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________________ हिंसानृतस्तेयवधूज्यकायपरिग्रहेम्यो विरतिः कचित् । मद्यस्य मांसस्य च माक्षिकस्य त्यागस्तथा मूलगुणा इमेऽष्टौ ॥ -जी. च., लम्भ ७, कोक १६ मद्यमांसासवल्यागः पञ्चोदुम्बरवर्जनम् । अमी मूलगुणाः सम्यग्दृष्टेरष्टो प्रकीर्तिताः ।। -धर्म., सर्म २१, एलोक १३२ इसी प्रकार चार शिक्षाक्तों के वन में भी कुछ वैशिष्टय है.... सामायिक प्रोषधकोपबासस्तथातियीनामपि संग्रहश्च । सल्लेखना चेति चतुःप्रकार शिक्षाबत शिक्षितमागमः 11 -जी. च., लम्भ ७, श्लोक १८ सामायिकमथाचं स्याच्छिक्षाव्रतमगारिणाम् । आरोद्रे परित्यज्य त्रिकालं जिनयन्दनात् ।।१४९।। निवृत्तिभुक्तभोगानां वा स्यात्पर्वचतुष्टये । प्रौषधाख्यं द्वितीयं तच्छिक्षावमितीरितम् ।।१५०॥ भोगोपभोगसंख्यानं क्रियते यदलोलुपैः । तृतीयं तत्तदाख्यं स्यादुःखदावानलोदकम् ॥१५॥ गृहागताय यत्काले शुद्धं दानं यतात्मने । अन्ते सल्लेखना वाभ्यत्तच्चतुर्थ प्रकोपसे ।।१५२।। अर्थात् जीवन्धरचम्पू में सामायिक, प्रोषयोपवास, अतिथिसंविभाग और सस्लेखना वे चार शिक्षावत गिनाये गये हैं। और धर्मशर्माभ्युदय में सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग अथवा सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत कहे गये है। एक ही ग्रन्थकर्ता अपने दो ग्रन्थों में दो प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख करता है यह विचारणीय बात है। मूल-गुण, गुणव्रत और शिक्षाप्रतों के नामोल्लेख में जैनाचार्यों में शासन-भेद है। इतना अवश्य है कि आचार्यों ने एतद्विषयक अपनी मान्यता का उल्लेख करते हुए किसी दुसरी मान्यता का निराकरण किया हो, यह देखने में नहीं आया। फलतः जो दो-तीन प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित है वे सबको स्वीकार्य है। सम्भव है कि कवि ने एक ग्रन्थ में एक मान्यता का उल्लेख किया हो और दूसरे अन्य में दूसरी मान्यता का । धर्मशर्माभ्युदय में शिक्षाव्रतों का वर्णन करते समय अतिथिसंविभाग के विकल्प में सल्लेखना का भी नामोल्लेख करते हुए कवि ने अपनी दटस्थता सूचित की है। महाकवि हरिवाद की दूसरी रचना-जीवन्धरचम्पू का विशद परिचय आगे दिया जायेगा। आधारभूमि
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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