हुआ मार रहा है और विजलियां जला रही है। पति के अभाव में असह्य सन्ताप से पीड़ित रहनेवाली इस सखी ने सरोवरों के जल में प्रवेश कर उसके कीड़ों को जो अपने शरीर से सन्तापित किया है क्या यह पाप उसके पति को न होगा? इस पावस के समय सरोवर अपने आप कमल-रहित हो गया है और वन को उसने पल्लवरहित कर दिया है। यदि चुपचाप पड़ी रहनेवाली उस सखी के मरने से हो तुम्हें सुख होता है तो कोई बात नहीं परन्तु वन पर भी तो तुम्हें दया नहीं है। हे सुभग ! न वह क्रीडा करती है, न हंसती है, न बोलती है, न सोती है,न खाती है, और न कुछ जानती ही है ! वह तो मात्र नेत्र बन्द कर रतिरूप श्रेष्ठगुणों को धारण करनेवाले एक तुम्हारा ही स्मरण करती रहती है। इस प्रकार किसी दयावती स्त्री ने जब प्रेमपूर्वक किसी युवा से कहा तब उसका काम उत्तेजित हो उठा । अब वह जैसा आनन्द धारण कर रहा था वैसा सौन्दर्य का अहंकार नहीं। हास्य रस के भी एक दो प्रसंग देखिए जिन-बालक को लेकर देवसेना सुमेरपर्वत पर जा रही है। मार्ग में सूर्य बिम्ब को देखकर ऐरावत हाथी श्रम में पड़ गया। उसकी चेष्टा देख सब हंसने लगे। श्लोक यह है-- रक्ततोरपलं हरितपत्रविलम्बितीरे त्रिलोततः स्फुटमिति त्रिदशद्विपेन्दः । बिम्ब विकृष्य सहसा तपनस्य मुश्चन् धुन्वन्करं दिवि चकार न कस्प हास्यम् ॥४४॥ -सर्ग ६ आकाशगंगा के किनारे हरे रंग के पसे पर यह लाल कमल फूला हुआ है यह समझकर ऐरावत हाथी ने पहले तो बिना विघारे सूर्य का बिम्छ खींच लिया पर जब उष्ण लगा तब जल्दी से छोड़कर सूंड़ को फड़फड़ाने लगा। यह देख आकाश में किसे हँसी न आ गयी थी ? १. सर्ग ११, श्लोक २६ से १३ तक स्वयि विभावपि भाभिधायिनि...............|३|| ......मदममन्दमनन्थरमम्मथः || साहित्यिक सुषमा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पावचय के समम उपस्थित हास्य रस के प्रसंग देखिए उदनशाखाकुसुमार्थमुद्भुजा ब्युदस्य पाष्णिद्वयमञ्चितोदरी । नितम्बभूस्रस्तदुकूलबन्धना नितम्बिनी कस्य चकार नोत्सवम् ॥४२॥ सर्ग १२ ऊँची डाली पर लगे फूल के लिए जिसने दोनों एड़ियां उठा अपनी मुजाएँ ऊपर की थी परन्तु बीच में ही पेट के पुलख जाने से जिसके नितम्बस्थल का बस्त्र खुलकर नदे पिः गया ॥ी त्यूछ--विनमाली स्नी मिसे मानन्दित नहीं किया था? उदयशाखाञ्चनपञ्चलाङ्गले जस्म मूले स्पति प्रिये छलात् । . स्मितं वधूनामिव वीक्ष्य सत्रपरमुच्चतात्मा कुसुमैर्द्धमानतः ॥५॥ -सर्ग १२ किसी स्त्रो ने ऊँची डाली को झुकाने के लिए अपनी पंचल अंगुलियोंवाली भुजा ऊपर उठायी ही थी कि पति ने छल से उसके बाहुमूल में गुदगुदा दिया। इस क्रिया से स्त्री को हंसी आ गयी और फूल टूटकर नीचे आ पड़े । उस समय वे फूल, ऐसे जान पड़ते थे मानो स्त्री की मुसकान देख लज्जित ही हो गये हों और इसीलिए आत्मघास की इच्छा से उन्होंने अपने आपको वृक्ष के अग्रभाग से नीचे गिरा दिया हो। प्रसंगोपात शिशुपालवध के भी दो श्लोक देखिएमृदृचरणतलाग्रदुःस्थितत्वाघसहतरा कुवकुम्भयोमरस्य । उपरि निरवलम्बनं प्रियस्य न्यपतदयोच्चतरोच्चिचीषयान्या ।।४।। उपरिजत रुजानि यात्रमानां कुशलतया परिरम्भलोलुपोऽन्यः । प्रथितपृथुपयोधरां गृहाण स्वयमिति मुत्रवधूमुदास दोभाम् ॥४९॥ -सर्ग ७ कोई एक स्त्री बहुत ऊँचाई पर लगे हुए फूल तोड़ना चाहती थी। उनके लिए यह अपने कोमल परों के पंजों के बल यद्यपि खड़ी तो हुई परन्तु स्तन-बालशों के भार को सहन सकने के कारण निराधार हो पति के ऊपर जा गिरी। कोई स्त्री पति से बार-बार याचना कर रही थी कि मुझे ये ऊपर की डाली में लगे फूल तोड़ दो। पति चतुराई के साथ उसका आलिंगन करना चाहता था इसलिए उसने उस स्थूलस्तना स्त्री को अपनी भुजाओं से उठाकर कहा- लो तुम्हीं तोड़ लो। इसके अतिरिक्त स्वयंवर के अनन्तर नगर के राजपथ में जाते हुए धर्मनाथ को देखने के लिए स्त्रियों को जिन चेष्टाओं का वर्णन कवि ने धर्मशर्माभ्युदय के १७वें सर्ग में किया है उसमें भी हास्य रस अच्छा विकसित हुआ। १. उपरिजत रुजाय वामहस्तेन काचिद विधृतसर भिशाखा सम्यास्ताप्तकाञ्ची। अमल कनकगौरी निर्गमन्नी विमन्धा नमगमखमनन्तं कस्य वा ४.इन तेने १५ -जीवन्दरचम्पू. लम्भ । २. काचिद रानी कनिकः पुरस्तादुदस्तभाशोः कुसुमाग्रतस्य । बुलं नरवाचितमशुझम तिरोदरे मछस करान्तरेण ||८||-जो, च, लम्भ ४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाहदीक्षा के बाद धर्मनाथ अपनी दुलहिन श्रृंगारवती के साथ चौक के घोष सुवर्णसिंहासन को अलंकृत कर रहे थे उसी समय उन्हें पिता का एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर वे एकदम कुबेरनिर्मित विमान पर आरूढ़ हो रनपुर की ओर चल देते है। यहाँ ऐसा लगता है कि स्वयंवर के बाद होनेवाले युद्ध से मछूसा रखने के लिए ही कवि ने उन्हें सीमा विमान द्वारा रत्नपुर भेजा है और युद्ध का दायित्व सुषेण सेनापति के ऊपर निर्भर किया है । सुषेण ने प्रतिद्वन्दी राजपुत्रों से युद्ध कर विजय प्राप्त की। यहाँ वीर रस का परिपाक हुआ तो अवश्य है, पर अनुष्टुप् छन्द और चित्रालंकार के चक्र ने उसे पूर्णतया विकसित नहीं होने दिया है। तुलनात्मक पद्धति से विचार करने पर जोवन्धरपम्पू में प्रत्येक रस का जितना उच्चतम परिपाक हुआ है उतना धर्मशर्मा म्युदय में नहीं हो सका है। इसका कारण कवि की अशक्तला नहीं है किन्तु, रसानुकूल प्रकरणों का अभाव है । जीवन्धरचयू के रसपाक की समीक्षा आगे की जायेगी। जोवन्धरचम्पू का रस-प्रवाह साहित्य में श्रृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ रस है। भरतमुनि ने वात्सल्य नामक वसा रस भी माना है। इन सभी रसों का जीवन्धरबापू में अच्छा परिपाक हुआ है। कथानायक जीवन्धरकुमार की गन्धर्वदत्ता आदि आट नयी नवेली बधुएं हैं। उनके साथ पाणिग्रहण के बाद श्रृंगार का अच्छा परिपाक हुआ है पर मुख्य बात यह है कि कवि ने उसके वर्णन में गश्लीलता नहीं आने दी है । नयम लम्भ में जीवन्धरकुमार एक जर्जरकाय वृद्ध का रूप बनाकर जब सुरमंजरी के घर पहुंचते हैं और 'कुमारीतीर्थ की प्राप्ति के लिए घूम रहा हूँ इन शब्दों के द्वारा अपने आगमन का प्रयोजन बताते हैं तब इस प्रसंग में मानो हास्य की निरिणी ही प्रवाहित हो उठती है । वे अपने दिव्य संगीत से सुरमंजरी को प्रभावित कर तथा वांछित वर-प्रदान करने का प्रलोभन देकर अनंगगृह में ले जाते है और अनंग प्रतिमा के सामने सुरमंजरी के द्वारा चिरकांक्षित जीवन्धर के प्राप्त होने को प्रार्थना की जाती है तथा छिपे हुए बुद्धिषेण के द्वारा 'लब्धो बरः' का उच्चारण होने पर जब जर्जर-शरीर वृद्ध जीवन्धरकुमार के वेष में प्रकट होता है तब विषण्णवदन पाठक भी खिल-खिला उठता है। विजया माता के चित्रण में तघा द्वितीय लाम में भीलों द्वारा गोपों को गायों के चुरा लिये जाने पर कवि ने गोपों की वसति का जो वर्णन किया है तथा माताओं के अभाव में भूख से पीड़ित गायों के दुधमुंहे बछरे अब गोपियों के स्तनों पर मुख कगा देते हैं तब करुण रस का परिपाक सीमा के बांध को लांघ जाता है और वनादपि कठोर मनुष्य के नेत्रों से शोक के गरम-गरम आंसू निकल पड़ते हैं। काष्ठांगार को क्रूरता जब हिलावह मार्ग का प्रदर्शन करनेवाले धर्मदत आदि साहित्यिक सुषमा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचिवों का वध करती है तथा अपने आश्रयदासा रामा सत्यन्धर को मारकर अपनी कृतघ्नता का परिचय देती है तब रौद्र रस की निष्पत्ति होती है। गन्धर्ववत्ता तथा लक्ष्मणा के स्वयंवर के पश्चात् जीवन्धरकुमार ने पुखों में जो शूरता दिखायी है और काष्ठांगार के मारे जाने के बाद उसके परिवार को जो राजभवन में ही रहने की उदारता प्रकट की है उससे वीर रस का उत्तम परिपाक हुमा है । दशम सम्भ के बहुभाग में जो युद्ध का वर्णन उपलब्ध है वह अन्यत्र दुर्लभ है। श्मशान में जलती हुई चिताओं और उनकी प्रचण्ठ ज्वालाओं में जलते हुए नरशवों के वर्णन में बीभत्स रस का अच्छा परिपाक हुआ है । लक्ष्मणा के स्वयंवर में जीवन्धरकुमार के द्वारा सहसा चन्द्र कवेध का होना अद्भुत रस को उपस्थित करता है। अन्तिम लम्भ में वनपाल के द्वारा वानरी के हाथ से तालफल छीन लिया जाता है, इस दृश्य को देखकर जीवन्धरकुमार के मुख से निकल पड़ता है-'मद्यते वनपालोऽयं काष्ठांगारायते हरिः' और उनका हृदय संसार की दशा देख निविषण हो जाता है। मुनिराज धर्मोपदेश करते हैं और चरित्रनायक जीवन्धरस्वामी राज्य छोड़कर दैगम्बरी दीक्षा धारण कर लेते हैं। यहाँ शान्त रस का उच्चतम परिपाक होता है। इस तरह यद्यपि जीवम्बरचम्पू में अंगीरस शान्त है तथापि अंग रूप से शेष आठ स स्थास्था: पदी रि-1 पर से हैं। निया के चरित्रचित्रण में वात्सल्य रस की निष्पत्ति भी अपनी प्रभुता रखती है । जीवन्धर-कथा के उदात्त अंश जो विजया माता प्रातःकाल राजमहिषी के पद पर आरूढ़ थी वही राजा सत्यन्धर का पतन हो जाने पर सायंकाल श्मशान में पड़ी है और रात्रि के धनषोर अन्धकार में मोक्षगामी कथा-नायक जीवघर को जन्म देती है । रानी विजया को आँखों में अपने पुत्र के अन्मोत्सव का भानन्द और वर्तमान दयनीय दशा पर कारुण्योद्वेग, एक साथ हैं। अपने सद्योजात पुत्र को दूसरे के लिए सौंपने पर भी उसके हृदय में वह विकलता कवि ने नहीं आने दी है जो अन्य माताओं में देखी जाती है। विजया अपने भाई विदेहाधिप गोविन्द के घर जाकर अपमान के दिन बिताना नहीं चाहती है। वह दण्डकवन के तपोवन में तापसी के वेष में रहकर अपने विपत्ति के दिन काटना उचित समझती है। एक बात और है कि कुतध्न काष्टांगार राजा सस्यन्धर का समूल बंधाच्छेद करना चाहता है अतः वह इनके सद्योजात पुत्र को भी जीवित नहीं छोड़ेगा। विजया यदि अपने भाई गोविन्द के घर स्वकीय वेष में रहती है तो गुप्तचरों के द्वारा काष्ठांगार को उसका और उसके सद्योजात पुत्र का परिचय अनायास मिल जायेगा और तब वह पुत्र की हत्या में सफल हो जायेगा--इस भावी आशंका को अपनी दूरदर्शिनी दृष्टि से देखकर वह दण्डकबन के तपस्वि-आश्रम में तपस्विनी के रूप में छद्मनिवास करने लगी। ७२ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हा, रानी विजया दशकवन में रह रही है। क्षत्रचुडामणि के निर्माता षादीभ सिंह ने इसका वर्णन करते हुए कहा है कि जो रानी पहले शय्या पर पड़े फूल को कलियों से भी कराह उठती थी वह आज घास-फूस की शय्मा से ही सन्तुष्ट है, और तो क्या, अपने हाथ से काटा हुआ नीवार-जंगली धान्य ही उसका आहार है । माता का वात्सल्य से परिपूर्ण हृदय चाहता है कि वह अपने पुत्र को खिलापिलाकर आनन्द का अनुभव करे पर पुत्र का दर्शन ही कहाँ ? वह दण्डकवन की हरीभरी दुब के अंकुरों को उखाड़ कर तथा मुगशायकों को खिला-खिलाकर हृदय में यथाकथंचित् सन्तोप धारण करती है। आगे चलकर उसी दण्डकवन में जीवन्धर के साथियों से जब काष्ठांगार के द्वारा उस के प्राणदण्ड का अपूर्ण समाचार सुनती है तब उसका हृदय भर आता है, आँखों से सावन की सड़ी लग जाती है और दण्डकबन का तपोवन आकस्मिक करुण क्रन्दन से गूंज उयता है 1 पुत्र के प्रति माता की ममता को मानो कवि ने उद्देल कर रख दिया है। अन्त में पूर्ण समाचार सुनने पर उसका हृदय सन्तोष का अनुभव करता है। सखाओं द्वारा माता के जीवित रहने का समाचार प्राप्त कर जीवन्धर का हृदय भी गलत पवित्र पर काले त्रिः गौर हो जा है । वे सास, श्वसुर तथा श्वसुराल के सभी लोगों के रोकने पर भी सखाओं के साथ माता के पास द्रुतगलि से जाते हैं और माता के दर्शन कर गद्गद हो जाते हैं। यह प्रकरण जीवन्धरचम्पू का उदात्त अंश है। कवि ने इतनी कुशलता से इसका वर्णन किया है कि पाठक का हृदय आनन्द से विभोर हो जाता है। जीवन्धरचम्पू का विप्रलम्भ शृंगार और प्रणय-पत्र दुन्ति हाथी के उपद्रव से रक्षा करते समय जीवन्धर ने गुणमाला को देखा और गुणमाला ने जीवघर को, यह अप्रत्याशित दर्शन दोनों के अनुराग का कारण बन गया । गुणमाला साक्षात् कामदेव के समान सुन्दर जीवघर को देख काम से आतुर होती हुई घर गयो, सन्ताप से उसका मुख सूखने लगा, मन में जीवन्धर का ध्यान करती हुई वह चुप हो रही है, सखियों के पूछने पर भी कुछ नहीं बोलती । यह कामदेव को उपालम्भ देती हुई कहती है, 'हे कुसुमायुध ! तुम्हारे पांच बाण निश्चित है और बेधने योग्य लक्ष्य अनेक है फिर क्या बात है कि तुमने अपने समस्त बाण मुझ एक पर ही चला दिये ?' अनेक शीललोगचार करने पर भी जब उसे शान्ति न हुई तब उसने एक पत्र लिखकर क्रीडाशुक के द्वारा जीवन्धर के पास भेजा । पत्र में लिखा था मदीवहृदयाभि मदनकाण्डकाण्डोद्मतं नवं कुसुमकन्दुकं बनतटे पया चोरितम् । विमोहकलितोत्पलं रुधिररागसरपल्लवं तदद्य हि वितीर्यतां विजिसकामरूपोज्ज्वल ||३३॥–लभ ४ साहित्यिक सुषमा ७. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे काम को जीतनेवाले रूप से उज्ज्वल बल्लभ | तुमने बन के तीर पर कामदेव के वाण रूपी दण्ड से उछाली हमारे हृदय रूपी फल की गेंद धुरा ली थी। उस गेंद का परिचय यह है कि उसमें मूसरूपी उत्पल लग रहा है और सुन्दर राग रूपी पल्लव लगे हुए है । वह गेंद अब वापस दे दीजिए 1 उधर जीवन्धर भी गुणमाला के विरह से आतुर हो दद्यान में बैठकर गणमाला का चित्रांकन कर रहे थे तथा उसके कमनीय शरीर को देखकर गरम-गरम निःश्वास छोड़ रहे थे। तोता के द्वारा प्रदत्त पत्र पाकर उनकी प्रसन्नता का पार नहीं रहा । अनेकों बार उन्होंने वह पत्र पढ़ा और उत्तर में प्रतिपत्र लिखा मम नयनमराली प्राप्य ते वपत्रपद्म तदनु च कुचकोशप्रान्तमागत्य हुष्टा । विहरति रसपूर्ण नाभिकासारमध्ये यदि भवति वितीर्णा सा त्वया तं ददामि ॥३५।। -लम्भ ४ मेरो दृष्टि रूपी हँसो सर्वप्रथम तुम्हारे मुखरूपी कमल के पास गयी थी, फिर स्तनरूपी कुड्मलों के पास आकर हर्षित हुई और तदनन्तर रस से भरे हुए नाभिरूपी तालाब के बीच विहार कर रही है सो वह दृष्टिरूपी हंसी यदि सुम दे दो तो मैं भी तुम्हारी हृदयरूपी गेंद दे हूँ। इधर गुणमाला की दशा बड़ी विचित्र हो रही थी, हृदय में जलती हुई कामाग्नि के घूम के समान निकलनेवाले निःश्वास से उसको नाक का मोती नीलमणि बन गया था। अत्यन्त दुर्बल शारीर होने के कारण सुवर्ण की अंगूठी चूड़ी का काम देने लगी थी। मुखरूपी चन्द्रमा की चांदनी से लिप्स होने के कारण ही मानो उसकी शरीररूपी लता सफ़ेद पड़ गयी थी। भावना की प्रकर्षता के कारण प्रत्येक दिशा में दिखते हए जीवन्धर को देखकर बह उनकी अगवानी करने का यद्यपि प्रयत्न करती थी तो भी मृणाल के समान कोमल अंगों से वह समर्थ नहीं हो पाती थी। भेजे हुए शुक के आने में जो विलम्ब हो रहा था उसे वह सहने में असमर्थ थी इसलिए एक वर्ष की भयभीत हरिणी के समान अपने कटाक्ष प्रत्येक दिशा में छोड़ रही थी। इतने में शुक वहां आ पहुँचा । उसे देखते ही वह चिल्ला उठी-आओ आओ, मैं विलम्ब नहीं सहन कर सकती 1 जब वह शुक पास आ गया तब उसने उसे अपनी भुजाओं के युगल से ऊपर उठा लिया। उस समय हर्षातिरेक के कारण उसका भुजयुगल इतना फूल गया था कि उसकी चोकी ही फट गयी थी। क्रीडाशुक जो पत्र लाया था गुणमाला ने उसे ले लिया - जान पड़ता है कि नैषधीयचरित की हंसकरूपना इसी शुककल्पना से प्रभावित है। अष्टम लम्म में गन्धर्वदत्ता, गुणमाला की विरहावस्था का चित्रण करती हुई। जीवन्धर को लिखती है महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म ! गुमला जिलेगा.. कन्दपों विषमस्तनोति वनुर्वा तन्वा ज्वरे गौरवं मृत्युपचापि दयाकथाविरहितो मां नैव संभाषते । आर्य त्वं ध नवाङ्गनासुखवशाद्विस्मृत्य मां मोबसे जातीपल्लवकोमला कथमियं जीवेत्तक प्रेयसी ।।२१।। स्वामिनकरिती ममोरसि कुचो वृद्धि गतौ ताबके वाचस्तावकवाग्रसैः परिपिता मौग्ध्येन सन्त्याजिताः। बाहू मातृगलस्थलादपसृतो त्वत्कण्ठदेशेऽपिता वार्य प्रेमपयोनिधे स्थितमिदं विज्ञापितं किं पुन: ।।२२।। हे आर्यपुत्र ! गुणमाला ऐसा निवेदन करती है "यह विषम कामदेव शरीर में कुशता और ज्वर में गुरुता की वृद्धि कर रहा है तथा दया की चर्चा से रहित मृत्यु मुझसे बोलती भी नहीं है । हे आर्य ! आप नयी-नयी स्त्रियों के सुख से वशीभूत हो मुझे भूलाकर मौज कर रहे हैं फिर घमेली के पल्लव के समान कोमलांगी तुम्हारी यह प्रिया कैसे जीवित रहे । हे भार्म। हे प्रेम के सागर ! सच बात तो यह है कि स्तन हमारे वक्षःस्थल पर वृद्धि को प्राप्त हुए । हमारे बचनों ने आपके वचनों से परिचित होकर ही मुग्धता छोड़ी है और हमारी भुजाएं माता के गले से दूर हटकर आपके कण्ठ में अपित हुई हैं । इस तरह हमारे आधार एक आप ही है, अधिक क्या निवेदन करू ?" जीवन्धरचम्पू में शान्तरस की पावन धारा सांसारिक परिभ्रमण से निकालकर मानव को मुक्ति मन्दिर में भेज देनामोक्ष प्रास करा देना यही जैन कथानकों का अन्तिम उद्देश्य रहता है । यद्यपि इन कथाओं में प्रसंगोपात्त शृंगारादि समस्त रसों का वर्णन आता है तथापि उन सबका समारोप एक शान्तरस में ही होता है। जीवन्धरचम्प में भी यथास्थान राभो रसों का वर्णन आया है परन्तु अन्त में उन सबका समारोप एक शान्तरस में ही हुआ है। कथानायक जीवन्धर स्वामी, राज्यसिंहासनासीन हो चुकने पर एक दिन वासन्ती सुषमा से सुशोभित उद्यान में गये । उनको आठौं रानियों उनके साथ थीं । दक्षिण नायक की तरह वे अपनी समस्त स्त्रियों को प्रमुदित करते हुए एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहां वानरों का समूह स्वच्छन्द वनक्रीड़ा कर रहा था। वृक्ष की एक शाखा से अन्य शाखाओं पर उछलते हुए वानर-समूह को देखकर वे मानन्दविभोर हो उठे। एक वानरी, अपने वानर का अन्य वानरी के साथ प्रेम देख रुष्ट हो गयी। उसे प्रसन्न करने के लिए वानर ने बहुत प्रयत्न किये पर वह प्रसन्न नहीं हुई । अन्त में निरुपाय हो वानर मृत के समान रूप बनाकर पड़ रहा । पह देख वानरी भय से कॉप साहित्यिक सुषमा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठी और उसके पास पहुँचकर उसने उसे स्वस्थ कर दिया। बानरी को प्रसन्न देश बानर ने एक पनस फल तोड़कर उसे उपहार में दिया, परन्तु अकस्मात् वनपाल ने आकर बानरी के हाथ से वह पनस फल छीन लिया । यह सब दृश्य जीवन्धर स्वामी अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष देख रहे थे । उनका दयालु हृदय वनपाल के इस कार्य को देखकर व्यन्न हो उठा । इसी आलन विभाव ने जीवन्धर स्वामी के हृदय में शान्तरस को उत्पन्न कर दिया । उनके मन में यह विचार तरंगित होने लगा काष्ठा की राज्यमेतत्। मद्यते वनपालोऽयं त्माज्यं राज्यमिदं मया ॥२२॥ पृ. २२४ और यह बनपाल यह वानर काष्ठागार के समान, यह राज्य फल के समान मेरे समान आचरण कर रहा है अर्थात् जिस प्रकार वानर के द्वारा दिये हुए फल को वनपाल ने छीन लिया है उसी प्रकार मैंने इस राज्य को छीन लिया है अतः यह राज्य मेरे द्वारा त्याज्य है । शान्तरस के अनुभाव रूप में कवि ने जीवन्वर स्वामी की जिस वैराग्यतरंगिणी को प्रवाहित किया है उसमें अवगाहन कर शान्तिसुधा का अनुभव किया जा सकता है । वे लिखते हैं = या राज्यलक्ष्मी बहुदुःखसाच्या दुःखेन पाल्या चपला दुरन्ता । नष्टापि दुःखानि चिरायते तस्यां कदा वा सुखलेशलेशः ॥ २३ ॥ कल्लोलिनीनां निकरैरिवान्धिः कृपीटयोनिर्बलेन्धनैव 1 कामं न संतृप्यति कामभोगः कन्दर्पवश्यः पुरुषः कदाचित् ||२४|| राज्य स्नेहविहीनदीपकलिकाकल्पं चलं जीवितं शम्पावत्क्षणभङ्गुरा तनुरियं लोलानतुल्यं वयः । तस्मात्संसृतिसन्ततो न हि सुखं तत्रापि मूढः पुमा नादत्ते स्वहितं करोति च पुनर्मोहाय कार्य वृथा ॥२५॥ विलोभ्यमानो विषयैर्वराको भङ्गुरैर्भूशम् । नारम्भदोषान्मनुते मोहेन बहुदुःखदान् ॥ २६ ॥ ममेयं मुङ्गी मम तनय एष प्रचुरधी रिमे मे पूर्वा इति विगतबुद्धिर्नरपशुः । अणुप्ररूये सौख्ये विहित रुचिरारम्भवगः प्रयाति प्रायेण क्षितिधरनिभं दुःखमधिकम् ॥ २७॥ ये मोक्षलक्ष्मीमनपायरूपां विहाय विन्दन्ति नृपाललक्ष्मीम् । निदाघकाले शिशिराम्बुधारा हित्वा भजन्ते मृगतृष्णिकां ले ||२८|| तस्मात्वलेशचयारलब्ध्वा मानुषं जन्म दुर्लभम् । प्रमादः स्वहिते कर्तुं न युक्त इह धीमता ॥ २९ ॥ पृ. २२४-२२५ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव यह है जो राजलक्ष्मी बहुत दुख से होती है, कॉटकाई से जिसको छोटी हैं, जो चपल है, जिसका मन्त दुखदायों है और जो नष्ट होकर भी चिरकाल तक दुख उत्पन्न करती रहती हैं उस राजलक्ष्मी में सुख का लेश कब हो सकता हूँ ? अर्थात् कभी नहीं हो सकता है । जिस प्रकार नदियों के समूह से समुद्र और बहुत भारी ईंधन से अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती उसी प्रकार काम के वशीभूत हुआ यह पुरुष कभी भी कामभोगों से सन्तुष्ट नहीं होता है । यह राज्य तैलरहित दीपक की लौ के समान है, जीवन चंचल है, शरीर बिजली के समान क्षणभंगुर है और आयु चपल मेघ के तुल्य है। इस प्रकार इस संसार की सन्तति में कुछ भी सुख नहीं है। फिर भी उसमें मूढ़ हुआ पुरुष अपना हित नहीं करता किन्तु इसके विपरीत मोह बढ़ानेवाला व्यर्थ का कार्य ही करता हूँ | नश्वर त्रिषयों के द्वारा लुभाया हुआ बेचारा मनुष्य, मोहवण बहुत दुख देनेवाले आरम्भ-जनित दोषों को नहीं समझता है 1 यह मेरी कोमलांगी स्त्री है, यह बुद्धिमान् पुत्र है और ये मेरे पूर्वसंचित धन हैं इस तरह निर्बुद्धि हुआ यह नरपशु - अज्ञानी मानव, अणु बराबर सुख में इच्छा उत्पन्न कर आरम्भ के वशीभूत होता है और अधिकतर पहाड़ के समान बहुत भारी दुख को ही प्राप्त करता है | जो मानव अविनाशी मोक्षलक्ष्मी को छोड़कर राजलक्ष्मी प्राप्त करते हैं ये ग्रीष्मकाल में शीतल जल की धारा छोड़कर मृगमरीचिका का सेवन करते हैं । इसलिए बड़ी कठिनाई से दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर बुद्धिमान् मानव को आत्महित में प्रमाद करना उचित नहीं है । इस तत्वचिन्तन के फलस्वरूप जीवन्धर स्वामी संसार की माया - ममता से विरक्त हो मुनि दीक्षा लेने का निश्चय कर लेते हैं और राजकीय व्यवस्था से निवृत्त होकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण में वारण करते हैं । घोर तपश्चरण के द्वारा संचित कर्मों का नाश जाकर मुनि दीक्षा कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार अंगीरस - शान्तरस का समारोप कर महाकवि हरिचन्द्र निम्नांकित पद्यों द्वारा मंगलकामना करते हैं--- साहित्यिक सुषमा प्रजानां क्षेमाय प्रभवतु महीशः प्रतिदिनं सुवृष्टिः संभूयाद् भजतु शमनं व्याधिनिचयः । विधत्तां वाग्देव्या सह परिचयं श्रीरनुदिनं जैनं जीयाद् विलसतु भक्तिजिनपती ॥५९॥ ७७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा प्रतिदिन प्रजा का कल्याण करने में समर्थ हों, उत्तम वर्षा हो, रोगों का समूह नाश को प्राप्त हो, लक्ष्मी सरस्वती के साथ प्रतिदिन परिचय करे, जिनेन्द्रदेव का मत जयवन्त हो और सबकी भक्ति जिनेन्द्रदेव में सुशोभित हो । कुरुकुलपतेः कीर्ती राकेन्दुसुन्दरचन्द्रिका विमलविशदा लोकेष्णनन्दिनी परिवर्धताम् । मम च मधुरा वाणी विन्मुखेषु विनृत्यताद् विलसितरसा सालंकारा विराजितमन्मया ॥६०॥ पूर्णचन्द्र की चांदनी के समान निर्मक -- घवल तथा आनन्द उत्पन्न करनेवाली कुरुकुलपति जीवन्धर स्वामी की कीर्ति तीनों लोकों में निरन्तर बढ़ती रहे और रस से सुशोभित अलंकारों से युक्त तथा कामदेव पद के धारक जीवन्धर स्वामी के उपाख्यान से अलंकृत हमारी मधुर वाणी विद्वानों के मुखों में नृत्य करती रहे । धर्मशर्माभ्युदय में छन्दों की रसानुगुणता यतश्च रस के अनुरूपें छन्द ही काव्य में सुशोभित होते हैं अतः उनकी रसानुकूलता पर कुछ विचार किया जाता है - आरम्भे सर्गबन्धस्य कथाविस्तरसंग्रहे । शमोपदेशवृत्तान्ते सन्तः शंसन्त्यनुष्टुभम् || श्रृङ्गारालम्बनोदारनायिका रूपवर्णनम् । वसम्तादि तदङ्गं च सच्छायमुपजातिभिः ॥ रथोद्धता विभावेषु भध्या चन्द्रोदयादिषु । पाड्गुण्यगुणा नीतिवंशस्थेन विराजते ॥ वसन्ततिलकं भाति संकरे वीररौद्रयोः । कुर्यात्तस्य पर्यन्ते मालिनीं द्रुततालवतु ॥ उपपन्नपरिच्छेदकाले शिखरिणी वरा । औवार्यरुचिरौचित्यविचारे हरिणी मता ॥ साक्षेप क्रोषटिक्कारे परं पृथ्वी भरक्षमा । प्रावृ प्रवासव्यसने मन्दाक्रान्ता विराजते ॥ शौर्यस्तवे नृपादीनां शार्दूलक्रीडितं मतम् । साग-पवनादीनां वर्णने साधरा वरा || दोषकतोटकन कुंटयुक्तं मुक्तकमेव विराजति सूतम् । निर्विषयस्तु रसादिषु तेषां निनियमश्च सदा विनियोगः || १. काव्ये रसानुसारेण वर्णनानुगुणेन च । ७८ कुर्वीत सर्ववृत्तानां विनियोग विभागविष । शास्त्रे काव्येऽतिदीर्घाणा वृतानन प्रयोजनम् । काव्यशास्त्रेऽपि वृत्तानि रसायन्तानि काव्य तितकीय विन्यास महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवृत्ततिलक में महाकवि क्षेमेन्द्र ने कहा है कि काश्य में, कश के विस्तार में और सामासापूर्ण उपक्ष में जहष अनुप की प्रभार करते है। शृंगाररस के आलम्बन, तथा उत्कृष्ट नायिका के रूप-वर्णन में वसन्ततिलका और उपजाति छन्द सुशोभित होते हैं। चन्ट्रोदय आदि विभाष भावों के वर्णन में रथोद्धता छन्द अच्छा माना जाता है। तथा सन्धि, विग्रह भावि षड्गुणात्मक नीति का उपदेश वंशस्थ छन्द से सुशोभित होता है। वीर और रोदरस के संकर में वसन्ततिलक सुशोभित होता है सो सन्ति में मालिनी अधिक हिलती है। युक्तियुक्त वस्तु के परिज्ञान-काल में, शिखरिणी तथा उदारता आदि के औचित्यवर्षन में हरिणी छन्द की मोजना अच्छी मानी जाती है। राजाओं के शौर्य की स्तुति करने में शार्दूलविक्रीडित और वेगशाली वायु आदि के वर्णन में स्रग्धरा छन्द श्रेष्ठ माना गया है। दोधक, तोटक तथा नकूट छन्द मुक्तक रूप से सुशोभित होते हैं। ___ इस प्रसिद्ध छन्दो-योजना के अनुसार धर्मशर्माभ्युदय में निम्नांकित २५ छन्दों का प्रयोग हुआ है-जिनका विवरण निम्न प्रकार है। कोष्ठक का अंक सर्ग का और साधारण अंक श्लोक का वाचक हैं । कोष्ठक के भीतर लिखा हुआ 'प्र' प्रशस्ति का वाचक है१. उपजाति-(१) १-८४, (४) २-९१, (१०) १-९, १२, १४-१६, २०, ३२, ३६, ४४, ५०, ५४, ५५, (१४) १-८२, १७) १-१०८, (1)४-७ २. मालिनी -(१) ८५, (५) १०, (६) ५३, (८)१-५५, (१०) ११, ३८, (११) ७२, (१३) ७०, (१९) १०३, (२०) १०१, (२१) १८५ । ३. बसन्ततिलका-(१) ८६, (५)८७, (६)१-५१, (१०) १३, १९, २५, ३१, ४०, ४३, ४६, ४९, ५३-६३, ( १५ / ७०, ( १६ ) ८८, ( १७ ) १०९ (१९) ९७-९९, (प्र) १, २,८। ४. वंशस्थ-(२)१-७४, (१०) १८, २३, २६-३०, ३९, ४१, ४७, ५६, (१२) १-६० । ५. शार्दूलविक्रीडित-(२) ७५, ७७, ७९, (३) ७४, ७६, (५) ८८, ८९, (७) ६७, ६८, (९)८०, (१०) ५७, (१२) ६१, (१३) ७१, (१४) ८४, (१६) ८५-८७, (१७) ११०, (१९) १०१, १०४, (२१) १८३-१८४, (प्र) ३, . ६. द्रुतविलम्बित-(२) ७६, ( ३ ) ७५, (४) ९२, (६) ५२, (१०) २२, ३७, (११) १-७१ । साहिस्थिक सुषमा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. शालिनी - (२) ७८, (२०) १ - १०० । ८. अनुष्टुप् --- (३) १-७३, (१९) १- ९५, ( २१ ) १ - १८२ । ९. शिखरि - ( ३ ) ७७, १ १९ १ ८५ १ ८० १०. उपेन्द्रवज्रा - ( ४ ) १, ( ७ ) १-६६ । ११. पृथ्वी - ( ४ ) ९३, (१०) १७, ३५, ( १२ ) ६२ । १२. रथोद्धता - ( ५ ) १-८६ ॥ १३. हरिणी - ( ८ ) ५६, (९) ७९ । १४. मन्दाक्रान्ता — ( ८ ) ५७, (१०) १०, ३४, ( १२ ) ६३, (१४) ८३ । १५. इन्द्रवंशा--( ९ ) १-७८, (१०) ३३ | १६. भुजंगप्रयात - ( १० ) २१, ५१ । १७. दोधक -- ( १० ) * २४ । १८. प्रमिताक्षरा - ( १० ) ४२ ! १९. ललिता - ( १० ) ४५, (१९) १०० । २०. विपरीताख्यातकी - (१०) ४८ 1 २१. पुष्पिताग्रा - ( १३ ) १-६९ । २२. स्वागता - ( १५ ) १-६९ । २३. प्रहर्षिणी - ( १६ ) २४. तोटक - ( १९ } ९६ । २५ खग्विणी - ( ११ ) १०३ 1 १-८३ । जीवन्परचम्पू में छन्दोयोजना छन्दों की रसानुगुणता का वर्णन पहले किया जा चुका है। उस पर दृष्टि रखते हुए जीवन्धरचम्पू में प्रायः सभी प्रसिद्ध छन्दों की योजना की गयी है । इन्द्रवचा और उपेन्द्रवज्जा तथा वंशस्य और इन्द्रवंशा की उपजाति तो प्रायः सर्वत्र देखी जाती है पर यहाँ रथोद्धता और स्वागता की भी उपजाति का अनेक बार प्रयोग किया गया है । कुछ श्लोक ऐसे भी आये है जिनका वृत्तरत्नाकरादि में उल्लेख नहीं मिलता इसलिए हमने उन्हें अज्ञात शब्द से संक्रेतित किया है। नीचे लम्स के क्रमानुसार प्रयुक्त छन्दों को नामावली दी जाती है और उनके आगे श्लोकों की संख्या दिखलाई गयी है । प्रथम लम्भ शार्दूलविक्रीडित - १, १९, २०, २२, २८, ३४, ६७ स्रग्धरा - २, १४, २३ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपजाति – ३, १८, ३३, ५२, ५४ ५५ ५६, ६९, ७३, ७८, ८५, ८, ९० ९३ ९६, ९ आर्या, अनुष्टुप् – ५, ६, ८, १०, ११, २६, २९, ३२, ३५, ३६, ४०, ४८, ४९, ५३, ५७, ५१, ६०, ६१, ६५, ६८, ७१, ७२, ७५, ७७,७९, ८०, ८२, ८३, ८६, ९१, ९४, ९८१००, १०२, १०३, १०५, १०६ १ ७ इन्द्रवज्रा ९, २९, ४१, ४२, ४८, ५१, ६२, ६३, ६४, ७०, ७४, ८१ वसन्ततिलका - १५, १६, १७, २१, २४, २५, २७, ३०, ३१, ४३, ४४, ४६, ५०, ५८, ७६, ८९, १७, १०१ मालिनी – ३७, ४५, ८७, ९२ मालभारिणी - ३८, ६६ शालिनी - ८४ मन्दाक्रान्ता - ९५ वंशस्थ - १०४ अनुष्टुप् — १, ११, १२, २१, ३० उपजाति - २, ८, ९, १०, २२, २३, २५, २६,३३ वसन्ततिलका–३, ३१. उपेन्द्रवज्रा---४, ६ इन्द्रवज्रा - ५ मालभारिणी - १३, २७ शालिनी – १४, १६ द्वितीय लम्भ मन्दाक्रान्ता - १५, ३४, ३५ शार्दूलविक्रीडित – १७ शिखरिणी – १९ स्रग्धरा - २० पृथ्वी २८ रथोद्धता – २९ स्वागता—३२ स्वाहित्यिक सुषमा ११ 41 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अतीय साभ ... . वसन्ततिलका-१, ७, ८, २३, २१, २२, ४३ इन्द्रवज्ञा-२, २७ शार्दूलविक्रीडित-३, २४, ३८, ४२ अनुष्टुप्-४, ९, ११, १३, १५, १८, २२, २६, ३५, ४०, ४१, ४४, ४६, ४९, ५३, ५६,५७, ६६, ७ पुथ्वी-५, ३०, ३१, ३३, ६७, ६८ उपजाति-१, १०, १२, १४, १५, २१, १९, ४५, ४७, ४८, ५०, ५२, ५४, ५५, ५८, ६१, ६४, ६९ द्रुतविलम्बित-१६ मन्दाक्रान्ता-१९, ६३ शिखरिणी-२० मालभारिणी-२४ रथोद्धता-२५ उपेन्द्रवज्रा-२८, ५१ मालिनी-३६, ६० हरिणी-३७, ६२, ६५ वंशस्थ---५९ खतुषं लम्भ अनुष्टुप-१, २, ४, १२, (१५), २४, २६, २८, ३४, १७, ४० शार्दूलविक्रीडित-१, १४, २७, ३० शालिनी--२, १९ उपजाति-३, ८, १५, २०, २१, २३ पृथ्वी-५, ३३ वसन्ततिलका-६, ९, १३, ३२, ३९ मालिनी---७, १०, ३५ उपेन्द्रवजा-१६ रथोद्धता-१७, १८ । इन्द्रवज्ञा–२२, २५ . पुष्पिताग्रा-२९ मालभारिपी-३१ अज्ञात (१)-३६ मंजुभाषिणी- ३८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुकीपन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम लम्भ स्वागता-२ अनुष्टुप्-२, ६, ७, १०, १५, १६, १९, २१, २५, २५, ३०, ३२, ३३, ३४, ३६, ३८, ४., ४५. उपजाति-३, ९, १४, १५, २६, २८, २९, ३५, ३९, ४४, ४६ उपेन्द्रवच्चा-४ पृथ्वी-५, ११, २० वसन्ततिलका-८, १३, २३, २४, ३१, ४२ शालिनी--१२ शिखरिणी-१८ शार्दूलविक्रीडित-२२ स्रग्धरा-३५ मालिनी-४१ मन्दाकान्ता---४३ षष्ठ लम्भ वसन्ततिलका-१, ५, ४२, ४५ अनुष्टुप्–२, ३, ५, ८, १२, २२, २६, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ३५, मालिनी-४,१७, १९, २०, २१, ४४ उपजाति-६, १०, ११, १५, २७, ३७, ३८, ४०, ४६ उपेन्द्रवज्ञा-९ इन्द्रवञ्चा-१३, १४ रथोद्धता.१६ शार्दूलविक्रीडित–१८,२८, ३६, ४३, ४९ मन्दाक्रान्ता-२३ शिखरिणी-२४,४१, ४८ मंजुभाषिणी-२५ हरिणी-३४ सप्तम लम्भ मालिनी-१० वसन्ततिलका-२, ३७, ४२, ५० साहित्यिक सुषमा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालिनी - ३, ५८ अनुष्टुप् – ४, ६, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १५, १७, १९, २१, २३, २५, २८, २९, ३२, ३४, ३५, ४०, ४१, ४३, ४७, ४८, ५२, ५३, ५५ उपजाति – ५, १६, १८, २०, २४, ३३, ४४, ५१, ५६ मालभारिणी – ७, ४६ भुजंगप्रयात ४ शालिनी - २२ शार्दूलविक्रीडित- २६, २७, ३६, ३८, ३९ ... पृथ्वी – ३०, ३१, ४९ मंजुभाषिणी - ४५ द्रुतविलम्बित - ५४ स्रग्धरा—५७ अष्टम लम्भ उपजाति - १, २, १०, १४, २९, ४८, ५२, ५३, ५४, ५८, ६१, ६७ अनुष्टुप् — ३, ६, १२, १६, २०, २१, ३२, ३६, ४१, ४२, ४४, ५५, ६३, ६५ रथोद्धता-४ मालभारिणी – ५, ७, २३ मंजुभाषिणी ८, ९, ३७ द्रुतविलम्बित -- ११ मालिनी – १३, पृथ्वी - - १५, ३३, ५७ ४३ स्वागता --- १७ पुष्पिताग्रा - १९ शार्दूलविक्रीडित- २१, २२, २४, २८, ३१, ३४, ४५, ४९, ५१, ६२, ६६ वसन्ततिलका - २५, २७, ३५, ३८, ३९, ४६, ४७, ५६, ६०, ६८ शिखरिणी - २० मन्दाक्रान्ता - ४० इन्द्रवज्रा – ५० पंचचामर—५९ हरिणी - ६४ महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीकन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम लम्भ उपजाति - १, ८, १०, ११ मंजुभाषिणी – २, ३ अनुष्टुप - ४, ५, ६, ९, १२, १५, १७, २०, २४, २५, २० मालिनी–७, २६, २७, २९ १२, २१ द्रुतविलम्बित - मालभारिणी - १४ शार्दूलविक्रीडित - १६, २३, २१ शिखरिणी -- १८ वसन्ततिलका- १९, २२ स्रग्धरा - २८ दशम लम्भ शिखरिणी - १, १०, ११, १८, १९, २०, ५२४०१ उपजाति - २, १४, ३०, ३७, ३९, ४३, ५०, ५१, ५२, ६१, ६२, ६६, ७९, ८०, ८२, ९३, ९७, १०२, ११६, १२५, १३३, १४१ अनुष्टुप् ३, ८, १५, १६, २१, २४, २७, ३५, ३८, ४१, ६५, ६७, ७३, ७५,७७, ८१, ८५, ८८, ९१, १०९, ११०, ११२, ११३, १२४, १२६, १३७, १३८ मालभारिणी - ४, ८४ वसन्ततिलका–५, २६, ३४, ४७, ४८, ४९, ५५, ६४, ७४, ९२, १२१ पृथ्वी - ६, ७, ९, १६, २५, ५९, ७२, ७६, ८१, १२६ हरिणी - १२, ६८, १२७ मालिनी – १३, ७१, ११५ शार्दूलविक्रीडित- २२, ३२, ३३, ४५,४६, ६३, ९६, ९८, ९९, १००, १०८, १०९, १२०, १२२, १३०, १३५, १३९, १४० मंजुभाषिणी - २३ शालिनी -- ५६, ५७ उपेन्द्रवज्रा - २८, ३६, ९४, १११, ११४, ११८ इन्द्रवज्रा - २९, ६०, ९०, १३४, स्रग्धरा - ३१, ४०, ४२, ६९ भुजंगप्रयात - ४४ रथोद्धता-७० द्रुतविलम्बित - ७८, १२१ साहित्यिक सुषमा ८५ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिताग्रा.-८६ अज्ञात (१)-८७, ९५, १०३, १२३ एकाक्श लम्भ शार्दूलविक्रीडित-१, १६, १८, २५, ४६, ५८ अनुष्टुप-२, ४, ५, ६, ८, ९, १२, १४, २२, २६, २९, ११, ३२, ३४, ३७, ४२, ५१, ५४, ५५, ५६ उपजाति-३, १०, २४, २८, ४५, ५७ पृथ्वी-७, २०, ३५ पुष्पिताग्रा-११, ४० वसन्ततिलका-१३, १७, ३३, ४४, ४९ इन्द्रवज्ञा-१९, २३, ५० मालिनी-२१ शिखरिणी-२७, ३६, ३९, ४३, ५३, ५९ शालिनी-३०, ४१, ५२ स्रग्धरा-३८, ४८ मन्द्राकान्ता-४५ हरिणी-६० उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जीवधरचम्पू में प्रायः सभी प्रसिद्ध छन्दों का उपयोग हुआ है और वह भी रस के अनुसार। महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुशीलन Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्म २ : आदान-प्रदान जीवन्धरचरित की उपजीव्यता जीवन्धर स्वामी का चरित लोकोत्तर घटनाओं से परिपूर्ण है अतः उसके अंकन में विविध भाषाओं के लेखकों ने अपना गौरव समझा है। अब तक जीवन्धरपरित के प्रख्यापक निम्नांकित ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैसंस्कृत में १. गद्यचिन्तामणि-मादीम-सिंहमूरि-धारा बिरचित गद्यकाव्य २. क्षत्रचूडामणि-वादीभसिंह सूरि द्वारा अनुष्टुप् छन्दोमय काम्य ३. जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यरचित उत्तरपुराण के ७५८ पर्व का एक अंश ४, जीवन्धरचम्पू-महाकवि हरिचन्द्र द्वारा रचित गद्य-पद्यमय चम्पूकाव्य ५. जीवघरचरित-शुभचन्द्राचार्यकृत पाण्डव-पुराण के अन्तर्गत एक अंश ६. क्षत्रवृद्धालंकार-४० शार्दूलविक्रीडित-वृत्तों का लघुग्रन्थ, पन्नालाल साहित्या चार्यकृत, गधचिन्तामणि के परिशिष्ट में प्रकाशित अपभ्रंश में ७. जीवन्धरमरिउ-पुष्पदन्त कवि द्वारा रचित अपभ्रंश महापुराण की __९९वों सन्धि । ८. जीवन्धरचरित-रघु कधि के द्वारा रचित १३ सन्षियों का एक अन्य तमिल भाषा में ९. जीवकचिन्तामणि-तिस्तक्क देवर द्वारा रचित तमिल भाषा का एक प्रसिद्ध काव्य कर्णाटक में १०. जीवन्धरचरिते-वासव के पुत्र मास्कर के द्वारा रचित १८ अध्यायात्मक १००० इलोकों का अन्य ११. जीवन्धर सांगरम-तेरक नम्बि वोम्मरस के द्वारा लिखित २० अध्याया त्मक १४४९ श्लोकों का एक अन्य भादान-प्रदान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जीवन्वरषट्पदी-कोटीश्वर के द्वारा लिखित १० अध्यायात्मक ११८ . श्लोकों का एक ग्रन्थ १३. जीवन्धरचरिते-ब्रह्मकवि द्वारा विरचित एक ग्रन्थ हिन्दी में १४. जीवन्धरचरित-कवि नथमल द्वारा रचित हिन्दी पद्म-काम्य उपजीव्य और उपजीवित प्रत्येक कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की कुतियों से प्रेरणा ग्रहण करता है और अपने परवर्ती कवियों पर अपना प्रभाव छोड़ता है। महाकवि हरिचन्द्र के विषय में भी हम इस तथ्य को स्वीकृत करते हैं। महाकवि कालिदास तथा माघ आदि से हरिचन्द्र ने पर्याप्त प्रेरणाएं प्राप्त को है तथा श्रीहर्ष, अर्हदास, और हस्तिमल्ल आदि पर अपना पुष्कल प्रभाव छोड़ा है । रघुवंश के छठे सर्ग में कालिदास ने इन्दुमती के स्वयंवर का वर्णन किया है और हरिचन्द्र ने भी धर्मशर्माभ्युदय के सत्रहवें सर्ग में श्रृंगारवती के स्वयंवर का वर्णन किया है। दोनों ही वर्णनों का तुलनात्मक अध्ययन करने से उपर्युक्त बात का समर्थन होता है। कालिदास ने लिखा है कि स्वयंवर-सभा में अज को देख अन्य राजा इन्दुमती के विषय में निराश हो गये रतेहीतानुनयेन कामं प्रत्यक्तिस्वाङ्गमिवेश्वरेण । काकुत्स्थमालोकयतां नृपाणां मनो बभूवेन्दुमतीनिराशम् ॥६-२॥ रघुवंश रति की प्रार्थना को स्वीकृत करनेवाले ईश्वर-शिव के द्वारा जिसका अपना शरीर वापस कर दिया गया था ऐसे कामदेव के समान अज को देखनेवाले राजाओं का मन इन्दुमती के विषय में निराश हो गया था। हरिचन्द्र ने भी धर्मनाथ की लोकोत्तर सुन्दरता को देखकर अन्य राजाओं के मुख को निष्प्रभ बताया है निःसीमरूपातिदायो ददर्श प्रदह्यमानागुरुधूपवा। मुखं न केषामिछ् पार्थिवाना लज्जामषीकूचिकयेक कृष्णम् ।।१७-५।। --धर्मशर्माभ्युदय . अत्यधिक रूप के अतिशय से युक्त प्रीधर्मनाथ स्वामी ने जलती हुई अगुरुधूप को वत्तियों से किस राजा का मुख लज्जा-रूपी स्याही की कूची से ही मानो कृष्णीकृत नहीं देखा था--भगवान् के अद्भुत प्रभाव को देखकर समस्त राजाओं के मुख श्याम पड़ गये थे। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशोलन Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयं स कामो नियतं भ्रमेण कमप्यधाक्षीद गिरिशस्तदानीम् । इत्यद्भुत रूपमबेदम जैन जनाधिनाथा: प्रतिपेदिरे तम ॥१७-६।। -धर्मशर्माभ्युदय निश्चित हो वह कामदेव यही है, उस समय महादेव ने भ्रम से किसी दूसरे को भस्म कर दिया था। इस प्रकार धर्मनाथ जिनेन्द्र के रूप को देखकर उपस्थित राजाओं ने आश्चर्य प्राप्त किया था । उपर्युक्त दोनों ही सन्दर्भो में भावों का समानीकरण विखाई देता है। स्वयंवर-सभा में मंचों पर बैठे हुए राजपुत्रों का वर्णन देखिए कितना एक दूसरे के अनुरूप है स तत्र मञ्चेषु मनोज्ञवेषान् सिंहासनस्थानुपचारवत्सु । वैमानिकानां मरुतामपश्यदाकृष्टलीलानरलोकपालान् ॥६-१॥-रघुवंश साज-सामग्री से युक्त मंचों पर बैठे हुए मनोहर वेष से युक्त राजाओं को अब ने विमानों में बैठकर विहार करनेवाले देषों के समान देखा । शृङ्गारसारङ्गविहारलीलाशलेषु तेषु स्थितभूपतीनाम् । वैमानिकानां च मुदागतानां देवोऽन्तरं किंचन नोपलेभे ॥१७-४॥ -धर्मशर्माम्युदय देवाधिदेव भगवान धर्मनाथ ने शृंगाररूपी मगों के बिहार से युक्त क्रीड़ापर्वतों के समान उन मंचों के समूह पर स्थित राजाओं और आनन्द से समागत विमानचारी देवों के बीच कुछ भी अन्तर नहीं पाया था। राजकुमार अज मंच पर आरूढ़ हो रहे हैं, इसका वर्णन रघुवंश में देखिए-- वैदर्भनिर्दिष्टमसौ कुमारः दलप्तेन सोपानपथेन मञ्चम् । शिलाविभगराजशावस्तु नगोत्सङ्गमिवारोह ॥६-३||-रघुवंश वह अज, राजा भोज के द्वारा बताये हुए मंच पर निर्मित सोपान-मार्ग से ऐसा चढ़ गया जैसा कि सिंहशावक शिलाखण्डों से पर्वत के ऊंचे मध्यभाग पर जा पड़ता है। अम धर्मनाथ के मंच पर आरूढ़ होने का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय में देखिए अथाङ्गिना नेत्रसहस्रपात्रं निर्दिष्टमिष्टेन च मञ्चमुच्चः । सोपानमार्गेण समारोह हैमं मरुत्वा निव वैजयन्तम् ॥