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________________ इस कवित्वपूर्ण वर्णन के सामने रघुवंश के प्रयोदपा सर्ग में महाकवि कालिदास का समुद्र-वर्णन पौराणिक और वस्सुवर्णन जैसा प्रतीत होता है । विन्ध्यगिरि भारतीय पर्वतों में हिमालय के बाद दूसरा नम्बर विन्ध्यगिरि का है। यह भी भारत के मध्य में पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है। विदर्भ देश को जाते समय युवराज धर्मनाथ ने इस पर्वत पर सेना का पड़ाव किया था। हरी-भरी वृक्षादलो और कालीकाली चट्टानों से इस पर्वत की शोभा निराली थी। कवि की भाषा में यह पर्वत प्राणियों के लिए अगभ्यरूप था अर्थात् वे इसके वास्तविक रूप का दर्शन नहीं कर सकते थे। ____ महाकाव्य के लक्षणानुसार महाकाव्य में कोई एक सर्ग नानावृत्तमय होता है। अतः दशम सर्ग की रचना कवि ने उपजाति, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वसन्ततिलका, पृथ्वी, वंशस्थ, भुजंगप्रयास, द्रुतविलम्बित, दोधक, इन्द्र वंशा, प्रमितामरा, ललिता, विपरीताख्यातकी और शार्दूलविक्रीडित इन चौदह वृत्तों में की है। एक-एक वृत्त के अनेक श्लोक है। समूचे सा, 4 लोक है ! सामा, उता भान्तिमान, स्मासोक्ति, रूपक, विरोधाभास, अर्थापति आदि अनेक अर्थालंकारों तथा अनुप्रास और प्रमुखतया यमक इन दो शब्दालंकारों से समस्त सर्ग को अलंकृत किया गया है। ऐसा लगता है कि यह चिन्मयगिरि का वर्णन पद्यपि शिशुपाल वध के रेवतक गिरि से प्रभावित है तथापि इसकी कोमलकान्त-पदावली और मनोहारी अर्थविन्यास अपना पृथक् स्थान रखता है । भगवान् धर्मनाथ का प्रगाढ़ मित्र प्रभाकर इस पर्वत की सुषमा का वर्णन करता है और भगवान् सतृष्ण नेत्रों से उसे देख रहे हैं । प्रभाकर कह रहा है कि हे प्रभो। यह पृथ्वीधर-पर्वत, किसी राजा के समान जान पड़ता है। यथा अनेकसुरसुन्दरीनयनवल्लमोऽयं दधन् ___ मदान्धघन-सिन्धुरभ्रमरुचिः सहलाक्षताम् । महागहभक्तितो मुकुलिताग्रभास्वत्करः पुरस्तव पुरन्दरद्युतिमुपैति पृथ्वीधरः ॥१७॥ यह पृथ्वीछन्द है तथा पृथ्वी का नाम इसमें आया हुआ है । श्लोक का अर्थ इस प्रकार है यह पर्वत आपके आगे ठीक इन्द्र की शोभा धारण कर रहा है क्योंकि जिस प्रकार इन्द्र स्वामी होने के कारण समस्त देवांगनाओं के नेत्रों को प्रिय है उसी प्रकार यह पर्वत भी सुरतयोग्य सुन्दर स्थानों से युक्त होने के कारण देवांगनाओं के नेत्रों को प्रिय है--आनन्द देनेवाला है 1 जिस प्रकार इन्द्र मदोन्मत्त मेघरूपी हाथी द्वारा भ्रमण करने की अभिलाषा रखता है उसी प्रकार यह पर्वत भी मदोन्मत्त अत्यधिक हाथियों के भ्रमण की अभिलाषा से युक्त है-इसपर मदोन्मत्त हाथी घूमने की इच्छा रखते हैं। वर्णन १४१
SR No.090271
Book TitleMahakavi Harichandra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Sahityacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages221
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size4 MB
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