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१२. धर्मशर्माभ्युदय
उच्चस्तनशिखोल्लासि-पत्रशोभामदूरतः ।। वनालों वीक्ष्य भूपाल प्रेयसीमित्यभाषत -सर्ग ३, इलोक २२ अनेकविटपस्पृष्टपयोपरतटा स्वयम् ।
वदत्यूद्यानमालेयमकुलीनत्वमात्मनः ।।-सर्ग ३, श्लोक २४ १२. जीवन्धरचम्पू
अभिसारिकामियोपः स्तनशिखरशोभितपत्ररचनामनेकविटपसंस्पृष्ट
पयोधरतटों चारामवीथीम्।-पृ. ७७ १३. धर्मशर्माभ्युदय
स्रजो विचित्रा हृदि जीवितेवरः
समाहिताश्चारुचकोरचक्षुषाम् । तदन्तरेऽन्तत्रिंशतो गनोभुव
चकासिरे वन्दनमालिका इव ।।-सर्ग १२, श्लोक ५४ १३. जीवन्धरचम्पू
वक्षःस्थलेष्वत्र चकोरचक्षुणां
प्रियः प्रमलप्ताः सुखमालिका बभुः । अन्तःप्रवेशोद्यतशम्बरद्विषः
सनातनास्तोरणमालिका इव । -लम्भ ४, एलोक ११ १४. धर्मशर्माभ्युदय
उदाशाखाकुसुमार्थमृद्भुना
न्युदस्य' पाष्णिद्वयमश्वितोदरी । नितम्बभूत्रस्तदुकूलबन्धना
नितम्बिनी कस्य चकार नोत्सवम् ।।-सर्ग १२, श्लोक ४२ १४. जीवन्धरचम्पू
उपरिजतक्षजार्थवामहस्तेन काचिद्
विधुतसुरभिशाखा सव्यहस्ताप्तकाची । अमलकानकगौरी निर्गलनी त्रिबन्धा
नयनसुखमनन्तं कस्य मा दाङ् न तेने ।- सम्भ ४, एलोक ७ एक विचारणीय बात
__इतना सब होने पर भी एक बात अवश्य विचारणीय है कि कवि ने जीवन्धरपम्पू में पाँच अणुव्रतों का धारण और तीन मकार का त्याग इनको श्रावक के आठ मूल गुण मतलाया है और धर्मशर्माभ्युदय में मद्य, मांस, मधु, त्याग तथा पंचोदुम्बर फल के त्याग को आठ मूल गुण बताया है । जैसा कि दोनों ग्रन्थों में कहा गया है
महाकवि हरिचन्द्र : एक मनुशीकम