१७-७।। -धर्मशर्माभ्युदय तदनन्तर मनुष्यों के हजारों नेत्रों के पात्र भगवान् धर्मनाथ किसी इष्टजन के द्वारा दिखलाये हुए सुवर्णमय उन्नत सिंहासन पर श्रेणी मार्ग से उस प्रकार आरूद हुए जिस प्रकार कि इन्द्र वैजयन्त नामक अपने भवन में आख्द होता है । ___यहाँ भावसादृश्य होने पर भी दोनों कवियों की विपिछत्ति अपना-अपना स्थान पृथक रखती है। भादान-प्रदान १२ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दुमतो के स्वयंवर में सुनन्दा और शृंगारवती के स्वयंवर में सुभद्रा उपस्थित राजाओं का परिचय देती है । दोनों को परिचय शैली में समानता है। ततो नृपाणां श्रुतवृत्तवंशा पुंवत्प्रगल्भा प्रतिहाररक्षी । प्राक् सन्निकर्ष मगधेश्वरस्य नोरया कुमारीभवदत्सुनन्दा ॥६-२०॥ -रवेश तदनन्तर जिसने राजाओं के आचार और वंश को सुन रखा था, और जो पुरुष समान प्रगल्भ थी ऐसी सुनन्दा प्रतीहारी सबसे पहले इन्दुमती को मगधेश्वर के समीप ले जाकर बोली। पान तीहारमदै मुक्ता मुर सिलगाशा ! प्रगल्भवागिल्यनुमालवेन्द्र नीत्वा सुमद्राभिदधे कुमारीम् ॥१७-३२॥ -धर्मशर्माभ्युदय तदनन्तर जिसने समस्त राजाओं के आचार और वंश को सुन रखा था तथा जिसकी वाणी सारपूर्ण श्री ऐसी प्रतीहारी पद पर नियुक्त सुभद्रा, कुमारी-शृंगारवती को मालबनरेश के समीप ले जाकर बोली । राजाओं के परिचयदान की यह पद्धति विक्रान्तकौरव और नैषधीयचरित में भी अपनायी गयी है। विक्रान्तकौरव में प्रतीहार परिचय देता है और नैषधीयचरित में सरस्वती देती है, जैषधीयचरित का परिचय सरस्वती के अनुरूप बाणों में दिया गया अवश्य है, पर उससे स्वाभाविकता का प्रतिघात हुआ है । __ कुमारसम्भय में कालिदास ने पार्वती के यौवनारम्भ का वर्णन करते हुए लिखा है असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेरनासमाख्यं करणं मदस्य । कामस्य पुष्पव्यतिरिक्तमस्त्रं बाल्यात्परं साथ बयः प्रपेदे ॥१-३१।। -कुमारसम्भव तदनन्तर पार्वती बाल्यावस्था के बाद आनेवाली उस यौवन अवस्था को प्राप्त हुई जो शरीरयष्टि का बिना धारण किया आभूषण थो, मदिरा से भिन्न मव का करण थी तथा कामदेव का पुष्पातिरिक्त शस्त्र थी। उपर्युक्त पद्य के प्रथम पाद को लेकर रिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय में वृद्धावस्था का कितना सजीव वर्णन किया है, पन्ह देखिए १. मिकारा कौरव में हस्तिमवल बारा सूसोचन1 का सौन्दर्य ण न देखिए. शीताशराबनिम्मृता नयनयोराह लादिनी चन्द्रिका दागन्तर्दधती मद' च मधिरा तन्त्र निदिता । पुपैर पथिता निसर्गललिता माता मनोहारिणी सीमूसाद कृतोङ्गतिः स्थितिमत: विशु रसायोसिनो १२:! -त्रिकान्तकौरव, अंक ३ । १. महाकषि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टे व मे योवनरत्नमेतत् । श्ती वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नोऽषो भुवि सम्भ्रमीति ॥४- ५९ ॥ - धर्मशर्माभ्युदय जो शरीरयष्टि का बिना पहना हुआ आभूषण था ऐसा मेरा यौवन रूपी रत्न कहाँ गिर गया ? मानो उसे खोजने के लिए ही वृद्ध मनुष्य अपना पूर्वभाग झुकाकर नीचे देखता हुआ पृथिवी पर इधर-उधर चलता है । यहाँ कालिदास के यौवनवर्णन के पद को हरिचन्द्र ने वृद्धावस्था के वर्णन में कितनी सुन्दरता से संजोया है यह दर्शनीय है । दशकुमारचरित में अवन्ति सुन्दरी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए दण्डी ने निम्न पंक्तियाँ लिखी है- 'ललनाजनं सृजता विधात्रा नूनमेषा घुणाक्षरन्यायेन निर्मिता । नो वेदब्जभूरेवंविषो निर्माणनिपुणो यदि स्यातहि तत्समानलावण्यामन्यां तरुणों किं न करोति ?' वि सविस्मयानुरागं त्रिलोकयतस्तस्य समक्षं स्यातुं लज्जिता सती पूर्वपीठिका, पंचम उच्छ्वास मंत्रन्ति सुन्दरो को देखता हुआ राजवाहून विचार करने लगा कि स्त्रियों की रचना करनेवाले ब्रह्माजी से सचमुच ही यह घुणाक्षरन्याय से बन गयी है । यदि ऐसा नहीं है और ब्रह्माजी वास्तव में ऐसी रचना करने में निपुण हैं तो वे इसके समान लावण्यवाली दूसरी तरुणी को नहीं बनाते ? ठीक यही उत्प्रेक्षा धर्मशर्माभ्युदय में सुव्रता के सोन्दर्य का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने अंगीकृत को हैं । श्लोक इस प्रकार है समग्रसौन्दर्यविधिद्विधो विधेर्घुणाक्ष रन्यायवशादसा भूत् । तदास्य जाने निपुणत्वमीदृशीमनन्यरूपां कुरुते यदापराम् ||६१|| - २ समस्त सौन्दर्यविधि से द्वेष रखनेवाले विधाता से यह सुत्रता, घुणाक्षरन्याय से बन गयी हैं । इनकी चतुराई तो मैं तब जानूं जब यह ऐसी हो असाधारण रूपवाली दूसरी स्त्री को बना देते । चन्द्रप्रभचरित के चतुर्थ सर्ग में दीक्षा लेने के लिए उद्यत राजा श्रीषेण ने पुत्र के लिए जो मार्मिक उपदेश दिया है ( ३३-४४ ) उसका विस्तार धर्मशर्माभ्युदय के १८वें सर्ग में (६-४४ ) महाकवि हरिचन्द्र ने किया है। कितने ही श्लोकों में भावसाम्य भी परिलक्षित होता है । यथा समागमो निर्यसनस्य राज्ञः स्यात्संपदां निर्धनत्वमस्य । ard स्वकीये परिवार एव तस्मिन्नवक्ष्ये व्यसनं गरीयः ||३७|| विधित्सु रेनं तदात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् । गुणैरुपेतोयपरैः कृतघ्नः समस्तमुद्वेजयते हि लोकम् ||३८| - चन्द्रप्रभचरित, सर्ग ४ धादान-प्रदान ११ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचिन्त्यचिन्तामणिमर्थसंपदा यशस्तरोः स्थानकमेकमक्षतम् । अशेषभूभृल्परिवारमातरं कृतज्ञता तामनिशं स्वमात्रय ।।२१।। -धर्मार्माभ्युदय, सर्ग १८ धर्माविरोधेन नयस्व वृद्धि त्वमर्थकामी फलिदोषयुक्तः। युक्त्या त्रिवर्ग हि निषेवमाणो लोकद्वयं साधयति क्षितीशः ||३९| -पप्रभ, सर्ग ४ सुखं फलं राज्यपदस्य जन्यते तदत्र कामेन स पार्थसाधनः । विमुच्य तो चेदिह धर्ममोहसे वृथव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ||३१॥ इहार्थकामाभिनिनेशलालसः स्वधर्ममणि भिनत्ति यो नुपः । फलाभिलाण समीहते तरुं समूलमुस्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥३२॥ -धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १८ माघ के शिशुपालवध का धर्मशर्माभ्युदय पर क्या प्रभाव है ? इसका विचार एक स्वतन्त्र स्तम्भ में करेंगे । यहाँ, हरिचन्द्र ने अपने उत्तरवर्ती कवियों पर क्या प्रभुता स्थापित की है इसके कुछ उदाहरण देखिए । सुत्रता रानी के मुखसौन्दर्य का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने लिखा हैकपोलहेतोः खलु लोलचक्षुषो विधिय॑धात्पूर्णसुधाकरं द्विधा । विलोक्यतामस्य तथाहि लाग्छनच्छरलेन पश्चात्कृतसीवनवणम् ।।२-५०।। -धर्मशर्माभ्युदय ऐसा लगता है मानो विधाता ने उस चपललोचना के कपोल बनाने के लिए पूर्ण चन्द्र के वो टुकड़े कर दिये हों। देखो न, इसीलिए वो उस चन्द्रमा में कलंक के बहाने पीछे से की हुई सिलाई के चिह्न विद्यमान है। अब नैषधीयचरित में दमयन्ती के मुखसोन्दर्य का वर्णन करते हुए श्रीहर्ष की सूक्ति देखिए हुप्तसारमिन्दुमण्डलं दमयन्तीवदनाय वेधसा । कृतमध्यविलं विलोक्यते धृतगम्भीरखनीखनीलिम ॥२-२५॥ -नषधीयचरित जान पड़ता है विधाता ने दमयन्ती का मुख बनाने के लिए चन्द्रमण्डल का सार निकाल लिया था, इसी लिए तो बीच में गड्डा हो जाने के कारण उसके मध्य याकाश की नीलिमा विखाई देती है। गन्धर्वदत्ता के चरणयुगल की सुन्दरता का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र की उक्ति देखिए--- सरोजयुग्मं बहुधा तपःस्थितं बभूव तस्याश्चरणद्वयं गुवम् । न चेत्कथं तत्र व हंसकाविौ समेत्य हृद्यं तनुतां फलस्वनम् ॥५१॥ -जीवन्धरचम्मू, लम्भ ३ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतश्च कमलयुगल ने अनेक प्रकार से तप में ( पक्ष में, घुप में ) स्थिर रहकर पुण्य-संचय किया था इसीलिए फलस्वरूप उसके वोनों चरण बन सके थे, पदि ऐसा न होता तो दोनों चरण हंसों (पक्ष में, पादकटकों ) का आश्रय लेकर हृदयहारी मनोहर शब्द बसे करते ? अब दमयन्ती के चरणयुगल का वर्णन करते हुए श्रीहर्ष की सूनि देखिए जलजे रविसेवयेव' ये पदमेतत्पदतामयापतुः । ध्रुवमेत्य सतः सहसकी कुरुतस्ते विधिपत्रदम्पती ॥३८ -नैषधीयचरित, सर्ग २ ऐसा जान पड़ता है कि जो दो कमल, सूर्य की उपासना करने से दमयन्ती के चरणयुगल-रूप पद को प्राप्त हुए थे उन्हें इंसदम्पती अपनी रुनझुन से मानो सहंसकहंससहित ( पक्ष में, पादकटक से सहित ) करते हैं । यहाँ हरिचन्द्र के 'बहुधातपःस्थिते' पव के लेप ने जो चमत्कार उत्पन्न किया है वह श्रीहर्ष के 'रविसेवयेव' इस साधारण पद में नहीं आ सका है। _ 'यस्य च रिपु महिला बनमध्यमध्यासीना.........स्वशिशुभ्यः पूर्ववासनावशेन क्रीडाराजहंसमानयेति निर्भसंयमयो वाष्पाम्बुपूरपूरित-वदन-कमलनयनमीनप्रतिबिम्बपरिष्कृतस्तनान्तरसरोवर-प्रतिफलित-चन्द्रमसं निर्दिश्यायं ते हंसो ममापि विरहाग्निव्यालीढवपुषस्तथेतिपरिसान्त्वयामासुः ।' जीवन्धरचम्पू की इस गध का बहुत कुछ भाव नैषधीयचरित के निम्नांकित्त श्लोक में अवतीर्ण हुआ हैएतद्भौतारिनारी गिरिबिलविंगलद्वासरा निःसरन्ती स्त्रक्रीडाहंसमोहनहिलशिशुभृशप्रापितोनिद्रचन्द्रा। आनन्यद्भरियत्तन्नयनजलमिलच्चन्द्रहंसानुबिम्धप्रत्यासत्तिप्रहष्यसनयविहसितैराश्वसीयश्वसीच्च ।।२८।। -नषधीयचरित, सर्ग १२ अब रिचन्द्र को सूक्तिसुधा से पुरुदेवचम्मू के कर्ता अहहास कितने प्रभावित है, इसके कुछ उदाहरण देखिएबालक धर्मनाथ के कपोलों की लाली का वर्णन करते हुए हरिचन्द्र ने कहा है मोत्सुक्यनुना शिशुमप्यसंशयं चुचुम्ब मुक्तिनिभृतं कपोलयोः । माणिक्यताटङ्ककरापदेशवस्तथाहि ताम्बूलरसोन संगतः ॥९-६।। -धर्मशम्पिदय यद्यपि उस समय भगवान् बालक ही थे फिर भी मुक्तिरूपी लक्ष्मी ने उत्कण्ठा से प्रेरित हो चनके कपोलों का निःसन्देह जमकर चुम्बन कर लिया था इसीलिए तो मणिमय कर्णाभरण की किरणों के बहाने उनके कपोलों पर मुक्ति-लक्ष्मी के पान का लाल-लाल रस लग गया था। मादान-प्रदान Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब पुरुदेवचम्पू में अहहास की सूक्ति देखिए-.. जीवन्धर स्वामी की बालकालीन प्रथम गति का वर्णन हरिचन्द्र के शब्दों में देखिए क्रमण सोऽयं मणिकुट्टिमाङ्गणे नखस्फुरत्कान्तिशरोभिरञ्चिते । स्सलत्पदं कोमलपादपङ्कजक्रम ततान प्रसवास्तृते यथा ॥१०४३ -जीबम्धरबम्पू , लम्भ ? क्रम-क्रम से वह बालक नखों की फैलती हुई कान्तिरूपी सरनों से सुशोभित अतएव फूलों से आच्छादित के समान दिखने वाले मणियों के आंगन में लखवाते परों से कोमलचरण-कमलों की डग फैलाने लगा। अब अहहास के शब्दों में भगवान् आदिनाथ की बालकालोन मति का वर्णन देखिए प्रवेपमानामपदं नृपात्मजश्चचाल देवी जनदत्तहस्तः । नवप्रभाभिमणिकुट्टिमाङ्गणे तन्धनप्रसूनास्तरणस्य शङ्काम् ।।३।। -पुरुदेवचम्पू देवियों के द्वारा जिन्हें हाथ का मालम्बन दिया गया था ऐसे राजपुत्र भगवान् वृपभदेव, मणिखचित आंगन में नखों की प्रभा से पुष्पास्तरण की शंका को विस्तृत करते हुए उगमग पैरों से चलने लगे। अभिषेक के अनन्तर हरिचन्द्र के शब्दों में जिनबालक का वर्णन देखिए सिक्तः सुररित्यमुणेत्य यिस्फुरजटालवालोऽथ स नन्दनगुमः । छायां दधत्काञ्चन सुन्दरी नदां सुखाय वप्नु: सुतरामजावत ||१|| -धर्मदासभ्युदय, सर्ग ९ इस प्रकार देवों के द्वारा अभिषिक्त ( पक्ष में, सींचा हुआ) चुंघुराले बालों से सुशोभित ( पक्ष में, मूल और क्यारी से युक्तः ) सुवर्ण-जसी सुन्दर और नूतन कान्ति को धारण करनेवाला ( पक्ष में, अद्भुत नूतन छाया को धारण करनेवाला ) वह पुत्र-कमी वृक्ष ( पक्ष में, नन्दन वन का वृक्ष) पिता के लिए ( पक्ष में, बोनेवाले के लिए ) अतिशय सुखकर हुआ था । अन मन्द-मन्द मुसकान से युक्त जिन-बालक का वर्णन अहहास की वाणी में देखिए जिननन्दनद्रुमोऽयं सिक्तो देवः स्वकालवालेखः । स्मितकुसुमानि दधे द्राक् तन्वानस्तत्र काश्चनच्छावाम् ॥३१॥ -पुरुदेवचम्पू , स्लवक ५ देवों से अभिषिक्त ( पक्ष में, सींचा हुआ) अपने काले बालों से सुशोभित ( पक्ष में, अपनी क्यारी से सुशोभित ) तथा सुवर्ण-जैसी कान्ति ( पक्ष में, किसी महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन २४ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्भुत छाया ) को विस्तृत करनेवाले इस जिननन्दनतुम – जिनबालकरूप वृक्ष ने शीघ्र हीं मन्द मुसकान रूप फूलों को धारण किया था । इसी सन्दर्भ में कुछ उद्धरण असग कविकृते वर्धमानचरित के भी. द्रष्टव्य हैं जिनमें धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्वरचम्पू की सुतियों से सादृश्य स्पष्ट ही परिलक्षित होता है जीवन्धरचम्पू में हरिचन्द्र का नगरी वर्णन देखिए- प्रथिता विभाति नगरी गरीयसी धुरि यत्र रम्य सुदतीमुखाम्बुजम् । कुरुविन्द कुण्डलविभाविभावितं प्रविलोक्य कोपमिव मन्यते जनः ॥ २५ ॥ — जीवन्धरचम्पू, लम्भ ६ देखो, यह सामने एक बड़ी प्रसिद्ध नगरी सुशोभित हो रही है। यहाँ किसी सुन्दरी स्त्री का मुखकमल जन पश्चराग मणि निर्मित कुण्डलों की प्रभा से रक्तवर्ण हो जाता है तब उसे देख उसका पति समझने लगता है कि मानो इसे क्रोध आ गया हूँ । मारत में असग कवि का नगरी वर्णन देखिए यत्रोल्लसत्कुण्डल- पद्मराग च्छायावतंसारुणित । ननेन्दुः | प्राग्रते कि कुपिलेति कान्ता प्रियेण कामाकुलितो हि मूहः ॥ २६ ॥ - - वर्धमानचरित, सर्ग १ जहाँ शोभायमान कुण्डों में खचितपद्मराग मणियों की वाली स्त्री क्या यह कुपित हो गयी है ? इस भय से पति के द्वारा सो ठीक हैं क्योंकि काम से आकुलित मनुष्य मूड होता ही है । जीवन्धरचम्पू में रानी विजया का सौन्दर्य वर्णन देखिएसौदामिनीव जलदं नत्रमञ्जरीव चूतद्रुमं कुसुमसंपदिवाद्यमासम् । ज्योत्स्नेव चन्द्रमसमचन्द्रविमेव सूर्य तं भूमिपालकमभूषयदायताक्षी ||२७|| — जीवन्धरचम्पू, लम्भ १ जिस प्रकार बिजली मेव को, नूतन मंजरी आम्रवृक्ष को, पुष्पसम्पत्ति चैत्र मास को दिन चन्द्रमा को, और प्रभा सूर्य को अलंकृत करती है उसी प्रकार वह J विजया रानी राजा सत्यन्धर को अलंकृत करती थी । इसी तरह वर्धमान परित का भी रानी वर्णन देखिएविद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाहं चूतदुमं नूतनमञ्जरी । कान्ति से लालमुखप्रसन्न की जाती है स्फुरत्प्रभै वाम-पद्मरागं विभूषयामास तमायताक्षी ॥ ४४ ॥ मानचरित, सर्ग १ P. हरिचन्द्र और अद्दाम की मणी के आदान-प्रदान' को सूचित करनेवाले अन्य अनेक उदाहरण हमने भारतीय नाराणों से प्रकाशित 'पुरुदेव चम्पू प्रबन्धक प्रत में दिये हैं। २. मानवरि मेरे द्वारा सम्पादित और हिन्दी में अनूदित होकर जीवराज इत्थमाला सोलापूर से प्रकाशित हो रहा है। इसका एक संस्करण जिनदास शास्त्र मराठी अनु11 के साथ सोलापुर से बहुत पहले भी प्रकाशित हुआ था। आदान-प्रदान १५ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव स्पष्ट है। यतश्च वर्धमानचरित की रचना वि. स. १०४५ में हुई है अतः महाकवि हरिचन्द माघ के समान उससे भी प्रभावित है। शिशु का सर्वशत्रिम महाकवि हरिचन्द्र ने शिशुपालवध से पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त की है। यद्यपि धर्मशर्माम्युदय की वर्णन-शैली, भाषामाधुरी और अलंकार की विच्छित्ति पर्याप्त उच्च-कोटि की है, तथापि पर्वत, ऋतु, वनकोड़ा, जलक्रीड़ा, प्रभात, सूर्योदय, घस्द्रोदय आदि के वर्णन का क्रम शिशुपालवध से प्रभावित है। शिशुपालवध के चतुर्थ सर्ग में माघ ने रैवलक पर्वत का नाना छन्दों में वर्णन किया है। इसी प्रकार हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय के दशम सर्ग में विन्ध्यगिरि का नाना छन्दों में वर्णन किया है। यमकालंकार के लिए भी दोनों काश्यों में स्थान दिया गया है। यहां शिशुपालवध और प्रमशर्माभ्युदय के सादृश्य को सूचित करनेवाले कुछ पद्य देखिए दृष्टोऽपि शैलः स मुहुर्मुरारेरपूर्ववद्विस्मयमातसान । क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः ||१७|| ___--शिशुपाल, सर्ग ४ वह रैवतक गिरि यद्यपि श्रीकृष्ण का बार-बार देखा हुआ था तथापि उस समय अपूर्व की तरह माश्चर्य उत्पन्न कर रहा था सो ठीक ही है क्योंकि जो क्षण-क्षण में नूतनता को प्राप्त होता है वही रमणीयता का स्वरूप है । स दृष्टमात्रोऽपि गिरिगरीयांस्तस्य प्रमोदाय विभोर्वभूध । गुणान्तरापेक्ष्यमभीष्टसिय नहि स्वरूपं रमणीयतायाः ॥१४॥ -धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १० वह विशाल विन्ध्याचल दिखलाई पड़ते ही भगवान धर्मनाथ के आनन्द के लिए हो गया। यह ठीक ही है, क्योंकि अभीष्ट की सिद्धि के लिए सुन्दरता का रूप किसी दूसरे गुण की अपेक्षा नहीं रखता। शिशुपालवध में रेवतकगिरि का वर्णन माघ ने दारुक से कराया है तो धर्मशर्माम्युदय में हरिचन्द्र ने प्रभाकर से कराया है और दोनों में ही इस वर्णन में यमक का अवलम्बन किया है-- उच्चारणज्ञोऽथ गिरा वधानमुम्चा रणत्पक्षिगणस्तटोस्तम् । नत्क धरं द्रष्टुमवेक्ष्य शौरिमुत्कंघरं दारुक इस्युवाच ।।१८।। -शिशुपाल., सर्ग ४ शब्द करते हुए पक्षियों से युक्त अंधे तटों को धारण करनेवाले उस पर्वत को देखने के लिए उद्ग्रीव-उत्कण्ठित श्रीकृष्ण को देख वचनों के उच्चारण को जाननेचाला दारुक इस प्रकार बोला। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहत्तमः सोऽय सभास हृत्तमःप्रभाकरश्छेत्तुमिति प्रभाकरः . घरे क्षणं व्यापृतकंपरेक्षणं तमीश्वरं प्राह अगसमीश्वरम् ॥१५॥ -धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १० तदनन्तर यह प्रभाकर मित्र, ओ सभाओं में हृदयगत अन्धकार को छेदने के लिए साक्षात् प्रभाकर-सूर्य था, जगच्चन्द्र भगवान् धर्मनाथ को पर्वत पर व्यापृतग्रीव और व्यापूस-नेम देखकर उल्लास-पूर्वक बोला। ____ जिस प्रकार शिशुपालवध के षष्ठ सर्ग में ऋसु-वर्णन के लिए मात्र ने द्रुतविलम्बित छन्द को चुना है और उसके घसुर्थ चरण में एकपवण्यापी यमक को स्थान दिया है उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के एकादश सर्ग में भी हरिचन्द्र ने द्रुतविलम्बित छन्द को चुना है और उसके चतुर्थ चरण में एकपदव्यापी यमझ को स्थान दिया है। जिस प्रकार बीच-बीच में कहीं चारों चरणों में व्याप्त यमक को माघ ने अपनाया है इसी प्रकार कहीं-कहीं हरिचन्द्र ने भी चारों परण-व्यापी ममक को अपनाया है । यथा नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम् । मृदुलतान्तलतान्तमलोकमत्स सुरभि सुरभि सुमनोभरैः ॥२॥ --शिशुपालवध, सर्ग ६ कलविराजिविराजितकानने नवरसालरसालसषट्पदः । सुरभिकेसरकेसरशोभितः प्रविससार स सारबलो मधुः ॥१०॥ -धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग ११ शिशुपालवध के ससम सर्ग में वनक्रीड़ा का वर्णन है। श्रीकृष्ण, वन-विहार के लिए निकले इस सन्दर्भ का वर्णन माघ के शब्दों में है अनुगिरमृतुभिवितायमानामय स विलोकयितुं बनान्तलक्ष्मीम् । निरगमदभिराखुमादृत्तानां भवति महत्सु न निष्फलः प्रयासः ॥१॥ -सर्ग तदनन्तर श्रीकृष्ण रक्तक गिरि पर ऋतुओं के द्वारा विस्तारित बनान्त-सुषमा को देखने के लिए शिविर से बाहर निकले, सो ठीक हो है क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा में तत्पर रहने वाले लोगों का प्रयास व्यर्थ नहीं आता। धर्मशाभ्युदय के बारहवें सगं में हरिचन्द्र भी कहते है-- दिदृक्षया कामनसंपदा पुरादथायमिक्ष्वाकुपतिविनिर्गयो । विधीयतेऽज्योऽप्यनुयायिनां गुणः समाहितः किन तथाविधः प्रभुः ॥११॥ -सर्ग १२ तदनन्तर इक्ष्वाकुवंश के अधिपति भगवान् धर्मनाथ वनवैभव देखने की इच्छा से नगर के बाहर निकले, सो ठीक ही है क्योंकि जब साधारण मनुष्य भी अनुयायियों के अनुकूल प्रवृत्ति करने लगते हैं, तब गुणशाली उन प्रभु का कहना ही क्या ? आदान-प्रदान १६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदुवंशियों ने स्त्रियों के साथ अन-विहार किया था इसमें माष ने जो युक्ति दी है ठीक वही युक्ति हरिचन्द्र ने भी दी है। दोनों की युक्तियां देखिए दधति सुमनसो वनानि यीवतियुता यदवः प्रयातुमीषुः । मनसिश्चयमहास्त्रमम्यदामी न कुसुमपञ्चकमप्यलं विसोम् ||२|| - शिशुपाल वध, सर्ग ७ यदुवंशियों ने अनेक फूलों को धारण करनेवाले वनों में स्त्रियों के सहित हो जाने की इच्छा को यो क्योंकि वे अन्यथा — स्त्रियों के बिना काम के अमोघ शस्त्रस्वरूप पांच फूलों को भी सहन करने में समर्थ नहीं थे । बिकासिपुष्पगुणि कानने जनाः प्रयातुमीषुः सह कामिनीगणः । स्मरस्य पश्चापि न पुष्पमागंणा भवन्ति सह्याः किमसंख्यतां गताः || म्युदय १२-३ खिले हुए पुष्पवृक्षों से युक्त वन में मनुष्यों ने स्त्री-समूह के साथ ही जाना अच्छा समझा। क्योंकि जब काम के पाँच ही बाण सहा नहीं होते तब असंख्य बाण सा कैसे हो सकेंगे ? I जलक्रीड़ा आदि में मी मात्र का प्रभाव परिलक्षित होता है । जैसा कि आगे दिये जानेवाले तत्तत्प्रकरणों के उबरणों से सिद्ध होगा । चन्द्रप्रभवरित और धर्मशर्माभ्युवम ५ चौरनन्दो का 'चन्द्रप्रभचरित' एक उच्चकोटि का काव्य है । उसमें अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जीवनवृत्त अंकित है। पूर्वभव वर्णन के प्रसंग में चन्द्रप्रभचरित के अष्टम नवम और दशम सर्ग कवित्व की दृष्टि से निरुपम हैं। इन सर्गों में कवि ने ऋतुचक्र, वनक्रीड़ा, जल-क्रीड़ा, प्रदोष, चन्द्रोदय, सम्भोग श्रृंगार और प्रभात-वर्णन में अपनी काव्य प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है। ऐसा लगता है कि उपर्युक्त वस्तुओं के वर्णन में माघ और हरिश्चन्द्र दोनों ही ने वीरनन्दी से प्रेरणा प्राप्त की है। वीरनन्दी नेव ऋतुओं का वर्णन न कर मात्र वसन्त ऋतु का वर्णन किया है परन्तु माघ और हरिचन्द्र ने दिव्य नायकों की प्रभुता प्रकट करने के लिए षड् ऋतुकों का वर्णन किया है । दूतप्रेषण तीनों काव्यों में एक सदृश है। इसकी वनक्रीड़ा भी संक्षिप्त है। स्त्रियों के प्रति चाटुवचनों का जो उपक्रम वीरनन्वी ने किया है उसे भाघ और हरिचन्द्र ने पल्लवित किया है । चन्द्रप्रभ में एक नायक अपनी स्त्री से कह रहा हैहोतो विहाय मम लोचनहारि नृत्तं गन्तुं शिखी सुमुखि तत्र यदि व्यवस्येत् । १. अमृतलालजी जैनवर्शनाचा वाराणसी के द्वारा सम्पादित और हिन्दी में अनूदित होकर जीनराज सभ्य माला खोलापुर से प्रकाशित | महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन ९८ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कार्यस्त्वया स्मरनिवास-नितम्बम्बी चीनांशुकेन पिहितो मजकेशपाशः ॥ - ८-५४ हे सुमुखि 1 यदि वहाँ मयूर लज्जित हो मेरे नेत्रों को हरण करनेवाला नृत्य छोड़कर जाने को उद्यत हो तो तुम्हें काम के निवासभूत नितम्ब का चुम्बन करनेवाला अपना केश पास चीनांशुक से ढक लेना चाहिए ( क्योंकि तुम्हारे केशपाश से ही वह लज्जित होकर भागना चाहता होगा ) । माघ ने भी स्त्री के माल्यग्रथित केशपाश से लज्जित होकर भागनेवाले मयूर का ऐसा ही वर्णन किया है दृष्ट्वेव निजितकलापभरामधस्ताद् व्याकीर्ण मायकai कबरीं तरुण्याः । प्राद्रवरसपदि चन्द्रकान्तु मा प्रात् संघर्षिणा सह गुणाभ्यधिकैर्दुरासम् ॥ १९ ॥ किसी वृक्ष पर मयूर बैठा था। ज्यों ही उसने वृक्ष के नीचे अपने पिच्छभार को जीतनेवाली, गुम्फित-मालाओं से चित्र-विचित्र किसी युवती को चोटी देखी त्यों ही वह शीघ्र या वासोट ही है क्योंकि गुणवालों के साथ श्रादान-प्रदान एकत्र नहीं रह सकते । चन्द्रप्रभ में केशपाश को चित्रित करनेवाला कोई विशेषण नहीं दिया है जबकि शिशुपालवध में 'व्याकीर्णमाल्यकवरां' विशेषण देकर उसे मयूरपिच्छ के अत्यन्त सदृश बना दिया है। इसी सन्दर्भ को हरिचन्द्र ने एक दूसरे ढंग से निम्न प्रकार प्रस्तुत किया हैशिखण्डिनां ताण्डवमंत्र वीक्षितुं तवास्ति चेच्चेतसि तन्वि कौतुकम् । समास्यमुद्दामनितम्बचुम्बनं सुकेशि तत्संवृणु केशसञ्चयम् ॥१३४॥ - धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १२ 1 हे तन्वि 1 यदि तेरे चिस में यहाँ मयूरों का ताण्डव नृत्य देखने का कौतुक है तो हे सुकेशि ! स्थूल- नितम्बों का चुम्बन करनेवाले, मालाओं सहित इस केश-समूह को क ले | एक पुरुष अपनी स्त्री के वक्षःस्थल पर आश्रय लेता है ठीक उन्हीं वनों का चम्प्रभचरित में पुष्पावचय के समय वकुलमाला पहनाता हुआ जिन चाटू बचनों का आश्रय जीवन्धरचम्पू में भी लिया गया है । देखिए - - वपुषि कनकभासि चम्पकानां सुदति न ते परभागमेति माला । स्तनतटमिति संस्पृशन् प्रियामा हृदि रमणो बकुलस बबन्ध ॥१-२४ ॥ -चन्द्रप्रभ ་ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे सुन्दर दांतोंवाली प्रिये ! सुवर्ण के समान कान्तिवाले तुम्हारे शरीर पर यह चम्मक की माला वर्णोत्कर्ष को प्राप्त नहीं हो रही है, इस प्रकार कहकर किसी पुरुष ने प्रिया के रका सई ... बर पुलों की मादी । वपुषि फनकगोरे चम्पकानां लगेषा . वितरति परभाग नेति कश्चित्प्रियायाः । उरसि वकुलमालामाबधन्धाम्बुणाश्याः स्तनकलशसमीपे चालयन्पाणिपद्मम् ।।१०।। -जीवन्धर चम्प, लम्भ ४ यत: तुम्हारा शरीर सुवर्ण के समान पीला है अतः उसपर यह चम्पे की माला खिलती नहीं है ऐसा कहकर स्तनकलश के सभोप हाथ चलाते हुए किसी पुरुष ने अपनी स्त्री के अक्षःस्थल पर मौलवी की माला बाँध दी । ___ जलक्रीड़ा के बाद स्त्रियों द्वारा छोड़े जानेवाले गीले वस्त्रों का वर्णन चन्द्रप्रभचरित में देखिए कुवलयनयनाभिरस्यमानान्यनुपुलिनं सरसानि रागवन्ति । मुमुचुरिव शुचानुणः प्रवाहं सवणपदेन पुरातनांशुकानि ॥५८।। -पन्द्रप्रभ., सर्ग १ कुवलय के समान नेत्रोंवाली स्त्रियों ने सरसी के तट पर जो गीले-रंगीले वस्त्र छोड़े थे थे पानी झरने के बहाने मानो शोकवश आंसू ही छोड़ रहे थे। माघ ने धारण किये जानेवाले नवीन सफ़ेद वस्त्र और छोड़े जानेवाले गीले वस्त्रों का एक साथ वर्णन करते हुए कहा है वासांसि न्यवसत यानि योषितस्ता: शुभ्राभ्रद्युतिभिरहासि तर्मुदेव । अत्याक्षुः स्नपनगलालानि यानि स्थूलाश्रुनुतिभिररोदि तैः शुचेव ॥६६॥-शिशुपाल., सर्ग ८ उन स्त्रियों ने जो वस्त्र पहने थे उन्होंने हर्ष से ही मानो सफेद मेघों की कान्ति का हास्य किया था और जिन जल भरानेवाले वस्त्रों को छोड़ा था वे शोक से ही मानो रो रहे थे। चन्द्रप्रभ और धर्मशर्माभ्युदय के वर्णनीय विषयों में सादृश्य पाया जाता है। चन्द्रप्रभ में मुनिदर्शन का प्रकरण उपस्थित है तो धर्मशर्मास्युदय में भी वह प्रकरण उपस्थित किया गया है। इस सन्दर्भ में दोनों काव्यों में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग किया गया है। इतना अवश्य है कि वर्मशर्माभ्युदय के कषि ने काव्यप्रतिभा का चमत्कार विशेष दिखाया है। चन्द्रप्रभ का दर्शनशास्त्रविषमक वर्णन विस्तृत हो १. द्वितीय सर्ग, ५१-१०० । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाने से काव्य की सुषमा में बाधा उपस्थित करता है इसलिए धर्मशर्माभ्युदय के फर्ता ने उसे संक्षिप्त कर मात्र चार्वाफ-दर्शन की समीक्षा तक सीमित किया है । पुत्राभाव की वेदना का वर्णन जैसा चैन्द्रप्रमचरित में किया गया है वैसा ही धर्मशर्माभ्युदय में भी किया गमा है । शैली अपनी-अपनी अवश्य है। धर्मशर्माभ्युदय के ऋतुवर्णन, वनक्रीडा, जलकोड़ा, चन्द्रोदय तथा सम्भोग आदि के वर्णन अन्द्रप्रभ के अनुरूप है । चन्द्रप्रभ में पिता ने पुत्र के लिए जो उपदेश दिया है उसका विस्तृत रूप धर्मशाभ्युदम में दिया है। उपदेश की कितने ही बातों का दोनों अन्थों में सादृश्य पाया जाता है। चन्द्रप्रभचरित में जैनधर्म का उपदेश जिस क्रम से रखा गया है वही क्रम धर्मशर्माम्युदय में भी अपनाया गया है । चन्द्रप्रभचरित के १५वें सर्ग में अनुष्टुप् छन्द वारा युद्ध का वर्णन किया गया है और उसमें यमक तथा चित्रालंकार का माश्रय लिया गया है । उसी प्रकार धर्मशर्माभ्युदय के १९वें सर्ग में अनुष्टुप् छन्द के द्वारा मुख का वर्णन किया गया है और उसमें पमक तथा चित्रालंकार का आश्रय लिया गया है। इसी प्रकार शिशुपालवध के १९वें सर्ग में भी युख का वर्णन करने के लिए अनुष्टुप् छन्द और यमक तथा विशालकार को स्वीकृत किया गया। पन्ना विभाग वर्णन रघुवंश के दिग्विजय वर्णन से प्रभावित है। . चन्द्रप्रभचरित के कवि ने पूर्वभववर्णन में ग्रन्ध के १६ सर्ग रोके हैं और वर्तमान भव के वर्णन के लिए मात्र १६, १७, और १८ तीन सर्ग दिये है इससे प्रमुख चरित्र के वर्णन में उन्हें बहुत संकोष करना पड़ा है। स्वप्न दर्शन, जन्माभिषेक, राज्यप्रणाली तथा दीक्षाकल्याणक आदि जो तीर्थकर चरित के प्रमुख अंग है वे संक्षिप्त वर्णन के कारण निष्प्रभ से हो गये है, धर्मशर्माम्मुवय के कवि ने पूर्वभव के वर्णन में मात्र एक सर्ग रोका है और शेष ग्रन्य चर्मनाथ तीर्थकर के वर्तमान चरित्र के वर्णन में ही उपयुक्त किया है इसलिए तीर्थकर चरित्र के प्रत्येक अंग अच्छी तरह विकसित हुए है तथा कवि को अपनी काम्य-प्रतिभा प्रकट करने के लिए योग्य क्षेत्र मिला है । १. चतुर्थ सर्ग, ६२-७५ । २. चन्द्रप्रभचरित, तृतीय सर्ग, २०४९ । १. धर्म शर्माभ्युदय, द्वितीय सर्ग, १८-७४ | ४. धनप्रभ, चतुर्थ सर्ग, ३३-४३ । १. धर्मशाभ्युदय, अष्टादश सर्ग. २४-४४ । ६. चन्द्रप्रभचरिस, सगं, १८ । ७. धर्मशर्मा युदय, सर्ग, २१ । ८. चन्द्रम, षडदा सर्ग, २४-५३ । ६. रघुश. चतुर्य सर्ग, २६ सर्गान्त । भादान-प्रदान १०. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय स्तम्भ १ : सिद्धान्त १. तीर्थंकर की पृष्ठभूमि २. धर्मशर्माभ्युदय में जैन-सिद्धान्त ३. जीवन्धरचम्पू में जैनाचार ४. धर्मशर्माभ्युदय में चार्वाक दर्शन और उसका निराकरण स्तम्भ २ःवर्णन ५. पाय का देश और समयम ६. जीवन्धरचम्पू का नगरो-वर्णन ७. धर्मशर्माभ्युदय का नारीसौन्दर्य ८. जीवन्धरचम्पू में नारी-सौन्दर्य का वर्णन ९. जीवन्धरचम्पू को नेपथ्य-रचना १०. राजा ११. देवसेना १२. सुमेरु १३. क्षीरसमुद्र १४. विन्ध्यगिरि स्तम्भ ३ : प्रकृति-निरूपण १५. धर्मशर्माभ्युदय का ऋतुचक्र १६. जीवन्धरचम्पू का तपोवन १७. जीवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन १८. सूर्यास्तमन, तिमिरोद्गति, चन्द्रोदय आदि १९. धर्मशर्माभ्युदय का प्रभात-वर्णन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ १ : सिद्धान्त तीर्थंकर की पृष्ठभूमि धर्मशर्माभ्युदय के कथा-नायक भगवान् धर्मनाथ इस अवसर्पिणी युग में होने वाले २४ तीर्थंकरों में पन्द्रहवें तीर्थंकर थे । प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव थे और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर । तीर्थधर्म की प्रवृत्ति के चलानेवाले को तीर्थंकर कहते हैं । तीर्थंकर बनने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है। तीर्थंकर-कर्म के बन्ध का प्रारम्भ केवलज्ञानी के सन्निधान में ही होता है क्योंकि उसके बन्ध के लिए परिणामों में जितनी विशुद्धता अपेक्षित है उतनी अन्यत्र प्राप्त नहीं हो सकती । धर्मनाथ ने अपने तृतीय पूजयानगरी में जीकर प्रकृति का बन्ध किया था। राजा दशरथ ने विमलवाहन मुनि के पास साधु-दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण किया था । सब जीवों में मध्यस्थभाव धारण किया था तथा दर्शन - विशुद्धि आदि गुणों की भावना के द्वारा अपने हृदय को निर्मल बनाया था। धर्मशर्माभ्युदय के चतुर्थ सर्ग में मुनिराज दशरथ को मध्यस्थ-वृत्ति का वर्णन देखिए कितना महत्वपूर्ण है- ध्यानानुबन्धस्तिमितोदेहो मिपि शत्रावपि तुख्यवृत्तिः #यालोपगूढः स दनैकदेशे स्थित श्चिरं चन्दनबच्चकासे ॥८१॥ उन मुनिराज का विशाल शरीर ध्यान के सम्बन्ध से बिलकुल निश्चल था, और मित्र में उनकी समान वृत्ति थी, तथा शरीर में सर्प लिपट रहे थे अतः वे चन के एक देश में स्थित चन्दन-वृक्ष की तरह सुशोभित हो रहे थे ? হা तीर्थकर गोत्र के यन्त्र की चर्चा करते हुए, दो हजार वर्ष पूर्व रचित षट्खण्डागम के बन्धस्वामित्व विजय नामक अधिकार खण्ड ३, पुस्तक ८ में श्री भगवन्त पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ने— 'कदिहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं वर्षति ॥३९॥ सूत्र में तीर्थंकर नाम कर्म के बन्धप्रत्ययप्रदर्शक सूत्र की उपयोगिता बतलाते हुए लिखा है कि 'यह तीर्थंकर गोत्र, मिथ्यास्य प्रत्यय नहीं हैं, अर्थात् मिथ्यात्व के निमिस से बँधनेवाली सोलह प्रकृतियों में इसका अन्तर्भाव नहीं होता क्योंकि मिथ्यात्व के होने पर उसका बन्ध नहीं पाया जाता । असंयम प्रत्यय भी नहीं है क्योंकि संयतों में भी उसका बन्ध देखा जाता है । कषाय सामान्य भी नहीं है क्योंकि कषाय होने पर भी उसका जन्धन्युच्छेद देखा जाता है अथवा कषाय के रहते हुए भी उसके बन्ध का सिद्धान्त १४ १०५ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ नहीं पाया जाता । कषाय की मन्दता भी कारण नहीं है क्योंकि तीन कषायवाले नारकियों के भी इसका बन्ध देखा जाता है। तीन कषाय भी बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि सर्वार्थसिद्धि के देव और अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती मनुष्यों के भी बन्ध देखा जाता है। सम्यक्त्व भो बन्ध का कारण नहीं है क्योंकि सभी सम्यग्दृष्टि जीवों के तीर्थकर-कर्म का बन्ध नहीं पाया जाता और मात्र दर्शन की विशुद्धता भी कारण नहीं है क्योंकि दर्शनमोह कर्म का क्षय कर चुकनेवाले सभी जीवों के उसका बन्ध नहीं पाया जाता, इसलिए तीर्थकर-गोत्र के बन्ध का कारण कहना ही पाहिए ।। इस प्रकार उपयोगिता प्रदर्शित कर-- 'तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा लित्यपरणामगोदं कम्मं बंधति' ॥४०॥ इस सूत्र में कहा है कि आगे कहे जानेवाले सोलह कारणों के द्वारा जीव तीर्थकर-नाम-गोत्र को बांधते हैं। इस तीर्थकर-नाम-गोत्र का प्रारम्भ मात्र गनुष्य-गति में होता है क्योंकि केवलज्ञान से उपलक्षित जीवद्रव्य का सग्निधान मनुष्य-गति में हो सम्भव होता है अन्य गतियों में नहीं। इसी सूत्र की टीका में वीरसेनस्वामी ने कहा है कि पर्यायाथिक नय का आलम्बन करने पर तीर्थकर-कर्मबन्ध के कारण सोलह हैं और व्याश्रिकनय का अवलम्बन करने पर एक ही कारण होता है अथवा दो भी कारण होते हैं इसलिए ऐसा नियम नहीं समनना चाहिए कि सोलह ही कारण होते है । अग्रिम सूत्र में इन सोलह कारणों का नामोल्लेख किया गया है___ मुज्जदार : मोलवदेशु रितिधारदार आवासएसु अपरिहीणदार खणलवपडिबुझणताए लद्धिसंगसंपण्णवाए जधाथामे तथा तवे साहूर्ण पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहि-संधारणाए साहूर्ण वज्जावच्चजोगजुतदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पथयणवच्छलदाए पययणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणीवजोगजुत्तदाए इच्नेदेहि सोलसेहिं कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति ।' १. दर्शनविशुखता, २. विनयसम्पपला, ३, शीलवतेष्वनतीचार, ४. आबश्यकापरिहीणता, ५. क्षणलवप्रतिबोधनता, ६. लब्धिसंवेगसंपन्नता, ७. यथास्थामयथाशक्ति तप, ८. साधूनां प्रासुकपरित्यागता, ९. साधूनां समाधिसंधारणा, १०. साधूनां वैयावृत्ययोगयुक्तता, ११. अरहन्तभक्ति, १२. बहुश्रुतमक्ति, १३. प्रवधनमित, १४. प्रवचनवत्सलता, १५. प्रवचनप्रभावना और १६. अभिक्षणअभिक्षण--प्रत्येक समय शानोपयोग-युक्तता इन सोलह कारणों से जीव तीर्थकर-माम-गोत्र कर्म का बन्ध करते हैं। दर्शन-विशुद्धता आदि का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है १. दर्शन-बिशुद्धता-तीन मूढ़ता' तथा बांका आदिफ आठ मलों से रहित सम्यग्दर्शन का होना दर्शन-विशुद्धता है। यहाँ बीरसेन स्वामी ने निम्नांकित शंका उठाते. - १. लोक मुवता, देवम् दता और गुरुमूढता ये तीन मूकताएं है। २. शंका, कक्षिा, विविकिस्सा-ग्लानि, म्वष्टि, अगलन, अमितीकरण, अवारसषय और अप्रभावना वे शंकादिक आठ मन्द-दोष है। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए उसका समाधान किया है । शंका- केवल उस एक दर्शनविशुद्धता ते ही तीर्थंकर-नाम-कर्म का बन्ध कैसे सम्भव है क्योंकि ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टि जीवों के तीर्थंकर-नाम-कर्म के बन्ध का प्रसंग आता है । 1 समाधान - शुद्धय के अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मत्रों से रहित होने पर ही दर्शन-विशुद्धता नहीं होती किन्तु पूर्वोक्त गुणों से स्वरूप की प्राप्त कर स्थित सम्यग्दर्शन का साधुओं के प्रासुक परित्याग में, साधुओंों की संघारणा में, साधुओं के वैयावृत्यसंयोग में अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावमा और अभिक्षण ज्ञानोपयोग से युक्तता में प्रवर्तने का नाम दर्शन-विशुद्धता है। उस एक ही वनविशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बांधते हैं । २. विनय सम्पन्नता -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विनय से युक्त होना विनयसम्पन्नता है । ३. शीलवतेष्वनती चार महिंसादिक व्रत और उनके रक्षक साधनों में अतिचारदोष नहीं लगाना शीलवतेष्वनतीवार है । ४. आवश्यकापरिहीणता - रामता, स्लव वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और क्युत्सगं इन छह आवश्यक कामों में होनता नहीं करना अर्थात् इनके करने में प्रभाव नहीं करना आवश्यकापरिहीणता हूँ । ५. क्षणलय प्रतिबोधनता — क्षण और लव, काल-विशेष के नाम हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान, व्रत और शील आदि गुणों को उज्ज्वल करना, दोषों का प्रक्षालन करना अथवा उक्त गुणों को प्रदीप्त करना प्रतिबोधमता है। प्रत्येक क्षण अथवा प्रत्येक लब में प्रतिबुद्ध रहना क्षण प्रतिबोधनता है । ६. लब्षि संवेगसंपन्नता - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में जीव का जो समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं । उस लब्धि में हर्ष का होना संवेग है । इस प्रकार के लब्धिसंवेग से — सम्यग्दर्शनादि की प्राप्तिविषयक हर्ष से संयुक्त होना सो लब्धिसम्पन्नता है । ७. यथास्थाम तप अपने बल और वीर्य के अनुसार बाह्य तथा अन्तरंग तप करना यथास्याम तप है । ८. सानूनां प्राकपरित्यागता - साधुओं का निर्दोष ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा निर्दोष वस्तुओं का जो त्याग दान है उसे साधुप्रासुकपरित्यागला कहते है । ९. साधूनां समाधि - संधारणा- साधुओं का सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में ९. अनशन, अनवर तिरिन, रसपरित्याग, वित्रिवाय्यासन और कायक्लेश में छह माह्य तप 'अनशनामीदर्यवृतिपरिसंख्यान - रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः' रा. सू. । २. प्रायश्चित विनम वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान में छह अभ्यासरत हैं। प्रायश्चितविनय-वैयावृत्य-स्वाध्यायन्युत्सर्गध्यानान्युत्तरस् । अध्याय ६ । सिद्धान्त . १०७ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी तरह अवस्थित होना साधुसमाधि-संधारणा है । १०. साधूनां वयावृत्ययोगयुनक्षा-व्यावृत-रोगादिक से व्याकुल साधु के विषय में जो किया जाता है उसे वैयावृत्य कहते हैं। जिन सम्यक्रव तथा ज्ञान आदि. गुणों से जीव वैयावृत्य में लगता है उन्हें वैयावृत्य कहते हैं । उनसे संयुक्त होना सो साधुवयावृत्ययोगयुक्तता है। ११. अरहम्तभक्ति-चार घातिया कर्मों को नष्ट करनेवाले अरहन्त अथवा पाठों कर्मों को नष्ट करनेवाले सिद्धपरभेष्ठो अरहन्त शब्द से ग्राह्य है। उनके गुगों में अनुराग होना अरहन्त-भक्ति है । १२. बहुश्रुतभक्ति-द्वादशांग के पारगामी बहुश्रुत कहलाते हैं, उनकी भक्ति करना सो बहुभुत भक्ति है। १३. प्रवचनभक्ति-सिद्धान्त अथवा बारह अंगों को प्रवचन कहते हैं, उसकी भक्ति करना प्रवचनभक्ति है। १४. प्रवचनवत्सलता-वेशद्वती, महावती, अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि प्रवचन कहलाते हैं, उनके साथ अनुराग अथवा ममेदं भाव रखना प्रवचनवत्सलता है। १५. प्रबचनप्रभावना-बागम के अर्थ को प्रवचन कहते हैं, उसकी फीति का विस्तार अथवा वृद्धि करने को प्रवचनप्रभावना कहते है। १६. अभिक्षण-अभिक्षण-ज्ञानोपयोगमुक्तता क्षण-क्षण अर्थात् प्रत्येक समय ज्ञानोपयोग से युक्त होना अभिक्षण-अभिक्षण-ज्ञानोपयोगयुक्तता है। ये सभी भावनाएं एक दूसरे से सम्बद्ध है इसलिए जहां ऐसा कथन पाता है कि अमुक एक भावना से तीर्थकर-कर्म का बन्म होता है वहाँ शेष भावनाएं उसी एक में गर्भित है ऐसा समझना चाहिए । इन्हीं सोलह भावनाओं का उल्लेख आगे चलकर उमास्वामी महाराज ने उत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार किया है _ 'दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणशानोपयोगसंवेगो शक्तिस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनदरसलत्वमिति तोयंकरत्वस्य । ___ दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शीलवतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तिस्तप, साधुसमाधि, वयावृत्यकरण, अर्हद्भक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यफा परिहाणि, मार्गप्रभावना और प्रवचनबरसलत्व-इन सोलह कारणों से तीर्थकर-प्रकृति का आस्रव होता है। इन भावनाओं में षट्खण्डागम के सूत्र में वणित क्रम को परिवर्तित किया गया है। क्षणलवप्रतिबोधनता भावना को छोड़कर आचार्यभक्ति रखी गयी है तथा प्रवचन १. