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जीयानमिदं मतं शमयतु क्रूरानपीयं कृपा
भारत्या सह पोलयत्वविरवं श्रीः साहचर्यदत्तम् । मात्सर्य गुणिषु त्यजन्तु पिशुनाः संतोषलीलाजुषः
सन्तः सन्तु भवन्तु च श्रमविदः सर्वे कवीनां जनाः ।।१०।। प्रशस्ति का भाव यह है
श्रीमान् तथा अपरिमित महिमा को धारण करनेवाला वह नोमक वंश या जो समस्त भूमण्डल का आभरण था। जिसका हस्तावलम्बन पा लक्ष्मी, वृद्ध होने पर भी दुर्गम मागों में कभी स्खलित नहीं होती ।।१1। उस नोमक वंश में निर्मल-मूर्ति के धारक वह आदेव हए जो अलंकारों में मुक्ताफल की तरह सुशोभित होते थे। वह कायस्थ थे, निर्दोष गुणग्राही थे, और एक होकर भी समस्त कुल को अलंकृत करते थे ॥२॥ उनके महादेव के पार्वती की तरह रथ्या नाम की वह प्राणप्रिया थी, जो सौन्दर्य की सिन्धु थी, कलाओं की फूलभवन श्री, सौभाग्य और उत्तम भाग्य को कोड़ाभवन थी, विलास के रहने की अट्टालिका थी, सम्पदाओं के आभूषण का स्थान थी, पवित्र आचार, विवेक और आश्चर्य की भूमि थी ।।३।। उन दोनों के अरहन्त मगवान् के चरण-कमलों का र विनाम का ना नि मर गुल्मों के प्रसाद से सरस्वती के प्रवाहशास्त्रों में निर्मल थे ||४|| वह हरिचन्द्र श्रीरामचन्द्रजी के समान भक्त तथा समर्थ लघु भाई लक्ष्मण के साथ निराकुल हो बुद्धिरूपी पुल को पाकर शास्त्ररूपी समुद्र के द्वितीय तट को प्राप्त हुआ था ।५।। पदार्थों की विचित्रता-रूप गुप्त सम्पत्ति के समर्पणस्वरूप सरस्वती के प्रसाद से सभ्यों ने उसे सरस्वती का अन्तिम पुत्र होने पर भी प्रथम पुत्र माना था ।।६।। जो रस-रूस इवनि के मार्ग का सार्थवाह था ऐसे उसी महाकवि ने कानों में अमृत-रस के प्रवाह के समान यह धर्मशर्माभ्युदय नाम का महाकाव्य रचा है ||७|| मेरा यह काव्य निःसार होने पर भी जिनेन्द्र भगवान के निर्दोष चरित्र से उपादेयता को प्राप्त होगा । क्या राजमुद्रा से अंकित मिट्टी के पिण्ड को लोग उठा खठाकर स्वयं मस्तक पर धारण नहीं करते ? ||८॥ समर्थ विद्वानों ने नये-नये उल्लेख अस्ति कर बड़े आदर के साथ जिसकी परीक्षा की है, जो विद्वानों के हृदय-रूप कसौटी के ऊपर सैकड़ों बार खरा उत्तरा है और जो विविध उक्तियों से विचित्र भाव की घटना रूप सौभाग्य का शोभाशाली स्थान है, ऐसा हमारा यह काव्यरूपी सुवर्ण विद्वानों के कर्णयुगल का आभूषण हो ।।९।। यह जिनेन्द्र भगवान् का मत जयवन्त हो, यह दया क्रूरप्राणियों को भी शान्त करे, लक्ष्मी निरन्तर सरस्वती के साथ साहचर्य-प्रत वारण करे, खलपुरुष गुणवान् मनुष्यों में ईर्ष्या को छोड़ें, सज्जन सन्तोष की लीला को प्राप्त हों, और सभी लोग कवियों के परिश्रम को जाननेवाले हों ॥१०॥
। उक्त प्रशस्ति से विदित होता है कि नोमकवंश के कामस्थ कुल में आर्द्रदेव नामक एक श्रेष्ठ पुरुषरत्न थे। उनकी पत्नी का नाम रथ्या था। महाकवि हरिचन्द्र इन्हीं के पुत्र थे। प्रशस्ति के पंचम श्लोक में उपमालेकार के द्वारा इन्होंने अपने छोटे
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