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________________ हे देवि', एक तुम्ही धष्प हो, जिसने कि ऐसा स्वप्नों का समूह देखा । हे पुण्यकन्दलि [ मैं क्रम से उसका फल कहता हूँ, सुनो। तुम इस स्वप्न-समूह के द्वारा गजेन्द्र के समान दानी, वृषभ के समान धर्म का भार धारण करनेवाला, सिंह के समान पराक्रमी, लक्ष्मी के स्वरूप के समान सबके द्वारा सेवित, मालाओं के समान प्रसिद्ध कोतिरूप सुगन्धि का धारक, चन्द्रमा के समान नयनासावकारी कान्ति से युक्त, सूर्य की तरह संसार के जगाने में निपुण, मीनयुगल के समान अत्यन्त आनन्द का धारक, कलशयुमल के समान मंगल का पात्र, निर्मल सरोवर की तरह सम्ताप को नष्ट करनेवाला, समुद्र की तरह मयदिा का पालक, सिंहासन के समान उन्नति को दिखानेवाला, विमान की तरह देवों का आगमन करनेवाला, नागेन्द्र के भवन के समान प्रशंसनीय तीर्थ से युनः, रलों की राशि के समान उत्तम गुणों से सहित और अग्नि की तरह कर्मरूप वन को जलानवाला, त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर पुत्र प्राप्त करांगी सी ठीक ही है क्योंकि व्रत-विशेष शोभायमान जीत्रों का स्वप्नसमूह कहीं भी निष्फल नहीं होता। यद्यपि ग्रह स्वप्नदान का प्रकरण तीर्थंकर-चरित्र का वर्णन करनेवाले अन्य महाकाव्यों में भी आया है तथापि धर्मशाभ्युदय का यह प्रकरण सबसे विलक्षण है। तीर्थकर के गर्भकल्याणक का वर्णन करने के लिए कवि ने पुरा एक सर्ग घेरा है। स्वप्नवर्णन में कवि ने जो अलंकारों की सरस छटा छोटी है वह अन्यत्र दुर्लभ है। १. घर्मदापुदय, सर्ग ५, २२ क ८५-८६ । प्रकीर्णक निर्देश १८३
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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