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार घातिमा कम है। शेष वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कम अघातिया है। १.८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुषीलम Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति के नाम को परिवर्तित कर मार्गप्रभावना नाम रखा गया है । अभिक्षण अभिक्षणज्ञानोपयोगयुक्तता के स्थान पर संक्षिप्त नाम ज्ञापयोग रखा है। लब्धिसंवेगभावना के स्थान पर संवेग इतना संक्षिप्त नाम रखा है। क्षणलव प्रतिबोधनता भावना को अभी ज्ञानोपयोग में गतार्थ समझकर छोड़ा गया है ऐसा जान पड़ता है और ज्ञान के समान आचार को भी प्रधानता देने की भावना से बहुश्रुतभक्ति के साथ आचार्यभक्ति को जोड़ा गया है । शेष भावनाओं के नाम और अर्थ मिलते-जुलते हैं । इन सोलह भावनामों का चिन्तन कर मुनिराज दशरथ ने तीर्थंकर कर्मकर as किया था। उसी के फलस्वरूप वे सर्वार्थसिद्धिविमान से च्युत होकर धर्मनाथ तीर्थंकर हुए | धर्मशर्माभ्युदय में जैन सिद्धान्त समवसरण सभा के मध्य में स्थित गन्धकुटी में देवनिर्मित रत्नमय सिंहासन पर भगवान् धर्मनाथ विराजमान हैं। वे सिंहासन से चार अंगुल ऊपर अन्तरीक्ष में स्थित है । उनके चारों ओर बेरकर बारह सभाएँ हैं जिनमें क्रम से १ निर्ग्रन्थ मुनि, २. कल्पवासिनी देवियाँ २ व्यायिकाएं, ४. ज्योतिष्क देवियाँ, ५ व्यन्तर देवियाँ ६. भवनबासिनी देवियों, ७ भवनवासी देव, ८ व्यन्तर देव, ९. ज्योतिष्क देव १०. कल्पवासी देव, ११. मनुष्य और १२ तिर्यच - पशु प्रशान्तभाव से बैठे हैं । भगवान् आठ प्रातिछापों से सुशोभित हैं । बारह सभाओं के लोग उनकी दिव्यध्वनि उत्कण्ठित है । , · सुनने के लिए निर्ग्रन्थ मुनियों की सभा में समासीन गणधर - - प्रमुख श्रोता ने हे भगवन् ! संसार के प्राणियों का कल्याण किस प्रकार हो सकता है ? उनकी दिपष्वनि खिरी - दिव्योपदेश प्रारम्भ हुआ । उपदेश के समय कोई विकार नहीं था । प्रशान्त गम्भीरमुद्रा में बोलते हुए उन्होंने कहाजिन शासन में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संगर, निर्जरा और मोक्ष ये सात सत्त्व हैं। पुण्य और पाप बन्धतत्व के अन्तर्गत हो जाते हैं इसलिए उनका अलग से निरूपण नहीं किया जा रहा है। वैसे पुण्य और पाप को मिलाकर सात तत्त्व नौ पदार्थ कहलाते हैं । उनसे पूछा कि इसके उत्तर में उनके मुख पर जीव तत्त्व は इनमें जीव तत्व चैतन्य लक्षण से सहित है, अमूर्तिक है, शुभ -अशुभ कर्मों का कर्ता और भोक्ता है, शरीर प्रमाण है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है तथा उत्पाद व्यय और प्रौव्य स्वरूप है | सिद्ध और संसारी के भेद से जीव तत्त्व दो प्रकार का है। जन्ममरण के चक्र में फँसे हुए जीव संसारी है और इसके चक्र से जो पार हो चुके हैं वे सिद्ध कहलाते हैं सिद्धान्त संसारी जीव नारको, निर्यख मनुष्य और देव के भेद से चार प्रकार के है । 7 १०९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पृथिवी के नीचे रत्नप्रभा, शराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नाम की सात पृथिवियाँ हैं जिनमें नारकी जीवों का निवास है। इन जीवों का समय निरन्तर दुखाय व्यतीत होता है। बिध्यान तथा हिंसा, असस्य, चौर्य, कुशील और परिग्रह में तीव्र आसक्ति रखनेवाले जीष इन नरकों में उत्पन्न होते हैं। तिर्यच जीव अस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के भेद से स्थावर जीष पांच प्रकार के है। ये सब एकेन्द्रिय होते है अर्थात् इनके मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। श्रस जीव विकल और सकल के भेद से को प्रकार के हैं । द्वीन्त्रिय (शंख, कोड़ी, केंचुआ आदि), त्रीन्द्रिय ( चिंउटी, बिच्छू, खटमल आदि ) और चतुरिन्द्रिय ( मक्खी, मच्छर, बरी, भ्रमर आदि ) जीव विकल कहलाते है । सकल जीव पंचेन्द्रिय होते है अर्थात् उनके स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण ये पौष इन्द्रियाँ होती है । पंचेन्द्रिय तिर्यचों में कोई मनसहित और कोई मनरहित होते है । तियचों के दुख सबके सामने हैं । मायाचार-रूप प्रवृत्ति करने से तियंचों में जन्म लेना पड़ता है। मनुष्य गति के जीव भोगभूमिज और कर्मभमिज के भेद से दो प्रकार के होते हैं। जहां कल्पवृक्षों से भीगोपभोग की प्राप्ति होती है ऐसे देव-कुरु, उत्तरकुरु धादि क्षेत्रों के निवासी भोगभूमिज कहलाते हैं। बहुत ही सुख शान्ति से इनका जीवन व्यतीत होला है । और जहाँ असि, मषी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विशा इन उपायों से आजीविका चलती है ऐसे भरत, ऐरावत तथा विदेह क्षेत्र के निवासी मनुष्य कर्मभूमिज कहलाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । भोग-भूमिज मनुष्य नियम से देवमति ही प्राप्त करते है। देवगति के जीव भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के भेद से चार प्रकार के होते हैं । असुर कुमार, नागकुमार आदि के भेद से भवनवासी देव घस प्रकार के हैं। किन्नर, किंपुरुष, गन्धर्व शादि के भेद से ध्यन्सर देव आठ प्रकार के है। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र तथा तारों के भेद से ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं और कल्पवासी तथा कल्पातीत के भेद से वैमानिक देव दो प्रकार के हैं। सोवर्म मादि सोलह स्वगों के निवासी देव कल्पनासी कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र, सामानिक आदि भेदों की कल्पना होती है तथा सोलह स्वर्गों के ऊपर गंवेयक, अनुदिश तथा अनुत्तर विमानों में रहनेवाले देव कल्पातीत कहलाते हैं क्योंकि इनमें इन्द्र आदि भेदों की कल्पना नहीं होती । कल्पातीत देव एक समान होने से अमिन्द्र कहलाते हैं । देवगति के जीवों को यद्यपि मनुष्यों की अपेक्षा सांसारिक भोगों की सुलभता है पर वे उस पर्याय से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें अपनी आयु पूर्ण होने पर नियम से मनुष्य या तियंचों में जन्म लेना पड़ता है। ___सिख जीवों का निवास लोक के अग्रभाग पर है। तपश्चर्या के द्वारा कर्मविकार महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नष्ट करनेवाले जीव सिद्ध अवस्था को प्रास होते हैं। सिद्ध जीव फिर कभी जन्ममरण के चक्र में नहीं पड़ते। अजीव तत्त्व जो चेतना जानने-देखने की शक्ति से रहित है उसे अजीव कहते हैं। यह अजीब धर्मास्तिकाय, 'अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल के भेद से पाँच प्रकार का है। पांच अजीव और एक जीव इस तरह दोनों मिलकर छह द्रव्य कहलाते हैं। इन छह बन्यों से ही लोक का निर्माण हुआ है । इन छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य क्रिया सहित है, शेष चार द्रव्य निस्क्रिय है 1 धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों के चलने में सहायक होता है और अधर्मास्तिकाय उनके ठहरने में साहाय्य करता है । आकाशास्तिकाय से सब द्रव्यों को ठहरने के लिए अवगाहन प्राप्त होता है। पुद्गलास्तिकाव से शरीर तथा अन्य दृश्यमान पदार्थों का निर्माण हुवा है। कालख्य सब द्रव्यों के परिवर्तन में ग्रहायक है। दिन, पात, मही घण्टा आदि का व्यवहार काल, द्रव्य की ही सहायता से होता है। अनादि काल से जीव के साथ कर्म और नोकर्मशानावरणादि रूप अजीव का सम्बन्ध लगा रहा है। इस सम्बन्ध के कारण ही जीष को संसार-भ्रमण करना पड़ता है। जब इस अजीव का सम्बन्ध सर्वथा छूट जाता है तब जीव सिद्ध हो जाता है। आस्रव तत्त्व ज्ञानावरणादि कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल द्रव्य के परमाणु लोक में सर्वत्र व्यास है। आत्मा के साथ उनका सम्बन्ध होने में जो कारण पड़ता है उसे आस्रव कहते है। यह आस्रव प्रमुख रूप से योग के कारण होता है। आत्मप्रदेशों में परिष्पन्दकम्पन होने को भोग कहते हैं। यह योग काय, वचन और मन के निमित्त से तीन प्रकार का होता है । शुभ परिणामों से रखा हुआ योग शुभ योग कहलाता है और अशुभ परिणामों से रचा हुआ अशुभ योग। शुभ योग से पुण्य कर्म का आरव होता है, और अशुभ योग से पाप कर्म का । शुभ कर्म सांसारिक सुख का कारण है और अशुभ कर्म सांसारिक दुख का कारण । ज्ञानावरण, दर्शनाबरण, वेदनीय, मोहनीय, मायु, नाम, गोत्र और अन्तराय के भेद से कर्म आठ प्रकार का होता है | इन आठों के आरव अलगअलग परिणाम है। बन्ध तत्त्व ___ कषायसहित होने के कारण जीव कर्म-रूप होने के योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है। वे पुद्गल परमाणु किसी निश्चित समय तक यात्मप्रदेशों के साथ संलग्न रहते हैं, यहो बन्ध तत्व है । मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग सिद्धान्त Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये पांच बन्ध के प्रमुख कारण है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से बन्ध के पार भेद होते हैं। शानावरणादि कर्मों का जो अपना-अपना स्वभाव है वह प्रकृतिबन्ध है । जबतक ज्ञानावरणादि कर्म आत्मप्रदेशों के साथ संलग्न रहकर अपना कार्य करने में समर्थ रहते हैं तबतक के काल को स्थितिबन्ध कहते है। कर्मों के फल देने की शक्ति में जो होनाधिक भाव होता है वह अनुभाग बन्ध कहलाता है और कर्म-प्रदेशों का जो परिमाण है वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। एक बार का बैंधा हुआ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराम कर्म अधिक से अधिक तीस कोड़ाफोड़ी सागर तक मात्मप्रदेशों के साथ संलग्न रह सकता है, मोहनीय कर्म सत्तर कोडाकोड़ी सागर तक तथा माम और गोत्र बोस कोडाकोडी सागर तक यही इनका उत्कृष्ट स्थिति-बन्ध है। ज्ञानाबरण कर्म, आत्मा को शाम को और कारण धर्म दर्शन गण को मात करता है। वेदनीय कर्म सुख और दुख का अनुभव कराता है । मोहनीय कर्म पर-पदार्थों में अहंभाव तथा ममभाव उत्पन्न करता है। आयुकर्म इस जीव को निश्चित समम तक नरक, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव के शरीर में अवक्षस रखता है। नाम कर्म से शरीर तथा इन्द्रिय आदि की रचना होती है। गोत्र कर्म इस जीव को उच्च अथवा नीच कुल में उत्पन्न करता है तथा अन्तराय कम दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-आत्मबल में बाधा डालता है। संवर तत्त्व ___ आत्मा में नवीन कर्मों का आसव-भामा, रुक जाना संवर कहलाता है। यह संवर, गुसि, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र के द्वारा होता है। तात्पर्य यह है कि जिन भावों से आस्रव होता है उन भावों के विपरीत भावों से संवर होता है । मन-वचन-काय रूप योगत्रय को नियन्त्रित करना गुप्ति है। गमनागमन, भाषा, भोजन, वस्तुओं के रखने, उठाने और मल-मूत्र छोड़ने में प्रमाद-रहित होकर प्रवृत्ति करना समिति है । उत्तम-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म है। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्थ, अन्यत्व, मशुचित्व, आनव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये बारह अनुप्रेक्षाएं हैं। क्षुधा, तृषा मावि चाईस प्रकार की बाधाओं को समता भाव से सहन करना परीषजय है और सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात में पांच प्रकार के चारित हैं। इन सब कारणों से संवर होता है। आसव संसार का और संवर मोक्ष का कारण है। निर्जरा तत्त्व पूर्वबद्ध कर्मों का एक-देश पृथक् होना निर्जरा है। इसके सकाम निर्जरा और अकाम निर्जरा के भेद से दो भेद है। लपश्चरण आदि के द्वारा बुद्धि-पूर्वक जो निर्जरा महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की जाती है उपे सकाम निर्जरा कहते हैं और स्थिति पूर्ण होने पर कर्म-परमाणु स्वयं खिरते रहते हैं उसे अकाम निर्जरा कहते हैं। सकाम निर्जरा को अविपाक और अकाम निर्जरा को सविपाक निर्जरा मी कहते हैं। संवरपूर्वक होनेवाली निर्जरा से ही जीव का कल्याण होता है। निर्जरा का प्रमुख कारण तपश्चरण और व्रताचरण है । तपश्चरण के उपवास, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तप्राय्यासन, कामक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, बयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इस प्रकार बारह भेद हैं 1 व्रताचरण के सागार और अनगार के भेद से दो भेद हैं। सागार गृहस्थ को कहते है और अन्तमार मनि को । हस्थ सम्मन्धी हताचरण के पास अणवत्त, तीन गुणव्रत और पार शिक्षाव्रत के भेद से बारह भेद हैं। इन सब व्रतों के पहले सम्यक्त्व-सम्पग्दर्शन का होना आवश्यक है। धर्म, आस, गुरु और तत्वार्थ का यथार्थ थद्धान करना सम्यक्त्व कहलाता है। वीतराग-सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित धर्म, धर्म कहलाता है, अरहन्त-बीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनेन्द्र को माप्त या देव कहते है, विषयों की आशा से रहित तथा ज्ञानध्यान में लीन निम्रन्थ साधु गुरु कहलाते हैं, और जीवाजीवादि उपर्युक्त स्वार्थ कहलाते है। सागार-गृहस्थ को हिंसा, शूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाच पापों का एकदेश त्याग करना अनिवार्य है। धूत, मांस, मदिरा, वेश्यासेवन, भालेट, चोरी और परस्त्रोसेवन इन सात व्यसनों का त्याग करना भी उसके प्राथमिक कर्तव्यों में से है । अन्य अभक्ष्य पदार्थों का सेवन भी गृहस्थ के लिए वर्जित है। ____ अनगार मुनि को कहते हैं । यह गृह का परित्याग कर वन में या अन्य एकान्त स्थानों में रहते हैं। पांच पापों का त्याग कर अट्ठाईस मूलगुणों को धारण करते हैं । नग्न-दिगम्बर रहते हैं । दिन में एक बार ही आहार ग्रहण करते हैं । मोक्ष तत्त्व ____ संवर और निर्जरापूर्वक समस्त फर्म-परमाणुओं का आत्मा से सदा के लिए पथक हो जाना मोक्ष वत्त्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की एकता से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिन जीवों को मोक्ष प्राप्त हो जाता है वे सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से बच जाते है। इस प्रकार धर्म का उपदेश देकर धर्मनाथ जिनेन्द्र ने संसारस्थ जीवों को कल्याण का मार्ग प्रदर्शित किया । इनके ४२ गणधर थे । विहार काल में हजारों मुनि, गायिकाएँ तथा लाखों श्रावक-श्राविकाओं का विशाल संघ साथ रहता था । साड़े बारह लाख वर्ष की आयु समाप्त होने पर इन्होंने चैत्र शुक्ल चतुर्थी की पुण्मवेला में सम्मेदशिखर ( पारसनाथ हिल ) से मोक्ष प्राप्त किया था। धर्मशमियुष्य का यह जैन-सिद्धान्त-वर्णन, वीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित तथा उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर आधारित जान पड़ता है । सिखान्त ११३ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन्धरचम्पू में जैनाचार क्षेमपुरी से निकलकर जीवन्धर आगे बढ़ गये। उनके शरीर पर जो मणिमय आभूषण थे उन्हें वे किसी को देना चाहते थे परन्तु अटवी में किसके लिए देवें? यह विचार उनके मन में चल रहा था उसी समय एक किसान उन्हें आता हुआ दिखा। जीवन्धरकुमार ने उससे जब कुशल समाचार पूछा तब वह विनय से गद्गद होता हुआ बोला वृषलोऽपि विमीतः सन्मुवाच कुरुकुम्जरम् । कुशलं साम्प्रतं युष्मदर्शनेन विशेषतः ॥६॥ पृ. १२२ विनयावनत किसान ने जीवन्धरकुमार से कहा कि कुशल है और आपके दर्शन से इस समय विशेष रूप है। इसके उत्तर में जीवन्धरकुमार ने कहा कि असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छह कर्मों से उत्पन्न कुशलता, कुशलता नहीं कहलाती क्योंकि वह नाना प्रकार की आशारूपी लताओं की उत्पत्ति के लिए कन्द के समान है। सच्ची कुशलता तो मोक्ष से उत्पन्न होनेवाले अनन्त सुख की प्राप्ति में है। वह अनन्त सुख आत्मसाध्य है-आत्मा से ही प्राप्त किया जाता है और आत्मरूप है। वह मोक्षजनित सुख रत्नत्रय की पूर्णता होने पर आत्मा को प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इन तीन को रत्नत्रय कहते हैं । इनमें वीतराग-- सर्वज्ञ देव, उनके द्वारा प्रतिपादित आगम और जीवाजीवादि पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। भव्य जीवों के प्रमुख आभूषण-स्वरूप जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है वे सम्यग्दर्शन के होने पर ही होते हैं । जिस प्रकार शरीर के समस्त अंगों में मस्तक प्रधान अंग है और इन्द्रियों में नेत्र प्रधान इन्द्रिय है उसी प्रकार मोक्ष के अंगों में सम्यग्दर्शन प्रधान अंग है । ज्ञान, दर्शन और सुख रूप लक्षण से युक्त अतिशय निर्मल आत्मा, सब प्रकार की अपवित्रता के प्रमुख कारणस्वरूप शरीरादिक से भिन्न कहा गया है। इस प्रकार संशयरहित आत्मतत्त्व का ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान कहलाता है।। सम्यग्ज्ञानी जीव के द्वारा परपदार्थ का जो त्याग किया जाता है उसे सम्पकचारित्र कहते हैं । सम्यक्चारित्र के धारक जोव अनगार-मुनि और सागार-गृहस्थ के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं। इनमें अनगार-मुनि हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का सर्वथा त्याग करते हैं और गृहस्थ एकदेश त्याग करते हैं । इस प्रकार संक्षेप से रत्नत्रय का स्वरूप बताकर जीवन्धरकुमार ने उस किसान से कहा कि जिस प्रकार किसी बड़े बैल के द्वारा धारण करने योग्य भार को उसका बछड़ा नहीं धारण कर सकता है इसी प्रकार सुम भी मुनि का धर्म धारण करने के १. पृष्ठ १२२-१२४. रत्नों क ७-१६ । १५४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए समर्थ नहीं हो अतः गृहस्थ का धर्म धारण करो। इस गृहस्थ-धर्म से मोक्षलक्ष्मी निकटस्थ हो जाती है। जो पांच अणुव्रत, तीन गुणवत और चार शिक्षाप्रतों के शरण करने में उद्यत है तथा सम्मग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त है वे गृहस्थ कहलाते हैं । हिंसा, असत्य, पौर्य, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापों का स्थूल रूप से त्याग करना और मद्य, मांस तथा मधु का त्याग करना ये गृहस्थ के आठ मूल गुण कहलाते है। अहिंसाणुवतः-स जीष की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करना, सस्थाणुव्रत - पोडाकारक, कठोर और निन्ध वचनों का त्याग करना, अचौर्याणुवत–सार्वजनिक उपयोग के लिए घोषित जल और मिट्टी के बिना, बिना दी हुई अन्य वस्तुओं का त्याग करना, ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी विघाहित स्त्री के अतिरिक्त अन्य स्त्री का त्याग करना और परिग्रह-परिमाणाणुव्रत-अपनी आवश्यकता से अतिरिक्त परिग्रह का त्याग करना, ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं। नशा उत्पन्न करनेवाली मदिरा, अफीम, गांजा, चरस आदि वस्तुओं का त्याग करना मद्यत्याग है। स्वयं मृत अथवा मारे हुए उस जीव के मांस का त्याग करना मोसत्याग है और मधुमक्खियों के उगाल से उत्पन्न हुए मधुशहद का त्याग करना मपुत्याग है। जैनाचार का पालन करने के लिए उपयुक्त आठ नियमों का पालन करना सर्वप्रथम आमाक है इसलिए इन्हें लगा है। इन मूलगुणों के अतिरिक्त गुहस्थ को तीन गुणव्रत धारण करने पड़ते हैं। दिग्वत', देशनत और अनर्थदण्डनत ये तीन गुणवत कहलाते हैं। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने दिन्द्रत, अनर्थदण्डवत और भोगोपभोग परिमाणव्रत इन तीन को गुणवत्र कहा है | दशों दिशाओं में आने-जाने की सीमा जीवन-पर्यन्त के लिए निर्धारित कर लेना और उससे बाहर नहीं जाना दिग्वत कहलाता है। दिम्यत के भीतर जीवन-पर्यन्त के लिए की हुई प्रतिज्ञा को काल की अवधि रखफर संकोचित करना देशवत कहलाता है और मन-वचनकाय की व्यर्थ-निष्प्रयोजन प्रवृत्ति का त्याग करना अनर्थदण्डवत है । पागोपदेश-दूसरेके लिए पाप का उपदेश देना, हिंसादान–हिंसा के सावन-अस्त्र-शस्त्र आदि दूसरे के लिए देना, दुःश्रुति-राग-द्वेष को बढ़ानेवाले शास्त्रों का सुनना, अपध्यान-राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी के वध-बन्धन आदि का चिन्तन करना और प्रमादचर्या-निष्प्रयोजन वूमना-घुमाना तथा जल धादि का बिखेरना, ये अनर्थदण्ड के पांच भेद है। जो वस्तु एक ही बार भोगो जाती है उसे भोग कहते है जैसे भोजन आदि और जो बार-बार भोगी जाती है उसे उपभोग कहते हैं जैसे वस्त्र-आभूषण आदि । इन भोग और उपभोग की वस्तुओं का जीवन-पर्यन्त के लिए अथवा कुछ समय के लिए परिमाण निश्चित करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। १. मधासमधुरयाग: महागुयक्षपञ्चकम् । हणा श्रमणोत्तमाः ॥-रस्नकरण्डमप्रावकाचार । सिद्धान्त ११५ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग चोर से चार ि कहलाते हैं । इनसे मुनिद्रत की शिक्षा मिलती है इसलिए इनका नाम शिक्षाव्रत रखा गया है । प्रातः, मध्याह्न और सायं इन तीन सन्ध्याओं में किसी निश्चित समय तक पाँच पापों का त्याग कर एक स्थान पर स्थित हो समता भाव धारण करना, पंचपरमेष्ठी की. आराधना करना तथा आत्मस्वरूप का चिन्तन करना सामायिक कहलाता है । प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अन्न, पेय, खाद्य और लेख - इन चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना प्रोषधोपवास कहलाता है। योग्य पात्र के लिए आहार, भोषच, शास्त्र तथा अभय – ये चार प्रकार के दान अतिथिसंविभाग कहलाता है और अन्तिम समय कषाय को कृश करते हुए समताभाष से प्राणत्याग करना सल्लेखना कहलाती है। इसे ही संन्यासमरण अथवा समाधिमरण कहते हैं । - इस प्रकार पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को एकत्रित कर गृहस्थ के बारह व्रत कहते हैं। इनका पालन करनेवाला मनुष्य सागार, गृहस्थ या श्रावक कहलाता है | श्रावकधर्म का अभ्यास करनेवाला मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ाकर कभी मुनिव्रत भी धारण करता है और उसके फलस्वरूप मोक्षसुख को प्राप्त होता है । जीवन्धरकुमार के मुखारविन्द से श्रावकधर्म का वर्णन सुनकर किसान बहुत प्रसन्न हुआ तथा उसे धारण कर अपने जीवन को सफल मानने लगा । जीवन्धरकुमार ने उसकी पात्रता का विचार कर उसे अपने मणिमय आभूषण दे दिये और निर्द्वन्द्व होकर आगे बढ़ गये । किसी काव्य में धर्म तत्व का वर्णन संक्षिप्त हो शोभा देता है क्योंकि अधिक विस्तृत होने से कथा या काव्य का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और पाठक का चित्त उसले कब जाता है। जैसा कि जटासिंह नन्दी के बरांगचरित में हुआ हूँ । यही कारण है कि जीवन्धर चम्पू में महाकवि हरिचन्द्र ने ऐसे प्रसंगों को संक्षिप्त हो रखा है। धर्मशर्माभ्युदय में चार्वाक दर्शन और उसका निराकरण सुसीमा के राजा दशरथ चन्द्रग्रहण को देख संसार की मोह-ममता से विरक्त हो जब राजसभा में अपना दीक्षा लेने का विचार प्रकट करते हैं तब उनके सुमन्त्र नामक मन्त्री ने जो चार्वाक मत का अनुयायी था, राजा के इस प्रयत्न को व्यर्थ बसाते हुए जीव की स्वतन्त्र सत्ता को हो निरस्त कर दिया । राजा ने सुयुक्ति-बल से जीव की सत्ता को सिद्ध कर सुमन्त्र की मन्त्रणा का निरसन किया । धर्मशर्माभ्युदय का यह दार्शनिक प्रकरण अल्पकाय होने पर भी अपने आप में पूर्ण है तथा काव्य के काव्यत्व की रक्षा करने में दक्ष है । वीरनन्दी के चन्द्रप्रभचरित ( द्वितीय सर्ग ) और श्रीहर्ष के नैषधीयचरित ( सप्तदश सर्ग) में दार्शनिक प्रकरण आवश्यकता से अधिक लम्बे हो गये हैं, अतः वे काव्योचित नहीं जान पड़ते। धर्मशर्माभ्युदय का यह प्रकरण ६२-७५ तक मात्र १४ श्लोकों में पूर्ण हुआ है । सुमन्त्र मन्त्री का पूर्वपक्ष देखिए- महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन ११६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव त्ववारम्धमिदं विभाति नभःप्रसूनामरणोपमानम् । जीवास्पया तत्त्वमपीह नास्ति कुतस्तनी तत्परलोकवार्ता ॥६३]] न जन्मनःप्राङ्न च पञ्चतायाः परो विभिन्नेऽवयवे न चान्तः । विशन्न निर्यन च दृश्यतेऽस्माझिनो न देहादिह कश्चिदात्मा ॥६४॥ किं त्वत्र भूवह्निजलानिलानो संयोगतः कश्चन यन्त्र वाहः । गुहान्नपिष्टोदकधातकोनामुन्मादिनी शक्तिरिवाम्युवेति ॥६५॥ विहाय तदृष्टमदृष्टहेतोर्वृथा कृपाः पार्थिव मा प्रयत्नम् । को वा स्तनाग्राण्यवधूय घेनोर्दुग्ध विदग्पो ननु दोग्धि भूङ्गम् ॥६६॥ हे देव 1 आपके द्वारा प्रारम्भ किया हुआ यह कार्य आकाशपुष्प के आभूषणों के समाम निर्मल जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवनाम का कोई पदार्थ ही नहीं है तब उसके परलोक की वार्ता कहाँ हो सकती है ? इस शरीर के सिवाय कोई भी आत्मा न तो जन्म के पहले प्रवेश करता ही दिखाई देता है और न मरने के बाद मिलता ही ! इसी प्रकार किमी अवयव के सण्डित हो जाने पर न भीतर प्रवेश करता और न निकलता हआ दिखाई देता है। किन्तु जिस प्रकार गुड़, अन्नचूर्ण, पानी और आंवलों के संयोग से एक उन्माद पैदा करनेवाली शक्ति उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी, अग्नि, जल और वायु के संयोग से इस शरीररूपी यन्त्र का कोई संचालक उत्पन्न हो जाता है। इसलिए हे राजन् ! प्रत्यक्ष को छोड़कर परोक्ष के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न न कीजिए । मला ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो गाय के स्तन को छोड़ सींगों से दूध दुहेगा। ___तात्पर्य यह है कि चार्वाक दर्शन, जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व को ही स्वीकृत नहीं करता है। अब इसके समाधान रूप उत्तर पक्ष देखिए । राजा दशरथ ने कहा अये सुमन्त्र ! इस नि:सार अर्थ का प्रतिपादन करते हुए तुमने अपना नाम ही मानो निरर्थक कर दिया । हे मन्धिन् ! यह जीव अपने शरीर में सुखावि की तरह स्वसंवेवन से जाना जाता है, क्योंकि उसके स्वसंविदित होने में कोई भी बाधक कारण नहीं है और यतः बुद्धिपूर्वक व्यापार देखा जाता है अतः अपने शरीर के समान दुसरे के शरीर में भी वह अनुमान से जाना जाता है। तत्काल का उत्पन्न हुया बालक जो माता का स्तन पीता है उसे पूर्वभव का संस्कार छोड़कर अप कोई भी सिखानेवाला नहीं है इसलिए यह जीव नया ही उत्पन्न होता है-ऐसा आत्मज्ञ मनुष्य को नहीं कहना चाहिए । मतश्च यह आत्मा अमतिक है और एक ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है अतः इसे मूर्तिक दृष्टि नहीं जान पाती। अरे ! अन्य की बात जाने दो, बड़े-बड़े निपुण मनुष्यों के द्वारा भी चलायी हुई पनी तलवार क्या कभी आकाश का भेदन कर सकती है ? भूतचतुष्टय के संयोग से जीव उत्पन्न होला है-यह जो तुमने कहा है उसका वायु सिद्धान्त Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रज्वलित अग्नि के द्वारा सम्तापित जल से युक्त बटलोई में खरा व्यभिधार है क्योंकि भूतपतुष्टय के रहते हुए भी उसमें चेतन उत्पन्न नहीं होता और गुड़ आदि के सम्बन्ध से होनेवाली जिस अचेतन उन्मादिनी शक्ति का तुमने उदाहरण दिया है वह चेतन के विषय में उदाहरण कैसे हो सकती है ? इस प्रकार यह जीव अमूतिक, निर्वाष, कर्ता, भोक्ता, चेतन और कथंचित् एक है तथा विपरीत स्वरूपवाले शरीर से पृथक ही है। जिस प्रकार अग्नि की शिक्षाओं का समूह स्वभाव से ऊपर को जाता है परन्तु प्रचण्ड पवन उसे हठात् इथर-उघर ले जाता है उसी प्रकार यह जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगति है. ऊपर हो जाता ह-परसु पुरातन फर्म इस हात समयमा में अनेक गतियों में ले जाता है। इसलिए मैं आत्मा के इस कर्म-कलंक को तपश्चरन के द्वारा शीघ्र ही नष्ट करूँगा क्योंकि अमूल्य मणि पर कारणवश लगे हुए पंक को जल से कौन नहीं हो डालता ? ( श्लोक ६७-७५ ) ११८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम वर्णन धर्मशर्माभ्युदय का वेश और नगर-वर्णन देश, माम और नगर में फिसका वर्णन करना चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए 'अलंकार-चिन्तामणि' में श्री अजितसेन ने लिखा है देशे मणिनदीस्वर्णधाम्पाकरमहाभुवः । ग्रामदुर्गजनाधिक्यनदीमातृकतादयः ॥३६|| ग्रामे धान्यसरोवल्लीतरुगोपुष्टचेष्टितम् । ग्राम्यमोध्यघटीयन्त्र केदारपरिशोभनम् ।।३७।। पुरे प्राकारतच्छीर्षवप्राट्टालकखातिकाः । तोरणध्वजसौषाध्वयाप्यारामजिनालयाः ।।३८।। -प्रथम परिच्छेद देश में मणि, नदी, स्वर्ण, धान्य, खान, विस्तृत भूमि, ग्राम, दुर्ग, जनसंख्या की बहुलता और नदीमातृकता आदि का वर्णन करना चाहिए । ग्राम में घाभ्य, सरोवर, सता, वृक्ष, गायों की पुष्ट घेष्टाएं, ग्रामीणजनों का भोलापन, घटीयन्त्र और खेतों की शोभा वर्णनीय है, तथा नगर में कोट, गुम्बन, वन, अट्टालिकाएँ, परिखा, तोरण, ध्वजा, महल, मार्ग, वापिका, बाग-बगीचे और जिन-मन्दिरों का वर्णन होना चाहिए । महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय में आनेवाले देश, पाम तथा नगर के वर्णन में साहित्य की उपर्युक्त विधाओं पर पूर्ण दृष्टि रखी है । इस काव्य में देश और नगर के वर्णन का प्रसंग प्रथम और चतुर्थ सर्ग में आया है। प्रथम सर्ग में आर्यनयर के उत्तर कोशल देवा का वर्णन करते हुए लिखते है कि उस देश में स्वर्गप्रदेशों को जीतनेवाले ग्राम थे क्योंकि स्वर्गप्रदेश एफपद्माप्सरस्-एक पद्मा नाम की अप्सरा से युक्त थे और ग्राम अनेकपदमा सरस्-अनेक पद्मा नामक अप्सराओं से सहित थे - परिहार पक्ष में, अनेक कमलीपलक्षित जल के सरोवरों से सहित थे, स्वर्गप्रदेश एक हिरण्यगर्भ-एक ब्रह्मा से सहित थे और ग्राम असंख्यात हिरण्यगर्भ-असंख्य ब्रह्माओं से-पक्ष में, अपरिमित स्वर्ण से सहित थे, और स्वर्गप्रदेश एक पीताम्बर पामरम्य थे और ग्राम अनन्तपीताम्बर घामरम्य थे--अनेक गगनचुम्बी महलों से सुशोभित थे, पक्ष में अनन्तगगनचुम्बी भवनों से रमणीय थे । इलोक यह है-... वर्णन ११९ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकपद्माप्सरसः समन्ताधस्मिन्नसंख्यातहिरण्यगर्भाः । अनन्तपीताम्बरधामरम्या मामा जयन्ति त्रिविवप्रदेशान् ॥४४|| सर्ग १ यहाँ देश के सरोवर, अपरिमित स्वर्ण भाण्डार और गगनचुम्बी महलों का फिसना मनोरम वर्णन है। गन्ना पेरने के यन्त्रों तथा वायु के मन्द झोंके से हिलते हुए धान्य के खेतों से परिपूर्ण पृथिवी का वर्णन देखिए मन्त्रप्रणालीचषकैरजसमापीय पुण्ड्र सुरसासयोधम् ।। मन्दानिलान्दोलितशालिपूर्णा बिघूर्णते यत्र मदादिबोझे ॥४५॥ सर्ग १ वहाँ मन्द-मन्द वायु से हिलते हुए धान्य के पौधों से परिपूर्ण पृथिवी ऐसी जान पड़ती है मानो यन्त्रों की नालीरूप कटोरों के द्वारा गन्ना और ईख के रसरूपी मदिरा का पान कर उसके नशा में मानो झूमती रहती है। वहाँ की धान्म-सम्पदा का वर्णन देखिए कितना भावपूर्ण है जनैः प्रतिग्रामसमीपमुल्चःकृता वृषाढ्यैर्वरधान्यकूटाः । यत्रोदयास्ताचलमध्यगस्य विश्वामशला इव भाम्ति भानोः ॥४८॥ सर्ग १ जिस देश में प्रत्येक गाँव के समीप लगानी हुई वाध की ऊंची ऊँची राशियों ऐसी जान पड़ती है मानो उदयाचल और अस्ताचल के बीच चलनेवाले सूर्य के विधाम के लिए धर्मात्मा जनों के द्वारा बनवाये हुए विश्रामशेल-विथाम करने के लिए पर्वत ही हों। धान्य के खेतों को रखानेवाली लड़किर्या सुन्दर गीत गाती है और उन गीतों को सुनकर मृगों का समूह चित्रलिखित-सा स्थिर हो जाता है । सभीप' से निकलनेत्राले पथिक उन भूगों के समूह को चित्राभ-जैसा मानते हैं। यह कितना प्राकृतिक वर्णन है। पलोक देखिए सस्यस्थलीपालकवालिकानामुल्लोलगोलश्रुतिनिश्चलाङ्गम् । यौनयूषं पथि पान्यसार्थाः सल्लेण्य-लीलामयमामनन्ति ॥५०॥ सर्ग १ उत्तरकोसल देश की नदियों का वर्णन करते हुए कवि ने अपनी काव्य-प्रतिभा को कितना साकार किया है-यह देखिए यं तादृर्श देशमपास्म रम्यं यत्क्षारमब्धि सरितः समीयुः । बभूव तेनैव जडाशयानां तारा प्रसिद्ध किल निम्नगास्वम् ।।५।। सर्ग १ उस बसे सुपर देश को छोड़कर नदियों खारे समुद्र के पास गयी थीं इसीलिए क्या उन जलाशयों-- मूखों ( पक्ष में जलयुक्त ) का नाम लोक में निम्नगा प्रसिद्ध हुआ था। चतुर्थ सर्ग में वत्सदेश की फल-सम्पत्ति का वर्णन करते हुए कहते हैं -- फलावनम्राम्रविलम्बिजम्बूजम्बीरमारङ्गलवङ्गपूगम । सर्वत्र यत्र प्रतिपद्य पान्थाः पाथेयभारं पथि नोवहन्ति ।।९॥ सर्ग ४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन १२० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस देश में पथिकों को सर्वत्र फलों से मुके हए आम, जामुन, जम्बीर, सन्तरे, लोग और सुपारियों के वृक्ष मिलते है अतः वे व्यर्थ ही मार्ग में पाथेम का बोझ नहीं उठाते। प्रजा की सुख-सुविधा और स्वास्थ्य सम्पत्ति का वर्णन परिसंख्या अलंकार को आमा में देखिए काले प्रजानां जनयन्ति तापं करा रवेरेव न यत्र राजः । स्याद्भोगभङ्गोऽपि भुजङ्गमाना स्वस्थ्ये कटारिन्न एनर्नराणात ॥११|| गर्ग ४ जिस देश में सूर्य की किरणें ही समय पाकर प्रजा को सन्साप पहुँचाती थीं, राजा के कर—टेनस नहीं। इसी प्रकार भोगभङ्ग-फणा का नाश यदि होता था तो सों के ही होता था, वहाँ के मनुष्यों के स्वस्थ रहते हुए भौगभङ्ग-विषय का नाश नहीं होता था। प्रथम सर्ग में रत्नपुर नगर का वर्णन करते हुए वहाँ के महलों की ऊंचाई और उनपर फहाती हुई धवल पताकाधों का वर्णन देखिए कितना मनोरम हुआ है-- प्रासादशृङ्गेषु निजप्रियाया हेमाण्डकप्रान्तमुपेत्य रात्री । कुर्वन्ति' पत्रापरहेमकुम्भभ्रमं झुगङ्गाजलचक्रवाकाः ॥६॥ शुभ्रा यदलिमन्दिराणा लग्ना यजामेषु न ताः पताकाः । किंतु त्वचो घट्टनतः सितांशोनों चेत्किमन्तनणकालिकास्य ॥६१॥-सर्ग १. उस मगर में रात्रि के समय आकाशगजा के जल के समीप रहनेवाले चक्रवाक पक्षी, अपनी स्त्रियों के वियोग से दुखी होकर मकानों के शिखरों पर स्वर्णकलशों के समीप यह समझकर जा बैठते हैं कि यह चक्रवाकी है और इस तरह वे कलशों पर लगे हुए दूसरे स्वर्ण-कलशों का भ्रम उत्पन्न करने लगते हैं । उस नगर के गगनचुम्बी महलों के ऊपर बजाओं के अग्रभाग में जो सफेदसफ़ेद वस्त्र लगे हैं ये पताकाएँ नहीं है किन्तु संघर्षण से निकली हुई चन्द्रमा को स्वचाएँ है । यदि ऐसा न होता तो इस चन्द्रमा के बीच प्रण को कालिमा क्यों होती ? कोट की ऊंचाई का वर्णन करने के लिए कवि की उत्प्रेक्षा देखिएमद्वाजिनो नोयधुरा रथेन प्राकारमारोढुममुं क्षमन्ते । इतीव यल्लङ्घयितुं दिनेशः श्रयस्यवानीमधवाप्युदोषीम् ॥८१॥ सर्ग १ जिसकी चुरा बिलकुल ऊपर की ओर उठ रही है ऐसे रथ के द्वारा हमारे घोड़े इस प्राकार को लापने में समर्थ नहीं है। यह विचारकर ही मानो सूर्य उस रत्नपुर को लांघने के लिए कभी तो दक्षिण की ओर जाता है और कभी उत्तर की ओर । इसी सन्दर्भ में तद्गुणालंकार का वैभव देखिएरात्री तमःपीत-सितेतराइम-वेश्मानभाजामसितांशुकानाम् । स्त्रोणी मुखर्यत्र नवोदितेन्दुमाला कुलेव क्रियते नभःथीः ।।८०॥ सर्ग १ वर्णन १२१ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस नगर में रात्रि के समय अन्धकार से तिरोहित नोल मणियों के मकानों की छतों पर बैठी हुई नील वस्त्र पहननेवाली स्त्रियों के मुख से माफाश को शोभा ऐसी जान पड़ती है मानो नवीन उदित चन्द्रमाओं के समूह से ही व्याप्त हो रही हो। पतुर्थ सर्ग में मुसीमा नगर का वर्णन करते हुए वहाँ की हH-पक्ति का वर्णन करने के लिए कवि ने जिस श्लेषोपमा का आश्रय लिया है उसका एक नमूना पाखर व्यापार्य सज्जालकासंनिवेशे करानभिप्रेति यत्र राज्ञि। दवत्यनोचस्तनकूटरम्या काम्तेव चन्द्रोपलहर्म्यपङ्क्तिः ॥१९॥ सर्ग ४, जब राजा-प्राणवल्लम संभले हुए केशों के बीच धीरे-धीरे अपने हाथ चलाता है तब जिस प्रकार पीनस्तनों से सुशोभित स्त्री काम से द्रवीभत हो जाती है उसी प्रकार जब राजा-चन्द्रमा उस नगरी के सुन्दर भरोखों के बीच धीरे-धीरे अपनी किरणें चलाता है तब ऊंचे-ऊँचे शिखरों से सुशोभित उस नगरी को चन्द्रकान्तमणिनिर्मित महलों की पंक्ति भी द्रवीभूत हो जाती है उससे पानी झरने लगता है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि ने देश और नगर के वर्णन में विविध अलंकारों को जो छटा दिखलायी है वह अन्य काव्यों में दुर्लभ है । जोवपरचम्पू का नगरी-वर्णन देखिए, प्रथम लम्भ में हेमांगद देश की राजपुरी का वर्णन करते हुए कवि की काव्यप्रतिभा कितनी साकार हो उठी है। 'उस हेमांगद देश में राजपुरी नाम की जगप्रसिद्ध नगरी है । उस नगरी के कोट में लगे हुए नीलमणियों की किरणें सूर्य का मार्ग रोक लेती हैं जिससे सूर्य मह समझकर विवश हो जाता है कि मुझे राहु ने घेर लिया है और इस भ्रान्ति के कारण ही वह हजार चरणों ( पक्ष में किरणों) से सहित होने पर भी वहाँ के कोट को नहीं लाँच सकता है ॥१३॥ 'वह नगरी अपने मेघस्पी महलों को ध्दजाओं के वस्त्रों से सूर्य के घोड़ों की थकान दूर करती रहती है तथा बिजली के समान चमकीली शरीरलता की धारक स्त्रियों से सुशोभित रहती है। उसके मणिमय महलों को फैली हुई कान्ति की परम्परा से स्वर्गलोक में चंदोवा-सा तन जाता है और नील पत्थर के कोट से निकलती हुई कान्ति बहाँ हरे-भरे बन्दनमाल के समान आन पड़ती है ॥१४॥' ৫. যম+ লনী দল গৰিকা यासालनीलमणिदीधितिरुमार्गः। राहुभ्रमेण विवशस्तरणिः सहस्र: पादप्तोऽपि न हि लखपति स्म सालस ॥१३॥ २. अम्भोमुक्चुम्मिसीय ध्वजपटपमनोद्धृतसप्ताश्वरथ्य श्रान्तः सौदामिनीश्रीतुलिततनुलतामानिनीमानितायाः । अस्या माणिक्योहामृतचिमरीकसिंपतोहिताने नियंशीलाइमसालय तिरमर पुरे बदनसामसूब ६१४ा. --लम्भ १ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन १२२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उस नगरी के हरे-भरे मणियों से निर्मित मकानों को कान्ति से व्याप्त होकर पर मेघों के समूह हरे-मरे दिखने लगते हैं तब सूर्य के रक के घोड़े उन मेशों को पूर्वा और पानी समझफर उनकी ओर झपटते हैं और यतः सूर्य घोड़ों की इस प्रवृत्ति को सहने में असमर्थ है इसलिए ही उसने क्या उत्तरायण और दक्षिणायन के भेद से अपने दो मार्ग बना लिये हैं ॥१५॥ 'स नगरी की सुन्दरी स्त्रियों के मुख-सपी चन्द्रमा से पिघले हए, चनकान्तमणिनिर्मित महलों से जो पानी भरता है उसे पीने की इच्छा से चन्द्रमा का मग बड़े वेग से भाया परन्तु ज्या हो उसन महकों के शिखर पर धर सिंह देखे स्यों हो भयभीत हो बड़े बेग से बाहर निकल गया ॥१६॥' 'उस नगरी के अतिशय श्रेष्ठ राजमहलों की देहलियों में जो गरुड़ मणि लगे हुए हैं उनसे मृगों के समूह पहले कई बार छकाये जा चुके है इसलिए अब वे कोमल तृणों को देखकर छूते भी नहीं हैं किन्तु जब वे तृण स्त्रियों को मन्द मुसकान से सफेद हो जाते हैं, तब चर लेते हैं ॥१७॥ 'उस नगरी के ऊंचे-ऊंचे महलों की छतों पर बैठनेवाली स्त्रियों के नेत्ररूपी नील कमलों की काली कान्ति ऐसी जान पड़ती है मानो अपनी सखी गंगा नदी को देखने के लिए यमुना नदी ही बड़ी शीघ्रता से स्वर्ग की ओर बढ़ी जा रही हो ॥१८॥' ___'उस नगरी के मकानों की छतों पर देवांगनाओं के प्रतिविम्ब पड़ रहे थे और वहीं पर तरुणजनों को निज की स्त्रियां बैठी थीं । यद्यपि दोनों का रूप-रंग एक-सा था तथापि तरुणजन नेत्रों की टिमकार की कुशलता से उन शोनों को अलग-अलग जान लेते हैं। इसी प्रकार वहाँ के नीलमणि निर्मित महलों के अग्रभाग में स्थित किन्हीं सुन्दरियों के मुखचन्द्र को तथा पास ही में विचरनेवाले चन्द्रमा के विम्ब को देखकर १, यस्था हरिमणिमयाखयकातिजाले ___ यन्तेि बलाहककुलैऽपि सहसरश्मिः । दूर्वाम्नु बुदिपससारमरथाश्मरोध - ____ क्लेशासहः किमकरोगमनेऽस्यने ॥१५॥ २. मरमुन्दरोवदनवित्तीमचन्द्र कान्तारमसौधगलिर सलिलं पिपानुः । एणाङ्करहरतिवेगवशास्समेश्य • भौती रयन निरयार तसौधसिहास् ॥१६॥ +. पस्यामनर्यपमन्दिरदेहलीषु ___पाश्मतै मनगला मा बसिचताः प्राक् । राष्टवापि कोमलतृणानि न संस्पृशन्ति । स्त्रीमन्यहास धवलानि चरन्ति तानि १५ ४. उपमहापतिमाणिताना, सत्राङ्गनाना नयनोत्पलश्रीः । गर्दा सस्ती स्मामवलोकित द्राक् स्वर्गगता सूर्यमृतेव भाति ११८५ वर्णन Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राहु भाकाशांगण में संशय को प्राप्त हुआ था ॥१९॥' 'उस नगरी के बड़े-बड़े महलों को देखकर ही मानी देवेन्द्र शाह inE. काररहित हो गया है, कमलों से सुशोभित परिखा को देखकर ही मानो गंगा नदी विषाव-खेद ( पक्ष में शिव ) को प्राप्त हुई है, वहां के जिनमन्दिरों को देखता हुषा सुमेरु पर्वत अपने दयनीय शब्द कर रहा है ( पक्ष में-सुवर्णमय सुन्दर शरीर धारण करता है ) और देवों की नगरी अमरावती भी उस नगरी को देखकर तथा शोक से आकुल हो बल के साथ वेष रखनेवाले ( पक्ष में पल नामक दैत्य को नष्ट करनेवाले ) इन्द्र को स्वीकृत कर चुकी है ॥२०॥ धर्मशर्माभ्युदय का नारी-सौन्वय प्रथम लो प्रकृति ने ही पुरुष शरीर की अपेक्षा स्त्री के शरीर में सौन्दर्य का समावेश अधिक किया है फिर कवि ने अपनी कलम से, चित्रकार ने अपनी तूलिका से और कलाकार ने अपनी छेनी से उसके सौन्दर्य को उभारफर प्रस्तुत किया है। राजा महासेन की रानी सुव्रता के सौन्दर्य-वर्णन में कवि ने जो विभुता प्राप्त की है यह अन्य काव्यों में दुर्लभ है । कवि की अनुप्रासपूर्ण भाषा में उसकी युवावस्था का वर्णन देखिए सुधासुधारश्मिमृणालमालतीसरोज-सारैरिव बेघसा फुतम् । शनैः शनोग्ष्यमतीरय सा दवौ सुमध्यमा मध्यममध्यमं वयः ॥२-२६॥ सुन्दर कमरवाली उस सुव्रता ने धीरे-धीरे मौग्थ्य अवस्था को ब्यतील कर ब्रह्मा द्वारा अमृत, चन्द्रमा, मृणाल, मालती और कमल के स्वत्व से निर्मित की तरह सुफुमार तारुण्य अवस्था को धारण किया। रानी सुबवा के सौन्दर्य रस का एकत्र वर्णन देखिएस्मरेण तस्याः किल चारतारसं जनाः पिबन्तः शरजर्जरीकूताः । स पीतमात्रोऽपि कुतोऽन्यथागलप्सवङ्गतः स्वेदजलछलाद् बहिः ॥२-३७॥ जो भी मनुष्य उसके सौन्दर्यरस का पान करते थे, कामदेव उन सबको अपने बाणों द्वारा जर्जर कर देता था। पदि ऐसा न होता तो वह सौन्दर्यरस, पीते ही साथ स्वेद जल के बहाने उनके शरीर से बाहर क्यों निकलने लगता? १. यस्पासादपरम्पराप्रतिफल देवानास्वाना भेद ष्टिनिमेषकौशलव शाजावाति नौ सतिः । यद्वैयशिरोगृहस्थमुवतीवमत्रन्दुषिम्भ विधो ___ बिम्म चत्र समीक्ष्य संवायमगात स्वानुरभाजिरे ।शा-लम्भ । २. यस्तोधालवलोक्य निर्जरपति निर्निमैघोऽभव यस्या वीक्ष्य सरोजशोभिपरिख पा विधादं गता। यत्रत्यानि जिनालयानि कलयन्मेरु स्वकात स्वर स्वीच च मलविर्ष मुरपरीयां वीक्ष्य शोकाकुला ॥२०॥ १२५ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नखशिख वर्णन में कवि ने ३८ से ६० श्लोक तक बहुभाग घेरा है । प्रत्येक अंग के वर्णन में कवि ने उत्प्रेक्षा की जो लम्बी-लम्बी उड़ानें भरी है वे पाठक के चित्त को आश्चर्य में डाल देती है । रानी के कपोलों का वर्णन देहिए कपोलहेतोः खलु लोकचक्षुषो विधिय॑षात्पूर्णसुधाकरं द्विधा । विलोक्यतामस्य तथाहि लाञ्छमछलेन पश्चात्कृवसीवनवणम् ॥२-५०॥ ऐसा लगता है मा निशाना ने मम चपलोना के भागल पनाने के लिए पूर्णचन्द्र के दो टुकड़े कर दिये हों। देखो न, इसीलिए तो उस चन्द्रमा में कलंक के बहाने पीछे से की हुई सिलाई के चिल्ल विद्यमान है। ___ मस्तक पर सुशोभित घुघराले बालों का वर्णन देखिए, कितनी प्रवाहपूर्ण भाषा में दिया है ? अनिन्द्यदन्तद्युतिफेनिलाधरप्रवालशालिन्युक्लोपनोत्पले । तदास्यलावण्यसुघोदधौ बभुस्तरङ्गमङ्गा इव भङ्गुरालकाः ॥२-५९।। दांतों की उज्ज्वल कान्ति से फेनिल, अधरोष्ठरूपी मूंगा से सुशोभित और बड़ेबड़े नेत्ररूपी कमलों से युक्त उसके मुख के सौन्दर्य-सागर में घुघुराले बाल लहरों की तरह सुशोभित हो रहे थे। मुख को शोभा का वर्णन करने के लिए कवि ने चन्द्रमा को जो उपालम्भ दिया है वह क्या कहीं अन्यत्र प्राप्त है ? सदाननेन्योरपिरोहता तुलां मृगाङ्कचित्तेऽपि न लमितं त्वया । यतोऽसि कस्तत्र पयोधरोन्नती स मूढ यत्राधिकं व्यराजत ।।२-६०।। रे चन्द्र l उस सुग्रता के मुखचम्ट्र की तुलना को प्राप्त होते हुए सुझे चित्त में लज्जा भी न आयी ? जिन पयोषरों ( मेघों, स्तनों ) की उन्नति के समय उसका मुख अधिक शोभित होता है उन पयोघरों { मेवों ) के समय तेरा पता भी नहीं चलता। समन्न सौन्दर्य का वर्णन देखिएचकार यो नेत्रचकोरचम्बिकामिमामनिन्द्यां विधिरन्य एव सः । कुतोऽन्यथा वैद नयान्वितात्ततोऽप्यभूदमन्दति रूपमीदृशम् ।।२-६४।। -सुव्रता के पति राजा महासेन उसको सुन्दरता का स्वयं विचार करते हुए कहते हैं-जिस विधाता ने नेत्ररूपी चकोरों के लिए चांदनी तुल्य इस सुव्रता को बनाया है यह अन्य ही है अन्यथा वेदनयान्वित-वेवज्ञान से सहित ( पक्ष में वेदना से सहित ) प्रकृत ब्रह्मा से ऐसा अमन्द- कान्ति-सम्पन्न रूप कैसे बन सकता है ? यह तयोगेऽतयोगनामक अतिशयोक्ति अलंकार का सुन्दर उदाहरण है। १. अये मृगाङ्क ! ख मत्र पयोधरोन्नती विशुतो भवसि स सत्राधिक चकासामास अमस्तस्य तुलारोहणे सया तसिलस्जिसमिति भारः । २. वेदनया वार्धम्यवनिपीडया पले हानेर अन्विताव साहिताद मेदना ज्ञानपीक्ष्योः पशि विश्व लोचनः । वर्णन १२५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह श्लोक कालिदास के 'विक्रमोर्वशी' के निम्न श्लोक से प्रभावित जान पड़ता है बस्काः दिषी प्रभावका शृङ्गाररसः स्वयं नु मदनी मासो नु पुष्पाकरः । वेदाभ्यासजञ्चः कथं नृ विषयभ्यासकौतुहलो निर्मातुं प्रभवेरमनोहरमिदं रूपं पुराणो मुनिः ॥ और हस्तिमल्ल के 'विक्रान्त कौरव' का निम्न श्लोक इससे प्रभावित लगता है । इयं चेत् सृष्टा स्यादमृतनिधिनैवेन्दुवदना कथं क्लाम्यस्कान्तिः सृजतु स इमाम स्थिरकलः । अथैनां कामश्चेत् प्रकृतिललितः स्रष्टुमुचितः स्वसत्तायां कोऽन्यः प्रथममवलम्बोऽस्य भवतु ॥१-२३॥ राजा महासेन का दूसरा चिन्तन देखिएपुर्व योषविदेवाग्मिता - विलास- वंशव्रत-वैभवादिकम् । समस्तमप्यत्र चकास्ति वादृशं न यादृशं व्यस्तम पीक्ष्यते क्वचित् ॥ २-२६ ॥ शरीर, अवस्था, द्वेष, विवेक, वचन, विलास, वंश, व्रत और वैभव आदिक सभी इसमें जिस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं, उस प्रकार कहीं सम्यत्र पृथक्-पृथक् भी सुशोभित नहीं होते । १२६ न नाकनारी न च नागकन्यका न च प्रिया काचन चक्रवर्तिनः । अभूद् भविष्यत्ययचास्ति साध्विमां यदङ्गकान्त्मोपममोमहे वयम् ॥१२- ६७ ॥ न ऐसी कोई देवाङ्गना, न नागकन्या और न होगी अथवा है जिसके शरीर की कान्ति के साथ हम इस कर सकें । चक्रवर्ती की प्रिया ही हुई हैं, सुव्रता की अच्छी तरह तुलना सप्तवास में सुप्रभा को लक्ष्मी का वर्णन देखिए, कितना अद्भुत है ? मक्तुं जले वान्छति पद्ममिन्दुयमाणं सर्पति लङ्घनार्थम् । क्लिश्यन्ति लक्ष्म्याः सुवृक्षा हृषायाः प्रत्यागमार्थं कति न त्रिलोक्याम् ॥ १७-२०॥ कमल जल में डूबना चाहता है और चन्द्रमा उल्लंघन करने के लिए आकाश रूपी आँगन में गमन करता है सो ठीक ही है क्योंकि उस सुलोचना के द्वारा अपहृत लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने के लिए तीनों लोकों में कितने लोग कष्ट नहीं उठाते ? और भी Ad कुत: सुवृत्तं स्तनयुग्ममस्था नितम्बमारोऽपि गुरुः कथं बर । येन येनापि महोनतेन समाश्रितं मध्यमकारि धीनम् ॥१७- २१॥ इसका स्तनमुगल सुवृत्त - सदाचारी ( पक्ष में गोलाकार) और नितम्बभार गुरु — उपाध्याय ( पक्ष में स्थूल ) कैसे हो सकता था जिन दोनों ने स्वयं उन्नत होकर अपने आश्रित मध्यभाग को अत्यन्त दीन— कृश बना दिया था । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब स्तन-वर्णन में कवि की कला देखिए-- यद्वय॑ते निवृतिधाम पन्यधं बं तदस्याः स्तनयुग्ममेव । नो चेत्कुतस्त्यक्तकलापता युक्ता गुणैरत्र वसन्ति मुक्ताः ।।१७.२२।। घन्य पुरुषों के द्वारा जिस मुक्तिधाम का वर्णन किया जाता है निष्षय से बाह इसका स्तनयुगल ही है। यदि ऐसा न होता तो यहाँ कलंकरूपी पाप से रहित और सम्पग्दर्शनादि गुणों से (पक्ष में तन्तुओं से युक्त मुक्त-सिद्ध परमेष्टी (पक्ष में मुक्ताफल) क्यों निवास करते ? जोबम्परचम्पू में नारी-सौन्दर्य का वर्णन यह पहले कहा जा चुका है कि नारी, कवि की कलम, चित्रकार की तुलिका और शिल्पकार की छैनी का लक्ष्य युग-युग से होती आ रही है। महाकवि हरिचन्द्र ने जीवघरपम्पू में भी नारी को अपनी कलम का लक्ष्य कितने हो स्थलों पर बनाया है पर उसके सर्वाधिक सौन्दर्य का वर्णन उन्होंने तृतीय लम्भ में गन्धर्वदत्ता के सौन्दर्य अंकन में किया है । देखिए, पाणिग्रहण के अनन्तर गम्धर्ववत्ता का चित्रण कितना मनोहारी हुआ है अपने कान्तिपूर की तरंगों के मध्य में स्तनरूपी तुम्बीफल के सहारे सैरती हुई उस नवयुवती को देखकर जीवधरकुमार बहुत भारी आश्चर्य के साथ आनन्दित हुए ।।५।। ___ यतश्च कमल-युगल ने अनेक प्रकार से तप में स्थिर रहकर पुण्य-संचय किमा था इसलिए फलस्वरूप उसके दोनों चरण बन सके थे, यदि ऐसा न होता तो दोनों चरण हंसी ( पक्ष में तोडर) का आश्रय लेकर हृदयहारी-मनोहर शब्द कैसे करते ? ॥५१॥ पर की किरणों से जिनका अपमाग लाल हो रहा है ऐसे उसके नख इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे मानो माप स्त्रियों को मुख देखने के लिए विधाता के द्वारा बनाये हए अतिशय निर्मल मणिमय दर्पण ही हों ॥५२।। इसके कुछ-कुछ लाल नखों ने कुरषक पुष्प को कान्ति जीत ली यो और चरणकमल की कान्ति मे अशोक वृक्ष का पत्रुव जीत लिया था ॥५३॥ मैं गन्धर्वदत्ता के जंघायुगल को कामदेव के तरकस का युगल समझता हूँ अथवा कामदेव के बाणों को तीक्ष्ण करने के लिए वनिर्मित मसाण मानता हूँ ॥५४॥ तपाये हुए सुवर्ण के समान सुन्दर रूप को धारण करनेवाले उसके दोनों कर ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्वनरूपी गुम्बजों से सुशोभित उसके शरीररूपी १. पृ. ७०, श्लोक ५० से पृष्टभ, रलोक ह तक | २. सरोजयुग्म बहुधातस्थित बभूव तस्यापरणद्वये पम् । न चेस कथ' तत्र व साविमो समेस्स हा तनृता फलस्वनम् ॥ वर्णन १२७ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामायतन के दो खम्भे ही हों ॥५५॥ इसका नितम्बमण्डल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो दुकूलरूपी स्वच्छ जल से अलंकृत बालू का टीला ही था, अथवा कामरूपी सागर में डूबनेवाले तरुणजनों के तैरने के लिए यौवनरूपी अग्नि से तपाया हुआ सुवर्णकला का युगल ही था, अथवा वस्त्र से परिवृत कामदेव का एक चक्रवाला वाहन ही था, अथवा श्रृंगाररूपी राजा के क्रीडाशैल का भण्डल ही था। इसकी रोमराजि ऐसी जान पड़ती थी मानो चन्दन से लिस स्तमरूपी पर्वत पर चढ़नेवाले कामदेव के लिए मरकतमणियों की बनी सीढ़ियों की पंक्ति ही थी, अथवा सोन्दर्यरूपी नदी पर फैला हुआ पुल ही था, अथवा नाभिरूपी वापिका में ग्रोवा लगाने के लिए उद्यत कामदेवरूपी हाथी कास्पल से उसी हुई अगर जीशि ही थी, अथवा बहुत भारी स्तनों का बोझ धारण करने की चिन्ता से कृशता को प्राप्त हुए मध्य भाग के द्वारा सहारा के लिए ग्रहण की हुई लाठी ही थी, अथवा नाभिरूपी दामी के मुख से निकलती हुई काली नागिन दी थी। _इस मृगनयनी के स्तन ऐसे जान पड़ते थे मानो रोमराजिरूपी लता के दो गुच्छे ही हों और इसीलिए वे जीवन्धरकुमार के नेत्ररूपी भ्रमरों को अपनी ओर खींच रहे थे ॥५६॥ हाररूपी बिजली से सहित तमा नीलाम्बर-नील वस्त्र (पक्ष में नीले आकाश) के भीतर वृद्धि को प्राप्त उसके पयोधरों-स्तनों ( पक्ष में मेषों) की उन्नति कामरूपी ममूर को पुष्ट कर रही थी ।।५७॥ उसके दोनों स्तन क्या ये मानो चूचुकरूपी उत्तम लाख से मुद्रित कामदेव के रस से परिपूर्ण दो फलश ही थे और कभी गिर न जावें इस भय से विधाता ने उन्हें लोहे के कोलों से कोलित कर दिया था क्या ? ॥५८॥ उस सुलोचना की लम्बोलाची भुजाएँ बाकाशगंगा में सुशोभित सुवर्ण-कमलिनी के मृणाल के समान थीं और ऐसी जाम पड़ती थीं मानो कामीजनों को साधने के लिए विधाता के द्वारा बनाये हुए दो बड़े-बड़े पाशजाल ही हों ।।५९॥ गन्धर्षदत्ता स्वयं एक पतली लता के समान थी और कोमल तथा स्निग्ध शोभा से सम्पन्न उसकी दोनों भुजाएँ शाखाओं के समान सुशोभित हो रही थी। उसकी भुषारूम शाखाएं अपनी अंगुलियोस्पी पल्लवों से सहित थीं, नख ही उनके सुन्दर फूल थे और मनोहर शब्द करनेवाली मरकतमणि की चंचल चूड़ियां ही उन पर छाये हुए भ्रमर थे ॥६॥ उस खंजनलोचना के शंख तुल्य कण्ठ में वीर कामदेव ने यह सोचकर ही मानो तीन रेखाएं खींच दी थी कि इसने तीनों जगत् को जीत लिया है ।।६॥ उसके अधरोष्ठ को कितने ही लोग वो ऐसा कहते है कि यह मुखरूपी चन्द्रमा के समीप शोभा पानेवाला सन्ध्याकालीन राग ही है-सन्ध्या की लाली ही है, कोई १२८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि यह नवीन पल्लथ ही है, कोई कहते है कि यह मुख' को कान्तिरूपी समुह का मूंगा ही है पर हम कहते हैं कि यह दन्तपक्तिरूपी मणियों की रक्षा के लिए लाल से लगायो हुई मनोहर मुहर ही है ।।६२॥ बहुत भारी माधुर्यं से भरी हुई उसको बाणी कोयलों के कलरव की निम्था करने में निपुण थी। वह अमृत को लज्जा प्रदान करती थी, मुननका दास का तिरस्कार करती थी, पौंछे और ईख को रसीली पाक्कर को खण्डित करती थी और श्रेष्ठ मधु को भी नीचा दिखाती थी ॥६३॥ उसकी नाक ऐसी जान पड़ती थी मानो मुख रूपी चन्द्रबिम्ब से नूवन अमृत की एक मोटी धारा निकल कर जम गयो हो अथवा दन्त-पंक्ति रूपी मोतियों और मणियों को तौलनेवाली तराजू की दण्डी ही हो ॥६४॥ उस गन्धर्वदत्ता के मुखरूपी सदन में जगद्विजयी कामदेव रहता था इसलिए उसने उसको टेकी भौंह को धनुष और उसकी आँखों को बाण बना लिया था। यही कारण है कि उसकी कमलतुल्य आँखों के अग्रभाग में जो लालिमा यी वह तरुण मनुष्यों के मर्मस्थल छेदने से उत्पन्न धिर सम्बन्धी लालिमा ही थी ॥६५॥ उत्पल के बहाने मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियों को पकल कर रखनेवाले उसके दोनों कान ऐसे जान पड़ते थे मानो मनुष्यों के नेत्ररूपी पक्षियों को बांधने के लिए विधाता के द्वारा मासे या दो पा ही हो !!६! ऐसा जान पड़ता है कि चन्द्रमा रात्रि के समय उसके मुख को कान्तिरूपी धन को चुराकर आकाश मार्गरूपी धन में वेग से भागता है और दिन के समय कहीं जाकर छिप जाता है। यदि वह कान्तिरूपी धन को हरने वाला नहीं है तो फिर उसके बीच में यह कलंक क्यों है ? ॥६७ | उस कृशांगी के केश क्या ये ? मानो मुखचन्द्र को कान्ति रूपी समुद्र के फैले हुए शेयाल ही थे, अथवा मुखरूपी चन्द्रमा के इधर-उधर इकट्ठे हुए सघनमेघ ही थे, अथवा कामरूपी अग्नि से उठता हुआ घूम का समूह ही था, अथवा मुखकमल पर महराते हुए प्रमरों का समूह ही था ।।६८।। वह गन्धर्वदत्ता क्या किन्नरांगना थी, या असुर को स्ली थी, या कामदेव की स्त्री-रति थी, या सुवर्ण की लता थी, या बिजली थी, या तारिका थी अथवा क्या नेत्रों को भाग्य रेखा थी ? ॥६९|| गन्धर्वदता के समान अन्य स्त्रियों का भी सौन्दर्य यथास्थान गद्य-पद्य में अंकित किया गया है । सबके उद्धरण इस अल्पकाय लेख में देना सम्भव नहीं है। १. ललाटलेरणाशमलेन्दु-निर्गमासुधोरुघारेव घनस्वमागता | तदीगनासा विजरस्नहत्तेस्तुलेम कात्या जगदम्यतोलयह ॥५३॥ धर्मः सर्ग २ वर्णन १३९ १७ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवल्परचम्पू की नेपथ्य-रचना ዓ अपनी पुत्री गम्बदत्ता "तुतीय लम्भ के अन्त में विद्याधरों का राजा गरुडवेग, का जीवन्धर कुमार के साथ पाणिग्रण करने के लिए समुद्यत है। विवाह के प्रारम्भ में होनेवाली नेपथ्य रचना का प्रारम्भ गरुडवेग के द्वारा किये हुए मंगलस्नान से शुरू होता है । विद्याधरों के राजा गरुडवेंग ने आकर स्फटिक के पीठ पर स्थित देवदम्पतीतुल्य वधूवर का अपनी भुजारूपी सर्प के फणामणि के समान दिखनेवाले मणिमय कलशों से झरती हुई जलधाराओं के द्वारा अभिषेकमंगल --- मांगलिकस्नान पूर्ण किया । उस समय जलधारा की सफ़ेदी हाथ के नाखूनों की कान्ति से दूनी हो रही थी और भुजारूपी वंश से निकलनेवाले मोतियों के शरनों की सम्भावना बढ़ा रही थी क्षीरसमुद्र के फेन समूह के समान दिखनेवाले वस्त्रों को पहने हुए वे दोनों दम्पती अलंकारगृह के मध्य में हीरकजटित पीठ पर पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठाये गये । इन दोनों के शरीर स्वभाव से ही सुन्दर थे, यहाँ तक कि आभूषणों को भी सुशोभित करनेवाले थे, इसलिए उनमें आभूषण पहनाने का प्रयोजन केवल मंगलाचार ही था, शोभा बढ़ाना नहीं । अथवा भूषण - समूह की शोभा बढ़ानेवाले उनके शरीर में जो आभूषण पहनाये गये थे वे केवल दृष्टिदोष को नष्ट करने के लिए ही पहनाये गये थे । सर्वप्रथम उस खंजनलोकमा के शिर पर सखी ने वह सोमन्त-मांग निकाली थी जो कि मुख की कान्तिरूपी नदी के मार्ग के समान जान पड़ती थी और सदनन्तर उसपर उस नदी के फेनपुंज के समान दिखनेवाली फूलों की माला पहनायी गयी थी। इसके मुखपर नीलमणि की बहु वेदी पहनायी गयी थी जो मुखरूपी चन्द्रमा के कलंक - चिह्न के समान जान पड़ती थी और इसके पश्चात् आँखों में अंजन लगाया गया जो मुख पर आक्रमण करनेवाली आंखों की सीमान्त रेखा के समान जान पड़ता था । आभूषण पहनाने वाली सखी-जनों ने गन्धर्वदसा के कपोल पर जो मकरी का चिह्न बनाया था वह ऐसा सुशोभित होता था मानो 'यह कामदेव की पताका है ऐसा समझकर साक्षात् कामदेव के पताका की मकरी हो आ पहुँची हो अथवा उसके कपोलमण्डल के सौन्दर्य-सरोवर में जो युवकजनों के नेत्ररूपी पक्षी पड़ रहे थे उन्हें बाँधने के लिए विधाता ने एक जाल ही बना रखा हो । १. पृष्ठ ६७-६८ । मार्ग २. सीमन्तं परिक्षन् खलनशी मक्त्रप्रभा निम्नगाममालिकाच विदधे शुकेनपुत्र यिताम् । आस्थेनोलललाटिका सहचरीत्रेन्दुलक्ष्म्या मितामक्ष्णोरञ्जनमान नाक्रमकृतीः सीमन्त रेखामि ॥४६॥ १३० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मृगनयनी गन्धर्वदत्ता के कपोलों पर कस्तूरी द्वारा निर्मित पत्रकार रचना के बहाने फेशों का प्रतिबिम्बि पड़ रहा था और वाह बन्धकार के पन्नों के समान जान पड़ता था । साथ ही उसके कानों में जो वो कर्णफूल पहनाये गमे थे वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो अम्प्रकार के उन दो बच्चों को शीघ्रता से नष्ट करने के लिए वो सूर्य ही आ पहुँचे हों। फूलों से सुमित असा मेस माला 1 आग पसापा मानी जगत्त्रय की विजय के लिए प्रस्थान करनेवाले कामदेव का बाणों से भरा तरफस ही हो । सनी के द्वारा बनायी हुई उसकी सर्पतुल्य देणी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो शरीर रूप कामदेष के धनुष की होरी ही हो अथवा मुखकमल की सुगन्ध के लोभ से पायी हुई भ्रमरों की पंक्ति ही हो। नहलायी हुई राजपुत्री पद्मा को उसकी सखियों ने बड़े हर्ष से प्रसाधनगृह के आँगन में आभूषण पहनाना शुरू किया |४०॥ क्षीर-सानर के तटपर स्थित चंचल फेन के टुकड़ों के समान कोमल वस्त्र से वेष्टित राजपुत्री ऐसी जान पड़ती थी मानो शरदऋतु की निर्मल मेघमाला से सुशोभित चन्द्रमा की रेखा ही हो अथवा फूलों से आच्छादित कल्पलता ही हो ॥४१|| 'उसके चरण कमलों में जो हीरों के नूपुर चमक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो नखरूपी चन्द्रमा की सेवा के लिए ताराओं की पंक्ति ही उसके भरणों के समीप मायी हो । अथवा ऐसे जान पड़ते थे मानो यौवन रूपी लता के फूल ही झड़कर नीचे मा पड़े हों ।।४२।। उसके स्थूल नितम्बमण्डल पर सुशोभित कर-धनी ऐसी जान परती थी मानो कामदेव की राजधानी का सुवर्णमय कोट ही हो, अथवा काम के खजाने को घेरकर बैठी सर्पिणी ही हो अथवा कामदेव के उद्यान की बाजी रूप कल्पलता ही हो। क्या यह हार है अथवा सब मनुष्यों के नेत्रों का आहार ही है ? अथवा इस कमल-लोचना के स्तनरूपी पर्वत से पड़ता हुआ मरने का प्रचार है ? अथवा स्तनरूपी --.. - --. ..-- १. तस्याः कपोललचिती मृगनाभिकास ___पत्रस्यलेन कचकन्दसम:किशोरौ । ट्राम्बाधित रवियु किन कर्णशोभि तारयुग्ममधिक हरु मृगायाः ॥४॥ -लम्भ २. पादाम्बुजोतलसित-होरकनूपुरी राविर्षभुव नन्दिरसेवनाय । वारालिः पदसमौषमतेय तस्या तारुण्यवीरुध वापक्षिता समाति: ४२||-सम्भ । ३. हारः किं वा सकलनयनाहार एवाम्शुजाक्ष्या यहा मनोरुहागरिपतनिरसौष पूरः । फिमा तस्याः स्तनमुकुलयो: कोपलीमणालो भारि स्मैव विशयमशतः स्त्रीजने प्रेक्ष्यमाणः || वर्णन १३१ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकुलों का कोमलमृणाल हैं ? इस प्रकार संशय के वशीभूत हो स्त्रीजनों के द्वारा देखा गया उसका हार बहुत ही सुशोभित है "उसके नाक की मणि ऐसी जान पड़ती थी मानो मुखरूपी कमल के मध्य में सुशोभित पानी की बूंद ही हो अथवा नासारूपी वंश से गिरा हुआ श्रेष्ठ नूतन मोती ही हो ॥४४॥ * उसके स्तनों पर जो मकरी का चिह्न बना था वह निम्न प्रकार संशय उत्पन्न कर रहा था— क्या यह कामदेव सम्बन्धी मन्त्र के बीजाक्षरों को पंक्ति है ? क्या उसकी frieली है ? अथवा क्या स्तन रूपी कमलों पर मंठनेवाली भ्रमरों की पंक्ति ही है ॥ ४५ ॥ राजा अलंकार - चिन्तामणि के अनुसार नृप - राजा में निम्नांकित गुणों का वर्णन किया जाता है नृपे यशः प्रतापाज्ञेऽसत्सन्निग्रहपालने । सन्धिविग्रहयाना दिशस्त्राभ्यासनयक्षमाः ॥ २५ ॥ अरिषड्वर्गजेतृत्वं धर्मरागो दयालुता । प्रजागो जिगीषुत्वं धर्मी दार्य भी रताः ॥ २६ ॥ अविरुद्ध त्रिवर्गत्वं सामादिविनियोजनम् । त्यागसत्य सदाशीचशी यैश्वर्योद्यमादयः ॥ २७॥ - प्रथम परिच्छेद 1 राजा में, यश, प्रताप, आज्ञा, दुष्ट निग्रह, सदनुग्रह, सन्धि विग्रह, युद्ध के लिए प्रस्थान, शस्त्राभ्यास, भय, क्षमा, काम, क्रोध आदि छह अन्तरंग शत्रुओं को जीतना, धर्मराग, दयालुता, प्रजा के साथ स्नेह, बीत की इच्छा न होना, धीरता, उदारता, गम्भीरता, त्रिवर्गका निर्विरोध पालन करना, साम-दान, वण्ड आदि उपायोंका प्रयोग करना, त्याग, सत्य, सदा निर्लोभ रहना, शूरता, ऐश्वयं और उद्यम आदि गुणों का वर्णन होता है । धर्मशर्माभ्युदय में राजवर्णन का प्रसंग द्वितीय सर्ग ( १-३४ ) और चतुर्थ सर्ग ( २६-४० ) में आया है। दोनों ही स्थानों पर कविवर हरिचन्द्र ने अलंकारचिन्तामणि में प्रदर्शित गुणों का अच्छा समावेश किया है । उदाहरण के लिए राजा महासेन की शूरता का वर्णन देखिए । यहाँ शूरता के साथ सुरूपता का भी श्लेष द्वारा सुन्दर अंकन हुआ है- १. नासामणिर्वस्वपोजमध्यविभा १३२ में जलविन्दुरेव । होस्विदस्मानमौक्तिकं किं नासाख्यवंशाद गलित गरिष्ठम् ||४ २. कि कामम प्रीजालि किं वा तहविरुदावतिः । किंचिरकुचाजशास्तिर्मकरी संशयं धात् ॥४५॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतेऽपि दृग्गोचरमत्र शत्रवः स्त्रियोऽपि कंदर्पमपत्रपा' दधुः । किमद्भुतं तद्धृतपञ्चसायके यदद्वन्संगरसंगताः क्षणात् ।।२-२।। इस राजा के दिखते हो शत्रु अहंकार-रहित हो जाते थे और स्त्रियां काम से पीड़ित हो जाती पो । शत्रु सवारियां छोड़ देते थे और स्त्रियाँ लज्जा खो बैठती थीं । जब दिखने में ही यह बात थी तब पांच बाणों के धारण करने पर युद्ध में आये हुए शत्रु क्षणभर में भाग जाते थे इसमें क्या आश्चर्य था? इसी प्रकार जब यह राजा स्वयं पंचसायक-काम को धारण करता था तब स्त्रियो समागम के रस को प्राप्त होकर क्षणभर में द्रवीभूत हो जाती थी इसमें क्या आश्चर्य था ? दिग्विजय के लिए प्रयाण का वर्णन देखिए न केवलं दिग्विजये चलचमूभरभ्रमद्भूबलयेऽस्य' जङ्गमः। श्रिताहितत्राणकलङ्कशङ्कितरिव स्थिरैरप्युदकम्मि भूधरैः ॥२-३।। चलती हुई सेना के भार से जिसमें समस्त भूमण्डल कम्पित हो रहा है ऐसे महाराज महासेन के दिग्विजय के समय केवल जंगम भूधर-राजा ही कम्पित नहीं हुए थे किन्तु शरणागत शत्रुओं की रक्षारूप अपराध से शकित हुए स्थिरभूधर-पर्वत भी कम्पित हो उठे थे। तदा तुदुत्तुङ्गनुरङ्गमक्रमप्रहारमज्जन्मणिशङ्कुसंहिताम् । न भूरिवाषाविधुरोऽप्यपोहितुं प्रगल्भतेऽद्यापि महीमहीश्वरः ॥६।। -सर्ग २ उस समय राज्ञा प्रहासेन के ऊंचे-ऊँचे घोडों की टापों के प्रहार से घसती हुई मणिरूपी कील में पुषिवी मानो खचित हो गयी थी, यही कारण है कि शेषनाग भारी बाधा से दुखी होने पर भी उसे अब तक छोड़ने में असमर्थ बना है। ___उन दोनों इलोकों में भाषा का प्रवाह भी प्रष्टव्य है, आगे राजा महासेन के यश का वर्णन देखिए कितना मनोहारी है ? कुलेऽपि कि सात तबेदृशी स्थितियंदात्मजा श्रीन सभास्वपि त्यजेत् । ___ तदङ्कलीलामिति कीतिरीय॑या ययावुपालन्धुमिवास्य वारिधिम् ॥२-५।। हे तात ! क्या तुम्हारे भी कुल में ऐसी रीति है कि पुत्री-लक्ष्मी सभाओं में भी सनके गोद की क्रीड़ा को नहीं छोड़ सकती। ऐसा उलाहना देने के लिए हो मानो इस राजा की कीति समुद्र के पास गयी थी। इसी से प्रभावित अन्य कवि का भी सुयश-वर्णन देखिएलग्न रागावताङ्गमा सुदृढमिय यौवासियष्टयारिकण्ठे मातङ्गानामपोहोपरि परपुरुषर्या च दृष्टा पतन्ती । १, क पगिति थेवः, पक्षे कंध कामए । २. न विद्यते पत्र श्रेष्ठ-वाहन मेषा ते, पक्षे अपगता-नष्टा प्रपा-लज्जा यासा ताः । ३. धृताः पञ्च सायकाः पञ्चषका माणा मेन सः, पक्षे धूयः पञ्चसायक: कागो मेन सः । ४. संगरे युद्ध संगता मिलिताः, पक्षे सा रसः सरसः सम् गमाः प्रायाः । चर्पन १५३ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्सकोश्यं न किंचिद् गणपति विदितं तेऽस्तु तेनास्मि दत्ता मृत्येभ्यः श्रीनियोगाद् गदितुमिति गतेवाम्बुर्षि मस्य कीर्तिः ।। निम्नांकित श्लोक में राजा के सुयश के साथ शत्रु के अपयश का वर्णन भी देखिए कितना मनोहारी हुआ है जगत्त्रयोत्तसितभासि तद्यशः समग्रपीयूषमयूखमण्डले ।। विजम्भमाणं रिपुराजदुर्यशो बभार तुच्छेसरलाञ्छनच्छविम् ।।२२।।-सर्ग २ त्रिभुवन को असंकृत करनेवाले उस राजा के पशरूपी पूर्णचन्द्रमा के बीच शत्रुओं का बढ़ता हुआ अपयश विशाल कलंक की कास्ति को धारण कर रहा था। प्रताप का वर्णन देखिए वमन्नमन्दं रिपुवर्मयोगतः स्फुलिङ्गजालं तदसिस्तदा बभौ । वनिवासुग्जालसिक्तसंगरक्षितौ प्रतापद्रुमबीजसंततिम् ।।२-२३॥ शत्रुओं के कवचों का संसर्ग पाकर बहुत भारी चिनगारियों के समूह को उगलता हुआ उस राजा का कृपाण उस समय ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो खुनरूपी जल से सिंची ई युद्ध की भूमि में प्रतापरूपी वृक्ष के बीजों का समूह ही यो रहा हो। दूरात्समुत्तसितशासनोहसिन्दूरमुदारुणभालमूलाः । यस्य प्रतापन नपाः कवाग्रष्टा इवाजमापासनाथ ॥३९॥-सर्ग ४ जिनके ललाट का मूलभाग सिन्दूर की मुद्रा से लाल-लाल हो रहा है ऐसे राजा लोग आज्ञा शिरोधार्य कर दूर-दूर से इसकी उपासना के लिए इस प्रकार चले आते थे मानो इसका प्रताप उनके बाल पकड़ उन्हें खींच-खींचकर ही ले पा रहा हो। औदार्य गुण का वर्णन देखिए उदकवनो वनितास्वभावतो विभाज्य विधम्भमधारयनिव । ज्यशिश्रणद्वैरिकुलाबलाहतां स्वसंमतेम्यो बहिरेव स श्रियम् ॥२-२०।। यह लक्ष्मी स्त्री जैसा स्वभाव रखती है अतः फलकाल में कुटिल होगी-ऐसा विचारकर विश्वास न करता हुआ वह राजा शत्रुओं के कुल से हठपूर्वक लायी हुई लक्ष्मी को बाहर ही अपने मित्रों को दे देता था। प्रयच्छता तेन समीहितार्थानून निरस्तार्थिकुटुम्बकम्यः । व्यर्थीभवत्यागमनोरथस्य चिन्तामणेरेव बभूव चिन्ता ॥४-३८11 पतश्च यह राजा सबके लिए इच्छानुसार पदार्थ देता था अतः याचकों के समूह से खदेड़ी हई चिन्ता केवल उस चिन्तामणि के पास पहुंची थी जिसके दान के मनोरथ याचक न मिलने से व्यर्थ हो रहे थे। राजा की श्रुतपारदर्शिता का वर्णन देखिएततः श्रुताम्भोनिधिपार दृश्वनो विशङ्कमानेव पराभयं तदा। विशेषपाठाय विधृत्य पुस्तकं करात मुन्नत्यधुनापि भारती ॥२-१६॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक अमुशीलन १४ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय शास्त्ररूपी समुद्र के पारदर्शी राजा महासेन से करती हुई सरस्वती ने विशेष पाठ के लिए ही मानो पुस्तक अपने उसे अब भी नहीं छोड़ती । पराभव की आशंका हाथ में ली थी पर श्रुत, शील, बल और मौदार्य का एकत्र समावेश देखिए - श्रुतं च शीलं च बलं च तत् त्रयं स सर्वदौदार्यगुणेन संवधत् । चतुष्कमापूरयति स्म दिग्जयप्रवृत्तकीर्तेः प्रथमं सुमङ्गलम् ॥२- १८ || वह राजा श्रुत, शील और बल इन तीनों को सदा उदारतारूपी गुण से युक्त रखता था मानो दिग्विजय हुई कोशि के लिए मंच ही पूरा कर था। ऐश्वर्य का वर्णन देखिए अन्ये मियोपासपयोभिगोत्राः क्षोणीभुजो जग्मुरगम्यभावम् । लक्ष्मीस्ततो वारिधिराजकन्या तमेकमेवात्मपति चकार ॥४-२८॥ जब अन्य राजा भय से भागकर समुद्र और पर्वतों में जा छिपे ( पक्ष में समुद्र का गोत्र स्वीकृत कर चुके ) अतः अगम्य भाव को प्राप्त हो गये ( कहीं भाई के साथ भी विवाह होता है ? ) तब समुद्रराज की पुत्री लक्ष्मी ने उसी एक दशरथ राजा को अपना पति बनाया था। तात्पर्य यह है कि वह लक्ष्मी का अद्वितीय पति होने से अत्यधिक ऐश्वर्यवान् था 1 देवसेना धर्मजिनेन्द्र का जन्माभिषेक करने के लिए सुमेरु पर्वत पर जानेवाली विक्रियानिर्मित देवसेना में कविवर हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय के सप्तम सर्ग में गजों और अश्वों का जो स्वभावोवित रूप वर्णन किया है यह शिशुपालवध के गजादव वर्णन से कहीं अधिक आकर्षक बन पड़ा है । पाण्डुक वन में स्थित ऐरावत हाथी का वर्णन देखिएहरेद्विपो हारिहिरण्यकक्षः क्षरन्मदक्षालितलम्भृङ्गः । भी डिविहारसारः शरत्तडित्वानिव तत्र वर्षन् ||३१|| जिसके गले में सुवर्ण की सुन्दर मालाएं पड़ी हैं और जिसके भरते हुए मद से सुमेरु पर्वत का शिखर धुल रहा है ऐसा ऐरावत हाथी उस पर्वत पर इस प्रकार सुशोभित हो रहा था मानो बिजली के संचार से श्रेष्ठ बरसता हुआ शरद् ऋतु का बादल हो हो । हाथियों के मदजल का वर्णन देखिए हिरण्यभूभृद्विर देस्तवानीं मदाम्बुधारास्तपितोत्तमाङ्गः । स दृष्टपूर्वोऽपि सुरासुराणामजीजनत्कज्जल-लशङ्काम् ॥४३॥ हाथियों ने अपने मदजल की धारा से जिसका शिखर तर कर दिया था ऐसा वह सुवर्णगिरि - सुमेरु यद्यपि पहले का देखा हुआ था तथापि उस समय सुर और असुरों को कज्जल गिरि की शंका उत्पन्न कर रहा था । वर्णन १३५ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाथियों को मदवर्षा ओर घोड़ों की टापों के उत्पतन-पतन का सम्मिलित वर्णन देखिए मदाञ्जनेनालिखितां गजेन्द्रः सहेषमुत्क्षिप्तखुरामटकाः। ह्याः किलोच्चार्यशिलासु जनीमिहोत्किरन्ति स्म यशःप्रशस्तिम् ॥४४॥ पर्वत की शिलाओं पर हाथियों का मद फैला था और घोड़े हिनहिनाकर उनपर अपनी टापें पटक रहे थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो हाथियों के द्वारा मदरूपी अंजन से लिखी हुई जिनेन्द्रदेव की कीलिंगाया को घोड़े ऊपर उठायी हुई टाप-रूपी दौकियों के द्वारा जोर-शोर से सच्चारण कर संकीर हो रहे है। घोड़ों को टापों के पड़ने से उछलते हुए तिलगों का वर्णन देखिए कितनी विचित्र कल्पना से ओत-प्रोत है दृढस्तुरङ्गानखुरप्रहारैरिहोच्छलन्तो ज्वलनस्फुलिङ्गाः । बभुर्विभिद्येव महों विभिन्नफणीन्द्रमौलेरिव रस्नसाः ॥४७॥ घोड़ों के अगले खुरों के कठोर प्रहार से जो अग्नि के तिलगे उछट रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो खुरों के आघात ने पृथिवी का भेदन कर शेषनाग का मस्तक ही विदीर्ण कर दिया हो और उससे रत्नों के समूह ही बाहर निकल रहे हों। हाथी की जलावगाहम-लीला देखिएविलासवत्याः सरितः प्रसङ्गमवाप्य विस्फारिपयोधरायाः । गजो ममज्जाव कुतोऽथवा स्यान्महोदयः स्त्रीव्यसनालसानाम् ॥५८11 बिलास-पक्षियों के संचार से युक्त ( पक्ष में हावभाव से युक्त तथा विस्फारिपयोधर-विशाल जल को धारण करनेवाली (पक्ष में स्थूल स्तनों को धारण करनेवाली) मदी का ( पक्ष में स्त्री का ) समागम पाकर हाथी डूब गया सो ठीक हो है क्योंकि स्त्रीलम्पट पुरुष का महान् उदय कैसे हो सकता है ? बोड़ों का भूमि पर लोटना तपा नदी से उनका बाहर निकलना कितना कौतुकोत्पादक है इतस्ततो लोलनमाजि वाजिन्यभिच्युताः फेनलवा विरेजुः । तदङ्गसङ्गत्रुटितोरुहारप्रकीर्णमुक्ताप्रकरा इबोाः ॥६३॥ जब घोड़ा इधर-उधर लोट रहा था तब उसके मुख से कुछ फेन के टुकड़े निकलकर पथिवी पर गिर गमे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो उसके शरीर के संसर्ग से पृथिवी-रूपी स्त्री के हार के मोती हो टूट-टूटकर विखर गये हों। नदामिलच्छवलजालनीला निरीयुराक्रम्य पयस्तुरङ्गाः। दिनोदये व्योम समुत्पतन्तः पयोधिमध्यादिव हारिदश्वाः ॥६४॥ जिस प्रकार प्रभात समय माकापा की ओर जानेवाले सूर्य के हरे-हरे घोड़े समुद्र के मध्य से निकलते हैं उसी प्रकार शरीर पर लगे हुए शेषाल-दल से हरे-हरे दिखनेवाले घोड़े पानी चीरकर नवी के बाहर निकले। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी' प्रसंग में रयों और बैलों की सेना का भी संक्षिप्त वर्णन हुआ है। रयों का वर्णन देखिए समन्ततः काञ्चनभूमिभागास्तथा रथश्चुक्षुदिरे सुराणाम् । यथा विवस्वथनेमिधारा पथेऽरुणस्यापि मतिभ्रमोऽभूत् ॥४८॥ देवों के रथों ने सुवर्ण-भूमि-प्रदेशों को चारों ओर से इस प्रकार चूर्ण कर दिया था कि जिससे सूर्यरथ के मार्ग में अरुण को भी भ्रम होने लगा था। बैल के वर्णन में स्वभावोक्ति देखिएनितम्बमाघ्राय मदादुदञ्चमिछर समाफुश्चित-फुल्लघोणम् । अनुवजन्तं चमरी महोक्षमिहारुणस्कष्टमहो मद्देशः ।।४९॥ भाव स्पष्ट है। सुमेरु जैन-मान्यता के अनुसार अन्य के लाद को है.--:. भरत, ६. हभपत, ५. हरि, ४. विदेह, ५. रम्पक, ६. हैरण्यवत और ७. ऐरावत । वर्तमान में उपलब्ध भूभाग भरतक्षेत्र का ही एक भाग है। उपर्युक्त सात क्षेत्रों का विभाग करनेवाले हिमवान्, महामिवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह कुलाचल है। ये छहों कुलाबल पूर्व से पश्चिम तक लम्बे माने गये हैं तथा इनके दोनों छोर जम्बूद्वीप को घेरकर स्थित लवण समुद्र में घुसे हुए हैं । विदेह क्षेत्र के बीच में सुमेरु पर्वत है । मेरु, सुमेरु, हेमाद्रि, रत्नसानु, सुरालय आदि उसके नाम संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध है। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि ज्योतिविमान उसी मेरु की प्रदक्षिणा देते हुए आकाश में घूमते है । निषध कुलाचल का रंग लाल है । इसी निषध कुलाचल को भारतीय साहित्य में पूर्वाचल या उदयाचल कहा जाता है। सूर्योदय और सूर्यास्त इसी पर्वत के पूर्व और पश्चिम भाग में होते हैं। प्रातःकाल और सायंकाल सूर्य की किरणें जब उस पर्वत पर पड़ती है तब आकाश में लाल प्रभा फैलती है। इसी निषधाचल के भागे विदेह क्षेत्र है। सुमेरुपर्वत एक लाख योजन ऊंचा बताया जाता है। उस पर समान घरातल से लेकर ऊपर की ओर क्रम से भद्रक्षालवन, नन्दनवन, सौमनसवन और पाण्डकवन ये चार बन है। सबसे ऊपर जो पाण्डुक बन है उसकी चारों विदिशाओं में चार पाण्डुक शिलाएँ हैं। खनमें ऐशान दिशा की पाष्टक शिला पर भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए तीथंकर का जन्माभिषेक सम्पन्न होता है। यह जन्माभिषेक देवों के द्वारा सम्पन्न होता है। उन देवों में सौधर्मेन्द्र प्रमुख रहता है। ___ यतश्च धर्मनाथ, पन्द्रहवें तीर्थकर थे अतः देव लोग अभिषेक के लिए उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले गये । इसी प्रसंग में धर्मशर्माभ्युदय के सप्तम सर्ग में सुमेरु पर्वत का वर्णन आया है। कबि हरिचन्द्र जी ने साहित्यिक विधामों की रक्षा करते हए सुमेरु पर्वत का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। उस सन्दर्भ के दो चार श्लोक देखिएवर्णन १३७ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधः कृतस्तावदनम्लोकः श्रिया किमुस्त्रिदशालयो मे । इत्यस्य रोपालाने भारमान २१॥ सुमेरु पर्वत गया था ? मैंने अनन्तलोक — पाताल लोक ( पक्ष में अनन्त जीवों का लोक ) को तो नीचे कर दिया फिर यह विदेशालय स्वर्ग ( पक्ष में, सीनगुणितदश-तीस जीवों का घर ) लक्ष्मी द्वारा मुझसे उच्च उत्कृष्ट ( पक्ष में, ऊपर) क्यों है ? इस प्रकार स्वर्ग को देखने के लिए पृथिवी के द्वारा उठाया हुआ मानो मस्तक ही था । उस सुमेरु पर्वत पर जो लाल-लाल कमल थे वे मानो क्रोध से लालिमा को धारण करने वाले नेत्र ही थे । परिस्फुरत्काञ्चनकायमाराविभावरीवासरयो भ्रमेण विडम्बयन्तं नवदम्पतीभ्यां परीयमाणानलपुञ्जलीलाम् ॥२२शां उस सुमेरु पर्वत का सुवर्णमय शरीर चारों ओर से चमचमा रहा था और दिन तथा रात्रि उसकी प्रदक्षिणा दे रहे थे इससे ऐसा जान पड़ता था मानो नवीन दम्पती के द्वारा परिक्रम्यमाण — प्रदक्षिणा दिये जाने वाले अग्निसमूह की शोभा का अनुकरण ही कर रहा हो । मरुदृध्वनद्वंशमनेकलाल रसालसंभावित सम्मर्थलम् । धृतस्मरात ङ्कमिवाश्रयन्तं वनं च गानं च सुराङ्गनानाम् ||३० ॥ वह पर्वत मानो काम का आतंक धारण कर रहा था अतः जिसमें वायु द्वारा वंश शब्द कर रहे है, जिसमें ताड़ के अनेक वृक्ष लग रहे हैं, और जिसमें आम्रवृक्षों के समीप मदन तथा इलायची के वृक्ष सुशोभित हैं ऐसे वन का, एवं जिसमें देव लोग घाँसुरी बजा रहे हैं, जो ताल से सहित है, रस से अलस है, और कामवर्धक गीतमन्यविशेष से युक्त है ऐसे देवांगनाओं के गान का आश्रय लिये हुए था । त्रिशालदन्तं घनवानवारि प्रसारिवोद्दाम कराग्रदण्डम् | उपेयुषी दिग्गजपुङ्गवस्य पुरो दधानं प्रतिमल्ललीलाम् ॥। ३२ ।। वह सुमेरु पर्वत, सम्मुख आने वाले ऐरावत हाथी के आगे उसके विपक्षी की शोभा धारण कर रहा था, क्योंकि जिस प्रकार ऐरावत हाथी विशालदन्त—बड़े-बड़े दांतों से युक्त था उसी प्रकार वह पर्वत भी विशालदन्त - बड़े-बड़े तट अथवा बड़े-बड़े चार जयन्त पर्वतों से युक्त था, जिस प्रकार हाथी घनदानवारि - अत्यधिक मदजल से सहित था उसी प्रकार वह पर्वत भी घनदानवारि- बहुत भारी देवों से युक्त था, और जिस प्रकार ऐरावत हाथी अपने उत्कट कराग्रदण्ड - शुण्डापदण्ड को फैलाये हुए था उसी प्रकार वह पर्वत भी अपने उत्कट करा - किरणाप्रदण्ड को फैलाये हुए था । - जिनागमे प्राज्यमणिप्रभाभिः प्रमिनरोमाञ्चमिव प्रमोदात् । समीरणान्दोलबालतालैर्भुजैरिवोल्कासित लास्यलीलम् ||३५|| वह पर्वत उत्तमोत्तम मणियों की किरणों से ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र भगवान् का आगमन होनेवाला है अतः हर्ष से रोमांचित ही हो रहा हो और वायु से १३८ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिलते हुए बड़े-बड़े ताई वृक्षों से ऐसा जान पड़ता था मानो मुजाएं उठाकर नृत्य को । लीला ही प्रकट कर रहा हो। धर्मशर्माभ्युदय में यह मुमेरुवर्णन सप्तम सर्ग के २० से लेकर ३७ श्लोक तक अभिव्याप्त है । इस वर्णन में कवि ने उपमा, रूपक, एमेष, समारोक्ति और उत्प्रेक्षा अलंकारों का अच्छा चमत्कार दिखलाया है। क्षीरसमुद्र जन्माभिषेक का जल लाने के लिए जब देवपंक्तियां क्षीरसमुद्र के तट पर पहुंची तब उसकी अवदात आभा और घेरकर खड़ी हुई हरी-भरी वृक्षावली को देख उनका मन प्रसन्न हो गया। सबकी दृष्टि समुद्र पर जा रुकी, उसी समय वचन-रचना में चतुर एक पालक नाम का हास्पप्रिय देव समुद्र की सुषमा का वर्णन करने लगा। पछ् वर्णन धर्मशर्माभ्युदय के अष्टम सर्गीय १२-२६ श्लोकों में पूर्ण हुआ है। मालिनी छन्द ने उसकी शोभा बढ़ायी है । उदाहरण के लिए कुछ पद्य देखिए अभिनवमणिमुक्ताशङ्खशुक्तिप्रवाल. प्रभृतिकमतिलोलदर्शयन्नूमिहस्तः । जडजठरतयक्षि व्याकुलो मुदतफच्छ: स्थविरणिगिवाने स्वगिभिः क्षौरसिन्धुः ।।१२।। देवों ने अपने आगे वह क्षीरसमुद्र देखा जो ठीक उस वृद्ध व्यापारी के समान जान पड़ता था जो कोपते हुए तरंग-रूप हाथों से नये-नये मणि, मोती, शंख, सीप तथा मूंगा आदि दिखला रहा था, स्थूल पेट होने से जो व्याकुल था ( पक्ष में जलयुक्त होने से पक्षियों द्वारा व्यास पा) और इसी कारण जिसकी कांच खुल गयी थी { पक्ष में, जिसका जल छलक-छलककर किनारे से बाहर जा रहा था अथवा किनारे पर जिसने कछुओं को छोड़ रखा था । उपचितमतिमात्र वाहिनीनां सहस्रः पृथुलहरिसमूहः कान्तदिक्वक्रवालम् । अकलुषतरवारिक्रोउमज्जन्महीनं नृपमिव विजिगोपुं मेनिरे ते पयोधिम् ॥१३॥ देवों ने उस समुद्र को विजयाभिलाषी राजा की तरह माना था। क्योंकि जिस प्रकार विजयाभिलाषी राजा हजारों बाहिनियों-सेनाओं से युक्त होता है उसी प्रकार यह समुद्र भी हजारों वाहिनियों-नदियों से युक्त था, जिस प्रकार विजयाभिलाषी राजा पृथुल-हरिसमूह-स्थूलकाय घोड़ों के द्वारा दिङ्मण्डल को व्याप्त करता है उसी प्रकार वह समुद्र भी पृथुलहरिसमूह-बड़ी-बड़ी लहरों के समूह से दिमण्डल को ज्यात कर रहा था और जिस प्रकार विजयाभिलाषी राजा अकलुषतरवारिकोडमजन्महीन-अपनी उज्वल तलवार के मध्य से अनेक राजाओं का खण्डन करनेवाला होता है उसी प्रकार वर्णन Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह समुद्र भी अकलुषतर-वारिकोडमज्जन्महीघ्र-अत्यात निर्मल जल के मध्य में अनेक पर्वतों को निमग्न करनेवाला था। क्षीरसमुद्र की लहरें ऊपर उठकर नीचे भावों, इस स्वाभाविक वर्णन में देखिए कवि को प्रतिभा कितनी साकार हुई है नियतमयमुदश्चद्वीचिमालाछलेनो च्छलति जलदमार्गे ज्ञातजैनाभिषेकः । तदनु जहतयोच्चाधिरोतुं समर्थः पतसि पुनरपस्तात्सागरः किं करोतु ॥१६|| निश्चित ही यह समुद्र जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक का समय जानकर उछलती हुई तरंगों के छल से आकाश में छलांग भरता है परन्तु स्यूलता के कारण ( पक्ष में, जलरूपता के कारण ) ऊपर चढ़ने में असमर्थ हो पुनः नीचे गिर पड़ता है। बेचारा क्या करें? क्षीरसमुद्र की सफ़ेदी का कारण क्या है ? इसमें कवि की कल्पना देखिए--- प्रशमयितुमिवाति दुर्वहामार्ववह्न ___यदपिरजनि चान्द्रीः शीलयामास भासः । वदयमिति मतिम क्षीरसिन्धुजनाना मजनि हृदयहारी हारनीहारगीरः ॥१७॥ मेरा तो ऐसा व्यान है कि यतः इस क्षीरसमुद्र ने बडवानल को तीव्र पीड़ा को शाम्त करने के लिए रात्रि के समय चन्द्रमा की किरणों का अत्यधिक पान किया था इसलिए ही मानो वह मनुष्यों के हृदय को हरनेवाला हार और बर्फ़ के समान सफ़ेद हो गया है। तरंगों का गर्जन क्यों हो रहा था इसमें कवि की युक्ति देखिएद्विरदवरुतुरङ्गनीसुधाकौस्तुभायाः कति कति न ममार्था हम्त धूर्तर्गृहीताः । इति मुहुरयमुर्वी ताइयन्नूमिहस्त प्रहिल इव विरावैः सागरो रोरवीति ।।१८।। ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, उच्चैःश्रवा घोड़ा, लक्ष्मी, अमृत तथा कौस्तुभमणि आदि मेरे कौन-कौन पदार्थ इन धूतों ने नहीं छीन लिये हैं ? इस प्रकार तरंगरूप हाथों के द्वारा पृथ्वी को पीटता हुआ यह समुद्र पागल की भांति पक्षियों के शब्द के बहाने मानो रोही रहा है। इसी प्रकार लहरों में उतराते हुए असंख्य शंख, जल लेने के लिए आकाश में स्थित श्यामल घन, धेरकर खड़े हुए हरे-भरे वृक्ष और आती हुई नदियों आदि के वर्णन में कवि ने जो विभुता प्राप्त की है वह आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है। क्षीरसमुद्र के ११० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कवित्वपूर्ण वर्णन के सामने रघुवंश के प्रयोदपा सर्ग में महाकवि कालिदास का समुद्र-वर्णन पौराणिक और वस्सुवर्णन जैसा प्रतीत होता है । विन्ध्यगिरि भारतीय पर्वतों में हिमालय के बाद दूसरा नम्बर विन्ध्यगिरि का है। यह भी भारत के मध्य में पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है। विदर्भ देश को जाते समय युवराज धर्मनाथ ने इस पर्वत पर सेना का पड़ाव किया था। हरी-भरी वृक्षादलो और कालीकाली चट्टानों से इस पर्वत की शोभा निराली थी। कवि की भाषा में यह पर्वत प्राणियों के लिए अगभ्यरूप था अर्थात् वे इसके वास्तविक रूप का दर्शन नहीं कर सकते थे। ____ महाकाव्य के लक्षणानुसार महाकाव्य में कोई एक सर्ग नानावृत्तमय होता है। अतः दशम सर्ग की रचना कवि ने उपजाति, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वसन्ततिलका, पृथ्वी, वंशस्थ, भुजंगप्रयास, द्रुतविलम्बित, दोधक, इन्द्र वंशा, प्रमितामरा, ललिता, विपरीताख्यातकी और शार्दूलविक्रीडित इन चौदह वृत्तों में की है। एक-एक वृत्त के अनेक श्लोक है। समूचे सा, 4 लोक है ! सामा, उता भान्तिमान, स्मासोक्ति, रूपक, विरोधाभास, अर्थापति आदि अनेक अर्थालंकारों तथा अनुप्रास और प्रमुखतया यमक इन दो शब्दालंकारों से समस्त सर्ग को अलंकृत किया गया है। ऐसा लगता है कि यह चिन्मयगिरि का वर्णन पद्यपि शिशुपाल वध के रेवतक गिरि से प्रभावित है तथापि इसकी कोमलकान्त-पदावली और मनोहारी अर्थविन्यास अपना पृथक् स्थान रखता है । भगवान् धर्मनाथ का प्रगाढ़ मित्र प्रभाकर इस पर्वत की सुषमा का वर्णन करता है और भगवान् सतृष्ण नेत्रों से उसे देख रहे हैं । प्रभाकर कह रहा है कि हे प्रभो। यह पृथ्वीधर-पर्वत, किसी राजा के समान जान पड़ता है। यथा अनेकसुरसुन्दरीनयनवल्लमोऽयं दधन् ___ मदान्धघन-सिन्धुरभ्रमरुचिः सहलाक्षताम् । महागहभक्तितो मुकुलिताग्रभास्वत्करः पुरस्तव पुरन्दरद्युतिमुपैति पृथ्वीधरः ॥१७॥ यह पृथ्वीछन्द है तथा पृथ्वी का नाम इसमें आया हुआ है । श्लोक का अर्थ इस प्रकार है यह पर्वत आपके आगे ठीक इन्द्र की शोभा धारण कर रहा है क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र स्वामी होने के कारण समस्त देवांगनाओं के नेत्रों को प्रिय है उसी प्रकार यह पर्वत भी सुरतयोग्य सुन्दर स्थानों से युक्त होने के कारण देवांगनाओं के नेत्रों को प्रिय है--आनन्द देनेवाला है 1 जिस प्रकार इन्द्र मदोन्मत्त मेघरूपी हाथी द्वारा भ्रमण करने की अभिलाषा रखता है उसी प्रकार यह पर्वत भी मदोन्मत्त अत्यधिक हाथियों के भ्रमण की अभिलाषा से युक्त है-इसपर मदोन्मत्त हाथी घूमने की इच्छा रखते हैं। वर्णन १४१ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • जिस प्रकार इन्द्र सहस्राक्षता-हजार नेत्रों के अस्तित्व को धारण करता है उसी प्रकार यह पर्वत भी सहस्राक्षता-हजारों बहेड़े के वृक्षों के अस्तित्व को धारण करता है और जिस प्रकार इन्द्र महागहन भक्ति से-तीव्र भक्ति की अधिकता से मुकुलिताग्रमास्वत्कर-अपने देदीप्यमान हाथों को कमल को बोड़ी के आकार करके स्थित रहता है उसी प्रकार यह पर्वत भी महागहन भक्तिसे-अत्यन्त वन की रचना से मुकुलितानभास्वस्कर-सूर्य को अनकिरणों को सोचत करनेवाला है। यहाँ श्लेषानुप्राणित उपमा का रूप कितना निखरा हुआ है, यह दर्शनीय है । समासोक्ति का चमत्कार देखिए प्रकटितोरुपयोघरबन्धुराः सरसचन्दनसौरभशालिनीः । मदनबाणगपाङ्कितविग्रही गिरिरयं भजते सुभगास्तटीः ॥२२॥ जिस प्रकार मदनबाणगण कामबाणों के समूह से चिह्नित शरीरवाला मनुष्य, उठे हुए स्थूल स्तनों से सुन्दर एवं सरस बन्दन को सुगन्धि से सुशोभित सौभाग्यशाली स्त्रियों का मालिंगन करता है उसी प्रकार यह पर्वत भी यत: मदनबाणों-कामबाणों के समूह से ( पक्ष में, मेनार और बाणवृक्षों के समूह से ) चिह्नित था अतः उठे हुए विशाल पयोषरों-स्तनों ( पक्ष में मेघों) से सुन्दर एवं सरस चन्दन की सुगन्धि से सुशोभित मनोहर तटियों का आलिंगन कर रहा है। ___ यहां विशेषणसाम्य के कारण पर्वत में नायक और तटियों में नायिका का व्यवहार आरोपित किया गया है। ___ ग्रह वर्णन शिशुपाल-वध के निम्नांकित श्लोक से सुन्दर बन पड़ा है क्योंकि इसमें रैवतक गिरि की कामुकता को सूचित करनेवाला कोई विशेषण नहीं है जबकि धर्मशर्माभ्युदयकार ने विम्यगिरि की कामुकता को प्रकट करनेवाला 'मदनबाणगणाङ्कितविग्रहः' विशेषण दिया है। अयमतिजरठाः प्रकामगुर्वीरलघुविलम्बिपयोधरोपरुताः । सततमसुमलामगम्यरूपाः परिणतदिक्करिकास्तटीविति ॥२९॥-शिशु., सर्ग ४ कुछ यमक की छटा देखिए न व नवप्रेमबसा भ्रमती स्मरन्ती स्मरं तौद्रमासाद्य मः । क्षणादीक्षणादीश बाष्पं वमन्त्री दशां का दशाकामिहान्वेति न स्त्री ॥२१॥ हे नाथ ! यहां नये प्रेम से बंधी, शिखर पर घूमती, काम की तीन वाधावश पति का स्मरण करती तया नेत्रों से क्षण एक में अश्रु बहाती हुई कौन-सी स्त्री दशमीमृत्युदशा को प्राप्त नहीं होती ? मन्दाक्षमन्दा क्षणमत्र तावन्नव्यापि न स्यापि मनोभवेन । रामा वरा मावनिरन्यपुष्टवध्वा नवध्वानवशा न यावत् ॥३६॥ शोभासम्पन्न, लजोली, नबीन उत्कृष्ट स्त्री इस पर्वत पर कामदेव से सभी तक ज्यान नहीं होती जबतक वह कोयल के नवीन शब्द के अधीन नहीं हो पाती-कोयल १४२ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की कूक सुनते ही अचछी-अच्छी सजावती स्त्रियां काम से पीड़ित हो जाती हैं। पर्वत के धार्मिक वातावरण का वर्णन करते हुए कवि ने कहा हैउद्भिद्म भीमभवसंसतितम्तुजालं मार्गेऽपवर्गनगरस्य नितान्तदुर्गे । लब्ध्वा भवन्तमभयं जिन सार्थवाह प्रस्थातुमुत्थितवतामयमयभूमिः ॥४०॥ हे जिनेन्द्र ! जन्म-मरणरूप भयंकर तन्तुओं के जाल को नष्ट कर आप-जैसे अभयदायी सार्थवाह को पा मोक्ष-मगर के अतिशय फठिन मार्ग में प्रस्थान करने के लिए उद्यत मनुष्यों की यह प्रथमभूमि है-प्राप्य स्थान है। __इसी वसन्ततिलका छन्द में माघ द्वारा वणित रैवतक गिरि का पार्मिक वातावरण देखिए मन्यादिचित्तपरिकर्मविदो विधाय क्लेशग्रहाणमिह लब्धसबीजयोगाः । ख्याति च सत्त्वपुरुषान्यतयाधिगम्य । बान्छन्ति ताममि समाप्रतो निशे ५ ।। __ --शिशुपाल., सर्ग ४ इस वर्णन में पर्वत का धार्मिक वातावरण कुछ अधिक स्पष्ट हुआ है। इसी सन्दर्भ में भारवि द्वारा वर्णित हिमालय का धार्मिक वातावरण भी देखिए चीतजन्मजरसं परं शुचि ब्रह्मणः पदमुपैतुमिच्छताम् । आगमादिव तमोपहादितः संभवन्ति मतयो भवच्छिदः ॥२२॥ -किरातार्जुनीय, सगं ५ धर्मशर्माभ्युदय में विन्ध्मगिरि का वर्णन करते हुए कवि ने भ्रान्तिमान् अलंकार का कितना मधुर उदाहरण प्रस्तुत किया है ? यह देखिए--- बिम्बं विलोक्य निजमुभवलरत्नभित्तो क्रोषात्पतिविप इतीह ददौ प्रहारम् । तद्भग्नदीर्घदशन: पुनरेव तोषाल्लीलारसं स्पृति पश्य गजः प्रियेति ।।१९।। प्रभाकर धर्मनाथ से कह रहा है-करा इधर देखिए, इस उज्ज्वल रस्नों की दीवाल में अपना प्रतिबिम्ब देख, यह हाथी क्रोधपूर्वक यह समझकर बड़े जोर से प्रहार कर रहा है कि यहाँ हमारा पात्र दूसरा हाथी है और इस प्रहार से जब इसके दांत टूट जाते हैं तब उसी प्रतिबिम्ब को अपनी प्रिया समझ बड़े सन्तोष से लोलापूर्वक उसका स्पर्श करने लगता है। पर्वत की बनस्थली का वर्णन करते हुए कवि ने जो श्लेषोपमा का वैभव विखाया है उससे उसकी काव्यप्रतिभा का चमत्कार स्पष्ट ही परिलक्षित होता है कुशोपरुद्धां द्रुतमालपल्लवां वराप्सरोभिर्महितामकल्मषाम् । नृपेषु रामस्त्वमिहोररीकुरु प्रसीद सीतामिव काननस्थलीम् ।।५६|| वर्णन Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे भगवन् ! यह वनस्थली ठीक सीता के समान है क्योंकि जिस प्रकार सीता कुशोपरुद्धा-कुश नामक पुत्र से उपरुख थी उसी प्रकार यह वनस्थली भी खुशोपरद्धाडाभों से भरी है, जिस प्रकार सीता सतमालपल्लवा-जल्दी-जल्दी बोलते हुए लव नामक पुत्र से सहित थी उसी प्रकार यह वनस्थली भी द्रुतमालपल्लवा-तमालवृक्ष के पत्तों से व्याप्त है, जिस प्रकार सीता वराप्सरोभिर्महिता-उत्तमोत्तम अप्सराओं से पूजित थी उसी प्रकार यह वनस्थली भी उत्तमोत्तम जल के सरोषरों से सुशोभित है और जिस प्रकार सीता स्वयं अकल्मषा-निर्दोष थी उसी प्रकार वह वनस्थली भी पंक मादि दोषों से रहित है । यतः आप राजाओं में राम-रामचन्द्र हैं ( पक्ष में रमणीय ) है अतः सीदा की समानता रखनेवाली इस वनस्थली को स्वीकृत कीजिए, प्रसन्न होइए। इस प्रकार धर्मशर्माभ्युदय का यह विन्ध्य-वर्णन भाषा, भाव और अलंकार की दृष्टि से निरुपम है। १४४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्म ३ : प्रकृति-निरूपण यद्यपि ऋतुचक्र अपने नियत क्रम के अनुसार परिवर्तित होता है तथापि दिव्य नायकों की प्रभुता प्रकट करने के लिए उसका एक साथ प्रकट होना भी स्वीकृत किया गया है। माघ ने श्रीकृष्ण की समारापना के लिए रैवतक गिरि पर समस्त ऋतुओं के अवतार का जैसा वर्णन किया है वैसा ही हरिचन्द्र ने बर्मनाथ तीर्थकर की आराधना के लिए बिन्ध्याचल पर एक साप समस्त ऋतुओं के अवतरण का वर्णन किया है। असन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ये छह ऋतुएँ है जो चैत्र से लेकर फाल्गुन तक वो-दो मासों में अवतीर्ण होती है। ऋतुएँ आती हैं और जाती है; उनमें कोई खास बात दृष्टिगोचर नहीं होती परन्तु जब कवि की कल्पना-रूप तूलिका उन ऋतुओं का चित्र खींचती है तब उनमें एक अद्भुत-सा आकर्षण हो जाता है । धर्मशर्माभ्युदय के दशम सर्ग में बिन्ध्याचल का वर्णन है । उसकी प्राकृतिक शोभा देखने के लिए जन्न भगवान् धर्मनाथ उस पर्वत पर विहार करते है तब उनके पुण्यप्रभाव से वहां छहों ऋतुएं प्रकट हो जाती है। द्रुतविलम्बित छन्द की मधुरध्वनि में कवि ने उन ऋतुओं का वर्णन किया है। श्लोक के चतुर्थ पाद में एक पद का यमक भी दिया है जिससे उसकी शोभा, नाक पर पहने हुए मोती से किसी शुभ्रवदना के मुखकमल की शोभा के समान निखर उठी है। समूचा ग्यारहया सर्ग ऋतुवर्णन से सम्बद्ध है। यह ७२ श्लोकों में पूर्ण होता है। प्रारम्भिक पीठिका के बाद इन वसन्त आदि ऋतुओं का ही विस्तृत वर्णन इन इलोकों में किया गया है। उदाहरण के लिए कुछ छन्द प्रस्तुत है वसन्त ऋतु में आम मौर गये, अशोक पर लाल-लाल फूल निकल आये तथा टेसू के वृक्षों ने अपनी लालिमा से वनवसुधा को रंगीन बना दिया। इन सबका वर्णन देखिए कितना मुन्दर है ? तदभिधानपदैरिव षट्पदैः शबलिताम्रतरोरिह मजरी। कनकल्लिरिव स्मरघन्विनो जनमदारमदारमबजसा ॥१२॥ नामाक्षरों की तरह दिखनेवाले भौरों से चित्रित आन-वृक्ष की मंजरी कामदेवरूप पानुष्क के सुवर्णमय भाले की तरह स्त्रीरहित मनुष्य को निश्चय ही विदीर्ण कर रही थी। प्रति-निरूपण Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समथिवा शिरः कुसुमच्छलादयमशोकतरोमदनानलः । पथि विषारिपेक्षत' सर्वतः समवधूतवधूतरसोऽध्वगान् ।।१३।। ऐसा जान पड़ता है कि लाल-लाल फूलों के बहाने कामाग्नि अशोक वृक्ष के ऊपर चढ़कर स्त्रियों के फोप का अनादर करनेवाले पथिकों को मार्ग में ही जला देने की इच्छा से मानो सब ओर देख रही थी। उचितमाप पलाश इति ध्वनि गुपिशाचपतिः कथमन्यथा। अजनि पुष्पपदाइलिताध्वगो नूगलजङ्गलजम्भरसोन्मुखः ॥१६॥ टेसू के वृक्ष ने 'पलाश' ( पक्ष में, मांस खानेवाला) यह उचित ही नाम प्रास किया है। यदि ऐसा न होता तो वह फूलों के बहाने पथिकों को नष्ट कर मनुष्यों के गले का मांस खाने में क्यों उत्सुकता से तत्पर होता ? ग्रीष्म ऋतु में छोटे तालाब सूख गये तथा उनकी मिट्टी फट गयो । क्यों फट गयी ? इसका कवि की भाषा में वर्णन देखिए इह तुषातुरमथिनमागतं विगलिताशमवेक्ष्य मुहुर्मुहुः । हृदयभूस्वपयेव भिदो गता गतरसा तरसा सरसी शुषौ ।।३।। ग्रीष्म ऋतु में निर्जल सरोवर की भूमि सुखकर फट गयी थी, जो ऐसी जान पड़ती थी मानी आगत तृषातुर मनुष्य को निराश देख लज्जा से उसका हृदय ही फट गया हो। वर्षा ऋतु में मंत्रों में विषम रही की, "हा र्णन देखिए जलधरेण पयः पिबताम्बुद्यधुंवमपीयत बाडपपावकः । कथमिहेतरथा तडिदास्यया रुचिररोधिररोचत बह्विजम् ॥३६॥ ऐसा जान पड़ता है कि समुद्र का बल पीते समय मेघ ने मानो घडवानल भी पी लिया था। यदि ऐसा न होता तो बिजली के नाम से अग्नि की सुन्दर ज्योति क्यों देदीप्यमान होती? इसी सन्दर्भ में हस्तिमल्स की उत्प्रेक्षा देखिए जो विक्रान्तकौरव के विद्याधरयुद्ध में साकार हुई है सौधामिन्य इमा विभान्ति शिखिनः पूर्व निगोशिशखा रोमन्यायितुमिच्छया मुहुरथोद्गीर्णा इवाम्भोधरैः । कि चान्तःकवलीकृतो जलधरैश्वानरो दुर्जरस्तत्क्रोडानि विपाट्य वाढमशनिश्छद्मा विनिर्गच्छति ।।७।। -विकान्तकौरव, चतुर्था ये बिजलियाँ ऐसी मान पड़ती है मानो मेघों के द्वारा पहले निगली हुई अग्नि की वे ज्वालाएँ हैं जिन्हें वे रोमन्थ की इच्छा से बार-बार बाहर निकालते हैं 1 अथवा मेघों ने पहले तो अग्नि को खा लिया परन्तु वह हजम नहीं हो सकी इसलिए बच के बहाने उन मेघों के मध्यभाग को फाड़कर अच्छी तरह बाहर निकल रही है । महाकधि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन ११६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरद् वर्णन के प्रसंग में इन्द्रधनुष से सुशोभित घवल मेष का वर्णन देखिए, कितना सरस है? किमपि पाण्डुपयोधरमण्डले प्रकटितामरचापमखक्षता । मपि मुनीन्ध्र जनाय ददौ शरत्कुसुमघापमचापलचेतसे ।।४७॥ जिसके सफ़ेद मेषमण्डल पर ( पक्ष में, गौरवर्ण स्तनमण्डल पर ) इन्द्रधनुषरूप नखक्षत का चिह्न प्रकट है ऐसी शरद् ऋतु ने ( स्त्रीलिंग को समानसा से किसी स्त्री ने ) गम्भीर चित्तवाले मुनियों को भी काम-बाषा उत्पन्न कर दी। नदियों के तट धीरे-धीरे जल से रहित हो रहे हैं इसके लिए कषि के द्वारा प्रदत्त उपमालंकार का चमत्कार देखिए-- विघटिताम्बुपटानि शनैः शनैरिह दधुः पुलिनानि महापगाः । नवसमागमजातहियो यथा स्वाधनानि धनानि फुलस्त्रियः ।।४८॥ जिस प्रकार नवीन समागम प उ लजीसी गुरांगाएँ। दोरे अपने प्यूर निलम्बमण्डल, वस्त्ररहित करती हैं उसी प्रकार उस शरद् ऋतु में बड़ी-बड़ी नदियो अपने विशाल तटों को जल-रूपी वस्त्र से रहित कर रही थीं। इसी उपमा का प्रयोग भारवि ने शरद्-वर्णन के प्रसंग में गायों के समूह से छोड़े जानेवाले नदी-तटों का वर्णन करने के लिए किया है विमुच्यमानरपि तस्य मन्धरं गयो हिमानी विशदैः कदम्बकः । शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं गलदुकूलर्जघनैरिवाद ॥१२॥ -किरातार्जुनीय, सर्ग ४ बर्फ़ के रामान सफेद गायों के समूह जिन्हें धीरे-धीरे छोड़ रहे थे ऐसे नदी-तटों ने उस अर्जुन के लिए घोरे-धीरे वस्त्ररहित होनेवाले नारी नितम्बों के समान कुतूहल उत्पन्न किया था। हेमन्त-वर्णन में काम, वियोगिनी स्त्री के हवय में क्यों जा छिपा, इसका हेतु देखिए मरुति वाति हिमोदयदुःसहे सहसि संततशीतभयादित्र । हृदि समिवियोगहुताशने वरतनोरवनोदसति स्मरः ।।५३।। मार्गशीर्ष में घर्फ से मिली दु:सह वायु चल रही थी अतः निरन्तर को शीत से डरकर कामदेव, जिसमें वियोगाग्नि जल रही थी ऐसे किसी सुन्दरांगी के हृदय में जा बसा था। शिशिर ऋतु में सूर्य की किरणे मन्द क्यों पड़ गयीं ? इसका फल्पनापूर्ण वर्णन देखिए स महिमोदयतः शिशिरो व्यपादपाहतप्रसरत्कमलाः प्रजाः । इति कृपालुरिवाश्रितदक्षिणो दिनकरी न करोपञ्चयं दधौ ॥५७॥ प्रकृति-निरूपण १४७ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेज कोई दुष्ट राजा अपनी महिमा के नृपय से प्रजा को कमला--लक्ष्मी को छीन उसे दरिद्र बना देता है तब जिस प्रकार दूसरा घमासु राजा पदासीन होने पर प्रजा से करोपचय-टैक्स का संग्रह नहीं करता उसी प्रकार जब शिशिर ने निरन्तर बर्फ की वर्षा से प्रजा के कमल छीम उसे फमलरहित कर दिया तब क्यालु एवं जवार ( पक्ष में, बक्षिणविशास्य ) सूर्य ने करोपचये-किरणों का संग्रह नहीं किया । इस प्रकार वसन्तादि ऋतुओं का पृथक-पृथक् वर्णन कर पमकालंकार की छटा दिखलाने के लिए वर्गान्त में एक-एक लोक द्वारा पुनः उन ऋतुओं का वर्णन किया है । जीवन्धरचम्पू के चतुर्थ लम्भ के प्रारम्भ में भी कवि ने वसन्त ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है। जीवन्धरचम्पू का तपोवन भारतीय संस्कृति के अनुसार 'योगेनाम्ते तनुत्यजाम्' जीवन के अन्त में समाधि धारण करना, जिन्होंने अपना लक्ष्य बना रखा है वे संसार के विषय एवं दूषित वातावरण से दूर रहकर आश्रम या तपोषों में प्रारमसाधना करते हैं। यही कारण है कि हम महाकाव्यों में इन तपोवनों का सुन्दर वर्णन देखते हैं। कालिदास ने 'रघुबंश के प्रथम सर्ग में वसिष्ठजी के तपोवन का जो संक्षिप्त वर्णन किया है उसका विशदविस्तृत रूप हम बाणभट्ट की कादम्बरी में जावालि ऋषि के आश्रम-वर्णन में प्राप्त करते हैं । तदनन्तर वादीभसिंह को गधचिन्तामणि के दण्डकारण्याश्रम सम्बन्धी वर्णन में उसकी कुछ झलक देखते हैं । जीवन्धरचम्पू में भी उसका संक्षिप्त किन्तु विशद वर्णन हुआ है । देखिए ___ तत्र तत्र तीर्थस्थानानि याबयाजं सत्वरं गत्वरः कुरुवीरः, क्वचन बासःसमासक्ततापसकुल-कुष्यमाणतरुत्वङ्ममरारायमुखरम्, क्वचित्पावण्डिकरमण्डितकमण्डलुमुखनैरजलपूरणजनित-कलकलशब्दशोभितम्, कुत्रचिद्वालकत्रुटितोसितमीञ्जीमेखलाविकीर्णम्, कुत्रचन कुमारिकापूर्वमाणबालवृक्षालवालम्, क्वचन काषायवसनसेपनलोहितायमानसरोजलम्, वचन संसिक्तवल्कलशिखानिर्गलत्पयोधारारेमाश्चितम्, वचन अमूरुधर्मनिर्मिहासनासीनजपपरजनसङ्कलम्, कुत्रचित्स्नानकालसंसक्तशैवालन्छटायमानजटापटलघारितया परितो देदीप्यमानपावकप्रसृतधूमरेखालिङ्गिरिवोर्ध्वप्रसारितभुजदण्ड: पञ्चाग्निमध्यतपःप्रचण्डस्वापसैमंण्डितम्, क्यचन तत्पत्नीजनक्रियमाणनीवारपाकम्, क्वचित्तत्पुत्रच्छिद्यमानाईसमित्समाकुलम्, तपोवनं ददर्श ।-पृ. १०८-१०९ भाव यह है १. रघुवंझा, प्रथम सर्ग, श्लोक ४-५३ । २, कादम्बरी, निर्णयसागर संस्करण, पृ. ८-१०। ३. मचिन्तामणि, भारतीम ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. ३०६-३२० । १४८ महाकवि इरिचय : एक अनुशासन Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I जहाँ-तहाँ तीर्थस्थानों की पूजा करते हुए जीवन्धरस्वामी बड़ी शीघ्रता से बागे लढ्ये लाते थे । सम्झतेऐपोवन रेखा जो कहीं तो वस्त्र की इच्छा रखनेवाले तपस्वियों के द्वारा खींची आनेवाली वृक्षों की छाल को मर्मर ध्वनि से saran था, कहीं साधुओं के हाथ में सुशोभित कमण्डलु के मुख में झरने का जल भरने से समुत्पन्न कलकल शब्द से सुशोभित था, कहीं बालकों के द्वारा तोड़कर फेंकी हुई मूंज की मेखलाओं से ब्यास था, कहीं कुमारियों के द्वारा भरी जानेवाली बालवृक्षों की क्यारियों से युक्त था, कहीं उसके सरोवर का जल गेरुआ वस्त्र हो रहा था, कहीं अच्छी तरह सींचे गये वल्कलों को शिखाओं से की रेखाओं से सुशोभित था, कहीं व्याघ्रचर्म से निर्मित आसनों पर बैठे हुए जप करने - वाले लोगों से व्यास था, कहीं उन तपस्वियों से सुशोभित था जो स्नान के समय लगे हुए शेवाल की छटा के समान दिखनेवाले जटासमूह के धारक होने से चारों ओर देदीप्यमान अग्नियों की फैली हुई धुएँ की रेखाओं से आलिंगित के समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपना मुजदण्ड ऊपर की ओर फैला रखा था और पंचाग्नि के मध्य तपस्या करने में अत्यन्त निपुण थे । कहीं उन तपस्वी लोगों की स्त्रियों के द्वारा वहाँ नीवार पकाया जाता था और कहीं उन्हीं के पुत्रों के द्वारा काटे जानेवाले गीले ईंधन से धोने से लाल-लाल निकलनेवाले जल व्याप्त था । 'साधुओं के मिथ्या तप को देखकर दयालु हृदय जीवम्बर ने उन्हें अहिंसा धर्म का उपदेश देते हुए कहा कि जिस प्रकार चावलों के बिना अग्नि, पानी आदि समस्त सामग्री इकट्ठी कर लेने पर भी भोजन बनाने का उपक्रम सफल नहीं होता उसी प्रकार तस्वज्ञान के बिना केवल शरीर को कष्ट पहुँचाने मात्र से तपस्या सफल नहीं होती है | आप लोग जटाजूट रखाकर, ललाट पर जो सूर्य का सन्ताप झेलते हैं वह सब व्यर्थ है । हे विद्वानो ! सदा निष्फल रहने से यह हिंसायुक्त तपश्चरण करना ठीक नहीं है । आप लोग जो बड़ी-बड़ी जटाएं रखे हुए हैं स्नान के समय बहुत से जन्तु उनमें लग जाते हैं पश्चात् वे ही जन्तु अग्नि में गिरकर क्षण-भर में नष्ट हो जाते हैं - यह आप लोग स्वयं देख लें । अतः आप लोग क्लेशकारी इस तप को छोड़कर अहिंसक तप धारण करो । जीवन्धर स्वामी के इस उपदेश से प्रभावित होकर उन साधुओं ने हिंसापूर्ण तप परित्याग कर अहिंसापूर्ण तप को स्वीकृत किया । इसी सन्दर्भ में भगत निम्न श्लोक -- आरामोऽयं वदति मधुरैः स्वागतं भुङ्गशब्दैः पुष्पात विटपिविटपेरानतिद्वाक् तनोति पाद्यार्थ्यादीन् दिशति भवलेस्तत्सरस्याः पयोभि रित्येवं श्रीकुरुकुलपतेरादधे भूरिशङ्काम् ॥२३॥ पृ. ११३ १. जोबन्धरम्पू, पृ. १०१, श्लोक १-११ । प्रकृति-निरूपण १७९ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति के उत्तररामचरित सम्बन्धी निम्नांकित श्लोक का स्मरण कराता है वनदेवता ( अयं विकीर्य ) यथेच्छाभोग्यं को वनमिषमयं मे सुदिवसः सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि हि पुण्येन भवति । तरुच्छाया तोयं यपि तपसा योग्यमशन फलं वा मूलं वा तदपि म पराधीनमिह वः ॥शा द्वितीय अंक जोवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन संस्कृत साहित्य में प्रकृति-वर्णन के लिए महाकवि भवभूति की प्रसिद्धि है, परन्तु जब हग जीवन्धरचम्पू का प्रकृति-वर्णन देखते हैं तब कहीं उससे भी अधिक आनन्द का अनुभव होता है । निर्मल नमस्तल में फैली हुई चांदनी, रात्रि का घनघोर अन्धकार, सूर्योदय, सूर्यास्त, लहराता हुआ सागर, प्रात:काल का मन्द-शीतल और सुगन्धित समीर, पक्षियों का फलरव, हरे-भरे कानन, आकाश में छायी हुई श्यामल घनघटा, यावानल और उसके बीच रुके हुए हाथियों के झुण्ड, जन-जम के मानस में आनन्द करनेवाला वसन्त, मेघ वृष्टि के बाद बहता हुआ पानी, ग्रीष्म के रूक्ष दिन मोर पावस के सरस दिन---इन राधका कवि ने जितना सरस वर्णन किया है उतना हम अन्यत्र कम पाते हैं। सबके उद्धरण देना सम्भव नहीं है, फिर भी कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सक रहा हूँ। देखिए अष्टम लम्भ में दण्डकारण्य का वर्णन-- तदन्वत्यद्भुतसंनिवेशं दण्डकारण्यप्रदेशमवलोकितुफामा वयम्, तत्र तत्र विद्वत्म, क्वचन विजम्भितकुम्भीमदकुम्मस्थलमुक्तमुक्ताकुलसिकतिलं वनविहरणश्रान्तनिमज्जपुलिन्दसुन्दरीवदनाम्भोजपरिष्कृतं गभीरमहाहवम्, कुत्रपिटलीमुखकरकम्पितमहीरुहशाखानिपतितपर्णी चसमाघातकुपितमुप्तसमुरियतशार्दूलवाव्यमानगवरजनसरमसारूढालिहानोकहचयम् , श्ववित्तरुमूलसुखसुसानि तमालस्तोमनिभानि भन्लूककुलानि, क्वचित्तपनकिरणसंतप्तवकों पद्माकरसमीपमानीय निजकरनिर्मूलितबालमृणालवलयं तदङ्ग निक्षिप्य पयोजरजःसुगन्धिशीतलजलशीकरनीकरांस्तन्मुखे संसिच्य शुण्डावण्डविघृतविशालपपत्रमालपत्रीकुर्वन्तं वशावरुलभम्, कुत्रचित्साघज्ञं लोचनयुगलं क्षणमुम्भील्य पुनः सुषुप्सु पञ्चवदनसञ्चयम्, सविस्मयमवलोकमानाः, क्वचन तापसजनसङ्कुलप्रदेश प्रविशमानाः, क्रमेण किञ्चित्तस्मूलमावसन्ती पुण्यमातरं पश्यामः स्म ।'-पृ. १४९-१५० । एकाफी वन में बिहार करते हुए जीवन्धर बनबसुन्धरा की शोभा का समवलोकन करते हैं । देखिए पंचम लम्भ का एफ सन्दर्भ तदनु कुरुवंशकेसरी केसरीव तत्र तत्र निर्भय एव विहरन्, क्वचिदतिविततानो कहकुलविलसितमसूर्यपश्यं तरक्षुमृगाधिष्ठानम्, स्वचन तरुषण्डे कादम्बिनीभ्रान्त्या दूरोनमितकेकागर्भकण्ठं प्रबलपुरोवातसंतादितशिखण्डं नीलकण्ठम्, कुचिन्महागुल्मान्तरकुटुम्बिशवरफदम्बकम्, फुत्र च नीपपादपस्कम्पनिषष्णशुण्डादाडं करिणीसहायं शुण्डाल महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुपीकम १५० Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डलम्, कुत्रचित्स्तनम्पयशिशुसंवा हरिणी भुम्नग्रीवमवलोकयन्तं घावमानहरिणम्, फूत्रचन वशनान्तरस्थिततृणकबलच्छेदशन्दं नियम्य न्याजिह्माङ्गः कुर: श्रूयमाणगानकलाप्रवीणं किरावस्त्रणम्, क्वचन गर्जनजितस्तम्बेरमनिचयं मृगेन्द्रवयम्, कुत्रचिद्भूधराकारमजगरनिकरं पश्यन, क्रमेणातिलचितविपिनपथः, क्वचिदरण्ये समुद्गतधूमपरीताभ्रषभूमिरहतया सजलजलधश्यामल तहानेका रमिक कुर्वन्तं प्लोषचटचटात्कारेणाट्टहासमिवातन्वानमतिधेगसमाक्रान्तकाननं दवदहनं ददर्श ।' -पृ. ९६-९७ आकाश में छायी हुई धनघटा की सुषमा देखिएतस्याकूतमवेत्य यक्षपतिना वेगेन सङ्कल्पिता जीमूता वियदङ्गणे परिणता धूमप्रकारा इव । उद्यद्गजितपाटिताखिलमहादिग्भिसयस्तत्क्षणं वर्ष हषितजीवका विदधिरे कल्पान्तमेघायिताः ॥२२|| -पृ. ९९ सूर्यास्तमन, तिमिरोद्गति, चन्द्रोषय, पानगोष्ठी आदि धर्मशर्माभ्युदय के चतुर्दा सर्ग में सूर्यास्तमान, प्रदोष सम्बन्धी तिमिरोद्गति तथा चन्द्रोदय' का वर्णन है और पंचवा सर्ग में पान-गोष्ठी और सुरत-प्रसंग का निरूपण है। कवि को कोमलकान्तपदावली और अर्थ की माधुरी ने प्रत्येक विषय को इतना सरस बनाया है कि सहृदय पाठक उस वर्णन को प्रारम्भ कर बीच में नहीं छोड़ना चाहता है। माघ ने भी शिशुपालवध के नवम और दशम सर्ग में यही विषय प्रस्तुत किये हैं। अस्ताचल पर आस्व अस्तोन्मुख सूर्य का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय में देखिए कितना सुन्दर बन पड़ा है अस्लाद्रिमारुह्य रविः पयोधी कैवर्तवक्षिप्तकराग्रजाल: । आकृष्य चिक्षेप नभस्तटेऽसौ फ्रमात्कुलीर मकरं च मीनम ॥८॥ सूर्य एक धोवर की तरह अस्ताचल पर आरूढ़ हो समुद्र में अपना किरणरूपी जाल डाले हुआ था, ज्यों ही कर्क केफड़ा, मकर और मीन ( पक्ष में राशियाँ) उसके जाल में फंसे त्यों ही उसने खींचकर उन्हें क्रम-क्रम से अाफाश में उछाल दिया । अस्तोन्मुख लाल सूर्य का वर्णन देखिएबिम्बेऽर्धमग्ने सवितुः पयोधी प्रोवृत्तपोतभ्रममादपाने । लोलांशुकाष्ठानविलम्बिताहः सांयात्रिकेणाम्बुनि मङ्गतुमीषे ॥१०॥ भूयो जगद्भूषणमेव कर्तुं तप्तं सुवर्णोज्ज्वलभानुगोलम् । कराग्रसंदंशधृतं पयोधेश्चिक्षेप नीरै विधिहेमकारः ॥११॥ समुद्र में आधा डूबा हुआ सूर्यबिम्ब पतनोन्मुख जहाज का भ्रम उत्पन्न कर रहा था अतः पंपकिरणरूप काष्ठ के अग्नभाग पर बैठा हुआ दिनरूपी जहाज का व्यापारी मानो पानी में डूबना चाहता था । प्रकृति-निरूपण Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस समय लाल-लाल सूर्य समुद्र के जल में विलीन होता हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो विषातारूपी स्वर्णकार ने फिर से संसार का भाभूषण बनाने के लिए उज्ज्वल सुवर्ण की तरह सूर्य का गोला तपाया हो और किरमान ( पक्ष में, हस्ताय ) रूप सँड़सी से पकड़कर उसे समुद्र के जल में डाल दिया हो । आकाश मे सूर्य को नीचे क्यों गिरा दिया ? इसका उत्तर कवि की वाणी में देखिए-- तां पूर्वगोत्रस्थितिमप्यपास्य यद्वारुणीं नोचरतः सिषेवे । स्वसंनिधानावपसार्यते स्म महोयसा सेन बिहायसाकः ॥४॥ यतः सूर्य, पूर्वगोत्र--उदयाचल की स्थिति को { पक्ष में, अपने वंशा की पूर्व परम्परा को ) छोड़ नीचे स्थानों में आसक्त हो ( पक्ष में, नीख मनुष्यों की संगति में पड़, वारुणी-पश्चिम दिशा ( पक्ष में, मदिरा ) का सेवन करने लगा था अतः महान् ( पक्ष में, उच्चकुलीन ) आकाश ने उसे अपने सम्पर्क से हटा दिया था । सूर्य लाल क्यों हो गया इसका हेतु अब महाकवि माघ को वाणी में भी देखिए नवकुङ्कभारुणपयोधरमा स्थकरावसक्तरुचिराबरया । अतिसक्तिमेश्य वरुणस्य दिशा भुशमन्वरमदसुपारकरः ॥७॥ --शिशुपालवध, समं । जिसके पयोधर--मेघ ( पक्ष में, स्तन ) नवीन केशर के लेप से लाल-लाल थे, __तथा जो अपने करों-किरणों से सुन्दर अम्बर--आकाश को धारण कर रही थी ( पक्ष में, अपने हाथ से वस्त्र को पकाहे हए थी) ऐसी वरूण की दिशा--पश्चिम दिशाभी स्त्री की अति निकटता को पाकर ही मानो सूर्य अत्यन्त अनुरक्त-राग से युक्त ( पक्ष में, लाल ) हो गया था। यहाँ पयोधर, कर और अम्बर के पलेष ने कवि की कल्पना को सजीव कर दिया है। सूर्यास्त हो गया, अन्धकार फैल गया और भाकाया में तारे चमकने लगे इस प्राकृतिक चित्र में कवि की सूलिका ने कैसा अद्भुत रंग भरा है ? यह देखिए अस्तं गते भास्वति जीवितेशे विकीर्णकशेव तमःसमूहैः ।। ताराश्रुविन्दुप्रकवियोगदुःखादिव छौ रुदती रराज ॥२४॥ -धर्मशर्मा,, सर्ग १४ उस समय ऐसा जान पड़ता पा कि आकाशरूपी स्त्री, सूर्यरूप पति के नष्ट हो जाने पर अन्धकार-समूह के बहाने केश विखेरकर तारारूप अश्रुबिन्दुओं के समूह से मानो रो हो रही हो। उदय के सम्मुख चन्द्रमा का वर्णन कितनी कवित्वपूर्ण भाषा में हुआ है ? यह देखिए महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वानिमित्यन्तरितोऽय रागात्स्वज्ञापनायोपपतिः किलेम्भुः । पुरम्दराशाभिमुखं कराप्रश्चिक्षेप ताम्बूलनिभा स्वकान्तिम् ।।३२।। - धनी , सर्ग १४ तवनम्तर पूर्वाचल की दीवाल से छिपे हुए चन्द्रमा-रूपी उपपति ने अपना परिचय देने के लिए पूर्व दिशा के सम्मुख किरणों के अग्न भाग से ( पक्ष में, हाथों के अग्रभाग से ) पान के समान अपनी लाल-लाल कान्ति फॅको । चन्द्रोदय होते ही रात्रि का अन्धकार नष्ट हो गया, इसका कल्पना-पूर्ण वर्णन कवि की काव्यमयी भाषा में देखिए मुखं निमीलनयनारविन्दं कलानिधी चुम्बति राज्ञि रागात् । गलत्तमोनीलदुकूलबम्धा श्यामाद्रवच्चन्द्रमणिच्चलेन ।।३९।। -धर्मशर्मा., सर्ग १४ ज्यों हो चन्द्रमारूपी असुर ( पक्ष में, कलाओं से युक्त ) पति ने, जिसमें नेत्ररूपी नीलकमल निमीलित है ऐसे रात्रिरूपी युबती के मुख का राग-पूर्वक घुम्बन किया त्यों ही उसकी अन्धकाररूपी नीली साड़ी को गोठ खुल गयी और वह स्वयं चन्द्रकान्त. मणि के छल से द्रवीभूत हो गयो । नील नभ के मध्य में चमकते हुए चन्द्रमा को लक्ष्मी का वर्णन देखिए कितना सुन्दर है तावत्सती स्त्री ध्रुवमन्यसो हस्ताग्रसंस्पर्शसहा न यावत् । स्पृष्टा करानः कमला तथाहि त्यकार विन्दाभिससार चन्द्रम् ।।५२।। -धर्मशर्मा., सर्ग १४ ऐसा जान पड़ता है कि स्त्री तभी तक सती रहती है जबतक कि यह अन्य पुरुष के हाथ का स्पर्श नहीं करती। देखो न, ज्यों ही चन्द्रमा ने अपने कराग्र--- किरणास से ( पक्ष में, हस्तास से) लक्ष्मी का स्पर्श किया त्यों ही वह कमल को छोड़ उसके पास जा पहुंची। चन्द्रमा की रूपहली चांदनी में स्त्रियों की वेषभूषा तथा पति-मिलन की समुस्कण्ठा का वर्णन कवि ने बहुत ही सरस भाषा में किया है। दोनों पक्ष की दूतियों ने प्रेमी और प्रेमिकाओं के पास जाकर उन्हें अनुकूल करने में अपनी अद्भुत कला दिखलायी है। ___ कोई दूती, नायक के सामने विरहिणी नायिका का चन्द्रमा के प्रति आक्रोश प्रकट करती हुई कहती है ___ आः संघरम्नम्भसि बारिशरायोः श्लिष्टः किमीग्निशिखाकलापः । स्विच्चण्डचण्डधुतिमण्डलामप्रवेशसंक्रान्तकठोरतापः ।।७४।। प्रकृति-निरूपण २० १५३ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथाङ्कदम्भेन सहोवरत्वात्सोरसाहमुत्सङ्गितकालमूटः। अङ्गानि यन्मुर्मुरवह्निपुञ्जभाजीव मे शीतकरः करोति ॥५५॥ अरे 1 क्या यह पन्द्रमा समुद्र के जल में बिहार करते समय वडवानल की ज्वालाओं के समूह से आलिंगित हो गया था, अथवा अत्यन्त उष्ण सूर्यमण्डल के अग्रभाग में प्रवेश करने से उसका कठोर सस्ताप इसमें आ मिला है ? अथवा कलंक के बहाने सहोदर होने के कारण बड़े उत्साह के साथ कालकुट को अपनी गोद में धारण कर. रहा है, जिससे कि मेरे अंगों को मुर्मूरानल के समूह से व्याप्त-सा बना रहा है। चन्द्रमा के सन्तापफ बनने में कवि ने जिन कारणों की कल्पना की है उनमें से दो कारणों की कल्पना दमयन्ती के विरह-वर्णन में श्रीहर्ष ने भी की है । यथा-- अयि विधं परिपृच्छ गुरोः कुतः स्फुटमशिक्ष्यत वाहवदान्यता । चलपितशम्भुगलाङ्गरलास्वया किमु वधौ जड वा वडवानलात् ॥४८॥ -नैषधीयचरित, सर्ग ४ हे गखि ! चन्द्रमा से पूछ तो सही कि तूने वाह प्रदान करने की यह उदारता किस गुरु से मीत्री है ? क्या शंकरजी के गले को ग्लापित करनेवाले कालकूट विष से या समुद्र में रहने वाले वडवानल से ? पन्द्रहवें सर्ग के प्रारम्भ में पानगोष्ठी का वर्णन कर उत्तरार्ध में सम्भोग श्रृंगार का वर्णन किया गया है जिसमें नायक-नायिकाओं के सात्त्विक और संचारी भावों का सुन्दर चित्रण हुआ है। प्रभात संस्कृत-साहित्य में शिशुपालवध का प्रभात-वर्णन प्रसिद्ध है पर जब हम धर्मशर्माभ्युदय के प्रभाव-वर्णन को देखते हैं तब एक विचित्र ही प्रकार के आनन्द की अद्भुति होती है। शिशुपालवध के प्रभात-वर्णन में हम जहाँ कहीं अश्लीलता का भी दर्शन करते हैं पर धर्मशर्माभ्युदय के प्रभात-वर्णन में प्रालीलता दृष्टिगोचर नहीं होती। धर्मशर्माभ्युदय यद्यपि शिशुपालवध से प्रभावित है तथापि उसको निरय-नूतन कल्पनाएँ सहृदय जनों के हृदय में एक विचित्र ही रसानुभूति कराती है। आकाशान्त में झुके हुए सालंक चन्द्र को छोड़कर रात्रि क्यों जा रही है ? इसमें कवि की कल्पना देखिए संभोग प्रबिंदघता कुमुदतीभिश्चन्द्रेण द्विगुणित आत्मनः कलङ्कः । तन्नूनं मतिपरमम्बरानालग्न यात्येनं समवगणय्य पामिनीयम् ॥३॥ --सर्ग १६ १. विपुलतनितम्बामोराद्धे रमण्याः शगिनुमनधिग सम्परजीविदेशोऽयकामाय । रतिपरिच पश्यन्नद्रान्द्रः कथति द पति शनोये शर्वरी करोतु ॥ १५४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलम Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतः कुमुविनियों के साथ सम्भोग करनेवाले चन्द्रमा ने अपने कलंक को दुगुना कर लिया है इसलिए मानो यह रात्रि नसि में तत्पर और बम्बरान्त--आकाशाम्त (पक्ष में, वस्त्रान्त ) में लग्न इस चन्द्रमा को अपमानित कर छोड़कर जा रही है। प्रातःकाल के समीर से हिलते हुए दीपकों का वर्णन देखिएते भावाः करणविवर्तनानि तानि प्रौतिः सा मणितेषु कामिनीनाम । एककं तदिव रतामृतं स्मरन्तो धुम्वन्ति श्वसनहताः शिरांसि दीपाः ॥६।। स्त्रियों के वे भाव, वे आसनों के परिवर्तन और रतिजनित कोमल शब्दों में यह अलौकिक चातुरी-इस प्रकार एक-एक आश्चर्यकारी रत का स्मरण करते हुए दीपक वायु से ताड़ित हो मानो सिर हो हिला रहे हैं। इसी से मिलता हुआ भाव माघ ने भी प्रकट किया है अनिमिषमविरामा रागिणी सर्वरावं , नवनिधुबनलीलाः कौतुफेनातिवीक्ष्य । इदमुदवसितानामस्फुटालोकसंपसय में : सनी पनि ६i शिशुपालवध, सर्ग १८ बजनेवाली भेरी के प्रणाद का वर्णन देखिए कितना कल्पनापूर्ण हैराजानं जगति निरस्य सूरसूतेनाकान्ते प्रसरति दुन्दुभैरिदानीम् । यामिन्याः प्रियतमविप्रयोगदुःखहत्सन्धेः स्फुटत इवोद्भटः प्रणादः ॥८।। जब राजा चन्द्रमा ( पक्ष में, नृपति ) को नष्ट कर अरुण ने सारे संसार पर आक्रमण कर लिया तब बजनेवाली दुन्दुभियों का शब्द एसा फैल रहा था मानो पतिविरह से फटते हुए रात्रि के हृदय का शब्द ही है । पअपराग को उलानेवाली प्रभात वायु का वर्णन देखिए संभोगश्रमसलिलरिवानानामनेषु प्रशममितं मनोभवाग्निम् । उन्मीलज्मलजरजःकणान्किरन्तः प्रत्यूषे पुनरनिलाः प्रदीपयन्ति ॥१२॥ सम्भोगजनित स्वेद जल से स्त्रियों के दारीर में जो कामाग्नि बुक्ष चुकी थी उसे प्रातःकाल के समय खिलते हुए कमलों की पराग के छोटे-छोटे कण बिखेरनेवाली वायु पुनः प्रज्वलित कर रही है। इससे मिलता हुआ भाव शिशुषालयध में भी प्रकट किया गया है अविरतरतलीलायासजातश्नमाणा मुपशममुपयान्तं निःसहेभङ्गेऽङ्गनानाम् । पुनरुषसि बिवक्तातरिश्वावचूर्ण्य ज्वलयति मदनाग्निं मालतीनां रजोभिः ॥१७॥ -शिशुपाल. सर्ग ११ प्रकृति-निरूपण १५५ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चिम दिशा के क्षितिज में झुकते हुए चन्द्रमा और पक्षियों के कलकूजन में देखिए कवि ने अपनी प्रतिमा को कैसा साफार किया है ? मूर्जीवोद्गतपलितायमानरश्मी पन्द्रेऽस्मिन्नमति विभावरीजरत्याः । अन्योऽन्यं विहगरवरिवोल्लसन्त्यो दिग्वध्यो विदधति विप्लवाट्टहासम् ॥१५॥ जिस पर किरणरूपी सफ़ेद बाल निकले है ऐसे मस्तक के समान चन्द्रमा, जब रात्रिरूपी वृद्धा स्त्री के आगे झुककर प्रणय-याचना करने लगा तब पक्षियों के शब्दों के बहाने परस्पर खिलखिलाती हुई दिशारूपी स्त्रियां मानो विप्लवसूचक अट्टहास ही करने लगीं। कमलों के विकास, सूर्य की लालिमा तथा सूर्योदय आदि के वर्णन में कवि ने एक से एक नूतन कल्पनाओं को प्रकट किया है। धर्मशर्माम्मुदय का यह प्रभास-वर्णन षोडश सर्ग के १-४१ पलोकों में सम्पूर्ण हुआ है। - - ....... ....... - १५६ महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय स्तम्भ १ : आमोद- निवर्शन १. धर्मशर्माभ्युदय का पुष्वावचय और जलक्रीड़ा २. जीवम्धर चम्पू का वसन्त-वैभव स्तम्भ २: प्रकीर्णक-निर्देश ३. जीवन्धरचम्पू में शिशु-वर्णन ४. जीवन्धरचम्पू का प्रबोध-गीत ५. धर्मशर्माभ्युदय का स्वयंवर-वर्णन ६. चन्द्रग्रहण और जरा का अद्भुत वर्णन ७. सज्जन - प्रशंसा और दुर्जन- निन्दा ८. पुत्राभाव-वेदना they स्वप्नदर्शन स्तम्भ ३ : नोतिनिकुंज १०. धर्मशर्माभ्युदय का सुभाषितनिचय ११. धर्मशर्माभ्युदय का नीत्युपदेश और राज्य शासन १२. जीवन्धरचम्पू का सुभाषितसंचय १३. जीवन्धरस्वामी को भक्तिगंगा स्तम्भ ४ : सामाजिक दशा और युद्ध निवर्शन १४. जीवन्चरचम्पू से ध्वनित सामाजिक स्थिति १५. धर्मशर्माभ्युदय का युद्ध वर्णन और चित्रालंकार १६. जीवन्धरचम्पू का युद्ध-निरूपण स्तम्भ ५ : भौगोलिक निवेश और उपसंहार १७. धर्मशर्माभ्युदय का रत्नपुर १८. जीबन्धर का हेमांगद देश और उनका भ्रमण क्षेत्र १९. टीकाएँ और टिप्पण २०. धर्मशर्माभ्युदय के संस्कृत टीकाकार २१. उपसंहार २२. अन्त्यनिवेदनम् Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ : १ आमोद-निदर्शन ( मनोरंजन) धर्मशर्मा पुक्ष्य में पुष्पावचय और जलक्रीड़ा छहों तुओं के पुष्पों से सुशोभित विन्ध्याचल को बनस्थली में पुष्पावचय के लिए स्त्रिया मदमाती चाल से जा रही है। उनकी गोल-गोल भुजाएं स्थूल नितम्बों से टकराकर कंकणों का शब्द कर रही है। इस दृष्य का सुन्दर वर्णन कवि की काव्यभारती में देखिए गतागतेषु स्खलितं वितन्वता नितम्बभारेण समं जडात्मना । भुजी सुवृत्तावपि कङ्कणक्मणैः किलाङ्गनानां कलहं प्रचक्रतुः ।।५।। -धर्मशर्माभ्युदय, सर्ग १२ स्त्रियों की भुजाएं यद्यपि सुवृत्त थीं-गोल थों ( पक्ष में, सदाचारी श्री ) फिर भी आने-जाने में रुकावट डालनेवाले जा-स्यूल (पक्ष में, धूत) नितम्ब के साथ कंकणों की ध्वनि के बहाने मानो कलह कर रही थीं। यही वर्णन महाकवि माघ की काव्यभारती में भी देखिएनखरविरचितेन्द्रचापलेखं ललितगतेषु गतागतं दधाना । मुखरितवलयं पृथो नितम्बे भुजलतिका मुहुरस्खलत्तण्याः ।।४।। -शिशुपाल., सर्ग ७ नखों की कान्ति से जिसमें इन्द्रधनुष की रेखा निर्मित हो रही थी ऐसे गमनागमन को धारण करनेवाली किसी तरुणी की मुजलता कंकणों का शब्द करती हुई स्थूल नितम्ब में बार-बार टकराती थी। यहाँ वर्णनीय विषय दोनों स्थानों पर मद्यपि एक है तथापि महाकवि हरिचन्द्र ने मुजाओं को सुवृत्त और नितम्बमण्डल को जड़ विशेषण देकर विषय को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण बना दिया है। . चलते समय स्त्री की मेखला शब्द क्यों कर रही थी ? इसका कल्पनापूर्ण वर्णन महाकवि हरिचन्द्र की वाणी में देखिए गुरुस्तनाभोगभरेण मध्यतः कृशोदरीयं झटिति त्रुटिष्यति । इसीव काञ्ची-कलकिङ्किणीनवणगीदृशः पूकुरुते स्म वर्मनि ।।६।। -धर्मशा., सर्ग १२ मार्ग में चलते समय किसी मृगनयनी की मेखला किंकिणिमों के मनोहर शब्दों से ऐसी जान पड़ती थी मानो वह, यह जानकर रो हो रही थी कि यह कुशोदरी स्थूल आमोद-निदर्शन (मनोरंजन) Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तनमण्डल के भार के कारण मध्यभाग से जल्दी ही टूट जायेगी। अब इसी मेखला का वर्णन महाकवि माघ को वाणी में देखिएअतिशयपरिणाहवान्वितेने बहुतरमपितरत्नकिङ्किणीकः । अलघुनि अपनस्थले परस्था ध्वनिमधिक कलमेखलाकलापः ॥५॥ -शिशुपाल., सर्ग ७ किसी अन्य स्त्री के स्थूल नितम्बमण्डल पर अनेक मणिमय किकिणियों से युक्त अतिशय विशाल मनोहर मेखलाओं का समूह अधिक शब्द कर रहा था। यहाँ शब्द क्यों कर रहा था ? इसमें कवि ने कोई कल्पनापूर्ण हेतु नहीं दिया । कोई स्त्री लता के अग्रभाग में लगे हुए फूल को तोड़ने के लिए अपनी भुजा ऊपर उठाये हुए है इसका वर्णन हरिचन्द्र की वाणी में देखिए काचिद्वराङ्गी कमितुः पुरस्तादुदस्तबाहोः कुसुमोद्यतस्य । मूलं नखाताञ्चितमंशुफेन तिरोदधे मङ्घ करान्तरेण ।।८।। -जीवनमरचम्प, लम्भ ४ कोई एक स्त्री अपने पति के सामने फूल तोड़ने के लिए भुना ऊपर की ओर उठाये हुए थी परन्तु उस भूजा के मूल में पति के द्वारा दिया हुआ नखक्षत का चिह्न था जिसे वह दूसरे हाथ से वस्त्र के द्वारा बड़ी सुन्दरता के साथ छिपा रही थी। , यही वर्णन माघ के शब्दों में देखिएप्रियमभि कुसुमोद्यतस्य बाहोर्नवनखमण्डनचारु मूलमन्या । मुहुरितरकराहितेन पोनस्तनतटरोधि तिरोदशकेन ॥३२॥ -शिशुपाल., सर्ग ७ यद्यपि दोनों श्लोकों का भाव एक-सा है तथापि मक्षु की अपेक्षा माघ का 'मुहुः शब्द अधिक चमत्कार उत्पन्न करनेवाला है। पतियों द्वारा स्त्रियों के प्रति जो प्रणयोक्तियाँ फहो गयी है उसका कुछ नमूना देखिए । स्त्री के केशपाश का वर्णन करता हुआ पति उससे कहता है शिखण्डिनां ताण्डवमत्र बीक्षितुं तवास्ति चेच्चेतसि तन्ति कौतुकम् । समाल्यमुद्दाम नितम्बचुम्बिनं सुकेशि तत्संवृणु केशसञ्चयम् ॥३४॥ -धर्मशर्मा., सर्ग १२ हे तन्धि | यदि तेरे चित्त में यहां मयूरों का तापडव नृत्य देखने का कौतुक है तो हे सुकेशि ! स्थूल नितम्बों का चुम्बन करनेवाले, मालाओं सहित इस केशसमूह को टंक ले। यही भाव माष ने शिशुपालवध के पंचम सर्ग में प्रकट किया हैदृष्ट्येव निर्जितकलापभरामघस्ताद् ध्याकीर्णमास्यकवरी कबरी तरुण्याः । प्रादुरवत्सपवि चन्द्रकवान्भुमाग्रात्संघर्षणा सह गुणाभ्यषिकर्दुरासम् ।।१९॥ महाकवि हरिचन : एक अनुशीलन १६० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसो वृक्ष पर मयूर बैठा था, ज्यों ही उसने अक्ष के नीचे अपने पिच्छभार को जीतनेवाली तथा गुंगी हुई मालाओं से चित्र-विचित्र किसी मुवती की चोटी देखी त्यों ही बह शीघ्र भाग गया सो ठीक ही है क्योंकि ईर्ष्यालु प्राणी अधिक गुणवानों के साथ एकत्र नहीं रह सकते । स्त्री के बागी-माधुर्य को प्रकट करने के लिए कोई पति कह रहा है भत्र क्षणं चण्डि वियोगिनीजने झ्यालुरुल्मुद्र य सुन्दरी गिरम् । अमी हताशाः प्रथयन्तु मूकतां कृतान्तदूता इव लज्जिताः पिकाः ॥३८॥ -धर्मशर्मा., सर्ग १२ हे पण्डि ! क्षण-भर के लिए वियोगिनी स्त्रियों पर दयालु हो जा और अपनी सुन्दर वाणी प्रकट कर दे जिससे यमराज के दूतों के समान ये दुष्ठ कोपल लज्जित हो चुप हो जायें। यहाँ 'तेरी वाणी कोमल की कूक से भी मधुर है' यह भाव कवि ने प्रकट क्रिया है। ___सृष्ट स्त्रियों तथा पुरुषों को अनुकूल करने के लिए सखियों को सान्त्वनापूर्ण उक्तियां भी ( १२-१९), (३५-३९) दर्शनीय है। समस्त सर्ग में शृंगार रस को मधुर धारा को प्रवाहित करते हा भी कवि ने शालीनता को सरक्षित रखा है जबकि भाष उसे सुरक्षित नहीं रख सके हैं। माघ के सप्तम सर्ग के ४४-५१ श्लोफ अघिक अशालीन जान पड़ते हैं। इसी प्रकार किरातार्जुनीय के अष्टम सर्ग का १९वां तथा इसी प्रकार के कुछ अन्य श्लोक भी शालीनता को सुरक्षित नहीं रख सके है । जलक्रीड़ा ___ विन्ध्याचल के फलपुष्पविशोभित बन में पुष्पापचय करती हुई स्त्रियां जब प्रान्त हो गयीं तथा उनके अंग स्वेद-बिन्दुओं से व्याप्त हो गये सब जलक्रीड़ा के लिए नर्मदा के तट पर गयीं। थकी-मादी स्त्रियों का वर्णन देखिए द्विगुणितमिष यात्रया बनानां स्तनजघनोद्वहनश्रमं वहन्त्यः । जलविहरणवाञ्छया सफान्ता ययुरण मेकलकाम्यका तरुण्यः ॥१11 धर्मः, सर्ग १३ तदनन्तर वनविहार से जो मानो दुना हो गया था ऐसा स्तन तथा अपन धारण करने का खेद वहन करनेवाली तरुण स्त्रियां जलक्रीड़ा की इच्छा से अपने अपने पतियों के साथ नर्मदा की ओर चलीं। कितनी ही स्त्रिया नवी तट पर पहुंचकर भी भम के कारण पानी में प्रवेश नहीं कर रही हैं परन्तु उनके प्रतिबिम्ब पानी में प्रतिनिम्बित हो रहे है इसका वर्णन आमोद-निदर्शन (मनोरंजन) १६१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि की वाणी में देखिए कथमपि वदिनीमगाहमानायचकितदृशः प्रतिमाच्छलेन तन्ध्यः । इह पयसि भुजावलम्बनायं समभिसृता इव बारिदेवताभिः ॥१९॥ कितनी ही चंचल-लोचना स्त्रियां नदी के पास जाकर भी उसमें प्रवेश नहीं कर रही थी परन्तु पानी में शके प्रतिकिार पर दे में लिपटे ऐसी नान पड़ती थों मानो उनको भुनाएँ पकड़ने के लिए जलदेवियाँ ही उनके सम्मुख भायी हों। जलप्रवेश से डरनेवाली स्त्री का चित्रण माघ ने भी बड़ा कौतुकपूर्ण किया है देखिए आसीना तटभुवि सस्मितेन भी रम्भोरूरवतरितुं सरस्यनिच्छुः । घुम्वाना करयुगमीक्षितुं विलासाशीतालुः सलिलगतन सिच्यते स्म ॥१९॥ -शिशुपालवध, सर्ग ८ कोई एक स्त्री ठण्ड का बहाना लेकर नदी तट पर बैठी हुई सरोवर में प्रवेश करने के लिए कतरा रही है। उसका पति पानी में प्रवेश कर चुका है। पति के कहने पर भी यह पानी में प्रवेश नहीं कर रही है मात्र दोनों हाथ हिलाकर मना कर रही है तब पति उसकी विलास-चेष्टाएँ देखने के लिए मुसकराता हुआ उसपर पानी उछाल रहा है। - शिशुपालवध के अष्टम सर्ग में ७१ श्लोकों के द्वारा माघ ने और धर्मशर्माम्युदय के त्रयोदश सर्ग में उसने ही श्लोकों द्वारा हरिचन्द्र ने जलक्रीड़ा का बड़ा प्राञ्जल वर्णन किया है। दोनों ही कवि, आख्यानात्मक अंश से उतने अनुरक्त नहीं जान पड़ते जितने कि वर्णनात्मक अंश से । वनक्रीड़ा, जलक्रीड़ा, घान्द्रोदय, प्रभात, सूर्योदय आदि के वर्णन में उन्होंने पूरे-पूरे सर्ग व्याप्त किये हैं। ': स्त्रियों के जलप्रवेश करते ही कमलवन में बैठा हुआ हंस, अपनी चोंच में मृणालाण्ड को दबाये हुए भय से उड़ गया इसका सजीव वर्णन देखिए प्रारति जललीलया जस्मिन्बिसवदनो दिचमुत्पपात हसः । .. नवपरिभवलेखभृतलिन्या प्रहित इवांशुमते प्रियाय दूतः ॥२३॥ -धर्मशर्मा., सगं १३ जब लोग जलक्रीड़ा करते हुए इधर-उधर फैल गये सब हंस अपने मुंह में मृणाल का टुकड़ा दाबे हुए आकाश में उड़ गया जो ऐसा जान पड़ता था मानो कमलिनी ने नूतन पराभव के लेख से युक्त दूत ही अपने पति-सूर्य के पास भेजा हो । , कोई एक पुरुष अपनी प्रियतमा के वक्षःस्थल पर बार-बार पानी उछाल रहा था। क्यों उछाल रहा था? इसका उत्तर महाकवि हरिचन्द्र की वाणी में देखिए११२ महाकधि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समसिबत मुहर्मुहुः कुवानं करसलिलर्दयितो विमुग्धबध्वाः । मृदुतरहृदयस्थलीनरूलस्मरनवकल्पतरौरिवाभिवती ॥३१॥ -धर्मशर्मा,, सर्ग १३ कोई एक पुरुष हाथों से पानी छाल-उछालकर अपनी मां-भाली नयी स्त्री के स्तनाम भाग को बार-बार सींच रहा था जो ऐसा जान पड़ता था मानो उसके कोमल हुवय क्षेत्र में जमे हुए कामरूपी नवीन कल्पवृक्ष को बढ़ाने के लिए ही सींच रहा हो । स्थूल स्तनों से सुशोभित कोई स्त्री पानी में तैर रही थी उसका वर्णन देखिए कितना कल्पनापूर्ण है ? हदि निहितघटेन बद्धसुम्बीफलतुलिताङ्गलतेय कापि सन्वी । इह पयसि सविभ्रम तरन्ती पृथुलकुचोच्चयशालिनी रराज ।।३३।। -धर्मशर्मा. सर्ग १३ स्थूल स्तनमण्डल से सुशोभित कोई एक स्त्री पानी में बड़े विभ्रम के साथ तर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो उसने अपने हृदय के नीचे दो घट ही रख छोड़े हों अथवा शरीररूपी लता के नीचे तुम्बी के दो फल ही बाँध रखे हों। किसी स्त्री के मुख पर एक भीरा बार-बार झपट रहा है और स्त्री उससे भयभीत हो अपने दोनों हाथ हिला रही है। उस भ्रमर के प्रति कवि की उक्ति देखिए कितनी ममोरम है ? महमिह गुरुलज्जया इतोऽस्मि भ्रमर विवेकनिधिस्त्वमेक एव । मुखमनु सुमुखी करी धुनाना यदुपअनं भवता मुहबूचुम्बे ॥३९।। -धर्मशर्मा. सर्गः१३ भाई भ्रमर ! मैं तो इस बड़ी लज्जा के द्वारा ही मारा गया पर विवेक के भाण्डार तुम्ही एक हो जो सब लोगों के समक्ष ही मुख के पास हाय हिलानेवाली इरा सुमुखी का बार-बार धुम्बन कर रहे हो। कनि की यह उक्ति अभिज्ञान शाकुन्तल में प्ररूपित कविकुलतिलका कालिदास की निम्नांकित उक्ति का स्मरण दिलाती हैचलापाङ्गां दृष्टि स्पृशसि बहुशो वेपथुमती रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः । करं व्याधुन्वन्त्याः पिबसि रतिसर्वस्वमवरं अयं तत्त्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती ।। भाष स्पष्ट है। -- - - १, सुदतीकुच कुमनाप्रमारातरुणः कश्चिदसिचदम्युभिः । इद स्थलजातरागकल्पद्रुमवढमें किमु कामुकः परम् ॥१८॥ -- जीवघरसम्पू. लम् । आमोद-निदर्शन (मनोरंजन) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलक्रीड़ा के बाद नदी से बाहर निकली हुई किसी स्त्री के केशों में पानी की बूदें टपक रही हैं । झ्यों टपक नही है : इसका अन्तर कवि की कलम से सुनिए--- जलविहरणकेलिमुत्सृजन्त्याः कचनिचयः क्षरदम्बुरम्बुजाक्ष्याः । परिविदितनितम्बसङ्गसौख्यः पुनरपि बन्धभियेद रोविति स्म ॥५९।। --धर्मशर्मा., सर्ग १३ जलविहार को क्रीड़ा छोड़नेवाली किसी कमलनयना के केशों से पानी कर रहा था जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे कि अब तक तो हमने खुले रहने से नितम्ब के साथ समागम के सुख का अनुभव किया पर अब फिर बांध दिये जायेंगे इस भय से मानो रो ही रहे थे। किसी पुरुष ने स्वी के स्थूल स्तनमण्डल पर पानी उछाल दिया इससे पास में खड़ी हुई सपत्नी को बड़ी वेदना हुई और उस वेदना के कारण वह स्वेद से तर हो गयी । देखिए, सपत्नीगत मात्सर्य का कितना सुन्दर वर्णन है सरभसमधिपेन सिच्यमाने पृथुलपयोघरमण्डले प्रियायाः। श्रमसलिलमिषात्सखेदमण्यहह मुमोच कुचद्वयं सपत्न्याः ॥३७॥ -धर्मशर्मा., सर्ग १३ ज्यों ही पति ने अपनी प्रिया का स्थूल स्तनमण्डल सहसा पानी से सींचा त्यों ही सपत्नी के दोनों स्तन पसीना के छल से बड़े खेद के साथ आंसू छोड़ने लगे। इसी से मिलता-जुलता भाष' महाकवि माघ ने भी प्रकट किया है । देखिएउद्वीक्ष्य प्रियकरकुड्मलापविद्ध वक्षोजवयमभिषिक्तमन्यनार्याः । अम्भोभिर्मुहुरसिचद्वधरमर्षा दात्मीयं पृथुतरनेत्रयुग्ममुक्तः ॥३७॥ पति के करकुड्मलों के द्वारा उछाले हुए जल से अन्य स्त्री के स्तनयुगल को अभिषिक्त देख कोई स्त्री क्रोध के कारण अपने स्तनयुगल को विशाल नेत्रयुगल से छोड़े हए जल से-आंसुओं से बार-बार सींचने लगी। इस तरह धर्मशर्माम्युदय का समस्त त्रयोदश सर्ग जलकोड़ा के मनोहर दृश्यों से भरा हुआ है। इसके समक्ष भारवि का जलक्रीड़ा वर्णन (किरातार्जुनीय, सर्ग ८) निष्प्रभ जान पड़ता है, और माघ का वर्णन समकक्ष प्रतिभासित होता है। जीवन्धर चम्पू का वसन्त-वैभव पुष्पावचय जन-जन के मानस को आन्दोलित कर देनेवाले वसन्त का शुभागमन हुआ है । वन की शोभा निराली हो गयी है। उसका वर्णन करने के लिए महाकवि हरिचन्द्र की पंक्तियाँ देखिए--- १६४ महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदानीं जगज्जयोचुतपञ्चनाणप्रयाणसूचकमा ञ्जिष्ठ दृष्य नियनिकाश पल्लविताशोकपेशलं सुवर्णश्शृंखलसंनद्धचन देवता चितपेटिका यमानर सालपल्लव समासीन को किलकुलं तरुणजनहृदयविदारणदारुणकुसुम बाणनख रायमाण किंशुक कुसुमसङ्घले मदननरपालकनकदण्डामितकेसरकुसुमभासुरं विलीन शिलीमुखजराभीरुवार विसरूपपाटलपटलं वियोगिजन स्वान्तनितान्त कृन्तन कुन्ता मितकैकदन्तुरितं वनमजायत । पू. ७६-७६ भाव यह है उस समय वन की शोभा निराली हो रही थी । कहीं तो वह वन जगत् को जीतने के लिए उद्यत कामदेव के प्रस्थान को सूचित करनेवाले मंजीठ रंग के तम्बुओं के समान पल्लवों से युक्त अशोक वृक्षों से मनोहर दिखाई देता था । कहीं सोने की सकिलों से जकड़ी चनदेवता की उत्तम पेटी के समान दिखनेवाले ग्राम के पल्लवों पर कोकिलाओं के समूह बैठे हुए थे । कहीं तरुण मनुष्यों के हृदय को विचारण करने में कठोर कामदेव के नाखूनों के समान सुशोभित पलाश वृक्ष के पुष्पों से व्याप्त था । कहीं कामदेवरूपी राजा के सुवर्णदण्ड के समान आवरण करनेवाले मौलश्री के फूलों से सुशोभित था । कहीं जिनपर शिलीमुख - भरें बैठे हुए है ( पक्ष में, शिलीमुख - बाण रखे हुए हैं ) ऐसे कामदेव के तरकस के समान गुलाब की झाड़ियों से सुशोभित था और कहीं वियोगी मनुष्यों के हृदय के काटने में भाले का काम करनेवाले केतकी के फूलों से व्याप्त था । नागरिक पुष्पा वचय करने के लिए उद्यत हैं । कोई पुरुष अपनी कान्ता को कोप से कलुषित पित्त देख कहता है प्रसारय दृशं पुरः क्षणमिदं वनं विन्दतां स्थलोत्पलकुलानि वै कलय तन्त्रि मन्दस्मितम् । पवन्तु कुसुमोच्चमा दिशि दिशि प्रहृष्टालयः स्फुटीकुरु गिरं पिकः सपदि मौनमाढकताम् ११५ ॥ पृ. ७८ हे तन्वि ! आगे दृष्टि तो फैलाओ जिससे यह वन, स्थल में विद्यमान नौलकमलों को प्राप्त कर सके। जरा मन्द मुसकान भी छोड़ो जिससे प्रत्येक दिशा में भ्रमरों को आनन्दित करनेवाले फूलों के समूह लड़ पड़े और जरा अपनी वाणी भी प्रकट करो जिससे कोयल शीघ्र ही चुप हो जाये । कोई एक पुरुष अपनी प्रणयिनी से कहता हैसञ्चारिणी खलु लता त्वमनङ्गलक्ष्मीरम्लान पल्लव करा प्रमदालिजुष्टा । यस्मा गुलुच्छयुगलं कठिनं विशाल शाखे शिरीषसुकुमारतमे मृगाक्षि ||६|| आमोद-निदर्शन (मनोरंजन) पु. ७८ 91५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे मृगनयनि ! जिसमें हाथ के समान नूतन पल्लव लहलहा रहे हैं, जो मदोन्मत्त अमरों से सेवित हैं, जिनके फूल के दो गुच्छे अत्यन्त कठोर हैं, और जिसकी दो बड़ी शाखाएँ शिरीष के फूल के समान अत्यन्त सुकुमार हैं ऐसी तुम ही चलती-फिरती लता हो और तुम हो काम की लक्ष्मी हो। पुष्पावचय करनेवाली स्त्रियों का स्वाभाविक चित्रण देखिए कितना सजीव हैबलात्कुचं सपदि भङ्गुरमध्यभागं स्विद्यत्कपोलमलकाकुल वक्त्रविम्बम् । व्यालोलकङ्कणझणरकृति तत्र देव्यः पुष्पग्रहं करतलैः कुतुकादकार्षुः ||१७|| - पू. २२२ वहाँ देत्रियों — रानियों ने कौतुकाश अपने हाथों से फूलों का चयन किया । चयन करते समय उन देवियों के स्तन हिल रहे थे, मध्यभाग झुक रहे थे, कपोल पसीना से तर हो रहे थे, मुख मण्डल केशों से व्याकुल हो रहे थे और चंचल कंकण शनशन शब्द कर रहे थे । जलकीड़ा धर्मशर्माभ्युदय का कथावृत्त अल्प होने से उसमें वर्णनात्मक भाग का विस्तार किया गया है । यही कारण है कि उसमें इनक्रीड़ा और जलकोड़ा के लिए स्वतन्त्र स रखे गये हैं परन्तु जीवन्धरचम्पू का कथावृत अत्यन्त विस्तृत है साथ ही अनेक घटनाओं से भरा हुआ है अतः इसमें काव्यात्मक वर्णन सीमित हैं । यहाँ जलक्रीड़ा के प्रसंग के निम्न श्लोक द्रष्टव्य हैं कश्चिदम्भसि विकूणितेक्षणं हेमयन्त्रविगलज्जलैर्मुहुः । कामिनीमुखमसिदजसा चन्द्रविम्बमिव द्रष्टुमागतम् ॥१७॥ सुदर्तीकुचकुट्मलाग्रमारात्तरुणः कश्चिदसिम्यदम्बुभिः । हृदयस्थल जात रागकल्पद्रुमवृद्ध कि कामुकः परम् ||१८|| अन्या काचिद्वल्लभं वञ्चयित्वा सख्या साकं वारिमग्ना मुहूर्तम् । तस्मा गात्रामोदलोभाद् भ्रमद्भभृता सामना लिङ्गिता च ॥१९॥ सरोजिनी मध्यविराजमाना काचिन्मृगाक्षी कमनीयरूपा । वक्षोजकोशा मृदुबाहुनाला नाक्षि वक्रायतफुल्लपमा ||२०|| च्युतैः प्रसूनैर्धन केशबन्धान्मृगीदृशां तारकिते जलेऽस्मिन् । निरीक्ष्यमाणं वरुणैtचकोर: कस्यादिचदास्यं शशभृवभूव ॥२१॥ -.८३ भाव यह है उस समय पानी पर जिसकी कुंचित दृष्टि पड़ रही थी और जो देखने के लिए आये हुए चन्द्रविम्व के समान जान पड़ता था ऐसे अपनी प्रिया के मुख को सोने की पिचकारी से निकलते हुए जल से कोई बार-बार सींच रहा था । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन १६६ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई एक युवा पास जाकर अपनी स्त्री के स्तमरूप कुड्मल के अग्रभाग को पानी से सींच रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह उसके हृदयस्थल में उत्पन्न हुए रागरूपी कल्पवृक्ष की वृद्धि ही चाहता था । कोई एक स्त्री अपने पति को धोखा देकर सखी के साथ मुहूर्त-भर के लिए पानी में डूबा साथ गयी परन्तु उसके शरीर की सुगन्धि के लोभ से मंडराते हुए भ्रमरों से उसका पता चल गया और पति ने उसका आलिंगन किया । जिसके स्तन कमल की बोंडियों के समान थे, कोमल भुजाएँ मृणाल के समान थीं और मुख फूले हुए कमल के समान था ऐसी सुन्दर रूप को धारण करनेवाली कोई स्त्री जब कमलिनियों के बीच गहुँची तब अलग से पहचानने में नहीं आयी । नदी का पानी स्त्रियों के सचन केशबन्धन से गिरे हुए फूलों के द्वारा तारकित — ताराबों से मुक्त जैसा हो रहा था और उसके बीच में तरुणजनरूपी चकोरों के द्वारा देखा गया किसी स्त्री का मुख चन्द्रमा हो रहा था - चन्द्रमा के समान जान पड़ता था । इस प्रकार पुष्प और लोकेश से जीवन्धरचम्पू का वसन्त-वैभव काव्यकला का एक उत्तम आदर्श है । आमोद-निर्देशन (मनोरंजन) १६७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ २ : प्रकीर्णक निर्देश जीवन्परचम्पू में शिशु वर्णन महाकवि हरिचन्द्र ने शिशु अवस्था का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय के नवम सर्ग में विस्तार से किया है पर जीवन्धरचम्पू के प्रथम लम्भ में भी जो जीवन्धर कुमार की शिशु अवस्था का वर्णन हुआ है वह संक्षिप्त होने पर भी सुन्दर है, देखिए - १६८ यथा यथा जीवकमामिनीशो विवृद्धिमा गाद्विलसत्कलापः । तथा तथावर्धत मोदाविरुद्धे लमूरन्यनिकायमतुः ॥९९॥ ते विभत्सृष्टिष्टिकरः सुतः । उद्यत्कुड्मलयुग्मश्रीपद्माकरतुलां दधौ ॥१००॥ मुग्वस्मितं मुखखरोजगलम्मरन्द धारानुकारि मुखचन्दिर चन्द्रिकाभम् । पित्रोः प्रमोदकरमेष बभार सूनुः कीर्तेविकासभित ह्रासमिवास्यलक्ष्म्याः ॥ १०१ ॥ पयोधरं धयन् सूनुः पयो गण्डूषितं मुहुः । उगिरकीतिकल्लोलं किरशिव विदिद्युते ||१०२ ॥ राञ्चरन् स हि जानुभ्याममले मणिकुट्टिमे । प्रतिविम्यं परापत्यबुद्ध्या संताडयन्बभौ ॥१०३॥ क्रमेण सोऽयं मणिकुट्टिमाणे नखस्फुरत्का ग्लिरीभिरचिते । स्खलत्पदं क्रोमलपादपङ्कजक्रमं सतान प्रसवास्तुते यथा ॥ १०४ ॥ पु. ३६-३७ भाव यह है शोभायमान कलाओं से सम्पन्न जीवम्धररूपी चन्द्रमा जैसा जैसा बढ़ता जाता था वैसा - बेसा ही गन्धोत्कट का हर्षरूपी सागर बढ़ता जाता था । बालक जीवन्धर जब मुट्टियाँ बाँधकर चित्त सोता था तब उस तालाब की शोभा धारण करता था जिसमें कमल को दो बोंड़ियाँ उठ रही थीं । वह बालक माता-पिता के आनन्द को बढ़ानेवाली जिस सुन्दर मुसकान को धारण करता था वह ऐसी जान पड़ती यो मानो मुखरूपी कमल से मकरन्द की धारा महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही गिर रही हो, अथवा मुखरूपी चन्द्रमा की चांदनी ही हो, अषया कीर्ति का विकास हो हो, अथवा मुख को लक्ष्मी का हास्य ही हो । वह बालक माता का स्तन पीकर बार-बार दूध के कुरले उगल देता पा जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो कीति की तरंग ही बिखेर रहा हो। फुछ ही दिनों में यह बालक मणियों के निर्मल फर्श पर घुटनों के बल चलने लगा था और अपनी ही परछाई को दूसरा बालक समक्ष ताड़न करता हुआ अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ! क्रम-क्रम से वह बालक नसों को फैलती हुई कान्तिरूपी झरनों से सुशोभित अतएव फूलों से आच्छादित के समान दिखने वाले मणियों के आंगन में लड़खड़ाते परों से कोमल चरण कमलों की डग फैलाने लगा। बाल-लीला का कौतुकावह वर्णन हम सोमदेव के यशस्तिलक-चम्पू में देखते हैं । बाण ने कादम्बरी में चन्द्रापीड के शैशव का वर्णन मात्र एक पंक्ति में समाप्त कर दिया है ‘क्रमेण कृतचूडाकरणादिक्रियाकलापस्य शिवमतिचक्राम चन्द्रापीडस्य' महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के तृतीय सर्ग में रघु के बाल्यकाल का वर्णन मात्र एक श्लोक में पूर्ण किया है उवाच धाश्या प्रथमोदितं वदो ययौ लदौमामवलम्ब्य पाङ्गुलिम् । अभूच नम्रः प्रणिपातशिक्षया पितुर्मुदं तेन ततान सोभकः ॥२५॥ - सर्ग २ अलंकार की दृष्टि से अर्हदास के पुरुदेवचम्पू में वाल्यभाव का अच्छा वर्णन हुया है। इसी सन्दर्भ में धर्मशर्माभ्युदय का भी शिशु-वर्णन द्रष्टव्य है। भगवान् धर्मनाथ माता की गोद से उन्मुक्त हो पृथ्वी पर चलने का अभ्यास कर रहे है इसका वर्णन देखिए, कितना स्वाभाविक है प्राच्या इवोत्थाय स मातुरङ्कतः कृतावलम्बो गुरुणा महीभृता । भूभ्यस्तपादः सवितेव बालकश्चचाल वाचालितकिङ्किणीद्विजः ।।७।। रिखम्पदाक्रान्तमहीतले वी स्फुरनखांशुप्रकारेण स प्रभुः । शेषस्य बाचाविधुरेऽस्य धावता कुटुम्बकेनेव निषेवितनमः ।।८।। बम्राम पूर्व सुनिलम्बमन्बरप्रवेपमानामपदं स बालकः । विश्वम्भरायां पदभारधारणप्रगल्भतामाकलयन्निव प्रभुः ।।९।। -सर्ग १ भाव स्पष्ट है। प्रकीर्णक निर्देश २२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीषन्धरणम्पू का प्रबोध-गीत कविकुलगुरु कालिदास ने रघुवंश के पंचम सर्ग में श्लोक ६६ से ७५ तक मागों द्वारा युवराज अज को जगाने के लिए जिस प्रबोध-गीत का मंगल गान कराया है उसका प्रभाव हम जीवन्धरवम्मू पर भी देखते हैं। यहाँ विजया देवी को जगाने के लिए प्रायोधिक-जगाने के कार्य में नियुक्त मागधजनों ने जो हृदयहारी गीत गाया है वह संक्षिप्त होने पर भी एक विशिष्ट प्रकार के आनन्द की उद्भूति करता है। इस कार्य के लिए रघुवंश और भाबर दोनों में एक ही सन्ततिलका छन्द का चयन किया गया हैदेवि प्रभातसगयोऽयमिहाञ्जलि ते पः करविरघयन्दरफुल्लरूपैः । भृङ्गालिमञ्जुलरवैस्तनुते प्रबोध गीति नृपालमणिमानसहंसकान्ते ॥४३।। देवि त्वदीयमुखपङ्कजनिजितश्री __श्चन्द्रो बिलोचनजितं दधदेणमङ्के । अस्ताद्रिदुर्गसरणिः किल मन्दतेजा द्राग्वारुणीभजनतश्च पतिष्यतीव ॥४४॥ बलरिपुहरिदेषा रक्तसंध्याम्बरश्री रविमयमणिदीपं रम्यदूर्वासमेतम् । गगनमहितपात्रे कुर्वती भाक्षसाने प्रगुणयति निकाम देवि ते मङ्गलानि ॥४५।। देवि त्वदीयकचडम्बरचौर्यसृङ्गा भुङ्गावली सपदि पङ्कजबन्धनेषु । राज्ञा निशासु रचिताद्य विसृष्टहष्टा त्वां स्तौति मञ्जुलरबरररीकुरुष्व ॥४६॥-पू. १९-२० इनका भाव यह है हे देवि ! हे राजा के मनरूपी मानसरोवर की हंसी ! यहाँ यह प्रातःकाल कुछ-कुछ खिले हुए कमलरूपी हाथों के द्वारा तुम्हें अंजलि बांध रहा है और मुंगावली के मधुर शब्दों के द्वारा प्रबोध-गीत गा रहा है। हे देवि! तुम्हारे मुख-कमल के द्वारा जिसको श्री जीत ली गयी है ऐसा यह चन्द्रमा, तुम्हारे नेत्रों से पराजित हरिण को अपनी गोद में रखे हुए अस्ताचलरूपी दुर्ग की शरण में गया था, परन्तु वह अभागा वहाँ वारुणी-पश्चिम दिशा (पक्ष में, मदिरा) का सेवन कर बैठी, इसलिए अब मम्द-तेज होकर शीघ्र ही नीचे गिर जायेगा ऐसा जान पड़ता है। महाकवि हरिचन् : एक अनुशीलन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे देवि ! इधर यह पूर्वदिशारूपो स्त्री सम्ध्याल्पी लाल साड़ी पहनकर नक्षत्ररूपी अक्षतों से सहित आकाशरूपी उत्तम पात्र में सूर्मरूपी मणिमय दीपक और सूर्य के घोडेपी हरी-हरी दूर्वा को संशोकर तेरा बहुत भारी मंगलाचार कर रही है आरती उतार रही है। हे देवि ! यह भ्रमरों की पंक्ति तुम्हारे केशपाश का सौन्दर्य पुराने में बहत चतुर थी, इसलिए रात्रि के समय राजा ने ( पक्ष में, चन्द्रमा ने ) इसे शीघ्र ही. कमलों के बन्धन में फंद कर दिया था, अब प्रातःकाल होने पर इसे छोड़ा है इसलिए हर्षित होकर मनोहर शब्दों के द्वारा तुम्हारी स्तुति कर रही है सो स्वीकृत करो। . जीवन्धरचम्पू के इस प्रयोष-गीत का अनुसरण पुरुदेवचम्प में भी किया गया है। उसके फर्ता अईदासजी ने महादेवी मरुदेवी के प्रबोध-गीत में लिखा है अरुणाम्बरं दधाना सन्च्यारमणी विनिद्रपद्ममुखी । देबि 1 तब पादसेवा कर्तुमिवायाति कमललोलाक्षी ॥२३॥ लक्ष्म्पाः समस्तवसुवृश्चिपुषो निवासो यज तथा वसुमतो वसुभिः परीतम् । देवि ! त्वदीयमुखराजविरोषहेतो र्नीलालके नवसुमस्वमहो वधाति ॥२४॥ तवाननाम्भोजविरोधिनी द्वा वजस्तथान्नं च पुमांस्तु तत्र । त्वया जितोस्ताचल-दुर्गमाप त्यक्तं पुनः क्लीयमुपैति मोवम् ।।२५॥-वसुर्थ स्तवक इनका भाव यह है हे देवि ! जो लाल अम्बर-आवाश ( पक्ष में, बस्त्र धारण कर रही है, खिले हुए कमल ही जिसका मुख है तथा कमल हो जिसके चंचल नेत्र है ऐसी सन्ध्यारूपी स्त्री तुम्हारे चरणों की सेवा करने के लिए ही मानो आ रही है । हे देवि ! जो भब्ज--कमल, समस्त लोगों के धन की वृद्धि को पुष्ट करनेवाली लक्ष्मी का यद्यपि निवास है, और असुमान्–धनवान् मनुष्यों के वशु--धन से यद्यपि परिन्यास है ( पक्ष में, सूर्य की किरणों से व्याप्त है ) तथापि तुम्हारे मुखरूपी राजा ( पक्ष में, पन्द्रमा) से विरोध होने के कारण श्यामल अलवों में वसुमत्त्व-धनवत्ता को धारण नहीं करता यह आश्चर्य है ( पक्ष में, नवसुमत्वं-नूतन पुष्पपने को धारण करता है ) । है देवि ! तुम्हारे मुखकमल के विरोधी अब्ज ( चन्द्रमा) और अब्ज ( कमल ), दो है इनमें जो पुरुष है ( पुलिग है ) ऐसा अञ्ज--चन्द्रमा तो पराजित होकर अस्ताचल के धन को चला गया पर जिसे नपुंसक समझकर छोड़ दिया था ऐसा अन्न ( कमल) प्रमोद को प्राप्त हो रहा है। प्रकीर्णक निर्देषा १७३ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये हैं । यह प्रथम श्लोक में ख्पक और शेष दो श्लोकों में क्लेष ने चार चाँद लगा स्वयंवर-वर्णन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विवाह को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध प्रकृतिसमर्थित है क्योंकि उसके बिना सन्तान की उत्पत्ति असम्भव है । मनुष्य ने वैवाहिक बन्धन के द्वारा उस सम्बन्ध को नियन्त्रित किया है। यह नियन्त्रण पशुयोनि में नहीं है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध अनियन्त्रित होने के कारण ही पशुयोनि में कौटुम्बिक व्यवस्था नहीं है। इसके विपरीत मनुष्य योनि में स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध नियन्त्रित है इसलिए उसमें कौटुम्बिक व्यवस्था है । भारतीय साहित्य में विवाह के अनेक भेद मिलते हैं पर उनमें चार प्रमुख है - १. आर्ष विवाह, २. स्वयंवर विवाह, ३ असुर विवाह और ४. गन्धर्व विवाह | आई विवाह माता-पिता आदि संरक्षक जनों तथा समाज को सम्मति पूर्वक होता है । स्वयंवर विवाह में कन्या स्वयं ही वर को पसन्द करती है उसकी सम्मति पूर्वक ही यह विवाह होता है । असुर विवाह माता-पिता आदि की असहमति होने के कारण अपहरण पूर्वक होता है और गन्धर्व विवाह वर-कन्या के अनुराग पूर्वक स्वतः होता है । इन चार प्रकार के विवाहों में निरापद विवाह आर्ष विवाह ही है क्योंकि स्वयंवर विवाह की व्यवस्था प्रथम तो सर्वसाधारण के द्वारा शक्य नहीं है और किसी तरह शक्य होती भी है तो वह स्वयंवर के अनन्तर संघर्ष का कारण होता देखा गया है । असुर विवाह एक प्रकार की क्रान्ति है जिसकी स्वीकृति मनुष्य को विवशता की स्थिति में ही करनी पड़ती है, स्वेच्छा से नहीं । गन्धर्व विवाह में यद्यपि वर-कन्या की स्वीकृति होती है परन्तु उसके परिणाम भयंकर भी हो सकते हैं । अभिज्ञानशाकुन्तल में यद्यपि कालिदास ने दुष्यन्त तथा शकुन्तला के गन्धर्व विवाह का वर्णन किया है तथापि जराका भयंकर परिणाम भी उसी में प्रकट कर दिया है । दुर्वासा के शाप का सन्दर्भ लाकर यद्यपि उसकी भयंकरवा को कवि ने कम करने का प्रयास किया है तथापि जनमानस उस घोर से निःशंक नहीं होता । आज भी गन्धर्व विवाह के ऐसे माने कों दृष्टान्त देखे जाते हैं जिनमें वर का प्रेम स्थायी न रहकर मात्र क्षणस्थायी ही रहता है । कन्याओं को अपनी भूल का प्रायश्चित्त जीवन भर भोगना पड़ता है और वर अपनी विषय- पिपासा को शान्त कर अलग हो जाता है । स्वयंवर विवाह का भी इतिहास है । भारतवर्ष में सर्वप्रथम स्वयंवर का आयोजन वाराणसी के राजा अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के लिए किया था। इस स्वयंवर का सुम्दर वर्णन दाक्षिणात्य कवि हस्तिमल्ल ने अपने 'विक्रान्त कौरवे' नाटक में किया १. चौखम्भा संस्कृत सीरिज पाराणसी से, पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित । १७१ महाकधि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। उसमें सुलोचना ने वरमाला, हस्तिनापुर ( मेरठ ) के राजा सोमप्रभ के पुत्र जयकुमार के गले में डाली थी। स्वयंवर के अनन्तर उपस्थित राजाओं में संघर्ष हुआ। प्रतिपक्षी राजाओं में प्रमुख भरत चक्रवर्ती का पुत्र अकीलि था । मुख में विजय जयकुमार ने प्राप्त की 1 यह घटना जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेव के समय की है जिसे आज जैन-काल-गणना के अनुसार असंख्य वर्ष हो चुके हैं। पह स्वयंवर किसी प्रमुख बात को लेकर अथवा उसके बिना ही सम्पन्न हुआ करते थे । जैसे धर्मनाथ का यह स्वयंदर किसी प्रमुख उद्देश्य के बिना सम्पन्न हुआ है और जीवन्धरचम्पू में गन्धर्वदत्ता का स्वयंवर वीणावादन सया लक्ष्मणा का स्वयंवर पनवेघ को लक्ष्य कर हुआ है। हस्तिमाल ने स्वयंवर-पद्धति की उपयोगिता बतलाने के लिए प्रवोहार के मुख से निम्नांकित भाव प्रकट करवाया है-- पिजी । माता या भय सस्तामया कुमारी लच्छन्दं निभृतमव गमछेदिति तु यत् । तदप्येषा दत्तिर्लघयति सदस्या रमयितुगुणं वा दोषं धा स्वरुचिमनुचक्षुर्विमृशति ।।३६|| -विनान्तकौरव, अंक ३, प, १०२-१०३ तात्पर्य यह है कि स्वयंवर की विधि कन्यादान की अन्य सब विधियों को तिरस्कृत कर देती है क्योंकि इसमें वर और वधू के नेत्र अपनी रुचि के अनुसार एक दूसरे के गुण और दोष का विचार स्वयं कर लेते हैं। स्वयंवर के अनन्तर होनेवाले युद्ध के प्रारम्भ में भी हस्तिमल्ल ने प्रवीहार के मुख से स्वयंवर-विधि का प्रयोजन तथा रामाओं के संघर्ष की निष्प्रयोजनता का इस प्रकार वर्णन किया है भूयांसः क्षितिपात्मजा वरयितुं वाञ्छन्ति वत्सामिमां सर्वस्याभिमतः स्वयंवरविधिस्तद्वाढमत्रोचितः । इत्यस्मत्प्रभुणा प्रवर्तितममूद् यत्कर्म निर्मत्सरं जात प्रत्युत वैरकारणमिदं तेषां मुषा द्वेषिणाम् ॥१॥ -विक्रान्तकौरव, चतुर्थ अंक इस बच्ची को बहुत राजकुमार बरना चाहते हैं इसलिए इस स्थिति में स्वयंवरविधि सबके लिए इष्ट तथा उचित होगी यह विचारकर हमारे स्वामी ने ईष्यारहित जो कार्य प्रारम्भ किया था वह हर्ष का कारण वो दूर रहा किन्तु अर्थ ही द्वेष फरनेवाले उन सबके बैर का कारण हो गया । धर्मनाथ, जनधर्म के पन्द्रहवें तीर्थकर थे। कविवर हरिचन्द्र ने उनका विवाह भी स्वयंवर-विधि से हो सम्पन्न कराया है। कन्या श्रृंगारवती विदर्भ देश के राजा की पुत्री थी । पिता की आज्ञापूर्वक युवराज मर्मनाय उस स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए गये थे। जान पड़ता है कवि ने अपनी काव्य-प्रतिभा को साकार रूप देने के लिए ही प्रकीर्णक मिर्वेषा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनाथ को इस स्वयंवर -यात्रा का अवतरण किया है। जिस प्रकार माघ ने, युधिष्ठिर महाराज के यज्ञ में भेजने के लिए श्रीकृष्ण की यात्रा का प्रसंग उपस्थित किया है और उस बीच में अपनी काव्य प्रतिभा को साकार किया है उसी प्रकार हरिचन्द्र ने भी यह प्रसंग प्रस्तुत किया है और उस प्रसंग में कायों का किया है। युवराज धर्मनाथ की इस स्वयंवर -यात्रा का वर्णन धर्मशर्माभ्युदय के नवम सर्ग से शुरू होकर पोडश सर्ग तक गया है । सप्तदश सर्ग में स्वयंवर का वर्णन है । ऐसा लगता है कि स्वयंवर वर्णन की यह प्रेरणा कवि को कालिदास के इन्दुमती स्वयंवर वर्णन से प्राप्त हुई है । इसकी सम्पुष्टि के लिए 'आदान-प्रदान' शीर्षक स्तम्भ में कुछ रघुवंश और धर्मशर्माभ्युदय के तुलनात्मक अवतरण दिये गये हैं । समलंकृत स्वयंवर - मण्डप में युवराज धर्मनाथ के प्रवेश करते ही अन्य राजाओं के मुख श्याम पड़ गये उनकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए कवि ने कहा हैअयं स काम नियतं भ्रमेण कमप्यधाक्षीद् गिरिशस्तदानीम् । इत्यद्भुतं रूपमवेक्ष्य जैनं जनाधिनाथाः प्रतिपेदिरे ते ॥ ६ ॥ सर्ग १७ उस समय जिनेन्द्र-धर्मनाथ का अद्भुत रूप देखकर उन राजाओं ने समझा था कि सचमुच का कामदेव तो यही है उस समय महादेव ने भ्रम से किसी दूसरे को जळाया था 1 "वाद्यों की मधुर ध्वनि के बीच हस्तिनी पर सवार होकर शृंगारवती ने स्वयंवर मण्डप में ऐसा प्रवेश किया जैसा कि श्यामल घन-घटा पर कोंदली हुई बिजली माकाश में प्रवेश करती है । प्रवेश करते ही राजकुमारी श्रृंगारवती ने राजाओं के मन में स्थान प्राप्त कर लिया इसका वर्णन कवि की सालंकार वाणी में देखिए पयोधरश्री समय प्रसर्पद्वारावलीशालिनि संप्रवृत्ते । सा राजहंसीय विशुद्धपक्षा महीभृतां मानसमाविवेश ।। १६ ।। हिलते हुए हारों के समूह से सुशोभित ( पक्ष में, चलती हुई धाराओं से सुशोभित ) स्तनों की शोभा का समय - तारुण्य काल ( पक्ष में, वर्षा ऋतु) प्रवृत्त होने पर विशुद्ध पक्षवाली ( पक्ष में रमेत पंखोंवाली वह राजहंसी श्रेष्ठ राजकुमारी ( पक्ष में, हंसी ) राजाओं के मनरूपी मानस सरोवर में प्रविष्ट हो गयी थी । इस सन्दर्भ में राजाओं की विविध चेष्टाओं का वर्णन करते हुए कवि ने अपनी प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है । कोई एक राजा लीलापूर्वक अपना हार घुमा रहा था, इसका वर्णन देखिए कश्चित्कराभ्यां नखरागरक्तं सलीलमावर्तयति स्म हारम् । स्मरास्त्रभिन्ने हृदयेऽलधाराश्रमं जनानां जनयन्तमुच्चैः ||३०|| १०४ - १. धर्म शर्मा, सर्ग १७, श्लोक ११ । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई राजा अपने हाथों के द्वारा, नखों की लालिमा से रक्तवर्ण, अतएव कामदेव के शस्त्रों से भिन्न हृदय में लोगों को दधिरधारा का भारी भ्रम उत्पन्न करनेवाले हार को लीला पूर्वक घुमा रहा था । प्रतीहारी पद पर नियुक्त सुभद्रा, श्रृंगारवती को मंचों पर समासोन मालव, मगध, अंग, बंग, कलिंग तथा दाक्षिणात्य देशों में कर्णाट, लाट, द्रविड़ ओर आन्ध्र आदि देशों के राजाओं के समीप के गयी। अपनी जानकारी के अनुसार उसने उन राजाओं की गुणाधली का वर्णन किया परन्तु शृंगारवती का मन किसी पर अनुरक्त नहीं हुआ । अन्त में जिस प्रकार कोई महानदी अनेक देशों को छोड़ती हुई रत्नाकर के समीप पहुँचती है उसी प्रकार वह अनेक राजाओं को छोड़ती हुई धर्मनाथ के पास पहुंची । सुभद्रा प्रतिहारी ने उनको स्थिर लक्ष्मी और भ्रमण-शील कीर्ति का वर्णन करते हुए कहा वक्षःस्थलात्प्राज्यगुणानुरक्ता मुक्तं न लोलापि चचाल लक्ष्मीः । बद्धा वचैरपि कीर्तिरस्य ननाम यमूत्रितयेऽभुतं तत् ॥ ७५ ॥ लक्ष्मी यद्यपि चंचल है तथापि प्रकृष्ट गुणों में अनुरक्त होने के कारण इनके वक्षःस्थल से विचलित नहीं हुई यह उचित ही है परन्तु कीति बड़े-बड़े प्रबन्धों के द्वारा बद्ध होने पर भी तीनों लोकों में घूम रही है यह आश्चर्य की बात हैं । शृंगारवती के चित्त को धर्मनाथ में अनुरक्त देस, सहेली जन हँसली हुई हस्तिनी को आगे बढ़वाने लगी तब उसने सखी का अंचल खींच दिया । सात्विक भाव के कारण काँपते हुए हाथों से उसने धर्मनाथ के गले में वरमाला डाल दी । स्वयंवर - विधि के समाप्त होने पर ही बृहत् समारोह के साथ धर्मनाथ ने विदर्भदर्शनोत्सुक नारियों के वर्णन को निष्प्रभ कर राज के घर की ओर प्रस्थान किया। इस संदर्भ में कवि ने कुतूहल का जो वर्णन किया है उसने पूर्ववर्ती कवियों के दिया है। इस निर्मिमेष खड़ी एक गौरांगी का चित्र देखिए कितना सुन्दर खींचा गया हैउद्यभुजालम्बितनासिकाया स्थिता गवाक्षे विगलनिमेषा | गौरी क्षणं दर्शितनाभिचक्रा चक्रे भ्रमं काचन पुत्रिकायाः ॥ १७९८ ।। जिसने उठायो हुई भुजा से ऊपर का काठ छू रखा है, जो झरोखे में खड़ी है, जिसके पलकों का गिरना दूर हो गया है तथा जिसका नाभिमण्डल दिख रहा है ऐसी कोई गौरांगी स्त्री क्षणभर के लिए पुतली का भ्रम उत्पन्न कर रही थी । स्त्रियों के बीच शृंगारवती के सौभाग्य और धर्मनाथ के सौन्दर्य की चर्चा देखिए, कितना प्रांजल है ? शृङ्गारवपाश्चिरसंचितानां रेखामतिक्रामति का शुभानाम् । लब्धो यथा नूनमवगम्यो मनोरथानामपि जीवितेशः ॥ १७१०१ ॥ प्रकीर्णक निर्देश 9914 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस शृंगारवती के चिरसंचित पुण्य कर्म की रेखा को कोन स्त्री लांघ सकती है ? जिसने कि निश्चित ही यह मनोरणों का अगम्य प्राणपति प्राप्त किया है। किमेणकेतुः किमसावन ः कृष्णोऽपवा किं क्रिमों कुबेरः । लोकेऽनवामी विकलाङ्गशोभाः कोप्यन्य एवैष विशेषितीः ।।१७।१०२॥ क्या यह चन्द्रमा है ? क्या यह कामदेव है ? क्या यह कृष्ण है ? और क्या यह कुबेर है ? भयत्रा संसार में ये सभी शरीर की शोभा से विकल है-चन्द्रमा कलंकी है, काम अशरीर है, कृष्ण कृष्ण-वर्ण है और कुबेर लम्बोवर है अतः विशिष्ट शोभा को धारण करने वाला यह कोई अन्य ही विलक्षण पुरुष है। पासुर के भवनांगण में विवाह-दीक्षा महोत्सव के अनन्तर वे श्रृंगारवती के साथ सुवर्ण-सिंहासन को अलंकृत कर रहे थे उसी समय रत्नपुर से पिता के द्वारा भेजा हुभा एक दूत इस आशय का पत्र लेकर आया कि आपको पिता ने अविलम्ब बुलाया है । पिता की आशा को शिरोधार्य करके कुनिमित व्योमबान में मंगामाता के सर आरूढ़ हो रत्नपुर जा पहुंचे। पिता ने नवविवाहित पुत्र और पुत्रवधू का समभिनन्दन किया। यहाँ ऐसा जान पड़ता है कि कवि ने तीर्थकर धर्मनाथ को युद्ध के प्रसंग से अछूता रखने के लिए ही सोधा रत्नपुर भेजा है और युद्ध का दायित्व सुषेण सेनापति पर निर्भर किया है। धर्मशर्माभ्युक्य में चन्द्रग्रहण और जरा का अपभुत वर्णन जन और बौद्ध-ग्रन्थों में कथा-नायक के पूर्वभवों का वर्णन भी विस्तार से मिलता है। धर्मशर्माभ्युदय में कथानायक भगवान् धर्मनाथ के पूर्वभवों का वर्णन करते हुए महाकवि हरिचन्द्र ने अवधिज्ञानी- भूतभविष्यत् के ज्ञाता प्रचेतस् मुनि के मुख से प्रकट क्रिया है कि धर्मनाथ, वर्तमान भव से पूर्व तीसरे भव में विदेह क्षेत्र के अन्तर्गत वत्सदेश की सुसीमा नगरी में राजा दशरथ थे। एक बार राजा दशरथ पूर्णिमा की रात्रि में रूपहली चाँदनी से सुशोभित सुसीमा नगरी की शोभा देखने के लिए राजभवन की छत पर बैठे हुए थे। चाँदनी में दुधी हुई सुसीमा नगरी को देखकर उनका मन अत्यन्त प्रसभ हो रहा था । थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि चन्द्रग्रहण हो रहा है। चन्द्रग्रहण को देख उनका मन संसार के समस्त पदार्थों से विरक्त हो गया है। विरक्त होकर उन्होंने विमलवान नामक गुरु के पास दीक्षित हो घोर तपश्चरण किया और उसके फलस्वरूप सर्वार्थसिद्धि नामझ विमान में अहमिन्द्र हुए। वहाँ से आकर राजा महासेन की सुव्रता रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुए । इस पूर्वमन-वर्णन के प्रसंग में कवि ने चन्द्रग्रहण का वर्णन, देखिए, कितनी उत्प्रेक्षाओं से समलंकृत किया१७३ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथैकदा व्योम्ति निरभ्रगर्भे क्षणं क्षपायां क्षणदाधिनाथम् । अनाथनारीव्यथनंनसेव स राहूणा प्रेक्षत गृह्यमाणम् ॥ ४१ ॥ कि सीना स्फाटिकपानपात्रमिदं रजन्याः परिपूर्यमाणम् 1 चलद्विरेफोच्च यचुम्च्यमानमाकाशगङ्गास्फुट कैरवं वा ॥४२॥ ऐरावणस्याथ कराकथंचियुतः सपङ्को बिसकन्द एषः । किं व्योति नीलोपमदर्पणाभे सश्मश्रु वक्त्रं प्रतिबिम्बित में ||४३|| क्षणं तिक्येंति स निश्चिकाय चन्द्रोपरागोऽपमिति क्षितीशः | दृङ्मीलनाविष्कृत चितखेदमचिन्तयच्चैव मुदारचेताः ||४४) - ( सर्ग ४ ) तदनन्तर उसने एक दिन पूर्णिमा की रात्रि को जबकि आकाश मेघरहित होने से बिलकुल साफ़ या पतिहोन स्त्रियों को कष्ट पहुँचाने के पाप से ही मानो के द्वारा से जानेवाले चन्द्रमा को देखा । + राहु उसे देखकर राजा के मन में निम्न प्रकार वितर्क हुए- क्या यह मदिरा से भरा जानेवाला रात्रि का स्फटिकमणिनिर्मित कटोरा है ? या चंचल भौरों के समूह से चुम्बित आकाशगंगा का खिला हुआ सफ़ेद कमल हूँ ? या ऐरावत हाथी के हाथ से किसी तरह छूटकर गिरा हुआ पंकयुक्त मृणाल का कद है ? या नीलमणिमय दर्पण की आभा से युक्त आकाश में मूँछ सहित मेरा मुख ही प्रतिबिम्बित हो रहा है ? इस प्रकार क्षण भर विचार कर उदार हृदय निश्चय कर लिया दिना विश्वय के बाद ही नेत्र बन्द कर मन का खेद प्रकट करता हुआ वह इस प्रकार विचार करने लगा । इसी विचार की सन्तति में उन्होंने निश्चय किया कि जब तक यमराज की दूती के समान वृद्धावस्था नहीं आ पहुँचती है तब तक मुझे आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । कवि ने वृद्धावस्था के वर्णन में कितनी त्रिभुता दिखलायी है यह बेखिएअन्याङ्गनासङ्गमलालसानां जरा कृतेष्ये॑व कुतोऽप्युपेत्य । आकृष्य केशेषु करिष्यते नः पदप्रहारैरिव दन्तभङ्गम् ||१५|| क्रान्ते तवाङ्गे नलिभिः समन्तान्नश्यत्यनङ्गः किमसावितीव । वृद्धस्य कर्णान्तगता जरेयं हसत्मुदचरपति च्छलेन ॥५६॥ रसायुमप्याशु विकासिकाशसंका राकेशप्रसार तरुण्यः । उदस्थिमात जजनोदपानपानीयवन्नाम नरं त्यजन्ति ॥ ५७॥ आकर्णपूर्ण कुटिलालकोमि रराज लावण्यसरो यद वलिच्छलात्सारणिधोरणीभिः प्रवाह्यते तज्जरसा नरस्य ॥ ५८ ॥ असंभृतं मण्डनमङ्गयष्टेर्नष्टं भव मे यौवनरत्नमेतत् । इती वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नषोऽषो भुवि बम्भ्रमीति ॥ ५९ ॥ इत्यं पुरः प्रेष्य जरामवृष्यां दूतो मियापत्प्रसप्रदंष्ट्रः । याचन्न कालो प्रसते बलाम्मां तावद्यविष्ये परमार्थ सिख्यं ॥ ६० ॥ सर्ग ४ " प्रकीर्णक निर्देश २३ ७७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह ईर्ष्यालु जरा कहीं से आकर अस्य स्त्रियों के साथ समागम की लालसा रखनेवाले हम लोगों के बाल खींच कुछ ही समय बाद पैर की ऐसी ठोफर देगी कि जिससे सब दांत झड़ जायेंगे । अरे, तुम्हारा शरीर तो बड़े-बड़े बलवानों से ( पक्ष में, बुढ़ापा के कारण पड़ी हुई ६५ की सिौ पः " मा लिर हिना न्यों नष्ट हो गया-कैसे भाग गया ? इस प्रकार यह बरा-वृद्धमानवों के कानों के पास जाकर उठती हुई सफ़ेदी के बहाने मानो उनकी हंसी ही करती है। भले ही वह मनुष्य शृंगारादि रसों से परिपूर्ण हो ( पक्ष में, जल से भरा हो) पर जिसके बालों का समूह खिले हुए काश के फूलों के समान सफ़ेद हो चुका है उसे युवती स्त्रियां हड्डियों से भरे हुए चाण्डाल के कुएं के पानी की तरह दूर से ही छोड़ देती है। मनुष्य के शरीर में कुटिल केशरूपी लहरों से युक्त जो यह सौन्दर्यरूपी सरोवर लबालब भरा होता है उसे बुढ़ापा झुर्रियों के बहाने मानो नहरें खोलकर ही बहा देता है। जो बिना पहने ही शरीर को अलंकृत करने वाला माभूषण था वह मेरा यौवनरूपी रत्न कहीं गिर गया ? मानो उसे खोजने के लिए ही वृद्ध मनुष्य अपना पूर्वभाग झुकाकर नीचे-नीचे देखता हुआ पृथ्वी पर इधर-उधर चलता है। इस प्रकार जरारूपी चतुर दूती को आगे भेजकर आपदाओं के समूहरूप पैनी-पनी डाढ़ों को धारण करनेवाला यमराज जबतक हात् मुझे नहीं प्रसता है तबतक मैं परमार्थ की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता हूँ। सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन-निन्दा 'क्वचिन्निन्दा खलादीनां सतां च गुणकोर्सनम्' इस उक्ति के अनुसार महाकाव्य के प्रारम्भ में कहीं दुर्जनों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा की जाती है। बाणभट्ट ने कादम्बरी की पीठिका में ५,६ और ७वें श्लोक के द्वारा तथा वादीभसिंह ने गद्यविन्तामणि में ७ और वें श्लोक के द्वारा पल-निन्दा और साधु-प्रशंसा की है। धर्मशर्माभ्युदय का यह प्रकरण अन्य काव्यों की अपेक्षा विस्तृत और भावपूर्ण भाषा में लिखा गया है। यहां यह वर्णन प्रथम सर्ग के १८ से ३१ तक तेरह श्लोकों में पूर्ण हुआ है । पथा परस्य तुच्छेऽपि परोजुरागो महत्यपि स्वस्य गुणे न तोषः । एवंविधी यस्य मनोविवेकः किं प्राध्यते सोन हिताय साधुः ॥१८॥ दूसरे के छोटे से छोटे गुण में भी बड़ा अनुराग और अपने बड़े से बड़े गुण में भी असन्तोष, जिसके मन का ऐसा विवेक है उस साधु से हित के लिए नया प्रार्थना की जाये ? वह लो प्रार्थना के बिना ही हित में प्रवृत्त है। साधोबिनिर्माणविधी विधातुश्च्युताः कथंचित्परमाणयो ये । मन्ये कृतास्तरुपकारिणोऽन्ये पाथोयचन्द्रद्रुमचन्दनायाः ।।१९।। सज्जन पुरुषों की रचना करते समय ब्रह्माजी के हाथ से किसी प्रकार जो महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुशीलन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमाणु नीचे गिर गये थे, मैं मानता हूँ कि मेघ, चन्द्रमा, वृक्ष तथा चन्दन आदि अन्य उपकारी पदार्थों की रचना उन्हीं परमाणुओं से हुई थी। निसर्गशुद्धस्य सतो न कश्चिच्चेसोविकाराय भवत्युपाधिः। त्यक्तस्वभावोऽपि बिवर्णयोगास् कथं तदस्य स्फटिकोऽस्तु तुल्यः ॥२१॥ सज्जन पुरुष स्वभाव से ही निर्मल होता है अतः कोई भी बाह्य पदार्थ उसके चित्त में विकार उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है । परन्तु स्फटिक विषिष वर्णवाले पदार्थों के संसर्ग से अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य-रूप हो जाता है अतः वह सज्जन के तुल्य कैसे हो सकता है। दोषानुरक्तस्प खलस्य कस्याप्युलूकपोतस्य २ को विशेषः । अह्नीव सत्काम्तिमति प्रबन्धे मलीमसं केवलमीक्षाते यः ॥२३॥ दोषों में अनुरक्त दुर्जन और पोषा-रात्रि में अनुरक्त किसी उल्लू के बच्चे में क्या विशेषता है ? क्योंकि जिस प्रकार उल्लू का बच्या उत्तम काम्ति से युक्त दिन में केवल काला-काला अन्धकार देखता है उसी प्रकार दुर्जन, उत्तम कान्ति आदि गुणों से युक्त काव्य में भी केवल दोष ही देखता है । अहो खलस्यापि महोपयोगः स्नेहगुहो यत्परिशीलनेन । आकर्णमापूरितपात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षत एव गावः ॥२६॥ बड़े आश्चर्य की बात है कि स्नेहहीन खल-दुर्जन का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके संसर्ग से यह रचनाएं बिना किसी तोड़ के पूर्ण आनन्द प्रदान करती हैं ( अप्रकृत अर्थ ) कैसा आश्चर्य है कि तैल रहित स्वली का भी बड़ा उपयोग होता है क्योंकि उसके सेवन से यह गायें बिना किसी आघात के बरतन भर-भरकर दूध देती है। आः कोमलालापपरेऽपि मा गाः प्रमादमन्तःकठिने खलेऽस्मिन् । शेवालशालिन्युपले छलेन पातो भवत्केवलदुःखहेतुः ॥२७॥ अरे ! मैं क्या कह गया ? दुर्जन भले ही मधुर भाषण करता हो पर उसका अन्तरंग कठिन ही रहता है, अतः उसके विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि शेवाल से सुशोभित पत्थर के ऊपर घोखे से गिर जाना केवल दुस्ख का ही कारण होता है। सज्जन और दुर्जन के संगम की उपयोगिता बताते हुए देखिए, कितनी मनोरम उक्ति है ? वृत्तिमरुद्वीपवतीच सापोः खलस्य वैवस्वतसोदरीव । तयोः प्रयोगे कृतमज्जनो वः प्रबन्धबधुर्लभता विशुद्धिम् ॥३१॥ यतश्च सज्जन मनुष्य का व्यवहार गंगा नदी के समान घपल है और दुर्जन का यमुना के समान काला, अतः उन दोनों के संगमस्प-प्रयाग क्षेत्र में अवगाहन करनेवाला हमारा काव्यरूपी बन्धु विशुद्धि को प्राप्त हो ( जिस प्रकार प्रयाग में गंगा और यमुना प्रकीर्णक निर्देश ५९ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के संगम में गोता लगाकर मनुष्य शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार सज्जन और दुर्जन की प्रशंसा तथा निन्दा के बीच पड़कर हमारा काव्य विशुद्ध-निर्दोष हो जाये। ) दुर्जन के अनेक नामों में एक 'कृष्णमुख' भो नाम प्रचलित है। उसका कृष्णमुख नाम क्यों पड़ा, इसमें कवि की सुन्दर पुक्ति देखिए आदाय शब्दार्थमलीमसानि यदुर्जनोऽसौ वदने दधाति । तेनैव सस्याननमेव कृष्णं सतां प्रबन्धः पुनरुज्ज्वलोऽभूत् ।।२८।। यतश्च खुर्जन मनुष्य शब्द और अर्थ के दोर्षों को ले-लेकर अपने मुख में रखता जाता है-मुख द्वारा उच्चारण करता है अतः उसका मुख काला होता है और घोष निकल जाने से सज्जनों की रचना उज्ज्वल-निर्दोष हो जाती है। इसी सन्दर्भ में चन्द्रप्रभचरित का यह श्लोक भी बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है गुणानगृह्णन् सुजनो न निर्वृति प्रयालि दोषानवदन्न दुर्जनः । चिरन्तनाम्पासनिबन्धनेरिता गुणेषु दोषेषु च जायते मतिः ॥७॥ गणों को ग्रहण' किये बिना सज्जन और घोषों को कहे बिना दुर्जन सन्तोष को प्राप्त नहीं होता कि शुद्धि, तिरना: यासमी प्राण से प्रेरित होकर ही गुणों और दोषों में प्रवृत्त होती है। महाकवि अर्हद्दास के मुनिसुव्रत काव्य का निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य है सन्तःस्वभावाद् गुणरत्नमत्थे गृह्णन्ति दोषोपलमात्मकोयम् । यमा पयोऽरलं शिशवो जलौका जनो वृथा रज्यति कुप्यतीह ||८||-सर्ग १ गद्यचिन्तामणि में यादीभसिंह का भी एक श्लोक देखिएत्यवानुवर्तनलिरस्करणौ प्रजानां श्रेयः परं च कुरुतोऽमृतकालकूटौ । तवत्सदन्यमनुजावपि हि प्रकृत्या तस्मादपेक्ष्य किमुपेक्ष्य किमन्यमेति ॥८१।। कादम्बरी में बाणभट्ट का भी एक पद्य देखिए कटु क्वणन्तो मलदायकाः खलास्तुदन्त्यलं बन्धनाला इव । मनस्तु साधुध्वनिभिः पदे पदे हरम्ति सन्तो मणिनपुरा इव ||६|| कटु शब्द बोलते हुए, दोष देनेवाले दुर्जन बन्धन की सांकल के समान अत्यन्त दुख देते हैं जबकि सज्जन पुरुष मणिमय नूपुरों के समान उसम शब्दों के द्वारा पद-पद पर मन को हरण करते हैं। ___ कालिदास, मारवि, माघ तथा श्रीहर्ष आदि कवियों ने अपने काव्यों में इस सन्दर्भ की चर्चा नहीं की है इसलिए क्वचित् शब्द के द्वारा इसकी प्रायोवादता प्रदर्शित की गयी है। पुत्राभाव-वेदना गृहस्थ दम्पति के हृदय में पुत्र की स्वाभाविक स्पृहा रहा करती है। क्योंकि उसके बिना उसका गार्हस्थ्य अपूर्ण रहता है । रघुवंश में कालिबास ने राजा दिलीप के १८० महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्राभाव-सम्बन्धी दुख का वर्णन किया है । बाणभट्ट ने कादम्बरी में इसका विस्तृत और मार्मिक उल्लेख किया है। श्रीचन्द्रप्रभ चरित में महाकवि' बीरनन्दी ने भी इसकी चर्चा की है पर धर्मशर्माभ्युदय के द्वितीय सर्ग के अन्त में { ६८-७४ ) महाकवि हरिचन्द्र ने सुब्रता रानी के पुत्र न होने के कारण राजा महासेन के मुख से जो दुख प्रकट किया है वह पढ़ते ही हुदय पर गहरी चोट करता है। उदाहरण के लिए कुछ श्लोक देखिए सहस्रधा सत्यपि गोत्रो जने सुत विना कस्य मनः प्रसीदति । अपीद्धताराग्रहभितं भवेदृते विषोयामलमेव दिङ्मुखम् !!७०।। हतारों कुटुम्बियों के रहते हुए भी पुत्र के बिना किसका मन प्रसन्न होता है । भले ही आकाश देदीप्यमान ताराओं और ग्रहों से युक्त हो पर चन्द्रमा के बिना मलिन हो रहता है। न चन्दनेन्दीवरहारयष्टयो न चन्द्ररोचींषि न वामृतच्छटाः । सुताङ्गसंस्पर्शसुखस्य निस्तुल कलामयन्ते खलु पोडशीमपि ।।२।७१।। पुत्र के शरीर के स्पर्श से जो सुस्न होता है वह सर्वथा निरुपम है, पूर्ण की बात जाने दो उसके सोलहवें भाग को भी न चन्द्रमा पा सकता है, न इन्दीबर पा सकते हैं, न मणियों का हार पा सकता है, न चन्द्रमा की किरणों पा सकती है, और न अमृत की छटा ही पा सकती है। नभो दिनेशेन नमेन विक्रमी वनं मृगेन्द्रेण निशीथमिन्दुना । प्रतापलक्ष्मीबलकान्तिशालिना मिना न पुत्रेण च भाति नः कुलम् ||२७३|| जिस प्रकार सूर्य के बिना आकाश, नम के बिना पराक्रम, सिंह के बिना वन और चन्द्रमा के बिना राधि की शोभा नहीं उसी प्रकार प्रताप, लक्ष्मी, बल और कान्ति से शोभायमान पुत्र के बिना हमारा कुल सुशोभित नहीं होता । क्यामि तल्कि न करोमि दुष्करं शुरेश्वर वा कममि कामदम् । इतीचिन्ताचपचक्नचालितं क्वचिन्न चेतोऽस्य बभूव निश्चलम् ।।२।७४।। कहाँ जाऊँ ? कौन-सा कठिन कार्य करूं? अथवा मनोरथ को पूर्ण करनेवाले किस देवेन्द्र को शरण गर्ने ?....इस प्रकार इष्टपदार्थविषयक पिस्ता समूहरूपी चक्र से चलाया हुआ राजा का मन किसी भी जगह निश्चल नहीं हो रहा था । इस प्रकार धर्मशर्माभ्युदय का पुत्राभाव वर्णन यद्यपि संक्षिप्त है सथापि मामिक है। एक बाल अवश्य है, मनोविज्ञान की दृष्टि से पुत्र के अभाव में माता का हृदय जितना तड़पता है उतना पिता का नहीं इसलिए यह वेदना माता के मुख से प्रकट की जाने पर अधिक मार्मिक दिखती है जैसा कि चन्द्रप्रभचरित में उसके कर्ता वीरनन्दी ने श्रीकान्ता रानी के मुख से इस पीड़ा का वर्णन किया है। उस प्रसंग के एक-दो लोक देखिए चन्द्राजिलता रचिरलंकुरुते चनानां वीथीं सरोअनिकरः सरसीमहंसाम् । प्रकीर्णक निर्देश १८१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रं विहाय निजसन्ततिबीजमन्यो ___ न त्वस्ति मण्डनविधिः कुलपुत्रिकाणाम् ।।३।३३।। तेनोज्झितां निजकुलकविभूषणेन ___ सौभाग्य-सौख्य-विभवस्थिरकारणेन । मां शाननुवन्ति परितर्पयितुं विपुण्यां न शातयो न सुहृदो न पतिप्रसादाः ॥३॥३४॥ चन्द्रमा के द्वारा छोड़ी हुई घनथीथी-आकाश को सूर्य अलंकृत करने लगता है और हंस से रहित सरसी को कमलसमूह सुशोभित करने लगता है परन्तु निजसन्तति के दीजरूप पुत्र को छोड़कर कुलांगनाओं का दूसरा आभूषण नहीं है। निज फुल के एक-द्वितीय आभूषण, तथा सौभाग्य सुख और विभव के स्थिरकारणस्वरूप पुत्र से रहिस मुहा अभागिनी को सन्तुष्ट करने के लिए न जाति के लोग, न मित्रगण और न पति के प्रसाद ही समर्थ हैं। ___ कादम्बरी में इस दुख का विस्तार अद्यपि राजा के मुख से हुआ है तथापि उसका प्रारम्भ रानी के द्वारा ही किया गया है। रघुवंश तथा धर्मशर्माभ्युदय में पुरुषमुख से इसका वर्णन किया गया है । स्वप्नदर्शन तीर्थकर की माता, तीर्थकर पुत्र के गर्भावतार के पूर्व निम्नलिखित १६ स्वप्न देखती है १. ऐरावत हाथो, २. बैल, ३. सिंह, ४. लक्ष्मी का अभिषेक, ५. मालायुगल, ६. चन्द्रमण्डल, ७. सूर्यबिम्ब ८, मीनयुगल ९. कुम्भयुग, १., सरोवर, ११. समुद्र, १२. सिंहासन, १३, विमान, १४, नागेन्द्रभवन, १५. रत्नराशि और १६. निघूम अग्नि । स्वप्न-विज्ञान में संक्षेपतः स्वप्न तीन प्रकार के बतलाये हैं-संस्कारज, दोषज और अदृष्टज | दिन-भर के संस्कारों से जो स्वप्न आते हैं उन्हें संस्कारज कहते हैं। वात, पित्त और कफ में शोष उत्पन्न होने से जो स्वप्न आते हैं उन्हें दोषज स्वप्न कहते है और शुभ-अशुभ फल को सूचित करनेवाले जो स्वप्न आते है उन्हें अदृष्टज स्वप्न कहते है। संस्कारज और दोषज स्वप्नों का कोई फल नहीं होता और उनके दिखने का कोई समय भी निश्चित नहीं है परन्तु अदृष्टज स्वप्न शुभ-अशुभ फल की सूचना देते हैं और ये स्वप्न रात्रि के पिछले भाग में आते हैं। तीर्थकर धर्मनाथ की माता सुव्रता ने भी रात्रि के पिछले प्रहर में उपर्युक्त सोलह स्वप्न देखे हैं । इन स्वप्नों का वर्णन धर्मश म्युदय के पंचम सर्ग में अलंकारपूर्ण भाषा के द्वारा किया गया है। स्वप्नदर्शन के पश्चात् सुयता रानी प्रभातकाल में आभू. षणादि से सुसज्जित हो पति--राजा महासन के समीप जाफर समस्त स्वप्न सुनावी है । स्वप्न-विज्ञान के विद्वान् राजा महासेन उसे स्वप्नों का फल बतलाते हुए कहते हैं१८२ महाकवि हरिचन्द्र शुक अनुशीलम Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे देवि', एक तुम्ही धष्प हो, जिसने कि ऐसा स्वप्नों का समूह देखा । हे पुण्यकन्दलि [ मैं क्रम से उसका फल कहता हूँ, सुनो। तुम इस स्वप्न-समूह के द्वारा गजेन्द्र के समान दानी, वृषभ के समान धर्म का भार धारण करनेवाला, सिंह के समान पराक्रमी, लक्ष्मी के स्वरूप के समान सबके द्वारा सेवित, मालाओं के समान प्रसिद्ध कोतिरूप सुगन्धि का धारक, चन्द्रमा के समान नयनासावकारी कान्ति से युक्त, सूर्य की तरह संसार के जगाने में निपुण, मीनयुगल के समान अत्यन्त आनन्द का धारक, कलशयुमल के समान मंगल का पात्र, निर्मल सरोवर की तरह सम्ताप को नष्ट करनेवाला, समुद्र की तरह मयदिा का पालक, सिंहासन के समान उन्नति को दिखानेवाला, विमान की तरह देवों का आगमन करनेवाला, नागेन्द्र के भवन के समान प्रशंसनीय तीर्थ से युनः, रलों की राशि के समान उत्तम गुणों से सहित और अग्नि की तरह कर्मरूप वन को जलानवाला, त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर पुत्र प्राप्त करांगी सी ठीक ही है क्योंकि व्रत-विशेष शोभायमान जीत्रों का स्वप्नसमूह कहीं भी निष्फल नहीं होता। यद्यपि ग्रह स्वप्नदान का प्रकरण तीर्थंकर-चरित्र का वर्णन करनेवाले अन्य महाकाव्यों में भी आया है तथापि धर्मशाभ्युदय का यह प्रकरण सबसे विलक्षण है। तीर्थकर के गर्भकल्याणक का वर्णन करने के लिए कवि ने पुरा एक सर्ग घेरा है। स्वप्नवर्णन में कवि ने जो अलंकारों की सरस छटा छोटी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। १. घर्मदापुदय, सर्ग ५, २२ क ८५-८६ । प्रकीर्णक निर्देश १८३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्म ३ : नीति-निकुज धर्मवाभ्युिदय का सुभाषितनिचय धर्मशर्माम्युदय अनेक मुभाषितों का भण्डार है । सुभाषित उस प्रकाश-स्तम्भ के समान माने जाते हैं जो पथभ्रान्त पथिकों को मार्ग से विचलित नहीं होने देते और विचलित हुओं को मार्गदर्शन में तत्पर रखते हैं । अर्थान्तरन्यास या' अप्रस्तुत-प्रशंसा के रूप में आये हुए अनेक सुभाषित इस महाकाव्य की शोभा बढ़ा रहे हैं। उदाहरण के लिए इरा स्तम्भ में कुछ सुभाषितों का संकलन किया जा रहा है । अर्थ स्पष्ट है अतः मूल का संकलन किया गया है-- उच्चासनस्थोऽपि सतां न किचिन्नीचः स चित्तेषु चमत्करोति । स्वर्णाद्रिशृङ्गाग्रमधिष्ठितोऽपि काको बराकः खलु काक एव ।।१।३०।। न चन्दनेन्दीवरहारयष्टनो न चन्द्ररोचींषि न चागृतस्छटाः । सुता ङ्गसंपर्शसुन्तस्य निस्तुलां कलामयन्ते खलु षोडशोमपि ॥२:७१।। 'न परं विनयः श्रीणामाश्रयः थेयसामपि ॥३१४६।। 'नेत्रावृष्ण क्वचित्तेजस्तमसा नाभिभूयते' ।।३१६२।। 'न झुदात्तस्य माहात्म्य लढयन्तीतरे स्वराः ॥३॥६५॥ 'कथा कथंचिकथिता श्रुता वा जैनी यतश्चिन्तितकामधेनुः ॥४॥२॥ 'यद्रा किमुल्लवयितुं कथंचिकेनापि शक्यो नियतेनियोगः ।।४।४५|| 'मृगः सतृष्णो मृगतृष्णिकासु प्रतार्यते तोयधिया न धीमान्' 1॥४५४॥ "किं वा विमोहाय विवेलिना स्यात् ।।४।६१ ॥ 'को वा स्तनाग्राम्यवधूय धेनोर्बुग्ध विदग्घो ननु दोग्धि शृङ्गम् ॥४॥६६॥ 'मणेरनर्घस्य कुतोऽपि लग्नं को वा न पत परिमाष्टि तोयैः' १४।७५ 'को वा स्थिति सम्यगति राज्ञाम् ।।४।७८|| 'जायते व्रतविशेषशालिना स्वप्नवृन्दमफलं हि न क्वचित्' ।४।८६।। 'अहो मदान्धस्य कुतो विवेकः' ।।७५३॥ 'स्वजीवितेभ्योऽपि महोन्नतानामहो गरीयानभिमान एवं ॥७१५४।। 'कुतोऽथवा स्यान्महोदयः स्त्रीव्यसनालसानाम्' १७१५८11 'अबसरमुखरत्न प्रीतये कस्य न स्यात् ।।८।१५।। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन १८४ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'न खलु मतिविकासावशंदृष्टाखिलाः कथमपि विततायो वाचमाचक्षते ते ॥८॥४il 'प्रतिशिखरि वनानि ग्रीष्ममध्येऽपि कुर्यात् किमु न जलदकाल: प्रोल्लसत्पल्लवानि' ।। ८१४९।। 'यः स्वप्नविज्ञानगते रगोचरमरन्ति नो यत्र गिरः कवेरपि । यं नानुबध्नन्ति मनःप्रवृत्तयः स हेलयार्थो विधिनैव साध्यते ॥९॥३७॥ 'छह विकृतिमुपैति पण्डितोऽपि प्रणयवतीपु न कि जडस्वभावः' ॥१३॥३०॥ 'अधिगतहृदया मनस्विनीनां किमु विलसन्मकरध्वजा न कुर्युः ॥१३॥३२॥ अहो दुरन्तो बलवहिरोषः' ॥१४॥१२॥ 'कः स्त्रीणां गह्नमवैति तच्चरित्रम्' ॥१६॥३३॥ 'को का चरितं महतामवति' ||१७४५।। 'द्रष्टुं दृढौपायमन एव चक्षुस्तृतीयं सुदृशामुपैति' ।।१७।९५।। 'अपत्यमिच्छन्ति तदेव साधको न येन आतेन पतन्ति पूर्वजाः ॥१८॥१२॥ 'निया पिशाच्येव नृपत्वचत्वरे परिस्खलकलितो न भूपतिः ॥१८॥१६॥ 'इनार्थकामाभिनिवेशलालसः स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति यो नृपः । फलाभिलाषेण समीहते तरूं समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥१८॥३२॥ 'यरसंसक्तं प्राणिनां क्षीरनीरन्यायेनोश्रङ्गमप्यन्तरङ्गम् । आयुश्छेदे याति चेत्तत्तदास्था का बाह्येषु स्त्रीतनूजादिकेषु ॥२०।१३।। सूचना- अष्टादश सर्ग के १२ से लेकर ४३ वक के श्लोक सुभाषित रूप ही है। नौस्युपवेश और राज्यशासन बाणभट्ट ने कादम्बरी में शुकनासोपदेश का सन्दर्भ देकर नोत्युपदेश की जो परम्परा प्रचलित की थी वह उत्तरवर्ती लेखकों को बहुत रुचिकर हुई। किसी न किसी रूप में उन्होंने अपने ग्रन्थों में उसे स्थान दिया है। भारवि ने किरातार्जुनीय में युधिष्ठिरोपदेश के द्वारा, माघ ने शिशुपालवच में उद्धवोपदेश के द्वारा, और वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित में श्रीषेणोपदेश के द्वारा उसे अपनाया है। धर्मशर्माम्युदय के अष्टावश सर्ग में दीक्षा लेते समय राजा महासेन ने अपने प्रिय पुत्र धर्ममाण के लिए जो देशना दी है वह भी उसी परम्परा की सम्पुष्टि है। महाकवि हरिचन्द्र ने यह प्रकरण १४ से लेकर ४४ तक ३० श्लोकों में पूर्ण किया है। इनके उपदेश को विशेषता यह है कि उस यत्र-तत्र साहित्यिक छटा बिखरी हुई है । उदाहरण के लिए, दो चार श्लोक देखिए गुणार्जन की प्रेरणा करते हुए राजा महासेन कहते हैंभृशं गुणानर्जय सद्गुणो जनैः क्रियासु कोदण्ड इव प्रशस्यते । गुणच्युतो बाण इवातिभीषणः प्रयाति वलयपमिह क्षणादपि ॥१५॥ नीति-निकुंज Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों का अत्यधिक अर्जन करो क्योंकि उत्तम गुणों से युक्त (पक्ष में, उत्तम होरी से युक्त ) मनुष्य ही कार्यों में अनुष के समान प्रशंसनीय होता है, गुणों से रहित ( पक्ष में, ओरी से रहित ) मनुष्य बाण के समान अत्यन्त भयंकर होने पर भी क्षण-भर में लक्ष्य -लज्जा ( पक्ष में, लक्ष्यभ्रष्टता) को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य को पराश्रयी नहीं होना चाहिए-इसका वर्णन देखिएस्थितेऽपि कोषे नृपतिः पराश्रयो प्रपद्यते लाघवमेव केवलम् । अशेषषिश्वम्भरकुक्षिरध्युतो बलि भजन कि न बभूव वामनः ॥२२॥ निज का खजाना रहने पर भी जो पर का आश्रय लेता है यह केवल तुच्छता को प्राप्त होता है । जिसका उदर अपने आपमें समस्त संसार को भरनेवाला है ऐसा विष्णु, बलि राजा की आराधना करता हुक्षा क्या वामन नहीं हो गया था ? श्रिवर्गसाधना का उपदेश देते हुए कहते हैसुखं फलं राज्यपदस्थ जन्यते सत्र कामेन स नार्थसाधनः । विमुच्य तौ चेदिह धर्ममीहसे वृथैव राज्यं वनमेव सेव्यताम् ॥३१॥ इहार्थकामाभिनिवेशलालसः स्वधर्ममर्माणि भिनत्ति-यो नुपः। फलाभिलाषेण समीहते उरुं समूलमुन्मूलयितुं स दुर्मतिः ॥३२॥ राज्य पद का फल सुख है, वह सुख काम से उत्पन्न होता है और काम अर्थ से । यदि तुम दोनों को छोड़कर भिमाल मर्ग की इछ मते होती है : उपरे अच्छा तो यही है कि बन की सेवा की जाये। जो राजा अर्थ और कास-प्रामि की लालसा रख अपने धर्म के मर्मी का भवन करता है वह दुर्मति फल की इच्छा से समूल वृक्ष को उखाड़ता है। राजपद की सार्थकता पतलाते हुए कहते हैपिनोति मित्राणि न पाति न प्रजा बिभर्ति भृत्यानपि नार्थसंपदा । नयः स्वतुल्यान् विदधाति बान्धवान् स राजशब्दप्रतिपत्तिभाक् कथम् ॥४०॥ जो न मियों को सन्तुष्ट करता है, न प्रजा की रक्षा करता है, न भृत्यों का भरण-पोषण करता है, और न अर्थरूप सम्पत्ति के द्वारा भाई-बन्धुओं को अपने समान ही बनाता है वह राजा कैसे कहलाता है ? नीत्युपदेश के अनन्तर राजा महासेन ने युवराज धर्मनाथ का राज्याभिषेक किया और उन्हें समस्त सम्पसि सौंपकर जिनदीक्षा धारण कर लो। धर्मनाथ राज्य-सिंहासन पर मारूढ़ हुए। इनकी राज्य-व्यवस्था का वर्णन करते हुए कवि हरिचन्द्र ने कहा है न चापमृत्युन च रोगसंचयो बभूव दुभिक्षभयं न च क्वचित् । महोदये शाराति सम मेदिनी नगन्दुसनस्दजुषश्चिरं प्रजाः ११५९।। अनी समीरः सुनहेतुरङ्गिनां हिमादिवोष्णावपि नाभवद् भयम् । प्रभोः प्रभावात्सकलेऽपि भूतले स कामवर्णी जलदोऽप्यजायत ॥६॥ महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुचीकन 12 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजस्रमासीद् धनसंपदागमो न वारिसंपत्तिरदृश्यस क्वचित् । महोजसि त्रातरि सर्वतः सतां सदा पराभूतिरभूविज्ञाद्भुतम् ।।६२॥ न नीरसत्वं सलिलाशयावृते वधावयः पङ्कषमेव सद्गुणान् । अमूमधर्मतिषि तब राजनि त्रिलोचने अवजिनानुरागिता १६३॥ प्रसह्य रक्षस्यपि मोतिमक्षतामभूवनीतिः सुखभामर्न बनः । भयापहारिण्यपि तत्र सर्वतः क्व नाम नासीत्प्रभयान्वितः क्षिती ।।६४॥ -सर्ग १८ महान वैभव के धारक मगवान् धर्मनाथ जब पृथिवी का शासन कर रहे थे तब न अकालमरण था, न रोगों का समूह था, और न कहीं दुभिक्ष का भय ही था। यानन्द को प्राप्त हुई प्रा चिरकाल तक समृद्धि को प्राप्त होती रही । ___ उस समय भगवान् के प्रभाव से समस्त पृथिवी-तल पर प्राणियों को सुख का कारण वायु बह रहा था, सर्दी और गर्मी ने भी किसी को भय नहीं था और मेघ भी इच्छानुसार वर्षा करनेवाला हो गया था। . अतिशय तेजस्वी भगवान् धर्मनाथ के सन ओर सज्जनों की रक्षा करने पर घनसम्पदागम-मेघरूपी सम्पत्ति का आगम ( पक्ष में, अधिक सम्पत्ति का आगमन ) निरन्तर रहता था किन्तु वारिसम्पत्ति-जलरूप सम्पदा ( पक्ष में, शत्रुओं को सम्पदा ) काही नहीं विटाई देती पी हार या पति - प्रात्यजिन' साप अथवा अपमान ( पक्ष में, उत्कृष्ट वैभव ) ही दिखता था—यह भारी आश्चर्य की बात थी।' अधर्म के साथ द्वेष करनेवाले भगवान् धर्मनाथ के राजा रहने पर नीरसत्यजल का सद्भाव जलाशय के सिवाय किसी अन्य स्थान में नहीं था; ( पक्ष में, नीरसता किसी अन्य मनुष्य में नहीं थी ) सदगुणों-मृणाल तन्तुओं को कमल ही नीचे घारण करता था, अन्य कोई सदगुणों-उत्सम गुणवान मनुष्यों का तिरस्कार नहीं करता था और अजिनानुरागिता-धर्म से प्रीति महादेवजी में ही थी, अन्य किसी में अजिनानुरागिता-जिनेन्द्र-विषयक अनुराग का अभाव नहीं था। ___ यद्यपि भगवान् धर्मनाथ अखण्डितनीति की रक्षा करते थे फिर भी लोग अनीति-नीतिरहित ( पक्ष में, अतिवृष्टि आदि ईतिरहित ) होकर सुख के पात्र थे और वे मद्यपि पथिवी में सम ओर भय का अपहरण करते थे फिर भी प्रभयान्वितअधिक भय से सहित ( पक्ष में, प्रभा से सहित ) कहा नहीं था ? सर्वत्र था।' उपर्युक्त श्लोकों में से ६२ और ६ श्लोक ने मिलकर अहंदास कवि के पुरुदेवचम्पू में निम्न प्रकार प्रवेश किया है १. विरोधाभास । २, परिसंरल्या। ३. चिरोधाभास। नीति-निर्बुज Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा थेवे पृथ्वीमवति घनसंपत्सिरभवत् न वारिपाचुर्य तदपि भुवनेषु क्वचिदभूत् । भयेम्यः स्वं प्रातर्यपि माहितनीतिज्ञ चतुरो श्यनीतिः पौरोऽयं समबनि भयावयव वत हा ॥२१॥ सर्ग-स्तबक ७ -श्लोक का भाव उपरितन पलोकों के अनुवाद से स्पष्ट है । जीवन्धरसम्पू का सभाषित-संचय महाकवि हरिचन्द्र ने जीवन्वरचम्पू में भी जहां-तहां अनेक सुभाषित रूप प्रकाश-स्तम्भ खड़े किये है जिनमें कुछ का यहां दिग्दर्शन कराया जाता है। विस्तारभय से हिन्दी अर्थ नहीं दिया जा रहा है-- धर्मार्थयुग्मं फिल काममूलमिति प्रसिद्ध नृप नीतिशास्त्र। मूले गते कामकथा कथं स्यात्ोकायितं वा शिखिनि प्रगष्टे ।।३३।। उर्वश्यामनुरागतः कमलभूरासाबकोर्णा क्षणात् पार्वत्याः प्रणयेन चन्द्रमकुटोप्यर्षाङ्गमोऽजामत ! विष्णुः स्त्रीषु बिलोलमानसतया निदास्पदं सोऽप्यभूद बुद्धोन्येवमिति प्रतीतमखिलं देवस्य पृथ्वीपते ॥३४॥ प्राणा नुपालाः सकलप्रजानां यत्तेषु सत्स्वेव च जीवनानि । भूपेषु या द्रोहविधानचिन्ता सर्वप्रजास्येव कृता भवित्री ॥७॥ समस्तपातकानां हि सामानाधिकरण्यभूः । राज गेव भविता सर्वद्रोहित्वसंभवात् ।।७१ राज्ञो विरोधो वास्य विनाशाय भविष्यति । हवान्त राजविरोधेन सर्वत्र हि निरस्यते ।।७२॥ हर्षाय लोकस्य घराधिनाथः पिलश्नाति नित्यं परिपालनेन । छायाश्रितानां परिपालनाय तरुयथाप्नोति रविप्रतापम् ॥७३॥ -पृ. २७ शम्पानिभा संपदिदं दारीरं चलं प्रभुत्वं जलबुद्दामम् । तामण्यमारण्यसरित्सकायां क्षयिष्णुनाशो हि न शोचनीयः ॥७८॥ संयुक्तयोवियोगो हि संध्याचन्द्रमसोरिव । रक्तयोरपि दंपत्योभविता नियतेर्वशात् ॥७९॥ बन्धुत्वं शत्रुभूयं च कल्पनाशिल्पिनिमितम् । अनादौ सति संसारे तवयं कस्थ केन न 11८०॥ --पृ. २९ .- - - - - १. चन्द्रविरोधेन राजा प्री नृपे चन्द्र यक्षे क्षत्रियशकयोः' इति कोषः । २. शरयम् । महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यावल्ली पात्रसुक्षेत्रदत्ता प्रज्ञासिता सूक्तिभिः पुष्पिता च । माशायोषित्कर्णभूषायमाणां कीर्तिप्रोचम्मञ्जरीमादधाति ॥ १६ ॥ विद्याकल्पतरुः समुन्नति मित्तः प्राप्तोऽपि गभ्यो नतैः पुष्पाण्यत्र समेश्य मन्जुलमहोमुत्र प्रसूते फलम् । किं चायं खलु मूलमाश्रितवत संसापमन्तस्तनो त्यूर्ध्वं संचरतां नृणां पुनरसी तापं घुनीतेतमाम् ॥१७॥ - न कार्यः क्रोधोऽयं श्रुतजल थिमक हृदयनं चेद्र शास्त्रे परिचमकलाचारविधुरा । निजे पाणी दीपे लसति भुवि कूपे निपततां सोलम्यं हि महताया भूषणाय प्रकल्पते । प्रभुत्वस्येव गाम्भीर्य मौदार्यस्यैव सौम्यता ||४|| महत्वकाकाले नीति-निकुंज फलं कि तेन स्याविति गुरुरथोऽशिक्षयदम् ॥ १९॥ पृ. ४६ । एतद्द्वयं कुत्रचिदप्रतीतं कुरुप्रवीरे न्यवसत्प्रकाशम् ||५॥ – १. १२२ अशरण्यशरण्यत्वं परोपकृतिशीलता । दयारत्वं दाक्षिण्यं श्रीमतः सहजा गुणाः ॥ ३२ ॥ - ५. १२८ ॥ यदायविवजितः क्षितिपतिः प्रज्ञाविहीनी गुरुः कृत्याकृत्यविचारशून्यसचिवः संग्रामभीषभंटः । 'सर्वज्ञस्तवही नकल्पनकविचग्मित्वहीनो बुधः स्त्रीवैशग्यकथामभिज्ञपुरुषः सर्वे हि साधारणाः ||३६|| बच्चात्कठोरतरमेणदृशां हि चित्तं पुष्पावती मृयुको बचन प्रचारः । पु. ४४ कृत्यं निजालककुलादपि वक्ररूपं तस्माद्बुधाः सुनयनां न हि विश्वसन्ति ||३७|| वक्रं श्लेष्म निकेतनं मलमयं नेत्रद्वयं सस्कुपो मांसाकारधनी नितम्बफलकं रक्तास्थिपुञ्जाततम् । शीतांशुविकचोत्पलं करिपतेः कुम्भो महासंकतं मातीत्येवमुशन्ति मुग्धकवयस्तद्वागविस्फूर्जितम् ॥ ३८ ॥ - ५. १२९ या राज्यलक्ष्मी बहुदुःखसाच्या दुःखेन पाल्या चपला दुरन्ता । नष्टापि दुःखानि चिराय सुते तस्यां कदा वा सुखले लेवाः ||२३|| कल्लोलिनीनां निकरेरियाब्धिः कृपीटयोनिर्बलेन्धनेर्वा । कामं न संतृप्यति कामभोगेः कन्दर्पवदयः पुरुषः कदाचित् ॥ २४ ॥ १५९ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या सोहविहीनदीपालिकाकल्प चळं जीवितं शम्पावरक्षणभङ्गुरा तनुरियं लोलाभ्रतुल्यं वयः । तस्मात्संसृतिसन्नती न हि सुखं तत्रापि भूखः पुमा लावते. वहिवं करोति व पुनर्मोहाय कार्य वृथा ॥२५।। विलोम्यमानो विषयैर्वराको भङ्गर श्चम् । नारम्भदोषान्मनुते. मोहन बहुचुःखवान् ॥२६॥ ये मोक्षलक्ष्मीमनपायरूपा विहाय विन्दन्ति नृपाललक्ष्मीम् । निदाघकाले शिशिराम्बुमारा हित्वा भजन्ते मृगतष्णिकां ते ॥२८॥ -पू. २२४-२२५ जीवन्धर स्वामी की भक्ति-गंगा कथा-नामक जोबम्धर स्वामी भक्तहृदय महापुरुष थे, इसलिए उन्होंने एक वर्ष का लम्बा समय तीर्थयात्रा में श्यतीत किया था। चन्द्रोदय पर्वत से उतरकर उन्होंने दक्षिण भारत की बीहड़ अठवियों में एकाको भ्रमण कर अनेक जिन-मन्दिरों में दर्शन किये थे । दर्शन करते समय उनके मुखकमल से जो भक्ति-गंगा यत्र-तत्र प्रवाहित हुई है उसका कुछ नमूना संकलित किया जाता है । दक्षिण देश के क्षेमपुर नगर के बाह्योद्यान में स्थित जिनमन्दिर के दर्शन कर जीवन्धर स्वामी इस प्रकार जिनेन्द्र की स्तुति करते है भवभरभयदूरं भावितानन्दसारं घृतविमलशरीरं दिव्यवाणीविचारम् । मदनमवविकारं मजुकारुण्यपूर श्रयत जिनपधीर शान्तिनाथं गभीरम् ।।१७।। यस्यायोकताविभाति शिशिरच्छायः श्रितानां शुचं धुन्वन्सार्थकनामधेयगरिमा माहात्म्यसंवादकः । यं देवाः परितो ववर्षुरमितैः फुल्ल: प्रसूनोञ्चयः कल्याणाचलमन्ततः कुसुमिता मन्दारवृक्षा यथा ॥१८॥ सकलवचनभेदाकारिणी दिव्यभाषा पामयति भवतापं प्राणिनां मक्षु यस्य । अमरकरविधूतश्चामराणां समूहों पिलसति बल मुक्तिश्रीकटाक्षानुकारी ॥१९॥ कनकशिस्त्ररिङ्ग स्पर्धते पस्थ सिंहा सममिवमखिलेशं द्वेष्टि धर्मादिसीव । वलयमपि च भासा पद्मकन्धुं विरुद्धे मम पविरिलि सोमं यातिमापेति रोषात् ।।२०।। महाकवि हरिचन्न : एक मशीखन १९० Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिभुवनगतिभावं घोषयन्यस्य तारो मुखरयति दशाया दुम्नुभिध्वानपुरः । शयितुमिह रागद्वेषमोहान्धकार त्रितयमिव विधूना भाति छत्रधर्य तत् ॥२१॥ अक्षयाय नमस्तस्मै पक्षाधीशनताशौ । दक्षायामासान मजाये .।२६। -पु. १११.११२ उपर्युक्त श्लोकों में 'अष्टप्रातिहायों के द्वारा शान्तिनाम जिनेन्द्र का स्तवन किया गया है। अष्टप्रातिहार्यरूप स्तुति का एक रूप हम एकादश लम्भ के ४५वें श्लोक से लेकर ५२वें श्लोक तक पाते हैं । इन श्लोकों के बीच में गदपंक्तियाँ भी है। दिग्यतरुः वरघुष्पसभूष्टिभिरासमयोजनधोधी । .पातपधारणपामरयुग्म यस्य विभाति मगलत। अशोक मस, देवकृत पुष्पवृष्टि, पुन्दुभिवारन, सिंहासन, रिव्यध्वनि, पत्रम, चामर और भामण्मन में थाठमातिहास कहलाते हैं। मीति-निर्वाज Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तम्भ ४ : सामाजिक दशा और युद्ध-निदर्शन जीवन्धरचम्पू से ध्वनित सामाजिक स्थिति जीवन्धरचम्पू के अध्ययन से निम्नांकित सामाजिक स्थितियां प्रतिफलित होती हैवैवाहिक १. एक पुरुष के अनेक विधाह होते थे। २. क्षत्रिय और वैश्य-वर्ण के बीच विवाह होते थे। ३. शुद्रवर्ण के साथ उच्च-वर्णवालों का विवाह नहीं होता था। ४. अपरिपपय अवस्था में भी विवाह होते थे । ५. पिता के द्वारा कन्या का विया जाना तथा स्वयंवर प्रथा के द्वारा वर का चुनाव होना-ये विवाह की रीतियां थीं । कदाचित् गन्धर्व विवाह भी होता था। स्वयंवर की प्रथा राजा-महाराजा तथा बड़े लोगों तक ही सीमित थी। ६. बर के अन्वेषण में लोग प्रायः निमित्त-ज्ञानियों की भविष्यवाणी को ही महत्त्व देते थे। ७. विवाह अम्नि की साक्षी-पूर्वक होता था। लकड़ी के खाम को आवश्यकता नहीं रहती थी। पिता के द्वारा संकल्प के लिए वर के हस्ततल पर जलधारा दी जाती थी तदनन्तर वर कन्या का पाणिग्रहण करता था। भाँवर की प्रथा नहीं थी। ८. मामा की लड़की के साथ भी विवाह होता था। इस तरह विवाह में केवल एक सांक बचायी जाती थी। १. जीवघर के स्वयै थाठ पिवाह हुए 1 २. जीवन्धर ने पत्रिमवर्ण होकर गुणमाला, क्षेमश्री, विमला और मुरमंजरी इन चार वैश्य कन्याओं के साध विवाह किपा। ३. जीवन्धर ने नन्दगोप की कम्पा गोदावरी के साथ स्वयं विवाह न कर पदमास्य के साथ उसका विवाह कराया। सचूडामणि में वादीसिंह ने 'न ह्य योग्ये सता रूपहा' इस मुक्ति से उनकी इस क्रिया का समर्थन किया है। ४. जीवन्धरकुमार का १६ वर्ष की अवस्था में माता के साथ मिलान मा पा पर उससे पूर्व उनके विवाह हो चुके थे। ५, जीवन्धर ने गन्धर्वदत्ता और लक्ष्मण को स्वयंवर पिधि से प्रान किया था और मेष को पिता या अपज के दिये जाने पर। ६. लक्ष्मणा, जीवन्धर के मामा की लड़की थी। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिधान वस्त्र अल्प संख्या में उपयुक्त होते थे। पुरुष अधोवस्त्र और उत्तरपछद रखते थे। राजा-महाराजा आदि मुकुट का भी प्रयोग करते थे। स्त्रियाँ अधोवस्त्र और उत्तरच्छंद के अतिरिक्त स्वनवस्त्र भी पहनती थीं। दक्षिण के कवियों ने स्त्रियों के अवगुण्ठन---चूचट का वर्णन नहीं किया है और न पाद-कटक का, हाथ में मणियों के बलय और कमर में सुवर्ण अथवा मणिखचित मेखला पहनती थीं । गले में अधिकांश मोतियों की माला पवनी जाती थी। स्त्रियों के हाथों में कांच की चूड़ियों का कोई वर्णन नहीं मिलता है। पैरों में नूपुर पहनने की प्रथा थी और खासकर रुनमुन शब्द करनेवाले नूपुर पहनने की। राजनयिक __राजा अपनी आवश्यकतानुसार ४-६ मन्त्री रखता था, उनमें एक प्रधान मन्त्री रहता था, धार्मिक कार्य के लिए एक पुरोहित या राजपण्डित भी रहता था। राज्यसभा में रानी का भी स्थान रहता था। राजा अपना उसराधिकारी युवराज के रूप में निश्चित करता था । प्रमुख अपराधों का न्याय राजा स्वयं करता था । युद्ध और वाहन आवश्यकता पड़ने पर युद्ध होता था और अधिकतर धनुष-बाण से शस्त्र का काम लिया जाता था 1 खास अवस्था में तलवार का भी उपयोग होता था। युद्ध में रथ, घोड़े और हाथियों की सवारी का उल्लेख मिलता है। अन्य समय शिविका-पालकी का भी उपयोग होता था । इसका उपयोग अधिकांश स्त्रियां करती थी। उस समय सबसे सुखद वाहन मह्मयान-मियांना माना जाता था जो कि शिविका का परिष्कृत रूप है। शैक्षणिक ___ बालक-बालिकाएँ दोनों ही शिक्षा ग्रहण करती थीं । शिक्षा गुर-कृपा पर निर्भर रहती थी। विद्यार्थी गुरुभक्त रहते थे और गुरु सांसारिक माया-ममता से दूर । राजामहाराजा तथा प्रमुख सम्पन्न लोग शिक्षालयों की भी स्थापना करते थे पर उनमें अधिकांश उन्हीं के बालक-बालिकाएं शिक्षा ग्रहण करती थीं। यातायात यातायात के साधन अत्यन्त सीमित थे। मार्ग में भीलों आदि के उपद्रव का हर रहता था अतः लोग सार्थ-झुण्ड बनाकर चलते थे। यातायात में रथ तथा शकट आदि वाहनों का उपयोग होता था। जीवन्धर के पिता राजा सत्यन्धर ने अपनी गर्भवती रानी विजया का दोहला पूर्ण करने के लिए एक ऐसे मयूररत्न का निर्माण सामाजिक वशा और युद्ध-निदर्शन १९३ _२५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कराया था जो पुरुष द्वारा आकाश में घुमाया जाता था। यह मन्त्र भाकाश से शनैः-शनैः स्वयं ही पृथिवी पर उतर जाता था। काष्ठांगार के द्वारा राजभवन का प्रतिरोध किये जाने पर राजा सत्पन्धर ने इसी मयूरयन्त्र में बैठाकर विजया को आकाश में भेज दिया था। वह यन्त्र सन्ध्याकाल में श्मशान में स्वयं उतरा था । धार्मिक वैदिक धर्म और श्रमण धर्म-दोनों ही प्रचलित थे। अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार लोग धर्म-धारण करने में स्वतन्त्र थे। सब धर्मवालों में अधिकांश सौमनस्य चलता था। अपने बनविहार-काल में जीवन्धर वैदिक धर्मानुयायियों के तपोवन में ठहरे थे तथा उन्हें हिंसामय तप से निवृत्त होने का उपदेश भी उन्होंने दिया था । धर्मशर्मान्युक्य का युद्ध-वर्णन और चित्रालंकार विवाह के बाद धर्मनाथ तो कुबेर-निर्मित वायुयान के द्वारा शृंगारवती के साय रत्नपुर नगर वापस चले गये पर ईर्ष्यालु राजाओं ने सुषेण सेनापति का अवरोध किया। असफल राजाओं ने अपनी एक गुट बनाकर सुषेण पर आक्रमण की तैयारी की । युद्ध के पूर्व दूत भेजने की प्रथा प्राचीन काल से चली आयी है अतः उन्होंने सर्व प्रथम सुषेण के पास दूत भेजा । वह दूत यर्थक भाषा में बोलता है-एक अर्थ से धर्मनाथ की निन्दा और दूसरे अर्थ से उनकी प्रशंसा करता है। शिशुपालवध के पन्द्रहवें सर्ग में शिशुपाल की ओर से श्रीकृष्ण के प्रति जो दूत भेजा गया था, माघ ने भी उस दूत से तुमर्थक भाषा में निवेदन कराया है। वहां ऐसे ३४ श्लोक है जिन्हें मल्लिनाथ ने प्रक्षिप्त समझकर छोड़ दिया है-उनकी व्याख्या नहीं की है परन्तु शिशुपालवध के अन्य टीकाफार वल्लभदेव ने उन इलोकों की व्याख्या की है तथा उसमें निन्दा और स्तुति-इस प्रकार दो पक्ष स्पष्ट किये हैं। धर्मशर्माम्युदय के का हरिचन्न ने भी माघ की इस शैली का अनुकरण कर १९३ सर्ग में १२ से लेकर ३२ तक बोस श्लोकों द्वारा निन्दा और स्तुति दोनों पक्ष रखे है। कवि को श्लेष रचना का अच्छा प्रसंग मिला है । यद्यपि इसका कुछ उल्लेख पिछले स्तम्भों में किया जा चुका है तथापि प्रसंगोपात्त कुछ चर्चा पुनः प्रस्तुत की जा रही है । यही श्लेष के साथ यमक को भी आश्रय दिया गया है। यह माघ की अपेक्षा विशेषता है। उदाहरण के लिए कुछ श्लोक देखिए परमस्नेहनिष्ठास्ते परदानकृतोद्यमाः । समुन्नति तवेच्छन्ति प्रघनेन महापताम् ॥१८॥ राजानस्ते जगत्ल्याता बहुशोभनवाजिनः । वने कस्तरकुधा नासीद् बहुशोभमवाजिनः ।।१९।। १९४ महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकृपाणां स्थिति बिभ्रत्स्ववामनिधनं तव । दाता वा राजसंदोहो शावकान्तारसमाश्रयम् ॥२०॥ दूत के उत्तर में सुषेण सेनापति ने जो फटकार दी है वह उसकी वीरता को सूचित करनेवाली है । सुषेण ने कहा गुणदोषानविज्ञाय भर्तुर्भक्ताषिका जनाः । स्तुतिमुच्चावचामुचः कां न कां रचयन्त्यमी ॥३८॥ ये भक्ताषिक – भोजन से परिपूर्ण अथवा श्राद्धों में अधिक दिखनेवाले पिण्डीशूर लोग गुण और दोषों को जाने बिना ही अपने स्वामी की ऊँची-नीची क्या-क्या स्तुति नहीं करते हैं ? अर्थात् खाने के लोभी सभी लोग अपने स्वामियों की मिथ्या प्रशंसा में लगे हुए हैं । मम चालतां वीक्ष्य नवपापलतां दधत् । अयमा जिरसाद्गन्तुं किं यमाजरमिच्छति ॥४१॥ forta मेरे धनुषरूपी लता को देखकर नवीन चंचलता को धारण करनेवाला यह राजाओं का समूह युद्ध के अनुराग से क्या यमराज के आँगन में जाने की इच्छा करत है अर्थात् मरना चाहता है ? द्रुत के वापस होते ही दोनों ओर से युद्ध शुरू हो गया। मारू बाजों का शब्द सुनकर हाथी गर्जना करने लगे तथा घोड़े शीघ्र ही मागे बढ़ने के लिए होंसने लगे । शूरवीरों के शरीर हर्ष से फूल गये और पताकाओं से सहित रथ दौड़ने लगे । आकाश में देव देवियों की भीड़ लग गयी। अंग, बंग, कलिंग तथा मालय आदि देशों के नरेशों ने सुषेण से युद्ध किया परन्तु सबको पीछे हटना पड़ा। सुषेण की तलवार दशशुओं का रुधिर पीकर दूध के समान सफ़ेद यश को उगल रही थी, मानो वह एक इन्द्रजाल का खेल ही प्रकट कर रही थी। सुषेण की विजय का यह समाचार एक टूल ने आगे जाकर राजा महासेन और धर्मनाथ को सुनाया था। इस वर्ग में कवि ने एकाक्षर ( ८२ ), द्वयक्षर (५४) चतुरक्षर ( ३३ ) प्रव्रिलीमानुलोमपाद ( ११ ), समुदुगक (५६), गूढचतुर्थपाद ( ३६ ), निरोष्यप ( ५८ ), गोमूत्रिक ( ७८ ), अर्थभ्रम ( ८४), सर्वतोभद्र ( ८६ ), मुरजबन्ध (९०), और चक्रबन्ध ( १०१-१०२ ) आदि चित्रालंकार की रचना कर अपना काव्यकोशल प्रकट किया है । वस्तुतः अर्थालंकार की अपेक्षा शब्दालंकार की रचना करने में कवि को प्रतिभा का आलम्बन अधिक लेना पड़ता है । ९. फोरिशोधितं खयः क्षीरगौरं यशो यमद । हाल सदीयासिः काममाविमचकार सः सामाजिक दशा और धुम-निदर्शन ११५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युद्ध का वर्णन करने के लिए वीरनन्दी ने चन्द्रप्रभचरित ( १५वा सर्ग) में, भारवि ने किरातार्जुनीय ( १५वा सर्ग ) में और माघ ने शिशुपालवध ( १९वां सर्ग) में भी उसी अनुष्टुप् छन्द को अपनाया है तथा साथ में चित्रालंकार का चमत्कार दिखलाया है । पूर्व-परम्परा की रक्षा करते हुए हरिचन्द्र ने भी धर्मशर्माभ्युदय ( १९वीं सर्ग ) में उसी अनुष्टुम् छन्द और चित्रालंकार को समाथय दिया है। यद्यपि इस छन्द और इस अलंकार में वीररस का प्रवाह जिस उद्दाम गति से प्रवाहित होना चाहिए उस गति से नहीं हो पाता परन्तु चित्रालंकार की सुगमता इसी छन्द में रहती है इसलिए विवश होकर कवि को यह छन्द स्वीकृत फरना पड़ा है। जहां साथ में चित्रालंकार का चक्र नहीं रहता है वहीं वीररसोपयोगी भिन्न छन्दों के द्वारा युद्ध का वर्णन किया आता है जैसा कि जीवन्धरचम्पू के दशम लम्भ में हुआ है। जीवन्धरचम्पू का युद्ध-वर्णन आगे दिया जायेगा । जोवन्धरबम्पू में युद्ध-वर्णन श्रृंगारादि नौ रसों में वीररस अपना प्रमुख स्थान रखता है इसीलिए उरो महाकाव्यों में अंगी रस बनने का अवसर प्राप्त है।' जीवन्धरचम्पू का अंगी रस शान्तरस है फिर भी अंगी रस के रूप में वीररस का यत्र-तत्र अच्छा निरूपण हुआ है । द्वितीय लम्म के अन्त में शबर-सेना के साथ क्षत्रचूड़ामणि जीवघरकुमार का अल्प युद्ध हुआ है । उस युद्ध के लिए उद्यत जीवन्धरकुमार का वर्णन देखिए, कितना स्फूर्तिदायक है ? नखांशुमयमञ्जरीसुरभितां धनुर्वल्लरी समागतशिलीमुखां दधदयं हि जीवन्धरः। अनोकह इवाबभौ भुजविशालशाखाशितो निरन्तर जमेन्दिराविहरणकसंवासभूः ॥२८॥ कुण्डलीकृतशरासनान्तरे जीवकाननममर्षपाटलम् । स्पर्धते परिधिमध्यसंस्थितं चन्द्रबिम्बमिह संध्ययारुणम् ।।२९।। जीवन्धरेण निर्मुक्का; शरा दीप्ता विरेजिरे । विलीनान समिति व्याधान् द्रष्टुं दीपा वागताः ॥३०॥ तदनु जिष्णचापम्बिजीवन्धराम्बुधर-निरवग्रह-निर्मक्त-रधारभिः कालकूटबलप्रतापानले शान्तता नीते निशितशस्त्रनिकृत्तकुञ्जरपदकच्छपाः मल्लावलूनहयमल्लाननपयोजपरिष्कृताः, मदवारणकर्णभ्रष्टचामरहंसावतंसिताः, कोलालवाहिन्यः समीकयरायां पर:सहसमजायन्त । -पृ. ५१-५२ १. रामारवीरशान्तानामेकोऽकी रसभ्यते । अनि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः ||११||- साहित्यदर्पण, अध्याय ६ । महाकषि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .भाव यह है-- जो नख-किरणरूपी मंजरी से सुगन्धित थी तथा जिसपर शिलीमुख-बाण (पक्ष में, भ्रमर ) आकर विद्यमान थे, ऐसी धनुषलता को धारण करनेवाले जीवन्धर, वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे, क्योंकि जिस प्रकार वृक्ष विशाल शाखाओं से सुशोभित होता है उसी प्रकार जीवघर भी भुजारूपी विशाल शाखामों से सुशोभित थे। इसके सिवाय जीवन्धर, निरन्तर ही, विजयलक्ष्मी के विहार की मुख्य भूमिस्वरूप थे। कुण्डलाकार धनुष के मध्य में स्थित, क्रोध से लाल-लाल दिखनेवाला जीवन्धर कुमार का मुख, परिधि के मध्य में स्थित तथा सन्ध्या के कारण लाल-लाल दिखनेवाले चन्द्रमण्डल के साथ स्पर्धा करता था। जीवन्धरकुमार के द्वारा छोड़े हुए बाण ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो युद्ध में छिपे भीलों को देखने के लिए दीपक ही आये हों। तदनन्तर विजयी धनुषरूपी इन्द्रधनुष को धारण करनेवाले जोवन्धर-रूपी मेघ के द्वारा लगातार छोड़ो हुई बाणधारारूपी जलधारा से जब कालकूट नामक भीलों के राजा की सेना सम्बन्धी प्रतापारिन शान्त हो गयी तब युद्धभूमि में हजार से भी अधिक खून की नदियाँ बह निकलीं । वे खून की नदियां तीक्ष्ण शस्त्रों के द्वारा कटे हुए हाथियों के पैर-रूपी कछुओं से सहित थी, भालों के द्वारा कटे हुए घुड़सवारों के मुखरूपी कमलों से सुशोभित थीं और मदोन्मत्त हाथियों के कानों से गिरे हुए चामररूपी हंसों से अलंकृत थीं। यहाँ वीररस के विभाव और अनुभाष का कितना विशद वर्णन है ? पंचम लम्भ में जीवम्भर और काष्ठांगार के प्रमुख सुभट----प्रमथ के युद्ध का दृश्य देखिए गजा जगर्जुः परहाः प्रणेजिहेषुरवाएर तदा रणाये । कुमारबाहा-सुखसुप्तिकायाःप्रबोधमायेव जयेन्दिरायाः 1॥४॥ कराञ्चित-शरासनादविरलं गलद्भिः शरै झुलाव कुरुकुञ्जरो रिपुशिरांसि चापरमा । बिभेद गजयूथपान सुभट-धैर्यवृत्या समं ववर्ष शारसन्तति सममिभोद्गतर्मोनिकः ॥५॥ भाव यह है- ... उस समय रण के अग्रभाग में कुमार की बाहु पर सुख से सोयी हुई विजयलक्ष्मी को जगाने के लिए मानो हाथी गरज रहे थे, नगाड़े बज रहे थे और बोड़े हींस रहे थे। कुरुकुंजर जीवन्धरकुमार ने हाथ में सुशोभित पनुष से लगातार निकलनेवाले बाणों के द्वारा धनुषों के साथ-साथ रिपुओं के सिर छेद डाले थे, सुमदों के बीरण के सामाजिक दशा और युद्ध निदर्शन Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ-साथ बड़े-बड़े हाथियों को भेद डाला था और हाथियों से निकले हुए मोतियों के साथ-साथ बाणों के समूह की वर्षा की थी । यहाँ युद्ध के भयावह काल में भी उत्प्रेक्षा और सहोति अलंकार का ध्यान रखते हुए कवि ने अपने कवित्व को भुलाया नहीं है । अष्टम लम्भ में पद्मास्य आदि कृत्रिम गोधन अपहारकों के साथ होनेवाले युद्ध में सैनिकों की गर्वोचित्य देखिए अस्माकं त्रिजगत् सिद्धयशसामेषा कृपाणीलता शत्रुस्त्रीनयनान्तक ज्वलजलेः श्यामा निपीतः पुरा । संप्रत्यासीम्नियुष्मदसृजां पानेन शोणीकृता वीरश्रीस्मित पाण्डुराचरिततश्चित्रा भविष्यत्यहो ||२८|| पशून्या प्राणान्दा जहृत झटिति क्षीवपुरुषाः स्वमूर्ध्नश्चापान्त्रा ममयत नरेन्द्रस्य पुरतः । मुखे वा हस्ते वा कुरुत शरवृन्दं नरपति कृतताधारं वा रणराव सूरी अधिगटा गा किं बाचां बिसरेण मुग्धपुरुषाः किं वा वृथा डम्बर रात्मश्लाघनयानया किमु भटाः सेषा हि नोचोचिता । संक्रीडद्रथचक्रकृष्टधरणौ भिन्ते भमुक्ताफल पामा भारवर्षतो विजयिनः शुभ्रं यशोऽकूरति ॥ ३१ ॥ भाव यह है जिनका यश तीनों जगत् में प्रसिद्ध है ऐसे हम लोगों को इस तलवाररूपी लता ने पहले शत्रु- स्त्रियों के नयनान्स भाग से निकलनेवाले कज्जल मिश्रित बल का पान किया था, इसलिए काली हो गयी थी । इस समय युद्ध की सीमा में आप लोगों का रक्त पीने से लाल हो रही है और अब वीर लक्ष्मी की मन्द मुसकान से सफेद हो जायेंगी । इस प्रकार आश्चर्य है कि वह अनेक रंगों से चित्र-विचित्र होगी । अरे पागल पुरुषो ! या तो तुम लोग शीघ्र ही पशुओं को छोड़ो या प्राणों को में छोड़ो, राजा के सामने या तो अपना मस्तक झुकाओ या धनुष झुकाओ । या तो मुख शरबुन्द — तृणों का समूह धारण करो या हाथ में शरवुन्द – माणों का समूह धारण करो । - या तो राजा की शरण लो या यमराज के घर को अपना शरण – घर बनाओ । अरे मूर्ख पुरुषो! इन वचनों के समूह से क्या होनेवाला है? इन व्यर्थ के आम्बरों से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? और अपनी इस प्रशंसा से क्या सिद्धि होनेवाली है ? वास्तव में यह आत्म-प्रशंसा नीच मनुष्यों के । ही योग्य है धनुषरूपी मेघ से दौड़नेवाले रथों के पहियों से खुदी हुई पृथ्वी पर वर्षा ( पक्ष में, जल- वर्षा ) करता है, उसी बिजयी मनुष्य का यश, मुक्ताफलों के बहाने अंकुरित होता है । * जो इधर-उधर -बाण शरवर्षाविदीर्ण हाथियों के महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी द्वितीय रचना धर्मशर्माभ्युदय कथा में धर्मनाथ नामक तीर्थंकर को हिंसामय युद्ध से अछूता रखने के लिए महाकवि ने वीर रस को गौण रखा है। स्वयंवर के बाद यद्यपि अन्य राजाओं की प्रतिद्वन्द्विता में युद्ध का अवसर उपस्थित किया गया है तथापि वह युद्ध धर्मनाथ तीर्थकर के द्वारा न कराकर सुषेण सेनापति के द्वारा कराया गया है । अनुष्टुप् छन्द और चित्रालंकार के चक्र ने वीर रस का विकास जैसा होना चाहिए वैसा नहीं होने दिया है, परन्तु जीवम्परचम्पू में वीर रस के परिपाक को पूर्णता बेनेवाले युद्ध का सांगोपांग वर्णन किया गया है । दो-चार लघु युद्धों के उपर्युक्त प्रसंगों के अतिरिक्त दशम लम्भ में काष्ठांगार के साथ हुए महायुद्ध का सविस्तार वर्णन किया गया है । मन्त्रणा से लेकर शत्रु समाप्ति तक का वर्णन ओजपूर्ण भाषा में दिया गया है। युद्ध का इतना सविस्तार वर्णन अन्य काव्यों में अप्राप्त है । राजा आये, काष्ठांगार, राजा गोविन्द को इसलिए आमन्त्रित करता है कि इधर मेरे ऊपर राजा सत्यन्धर के मारने का अपवाद चला जा रहा है उसे भाप आकर दूर कर दें । राजा गोविन्द, विजया रानी के भाई और सत्यन्धर राजा के साले थे अतः उनके द्वारा किया हुआ समाधान काष्टांगार ने उपयोगी समझा था। इस आमन्त्रण से लाभ उठाते हुए गोविन्द राजा अपनी पुत्री लक्ष्मणा के स्वयंबर और काषांसार मे युद्ध की तैयारी कर राजपुरी आये । लक्ष्मणा के स्वयंवर का आयोजन, उन्होंने युद्ध का प्रसंग उपस्थित करने के लिए किया था । लक्ष्मणा का स्वयंवर हुआ, अनेक देशों के जीवन्धर ने स्वयंवर में विजय प्राप्त की इसलिए काष्ठांगार कुपित हो गया। उसी समय गोविन्द राजा ने उपस्थित राजाओं को जीवन्धर का परिचय देते हुए कहा कि यह राजा सत्यन्धर का पुत्र और मेरा भानजा है। काष्ठांगार ने राजा सत्यम्घर का घाव किया था। राजा गोविन्द के इस स्पष्टीकरण से उपस्थित राजा जीबन्धर के पक्ष में हो ये । अनाशंसित युद्ध की घोषणा किये जाने पर तात्कालिक राजा काष्ठांगार, मन्त्रणा के लिए मन्त्रशाला में बैठता है । मन्त्री लोग राजा काठांगार को युद्ध न करने की सम्मति देते हैं पर काष्ठांगार उन मन्त्रियों को देखिए, किन शब्दों में फटकारता हूँएवं मन्त्रिगिरं निशम्य सभयं तृष्णों स्थितः सोऽवदत् कर्णे लग्नमुखेन तत्र मथनेनादीपितकोश्रमः । J रे रे केन ससाध्वसं बहुतरं पृष्टोऽसि वक्तुं पुरो भtoerd यदि तिष्ठ वेश्मनि मुषा क्लीबोऽसि किं भाषितः ॥ ३२ ॥ माद्यति पटापटूस्फुटनोटप्रहृष्पद्भटा टोपाच्छादित दिक्त रणतले खड्गोलसद्धारया | माहृत्य श्रियमाहवोद्यतरिपु-क्षोणी भृतामुज्ज्वलां कीर्त्या कोमलया दिशो धवलयाम्पुस्फुल्लकुन्दश्रिया ॥ ३३ ॥ धर्मदस मन्त्री के उक्त शब्द सुनकर काष्ठागार पहले तो कुछ देर तक चुप बैठा रहा । तदनन्तर काम में मुख लगाकर जब मथम ने उसके क्रोध को उत्तेजित किया तब सामाजिक दशा और सुख-निदर्शन १९९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहने कि अरे नीम ! इस प्रकार भा माहित बहन कहने के लिए तुमसे पूछा ही किसने था ? पदि तू डरपोक है तो घर में बैठ, तू नपुंसक है, व्यर्थ के बोलने से क्या लाभ है ? मदोन्मत्त हाथियों को घटाओं, स्पष्ट नाचते हुए घोड़ों और हर्षित होते हुए योद्धाओं के विस्तार से जिसमें दिशाओं के तट आच्छादित हैं ऐसी रणभूमि में तलवार की चमकती हई धारा से मैं युद्ध के लिए उद्यत राजाओं की लक्ष्मी का हरण कर कुन्द के फूल के समान उज्ज्वल अपनी कीर्ति के द्वारा समस्त दिशाओं को अभी-अभी सफ़ेद करता हूँ। तदनु विकटकटविगलदानधाराप्रवाहानुभयतः सृद्धिः सनिईरैरिव नीलाचलः .................क्रमेणाजिराङ्गणमगाहन्त !-पृ. १८४-१८५ इस गध द्वारा पतुरंग सेना का तथा'सदन विनिर्मित-विशाल-विशिखा-सहस्रविराजमान........लद्रङ्गस्थलमशोमत'। इस गद्य द्वारा रंगभूमि का जो स्फूर्तिदायक वर्णन किया गया है वह हृदय में जोश उत्पन्न करनेवाला है। दोनों सेनाओं के कल-कल शब्द का वर्णन देखिएयुक्षप्रारम्भकेली पिशुन-जयमहावाद्यघोषरशेष hषाराबहयाना मदमुक्ति-गजोहितजुम्भमाणः । रथ्याध्वानः पदातिप्रचुर-तरमित्सिहनादरमन्दः शब्दकाम्भोधिमग्नं जगदिदमभवत्कम्पमान समन्तात् ।।४।। -पृ. १८६ उस समय युद्धक्रीड़ा के प्रारम्भ को सूचित करनेवाले जय-जय के नारों से, बड़े-बड़े वादियों के शब्द से, घोड़ों की हिनहिनाहट से, मदोन्मत्त हाथियों की गर्जना से, रथों की चीत्कार से, और पैदल सैनिकों की बार-चार प्रकट होनेवाली सिंह-ध्वनि से यह समस्त संसार एक शब्दरूपी सागर में निमग्न होकर सभी ओर से कांप उठा था। मुटभेड़ का दृश्य देखिए पदाति पदातिस्तुरङ्गं तुरङ्गी मदेर्भ मदेभो रपस्थं रथस्थः । इयाय क्षणेन स्फुरदयुद्धरङ्ग ध्वनजनवाद्ये स्वनच्छिञ्जिनीके |॥४४॥ जहाँ जीत के बाजे बज रहे थे और धनुष को लोरी के शब्द हो रहे थे ऐसे उस युद्ध के मैदान में दाण-भर में ही पैदल चलनेवाला पैदल चलनेवाले से, घुड़सवार घुड़सवार से, मदोन्मत्त हाथी का सवार मदोन्मत्त हाथी के सवार से और रथ पर बैठा योद्धा रथ पर बैठे योद्धा से मिल गया-भिड़न्त करने लगा। ____ हाथियों की सूड़ों से निकले हुए जलकण और उठती हुई धूलि का वर्णन साहित्यिक भाषा में देखिए, कितना सुन्दर बन पड़ा है महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन २०० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृप्यन्ति करोचता जलकणा ज्योम्नि स्फुरत्तारका कारण नालासुरजीयन निशानायकः । धूलीमिः पिहिते व चण्डकिरणे संग्रामलोला बौ निर्दोषापि विभावरीव सततं कीडन्याङ्गापि प ४५ उस समय मदोन्मत्त हाथियों की सूड़ों से उछटे हुए जल के कण बाकाश में बमकसे हुए ताराओं के समान जान पड़ते थे, देवांगना का मुख चन्द्रमा बन गया पा और धूलि से सूर्य आच्छादित हो गया था, इसलिए यह संगाम की क्रीड़ा निर्दोषादोषरहित ( पक्ष में, रात्रि-रहित ) होने पर भी रात्रि के समान दुशोभित हो रही थी। परम्तु विशेषता यह थी कि रात्रि में भी रयांग-पहिये ( पक्ष में, कम) निम्सर कोड़ा करते रहते थे-घूमते रहते थे। क्रम से हाथियों, घोड़ों, रयों, पवातियों और सामन्तों के युद्ध का वर्णन करने के बाद काष्ठांगार और जीवन्धर के युद्ध का प्रांजल वर्णन किया गया है। गद्य और पच दोनों में ही गौड़ी रीति का आलम्बन लिया गया है जो कि वीर रस के सर्वमा बस है । अन्त में जीवम्बर द्वारा काष्ठांगार को मृत्यु का वर्णन देखिए कोपेनाथ कुरूदहः प्रतिदिशं खालाकलापोमिल चक्रं शत्रुगले निपात्य तरसा विच्छेद तन्मस्तकम् । देवाः पुष्पमथाकिरन्नविकलं श्लाघासहस्रः सम लोकान्दोलनतत्परः कुरुषले कोलाहलः कोम्पभूत् ।।१२२॥ फिर क्या था, जीवन्धर स्वामी ने क्रोष में लाकर, प्रत्येक विद्या में जिसकी खालाएं निकल रही थीं, ऐसा चक्र शत्रु के गले पर मिराकर शीघ्र ही उसका सस्तक फाटाला, देवों हे अत्यधिक पुरुप बरसाये, और कुपों की सेना में हजारों प्रशंसायों के साथ-साथ लोक में हलचल मचा देनेवाला कोई माश्चर्यजनक कोलाहल हुआ। काष्ठागार के मरते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गयी। चारों ओर जातक छा गया और काष्ठांगार के बन्धुजन मय से विह्वल हो गये। जीवम्बर स्वामी ने अभय घोषणा कर सबको शान्त किया । उस समय की निम्न पंजिया रम्प है तदानी संत्रासपलायमान शायरलमालोक्य, कुरुवीरः करपाकरः भगापभयघोषणां विषाय तद्वन्धुता दीनामाहय, तत्कालोचित-संभाषणादिभिः परिसास्वयामास । विजयी जीवश्वर ने वैभव के साथ राज-मन्दिर में प्रवेश किया तथा कुररी की तरह विलाप करती हुई फाष्ट्रांगार को स्वी और उसके पूषों को मात्थना थी। बारह वर्ष के लिए पृथ्वी को करमुक्त किया। इस प्रकार जीवन्धरचम्पू के १० पृष्ठों में युद्ध का वर्णन पूर्ण हुआ है। सामाजिक दवा और बुद्ध-निदर्शन .1] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :।।' पीली धर्मायुदय का रत्नपुर 14 लाखों वर्ष पूर्व हुए धर्मनाथ का जन्मऩगर रत्नपुर था पर धान वह कहाँ है, उसका वर्तमान नाम क्या है ? इसका कुछ निर्णय नहीं है। फिर भी उनके जीवन-वृत्त से यह अनुमान लगाया जा सकता है – रत्नपुरनगर पाटलिपुत्र पटना के समीपवर्ती होगा। क्योंकि तीर्थकर धर्मनाथ से उल्कापात देख संसार से विरक्त हो मात्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन देवरी दो ग्रहण की थी। दीक्षा धारण करते समय उन्होंने ठोस अर्थात् हो दिन का उपवास लिया था उसके बाद उनका पाटलिपुत्र ( पटना ) के राजा धन्यसेन. के घर प्रथम आहार हुआ या इससे प्रतीत होता है कि उनके दीक्षा-स्थान और पाटलिपुत्र के बीच विशेष अन्तर नहीं था । .. स्तम्भ ५ : भौगोलिक निर्देश और उपसंहार 1 5 "ठु !i: 1:12 PARE सक्षिस Ge " इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि युवराज अवस्था में उन्होंने श्रृंगारवती के स्वयंवर में जाने के लिए जब विदर्भ देश के लिए प्रयाण किया तो उन्हें मार्ग में गंगा नदी मिली ! कवि ने नवम् स्रुर्ग के ६८ से ७६ तक के श्लोकों में गंगा का मनोहर वर्णन क्रिया है। गंगा की काष्ठ की नौका से पार कर वे विन्ध्याटवी में प्रविष्ट हुए तथा विन्ध्याचल पर उन्होंने निवास किया | साधु होने पर उपस्थ अवस्था में उन्होंने एक वर्ष तक बिहार करने के बाद पुनः दीक्षावन में प्रवेश किया और सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यानारूद होकर केवल ज्ञान प्राप्त किया। उनका यह दीक्षावन पाटलिपुत्र के समीप ही था । क्योंकि दीक्षायन, निर्वासस्थान के समीप ही रहता है दूर नहीं। Y जीवन्धर का हेममिव देश और उनका भ्रमण क्षेत्र इस स्तम्भ में रूम हेसोगद देश, राजपुरी नगरी, चन्द्रोदय पर्वत तथा दक्षिण के उन देशों का आधुनिक नामों के साथ परिचय देना चाहते थे जिनमें जीवम्बर कुमार ने भ्रमण किया था परन्तु सहायक साम के अभाव में पूर्ण निर्णय नहीं हो सकने से ता है। फिर भी इस दिशा में विद्वानों ने जो अब तक प्रयत्न किया है उसकी जानकारी देना उचित समझते हैं । २०१ 3 सर्वप्रथम कनिघम साहब ने 'एसिएट जागरको ऑफ़ इण्डिया' में हेमागर्द देश पर प्रकाश डालते हुए उसे मैसूर या उसका निकटवर्ती भूभाग ही हेमांनद देश बतलाया 14 ९. चोकर को दीक्षा लेने के बाद जबतक केवल ज्ञानपूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता तक का उनका काल प्रस्थकाल कहलाता है महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। कनिधम साहब के कथन में हैमांगद के पास सुवर्ण की मानें, मलय पर्वत तथा समुद्र आदि का होना कारण बतलाया गया है, परन्तु पं. के. भुजबली शास्त्री मूडविधी ने इस पर आपत्ति करते हए अपना मन्तब्य प्रसिद्ध किया है कि हेमांगद देश दक्षिण में न होकर विन्ध्याचल का उत्तरवर्ती कोई प्रदेश होना चाहिए ।' महाँ मेरा तुच्छ विचार है यदि क्षत्रचूडामणि के इहास्सि भारते खण्डे जम्बूद्वीपस्य मण्डने । मण्डलं हेमकोशाभं हेमाङ्गदसमाङ्खयम् ॥४॥ -प्रथम लम्भ श्लोक के 'हेमकोशाम इस विशेषण पर जोर दिया जाये और इसका समास जैसा कि स्व, विद्वान् गोविन्दरायजी काव्यतीर्थ किया करते थे, 'हेमकोशानां सुवर्णनिधानानामाभा अस्मिस्तत्'--'जहाँ सुवर्ण के खजाने-खानों की भाभा है' किया जाये तो कनियम की युक्ति का समर्थन प्राप्त होता है। साथ ही राजपुरी के सेठ श्रीदत्त को समुद्र-यात्रा का वर्णन शत्रचूडामणि, जीवम्बरसम्म, भचिन्तामणि और उत्तरपुराण में समान रूप से पाया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि राजपुरी समुद्र के निकटस्थ होना चाहिए । दिन्थ्योत्तर प्रदेश में न सुवर्ण को खाने है और न समुद्र की निकटता। मैसूर से दण्डक वन भी न अति दूर न अति समीप है । १८४३ मा में दिजानी का साक्षात दे। अपना परिचय दिये विना छिपकर रहना राजनीति का विषय है। क्योंकि उत्तरपुराण के अनुसार रुद्रदत्त पुरोहित ने काष्ठांगारिक को बतलाया था कि राजा सत्यन्धर की विजयारानी से जो पुत्र होनेवाला है वह तुम्हारा प्राणघातक होगा। इसी प्रेरणा से काष्ठांगारिक नै सत्यन्धर का पात किया था और उनकी रानी विजया तथा उसके पुत्र का घात करना चाहता था । विजया अपने भाई के घर नहीं गयी इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठांगारिक उसे बा अनायारा खोज सकता था। ___ गद्यचिन्तामणि में हेमांगद का वर्णन करते समय सुपारी के बारा तथा उपजाऊ जमीन की अधिकता के कारण सदा उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार के धानों से परिपूर्ण गांवों के उपशल्यों-निकटवर्ती प्रदेशों का भो वर्णन किया गया है। श्रेष्ठ सुपारी के वृक्ष दक्षिण में ही हैं विन्ध्योसर प्रदेश में नहीं, और बल की अधिकता से दक्षिण में ही सदा धान के खेत हरे-भरे दिखाई देते हैं पिन्थ्योत्तर प्रदेश में नहीं । यदि जीवन्धर उत्तर भारत के होते तो समकालीन राजा थेणिक उनसे अपरिचित १. देखो, जैन सिमान्त भास्कर, भाग १, किरण ३-'महाराज जीवन्धर का मांगद देश और क्षेमपुरी' शीर्षक लेख। २, उत्तरपुराण को अपेक्षा जिनदत्त । ३. 'क्वचिदिवास्यश्वकारित-परिसराभिः मरकतपरिधपरिभाचुकरम्भापरिरम्भरमवीयाभिः पूग वाटिकामिः प्रफटो क्रियमाणाकाहाछारम्भेण सर्वकालपूर्वराप्रायतया पथमान-बषिध-सस्मसारेण प्रामोपदामन निःशस्यकुटुम्बिवर्ग:'। --गचिन्तामणि, प्रथम लम्भ, पंपग्राफ़ भौगोलिक निर्देश और उपसंहार २०३ २७ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न रहते और न मुनि भवस्था में बम और की फांका कार मधर्माचार्य से प्रकार करते।' 'यह वर्णन मात्र कवि-सम्प्रदाय के अनुसार नहीं है किन्तु यथार्थ रूप में है। क्योंकि फषि-सम्प्रदाय के अनुसार तो किसी भी वृक्ष का वर्णन हो सकता था पर अन्य वृक्षों का वर्णन न कर प्रमुख रूप से सुपारी के ही वृक्षों का वर्णन किया है। मिथिला के राजा गोविन्द महाराज की बहन विजया का विवाह दूरवर्ती राजा सत्यन्धर के साथ होना असम्भय बात नहीं है, क्योंकि जब विद्याधरों के साथ भी सम्बन्ध हो सकते है तब उत्तर और दक्षिण भारत की कोई बड़ी पूरी नहीं है। यही बात दक्षिण से जीवन्धर की विपुलाचल तक पहुंचने की है। जो कुछ भी हो विदद्गण विचार करें । दुख इस बात का है कि हम मात्र २५०० वर्ष पूर्ववर्ती देश और नगर का पता लगाने में भी समर्थ नहीं हो सक रहे है । सुदर्शन या जीवन्धरकुमार को अपने निवास स्थान चन्द्रोदय पर्वत पर ले गया है और वहाँ से उतरकर उन्होंने पल्लव आदि देशों में परिभ्रमण किया है, इससे पता चलता है कि चन्द्रोदय पर्वत दूर नहीं है। क्या यह सम्भव नहीं है कि दक्षिण का चन्द्रगिरि ही चन्द्रोदय हो, सुदर्शन यक्ष यन्तरदेव है, व्यन्तरों का निवास जहाँ कहीं भी होता है और उनकी इच्छानुसार मनुष्यों की दृष्टि के भगोचर भी रह सकता है। जीवन्धर कुमार के बिहारस्थलों में से क्षेमपुरी के विषय में भी पं. के. भुजबली शास्त्री ने अपने एक लेख में प्रकट किया है कि यह वर्तमान बम्बई ( महाराष्ट्र ) प्रान्तान्तर्गत उत्तर कन्नड जिला का गेरुसोप्पे ही प्राचीन क्षेमपुरी या क्षेमपुर था। गैससोप्पे का दूसरा नाम भल्लातकीपुर है । यह होनावर से पूर्व अठारह मील दूर पर अवस्थित है। जो भी हो, शास्त्रीजी दक्षिण प्रान्त के है और वहां के स्थानों से अत्यन्त परिचित है। टीकाएं और टिप्पण धर्मशर्माभ्युदय और जीवघरचम्मू के इस अनुशीलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि महाकवि हरिवन्द्र एक उच्चकोटि के कवि हैं। उनके उपर्युक्त दोनों नन्थ संस्कृतसाहित्य के गौरव को बढ़ानेवाले हैं। इन अन्यों में अलंकार, रस, ध्वनि, गुण और रोति के जैसे निदर्शन उपलब्ध है वैसे अन्यत्र कम मिलते हैं। दोनों ग्रन्थों के नायक घोरोदात्त हैं। इनका परित्र-चित्रण कवि ने इतनी सावधानी से किया है कि उनके जोवन की पवित्रता पद-पद पर प्रकट होती है । ___इनमें धर्मशर्माभ्युदय का प्रचार अत्यधिक रहा है। यही कारण है कि इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ उत्तर और दक्षिण के अनेक शास्त्र-भाण्डारों में संगृहीत हैं जबकि र, नानाभंगपयोधिमग्नपतयो देरासदूरोज्झिता वा न प्रभवन्ति दुःसहलगो वोलु मुनीनो धुरम् । इत्याहुः परमागमस्य परमो कायामधिष्ठास्नन ___ सहदेवो मुनिष मैच कल्पच रश्येत कस्मादपि । --गचिन्तामणि २०४ महाकवि हरिश्चन्द्र : एक अनुशीलन Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन्धरचम्पू की प्रतियां शास्त्र-भाण्डारों में दुर्लभ है । सम्पावन के लिए मात्र बम्बई के भाण्डार में एक प्रति प्राप्त हुई थी। धर्मशर्माभ्युदय पर दो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध है परन्तु जीवन्धरचम्पू पर आज तक किसी टीका या टिप्पण का परिशान नहीं हुआ है । जोनन्धरचम्म का गधभाग अत्यन्त दरूद है अतः टीका के बिना उसके अध्ययनअध्यापन में कठिनाई का अनुभव होता था । फलतः मैंने इस पर एक विस्तृत संस्कृत टीका स्वयं लिख दी है और परिशिष्ट' में हिन्दी अनुवाद भी कर दिया है। प्रसन्नता की बात है कि भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित जीवन्धरपम्पू का यह संस्करण विद्वानों को रुचिकर हुया है और उसकी प्रथमावृत्ति शीघ्र ही समाप्त हो गयी है। धर्मशर्माम्युदय के संस्कृत टीकाकार यशस्कीति के विषय में जितना कुछ ज्ञात हो सका है उसे आगे दिया जा रहा है। धर्मशर्मास्युक्य के संस्कृत टीकाकार यशस्कोति धर्मशर्माभ्युदय पर दो संस्कृत टोकाएं हैं। एक सन्देहध्वान्तदीपिका जो मण्डलाचार्य ललितकीति के शिष्य पं. यशस्कोति के द्वारा रचित है और दूसरी देवरकविनिर्मित है जिसको प्रतिया मूडबिद्री के जनमठ में विद्यमान हैं । 'सन्देहध्वान्त-दीपिका टीका' मेरे द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित हो चुकी है । संस्कृत कामों को टीका में मल्लिनाथ को पद्धति का विशेष समादर है क्योंकि उसमें अध्येताओं के बुद्धि-विकास पर दृष्टि रखते हुए उन्होंने कोष, विग्रह, समास, व्याकरण आदि सभी उपयोगी विषयों का समावेश किया है, परन्तु 'सन्देहध्वान्त-दीपिका' में मात्र अन्य का भाव प्रदर्शित करने का अभिप्राय रखा गया है। इस पद्धति में संक्षेप होता है पर अध्येता की आवश्यकता पूर्ण नहीं होती । धर्मशर्माभ्युदय जिस उच्चकोटि का काम है उसकी संस्कृत टीका भी उसी कोटि की होती तो अच्छा रहता। संस्कृत टीकाकार यशस्कीति कब हुए इसका मैं कुछ निर्णय नहीं कर सका परन्तु पुष्पिका-वाक्यों में इन्होंने अपने आपको मण्डलाचार्य ललितकीति का शिष्य घोषित किया है। एक भट्टारक ललितकीर्ति वह है जिन्होंने जिनसेन के आदिपुराण और गुणभद्र के उत्तरपुराण' पर संस्कृत टीका लिखी है। वे काष्ठासंघ स्थित माथरगच्छ और पुष्करगण के विद्वान् तथा जगत्कीति के शिष्य थे। इन्होंने मादिपुराण को टीका संवत् १८७४ के मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा रविवार के दिन समाप्त की है तथा उत्तरपुराण को टोका संवत् १८८८ में पूर्ण की है। संस्कृत टीकाकार पं. यशस्कीति यदि इन्हों ललितकीर्ति के शिष्य है तो उनका समय भी यही ठहरता है, परन्तु सम्पादन के लिए प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में श्री ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बई से जो संस्कृत टीका सहित प्रति प्राप्त हुई थी उसका लेखन काल १६५२ संवत् लिखा हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि धर्मशर्माम्युश्य के संस्कृत टीकाकार, आदिपुराण के टोकाकार भौगोलिक निर्देश और उपसंहार Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललितकीर्ति के शिष्य न होकर किसी अन्य ललितकीति के शिष्य है तथा १६५२ संवत् से तो पूर्ववती है ही। धर्मशर्माभ्युदय काम्य का प्रथम विवरण पोटर्सन ने अपनी एक संस्कृत-ग्रन्थों की खोज सम्बन्धी रिपोर्ट में दिया था और बम्बई की काव्यमाला सीरीज के अष्टम अन्य के रूप में इसका प्रथम बार प्रकाशन सन् १८८८ में हया था। उसी संस्करण की और भी दो-तीन आवृत्तियों हो चुकीं। ये आवृत्तियाँ मूल और संक्षिप्त पाद-टिप्पण के साथ प्रकाशित हुई थी। अब यशस्कीति की संस्कृत टीका और मेरे हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। इसका सम्पादन ८ हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर किया गया है। उपसंहार इस प्रबन्ध में धर्मशर्माम्युदय और जीवघरचम्पू का अनुशीलन तो है ही साथ में शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित, किरातार्जुनीय, नैषधीयचरित, गद्यचिन्तामणि, क्षत्रचूडामणि, दशकुमारचरित, बर्द्धमानचरित, विक्रान्तकौरव और उत्तररामचरित आदि में भी तत्तन पकरणों में समीक्षा की गयी है । अतः इस एक प्रबन्ध के अध्ययन से अध्येता अनेक ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त कर सकता है। संस्कृत साहित्य अत्यन्त विस्तृत है । विभिन्न कवियों ने अपनी-अपनी शैली से उसमें पदार्थ का निरूपण किया है 1 साहित्य, तत्तत्कालीन स्थिति को प्रकाशित करने के लिए आदित्य का काम देता है। अत: उसका संरक्षण और संवर्द्धन करना प्रत्येक विद्वान् का कर्तव्य है । यह तुलनात्मक अध्ययन का युग है । इस युग का अध्येता यह जानमा चाहता है कि अमुक वस्तु का वर्णन अमुक लेखक ने किस प्रकार से किया है। आज का लेखक भी अभ्यता की अभिरुचि का ध्यान रखता हुआ अपने ग्रन्थ में इस प्रकार की अनुशीलनात्मक सामग्री प्रस्तुत करता है। जहां पहले ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रस्तावना के नाम पर कुछ भी नहीं रहता था वहाँ आज अल्पकाय ग्रन्थों के ऊपर भी विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी जाती है। सच पूछा जाये तो यह प्रबन्ध, धर्मशर्माभ्युदय और जीवन्धरपम्पू की विस्तृत प्रस्तावना ही है । इस प्रस्तावना के साथ यदि उक्त ग्रन्थों का अध्ययन किया जाये तो उनके कितने ही गूढस्थल अनायास स्पष्ट हो जायेंगे। अन्त में प्रबन्धगत त्रुटियों के खिए क्षमा-याचना करता हुआ प्रबन्ध का उपसंहार करता हूँ। महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीकन Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त्य निवेशनम् मन्दाक्रान्ता १ भो विद्वांसी निखिलनिग माम्भो विनिष्णात चित्ताः परवा पोरा सुजनकृपया काव्यपीयूषलेशम् । किंचित् किचित् विरचितमिदं काव्य केलीयमानं मान देव्याः सकलसुखदायाः शिवं शारदायाः ॥ २ काव्याकारी रविरिट कर से हरीन्द्र ययं घ्यायं तमधिहृदयं तस्य काव्ययेऽहम् । बुद्धधायामं शिशुजनमनोध्वान्तविध्वंसकाम के यूयं स्खलितनिषयं मे क्षमध्वं क्षमध्वम् । अनुष्टुप ३ हरिचन्द्रकृतं धर्ममुदयसंज्ञितम् । चम्पूजीवम्धरं चापि रम्यं कविजनप्रियम् । ४ शारदाकण्ठद्दारा ललितं ललितोपमम् । काव्य युग्मं मनस्तुष्ट भूयात् कोविदसंहतेः ॥ ५ हरिचन्द्रकृतं काव्यं काव्यपो यूषपायिनाम् । मोदाय सततं भूयात् सुधियां भुवि विश्रुतम् ॥ भौगोलिक निर्देश और उपसंहार २०७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सहायक ग्रन्थ-सूची पाण्डुलिपियाँ (१) धर्मशर्माभ्युदय, ऐलक पन्नालाल, सरस्वती भबन बम्बई, लिपि संवत् १६५२ बि. सं. 1 (२) धर्मशर्माभ्युदय, भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना, लिपि संवत् १५३५ वि. सं. । (३) जीवन्धरल, भूलेश्वर जैनमन्दिर बम्बई, लिपि संवत्-अज्ञात सिद्धान्तनन्थ (४) षट्खण्डागम, बन्धस्वामित्वविचय-अधिकार, भाग ८, शिताधराय लक्ष्मी चन्द्र ग्रन्थमाला अमरावती द्वारा १९४७ ई. में प्रकाशित । ( ५ ) मोक्षशास्त्र ( तत्त्वार्थसूत्र ) जैन विजय प्रेस सूरत से प्रकाशित, सम्पादक-पन्नालाल साहित्याचार्य, सन् १९७१ ( अष्टमावृत्ति ) महाकाव्य (६) धर्मशर्माभ्युदय-भारतीय ज्ञानपीय वाराणसी ( सम्पादक--पन्नालाल साहित्याचार्य ) सन् १९७१ में प्रकाशित। (७) रघुवंश-कालिदास, निर्णय सागर, बम्बई से १९२५ में प्रकाशित । (८) चन्द्रप्रभचरित-दीरनन्वी, पं. अमृतलालजी सा. आ. द्वारा सम्पादित __और व. जीवराज अन्यमाला सोलापुर से प्रकाशित सन् १९७१ । (१) वर्धमानचरित-असमषि, सम्पादक जिनदासशास्त्री, मराठी टीका सहित, सोलापुर से सन् १९३१ में प्रकाशित । (१०) मुनिसुव्रतकाव्य, अहवास, सम्पादक पं. के. भुजबली शास्त्री, जैन सिद्धान्तभवन, आरा से १९२९ में प्रकाशित । (११) शिशुपालवध, महाकवि माघ, निर्णयसागर प्रेस बम्बई से सन् १९१४ में प्रकाशित । (१२) नैषधीयचरित, श्रीहर्ष, निर्णय, बम्बई से १९१२ में प्रकाशित । (१३) किरातार्जुनीय, भारवि, , १९२२ ॥ (१४) कुमारसम्भव, कालिदास, , महाकवि हरिचन्न : एक अनुशीलन Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्यकाव्य (१५) क्षत्रचूडामणि वादीसह टी. एस. कुप्पूस्वामी द्वारा सम्पादित तंजौर में सन् १९०३ प्रकाशित । पुराण नाटक (१६) गद्यचिन्तामण, वादीभसिंह, पन्नालाल साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से १९६८ में प्रकाशित । ( १७ ) कादम्बरी, बाणभट्ट, निर्णय सागर बम्बई से १९४० में प्रकाशित १९१३ १९३७ चम्पूकाव्य साहित्य (१८) दशकुमारचरित, दण्डी, (१९) श्रीहर्षचरित -बाणभट्ट オリ 11 ( २० ) कादम्बरी - - एक अध्ययन, वासुदेवशरण अग्रवाल, चौखम्बा विद्याभवन से १९५८ में प्रकाशित । " "J (२१) जीवन्धरचम्पू, महाकवि हरिचन्द्र सम्पादक पन्नालाल साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ से १९५८ में प्रकाशित । (22) zulkusas+q-stalk, fhda mus qardi 3500 fi uraufører o (२३) नलचम्पू, त्रिविक्रमभट्ट निर्णय सागर बम्बई से १९३१ में प्रकाशित । (२४) पुरुदेव चम्पू, अर्हदास, सम्पादक पन्नालाल साहित्याचार्य भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित, सन् १९७२ (२५) महापुराण अपभ्रंशभाषा पुष्पदन्त, माणिकचन्द्र मन्थमाला बम्बई से प्रकाशित । प्रथम भाग १९३७ । द्वितीय भाग १९४० । तृतीय भाग १९४१ १ (२६) उत्तरपुराण, गुणभद्राचार्य, सम्पादक पन्नालाल सा. आ. भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९५४ में प्रकाशित । (२७) विक्रान्तकौरव, हस्तिमल्ल, सम्पादक पन्नालाल सा, आ. चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी से १९६९ में प्रकाशित । सहायक ग्रन्थ-सूची ( २८ ) उत्तररामचरित, भवभूति, चौखम्बा विद्याभवन से १९५७ में प्रकाशित | (२९) अभिज्ञानशाकुन्तल, कालिदास, निर्णय सागर १८९५ में प्रकाशित । (३०) काव्यप्रकाश, मम्मट, आनन्दाश्रम मुद्रणालय पूना से सन् १९११ में प्रकाशित । २०९ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (31) रसगंगाधर पण्डितराज जगन्नाथ, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी से 1957 में प्रकाशित / (32) अलंकार-चिन्तााणि, अमितान. कोल्हापुर मे 1829 शकालद में प्रकाशित / (33) साहित्यदर्पण, विश्वनाथ कविराज, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी से 1957 में प्रकाशित / (34) ध्वन्यालोक, आ. आनन्दवर्धन ज्ञानमण्डल लिमि. काशी से सन् 1933 ___ में प्रकाशित / (35) सुवृत्ततिलक, क्षेमेन्द्र, चौखम्बा विद्याभवन से 1933 में प्रकाशित / छन्दोग्रन्थ (36) छन्दोमजरी, चौखम्बा विद्याभवन से 1940 में प्रकाशित / (37) वृत्तरत्नाकर-केदारभट्ट, निर्णय सागर. 1926 में प्रकाशित / व्याकरण (38) सिद्धान्तकोमुदी, भट्टोजि दीक्षित, सत्त्वबोधिनी सहित बेंकटेश्वर प्रेस ___नम्बई से सन् 1929 में प्रकाशित / कोष ... (39) अमरकोष { संस्कृत टीका सहित ) निर्णय सागर से सन् 1915 में प्रकाशित : (40) विश्वलोचन कोष, धरसेन, सोलापुर से प्रकाशित / शोधप्रबन्ध (41) संस्कृत साहित्य के इतिहास में जैन कवियों का योगदानले. डा. नेमिचन्द्र जी शास्त्री, आरा, भारतीय ज्ञानपीठ से सन् 1971 में प्रकाशित / इतिहासग्रन्थ (42) संस्कृत साहित्य का इतिहास-ले. डॉ. बलदेव उपाध्याय पारवामन्दिर वाराणसी से सन् 1958 में प्रकाशित / (43) जैन साहित्य का इतिहास, ले. नायूराम प्रेमी हिन्दीग्रन्थरत्नाकर बम्बई से सन् 1956 में प्रकाशित / पत्र-पत्रिकाएं (44) जैनसिद्धान्तभास्कर--भाग 2, किरण 3, जैनसिद्धान्तभवन, आरा / 210 महाकवि हरिचन्द्र : एक अनुशीलन